दूधनाथ सिंह की कहानी 'नपनी'
भारत में लड़की की शादी करना असम्भव को सम्भव कर दिखाने जैसा है। सबसे पहले जो प्रक्रिया होती है वही त्रासद होती है। लड़की के परिवार वालों के लिए तो यह त्रासद होती ही है, यह लड़की की कड़ी अग्नि परीक्षा होती है। एक लड़की को ऐसी तमाम अग्नि परीक्षा से हो कर गुजरना पड़ता है। लड़का पक्ष चाहें जितना विपन्न या कुरूप हो, लड़की के बारे में वह तमाम ऊल जलूल अपेक्षाएं साधिकार करता है। लड़की का रंग ऐसा हो, लड़की की आंखें ऐसी हों। लड़की की ऊंचाई इतनी हो। लड़की सुसंस्कृत हो। लड़की शर्माती हो। आदि आदि... ...। इस समय ऐसे ऐसे पैमाने सामने आ जाते हैं जिसको सुन कर केवल अफसोस ही व्यक्त किया जा सकता है। ये सारे पैमाने, सारी अपेक्षाएं केवल लड़कियों के लिए ही होते हैं, लड़कों के लिए कहीं कोई पैमाना नहीं। 'नपनी' कहानी के माध्यम से कहानीकार दूधनाथ सिंह ने जो व्यंग्य रचा है वह अद्भुत है। आज दूधनाथ जी का जन्मदिन है। जन्मदिन पर पहली बार की तरफ से हम दूधनाथ जी की स्मृति को सादर नमन करते हैं। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं दूधनाथ सिंह की कहानी 'नपनी'।
नपनी
दूधनाथ सिंह
कार स्टार्ट होते ही पिता जी ने पुत्र को आदेश दिया कि वह ट्रांजिस्टर बंद कर दे - `ये सब रद्द फद्द सुनने की क्या जरूरत है? कोई समाचार है। वे लोग क्या कर रहे हैं और कौन क्या बक रहा है, इससे हमें क्या मतलब? बेफालतू।' उन्होंने भुनभुना कर कहा।
लड़के ने उनके चढ़े हुए तेवर देखे तो ट्रांजिस्टर बंद कर दिया। 'वैसे मैं गाना सुनने जा रहा था।' उसने सफाई दी।
'गाना फाना खाने को दे देगा?' पिता जी ने घुड़की दी। उन्होंने पीछे मुड़ कर देखा। उनकी पत्नी, बेटी और बड़े बेटे के दो बच्चे। बच्चों ने बाबा को घूरते देखा तो वे सिटपिटा गये।
'और वो नपनी कहाँ है?' पिता जी ने पूछा।
लड़के ने बताया कि नपनी और अधिकारी जी और चपरासी पीछे वाली कार में हैं।
'भागलपुर कितने मील है?' पिता जी ने पूछा।
उनको बताया गया कि भागलपुर कितनी दूर है।
पिता जी ने जेब से एक मैला कुचैला पर्स निकाला, खोल कर देखा और दस दस रुपये के नोट गिने।
'गुंडा टैक्स कितनी जगह देना पड़ेगा?' पिता जी ने ड्राइवर से पूछा।
'जहाँ जहाँ ईंट पत्थर, बाँस बल्ली का अड़ार लगा होगा, वहाँ वहाँ।' ड्राइवर ने आगे सड़क देखते हुए कहा।
'और कितना कितना?' पिता जी ने पूछा।
'जितना बड़ा गुंडा उतना ज्यादा टैक्स।' ड्राइवर बोला।
पता चला, कोई हिसाब नहीं है।
'लेकिन हमें तो हिसाब रखना पड़ेगा। लड़की के पिता से वसूलना होगा। हम क्यों भुगतें?' पिता जी ने कहा।
'वो तो है साहब।' ड्राइवर ने कहा।
'और बाकी सब कैसे होगा, सब याद है न?' पिता जी ने अपने बेटे से पूछा।
बेटे ने नत और आज्ञाकारी पुत्र की तरह हामी भरी।
'तुम अब एक अफसर हो। तुम्हारी पोजिशन है। तुम्हारा अब एक मोल है। जब तक झख मारते रहे और उन हरामजादे परीक्षकों और मेंबरों की दया पर रहे तब तक बात और थी। अब और है। और इस समाज से बदला लेने का यही समय है। ये नहीं कि लड़की देखते ही लट्टू हो जाओ और लार टपकाने लगो। तुम्हारी आदतें पहले भी अच्छी नहीं थीं लेकिन अब तुम एक अफसर हो। और मैं किसी भभके में नहीं आने का। ये सब बड़े चीटर काक होते हैं। फूँक फूँक कर कदम रखना और ही ही ही ही मत करने लगना। और कोई पोलिटिकल बहस नहीं। ये पोलिटिक्स का खेल मैं खूब समझाता हूँ। सब अपना घर भरे बैठे हैं और दूसरों को रामराज्य का उपदेश देते हैं। अपना अपना गाल चमकाना दुनिया की रसम है। अभी तुम नहीं जानते। जब सीझोगे तो जानोगे। अभी तुम्हारी चमड़ी पतली है, चरपरायेगी। अभी तुमसे यही डर है कि मौके पर दुम दबा लोगे। संकोच और लिहाज तुम्हारे चेहरे पर चढ़ बैठेगा। और लड़की का बाप एक छोटा मोटा नेता है, कम्युनिस्ट पार्टी का एम. एल. ए. है। तो दूर की हाँकेगा जरूर। सादगी दिखायेगा। अति विनम्र बनेगा। हमें बातों में फँसायेगा। ये सब चाल होगी। सारी बड़ी बातें इस दुनिया में चालबाजी के लिए होती हैं। इन्हीं बातों में फँसा कर वह लड़की पर से ध्यान हटाने की कोशिश करेगा। बना छना के लायेगा। पोता पाती काफी होगी। उसके भरम में नहीं फँसना होगा - समझे कि नहीं?' पिता जी ने गर्दन टेढ़ी कर के अपने अफसर पुत्र को देखा। पुत्र ने कनखियों से देख कर हामी भरी।
'जब हम फँसे थे तब कोई पसीजा? वो प्रेमलता का ससुर साला! कुंडली माँगी। कुंडली दी तो तीन महीने दौड़ाता रहा। थाह लेता रहा जब उसे लगा कि जोग नहीं बैठेगा तो कहता है, लड़की की कुंडली में संतान योग ही नहीं है। और जब उसके मुँह पर कड़क नोट मारा मैंने, जब उसके भगंदर में पाँच लाख ठोंसा तो संतान योग हो गया। अब कहाँ से प्रेमलता चार चार संतानों की जनमदात्री हो गयी। मर मर के कमाया था मैंने। दो दो रुपये तक पकड़ता था। सारा फंड निकल गया। खुंख्ख हो गया मैं। ...तो अब मेरे को भी भगंदर है। मैं भी बदला लूँगा। तुम समाज हो तो जैसा मेरे साथ सलूक करते हो वैसा मैं भी करूँगा। सठे साठ्यं... या जो भी कहते हैं।' पिता जी ने ड्राइवर की ओर देखा।
'अभी गुंडे लोग नहीं आये?' उन्होंने ड्राइवर से पूछा।
'आयेंगे साहब।' ड्राइवर ने कहा।
'और एक बात और...।' पिता जी ने अपने पुत्र को देखा।
पुत्र जी चुप!
'अगर बिलरंखी होगी तो रिजेक्ट।' पिता जी ने कहा।
'क्यों?' लड़के ने साहस किया।
'बिलरंखी पोस नहीं मानती।' पिता जी ने कहा।
'क्या मतलब?'
'कुछ भी मतलब नहीं।' पिता जी चिढ़े।
'अब चुप भी रहो।' पीछे से पत्नी ने कहा।
'और रंग भी गौर से देखना होगा।' पिता जी ने कहा।
'तो तुम तो हो ही।' पत्नी बोलीं।
'अरे भाई, उसमें बड़ा छल प्रपंच होता है। सुना है कि ऐसे ऐसे नाऊ हैं कि ऐसा पोत पात देंगे कि आपको असली कलर का पते नहीं चलेगा।' पिता जी ने कहा।
इस पर पीछे जवानी की ओर बढ़ती उनकी लड़की हँसी।
'ए बुचिया, तुम तो पहचान लोगी?' पिता जी ने पूछा
'हाँ पिता जी।' लड़की ने कहा।
'और दुल्हन की लंबाई कितनी है बायोडाटा में?' पिता जी ने पूछा।
'पाँच फीट छह इंच।' उनकी लड़की ने कहा।
'और नपनी कितनी है?' पिता जी ने फिर पूछा।
'पाँच फीट तीन इंच।' उनकी बेटी बोली।
'तो अंदाजा रखना होगा कि जब नपनी के बराबर खड़ी हो तो दुल्हन तीन इंच ऊपर लगे।' पिता जी ने कहा।
'और एकाध खाना कम हुई तो साहेब!' ड्राइवर ने मजा लिया।
'कम कैसे हो जायेगी?' पिता जी ने अचंभा प्रकट किया।
'हाँ साहेब, पहले ही देख भाल लेना ठीक होता है।' ड्राइवर फिर शामिल हुआ।
'और कोई बक झक नहीं। वो उत्तर प्रदेश में क्या हो रहा है, हमें क्या मतलब? हम घरबारी लोग हैं। किसी तरह जान बचा कर जिंदा हैं। हमें पोलिटिक्स की डिमक डिम पर कमर नहीं मचकानी।' पिता जी चुप हो गये।
सड़क पर पेड़ की एक लंबी हरी डाल आड़ा तिरछा करके रखी थी और चार लोग गाड़ी रोकने के लिए हाथों से इशारा कर रहे थे। पिता जी ने फट से पर्स निकाला। उसमें से दस रुपये का एक नोट अलग मुट्ठी में। और कुछ दस दस रुपये के और नोट दूसरी जेब में। फिर पर्स अंदर चोरिका जेब में। 'और जगह देना पड़ेगा तो बार बार पर्स निकालना ठीक नहीं रहेगा। कहीं पर्सवे झपट लिये सारे तब?' पिता जी ने सोचा। दोनों गाड़ियाँ आगे पीछे खड़ी हो गयीं। पिता जी फाटक खोल कर बाहर निकले।
'कहिए?' पिता जी ने दस रुपये का नोट मुट्ठी में दबाये हुए पूछा।
'टैक्स।' उनमें से एक ने कहा।
'टैक्स?' पिता जी ने अचंभा व्यक्त किया।
'चंदा।' उनमें से किसी और ने कहा।
'किस पार्टी का चंदा?' पिता जी ने पूछा।
'कांग्रेस, कम्युनिस्ट, बी.जे.पी... जो भी समझो।' किसी ने कहा
'ओ... तो आप लोग पोलिटिक्स खेलते हैं।' पिता जी ने मुस्कुराते हुए कहा।
'गांडू है का जी?' एक लड़का बोला।
पिता जी ने दस रुपये का नोट उसके हाथ पर रख दिया। लड़के ने घूर कर देखा। नोट को चोंगिआया, उसमें थूका और पिता जी को वापस पकड़ाने लगा।
'ये क्या है?' पिता जी सहमे।
'तुम्हारा माल अपने माल के साथ तर करके वापस। ...साले घूसखोर, कितना हजम किया है?'
लड़के ने थूक सहित नोट पिता जी के चेहरे को लक्ष्य करके फेंका।
पिता जी तिरछे हो कर बचे।
'कहाँ घर है?' एक दूसरे लड़के ने पूछा।
'डुमरांव।' पिता जी ने झटपट जवाब दिया।
'राजा का बुढ़वा झरेला है साला!' दो लड़के आपस में हँसे।
'आज का दिन ही असगुनी है।' पिता जी बोले।
'क्या बोला?'
'आप लोगों को नहीं।' पिता जी ने झट से बात बदल दी।
'छछंद करता है! लूटता है साले... सरकार को और जनता को! माल जमा करता है! दो दो ठो गाड़ी ले कर चलेगा और फिलासफी झाड़ेगा?'
पिता जी हाँ ना में मुस्किया दिये।
'ये हरी डाल देखता है नीचे से डाल कर ब्रह्मांड से निकाल देंगे।' एक लड़का बोला।
'नहीं भइया, मैं तो आप लोगों को देख कर खुश हुआ।'
'खुस हुए?'
पिता जी फिर हाँ ना में मुस्कुराये।
'अबे, फट जायेगी, पैसे निकाल।' उस लड़के ने डपटा
'कितने साहब?' ड्राइवर ने बाहर निकल कर पूछा।
'दो गाड़ियों का सत्तर।'
ड्राइवर ने अपनी जेब से पैसे निकाल कर पकड़ा दिये।
'वो नोट उठा लो पंडित जी, और अपने त्रिपुंड कर चिपका लो' लड़का पीछे खड़ी दूसरी गाड़ियों की ओर बढ़ गया।
इस तरह चार पाँच जगहों पर टैक्स चुकाते पिता जी एंड पार्टी भागलपुर पहुँची। हिसाब रखना - पिता जी ने ड्राइवर से कहा और कार से नीचे उतरे। होटल चिकना चुपड़ा था और सड़क गुलजार थी। पता लगा, उनके होने वाले समधी साहब ने क्षमा माँगी है। वे एक जुलूस में हैं और इसीलिए अगवानी को नहीं आ सके। अभी आते ही होंगे। कमरों में सामान और बाल बच्चों को पटकते हुए पिता जी भुनभुनाये, 'सब समझता हूँ, सब। तो करो, जो मन में आये। भुगतोगे। अब हम आ रहे थे, ये तो पता था? तब जुलूस में जाना ज्यादा जरूरी था कि हम? शुरू में ही ये खेला है तो आगे तो पूरी नौटंकी होगी। तुम देश का भाग्य पलट दोगे? कम्यूनिस्टों का पुराना मुगालता है। चार ठो चने के बराबर हैं और पुक्का फुलाते हैं कि हम ही पूरा कंट्री हैं। अरे, तुम्हारी चाँद निकल आयी, मुँह सुखंडी हो गया लीडरी करते, जिंदगी गारत हो गयी, कै ठो रिभोलूशन हुआ? एक ठो टेल्ही पड़ी है घर में बिन बियाहे और तुम लाल झंडे को सलामी देने गये। दस ठो साले चोर चिकारों से बचते बचाते, जान पर खेल कर पहुँचे हियाँ तक और लीडर लाल गायब तो हम भी गायब हो जायेंगे। गायब हो जायेंगे हम भी...।' पिता जी ने हाथ से गायब होने का इशारा किया।
'ए नपनी, इधर सुन तो।' उन्होंने जोर से आवाज दी।
नपनी पास आ कर खड़ी हुई - एक साँवली सी, दुबली सी, मरी मरी लड़की।
'तुम्हें भइआ ने फीते से ठीक से नापा था न?' पिता जी ने पूछा।
नपनी ने 'हाँ' में सिर हिलाया।
'नापते वक्त ऊँची हील तो नहीं पहनी थी?'
'नहीं।' नपनी ने सिर नीचा किये किये कहा।
'अभी तो पहनी हो।' पिता जी ने नपनी के पैरों की ओर देखा।
नपनी कुछ नहीं बोली।
'उपधिया जी खाना वाना नहीं देते क्या?' पिता जी ने नपनी की कृश काया पर एक नजर डाली।
नपनी फिर भी चुप रही।
'जरा ऊपर आँख कर तो।' पिता जी एकाएक चौकन्ने हुए।
नपनी ने आँखें ऊपर उठायीं।
'सीधे मेरी ओर देख।' पिता जी ने कहा।
नपनी ने देखा।
'ये तो बिलरंखी है ए भाई।' पिता जी उठ कर टहलने लगे।
'ओके हैरान करे से फायदा?' पिता जी की पत्नी ने अंततः कहा।
'हैरान?' पिता जी ने तरेर कर देखा।
'अउर का! तब से नपनी नपनी! जाओ बेटी!' पिता जी की पत्नी ने नपनी से कहा।
नपनी तेजी से दूसरे कमरे में भाग गयी और पिता जी की बेटी के कंधों से लग कर रोने लगी।
'इसी से कहता हूँ, इसी से', पिता जी चिड़चिड़ाये, 'औरतों के कपार में बुद्धी नहीं होती। ब्रह्मा ने दिया ही नहीं। आचमनी भर होती है, बस। एक तो बिलरंखी, ऊपर से रोयेगी। इसीलिए लुटते आये रास्ते भर।' पिता जी सोफे में धँस गये।
'एक तो उपधिया जी ने लड़की को भेजा, दूसरे रास्ते भर 'ए नपनी, ए नपनी'। जिसको देखो वही।' पत्नी उठ कर वाश बेसिन की ओर चली गयीं।
थोड़ी देर में दीक्षित जी अपने 'अमले फैले' के साथ पधारे। यह शब्द बालकनी से झाँकते हुए पिता जी का था। दीक्षित जी ने साथियों को नीचे से विदा किया और लिफ्ट से ऊपर आये। उन्होंने पिता जी को हाथ जोड़े। पिता जी ने जवाब में हल्का-सा सिर हिलाया।
'माफी चाहता हूँ पंडित जी, दरअसल एक जुलूस में था।' दीक्षित जी ने कहा।
'आज ही जरूरी था?' पिता जी ने कहा।
'आज का मसला था तो आज ही प्रोटेस्ट होना चाहिए न।' दीक्षित जी बोले।
'प्रोटेस्ट... हं हू।' पिता जी ने मूड़ी झटकी।
'ठीक से पहुँच गये थे न?' दीक्षित जी ने पूछा।
'ठीक से? अरे ये कहिए, जान बच गयी।'
'ओह... तो वह तो ड्राइवरों को मालूम था।' दीक्षित जी बोले।
'यानी आप जानते हैं? और नेता हैं?' पिता जी की भौहें तन गयीं।
'गरीबी... बेरोजगारी... और अनिश्चित भविष्य, साथी... बहुत सारे कारण हैं।' दीक्षित जी ने क्षमा प्रार्थना के भाव से कहा।
'साथी कौन?' पिता जी बोले।
'वह 'आदतन।' मुझे 'पंडित जी' कहना चाहिए था। अब क्या करूँ, पनरह साल की उमर से पार्टी में हूँ। संस्कार बन गया है।' दीक्षित जी बोले।
'क्या होगा ऐसी पार्टी में रह कर?' पिता जी ने कहा।
'क्या होगा, माने?' दीक्षित जी चौंके।
'क्या होगा माने क्या होगा।' पिता जी हँसे।
'दरअसल हमारे विचार मेल नहीं खाते।' दीक्षित जी बोले।
'विचारों के नाम पर कुछ लोग जिंदगी भर गुमराह रहते हैं दीक्षित जी।' पिता जी ने ब्रह्म वाक्य फेंका।
'और विचारों के बिना भी।' दीक्षित जी बोले।
'दोनों ही चोर हैं।' पिता जी ने कहा।
दीक्षित जी हँसे, क्योंकि वे केवल हँस ही सकते थे। लेकिन पिता जी भी हँसे।
'सुना आपकी तरफ दूल्हों की चोरी बहुत होती है?' एकाएक पिता जी ने पूछा।
'चोरी?' दीक्षित जी कुछ समझे नहीं।
'अगर कोई लड़का अफसर हुआ तो उसकी जान खतरे में है। सुना है लिस्ट लिए रहते हैं। टोह में रहते हैं। और ये रणवीर सेना वाले उनकी मदद भी करते हैं। जैसी पोस्ट वैसा मेहनताना। कलक्टर हो तो पाँच लाख - सुनते हैं। यह तो उठाने का। और माँ बाप एतराज करें तो मार दो। और यह भी तो हो सकता है कि किसी लूली लँगड़ी से ब्याह दें। ब्याह दें तो हो चुकी सुहागरात...।' पिता जी इस बखान के बाद चुप हो गये।
'आप बहुत सीधे हैं पंडित जी।' दीक्षित जी ने हँसते हुए कहा।
'वह तो मैं हूँ ही। मैंने इसलिए बात उठायी कि हम लोग निशाने पर तो नहीं हैं?' पिता जी ने कहा।
'अगर आपको इस तरह का ऊलजुलूल संदेह था तो मुझे बुला लेते।' दीक्षित जी थोड़ा व्यथित हुए।
'मेरा भी बेटा अफसर है।' पिता जी ने लड़के की तरफ देखते हुए कहा।
'हमारे तो पाहुन हैं पंडित जी।' दीक्षित जी ने लड़के पर एक नजर डाली।
'और ई लंका पर टाँग दिये हैं न, इसी से शक हुआ। उतर के भागेंगे भी कहाँ।' पिता जी ने कहा।
दीक्षित जी कहना चाहते थे 'ओफ्!', लेकिन बोले, 'अच्छा चलता हूँ।' और लड़की और पत्नी को भेज देता हूँ। वैसे तो घर ही पर ठीक रहता, लेकिन जब आप होटल में ही चाहते थे तो...। मेरी एक मीटिंग है। आगे आपकी दया पर है।' दीक्षित जी ने हाथ जोड़े।
'आपकी कोई जरूरत भी नहीं। आप रहेंगे तो बेटी शर्मायेगी।
' पिता जी ने कहा।
दीक्षित जी ने विदा ली।
करीब घंटे भर बाद दीक्षित जी की पत्नी अपनी बेटी और उसकी सहेली के साथ आयीं। पिता जी की पत्नी ने डरते डरते, शक की नजर डालते हुए उनका स्वागत किया। दुल्हन ने प्रणाम किया तो पिता जी ने छिः छिः भाव से जैसे कहा, 'ठीक है, ठीक है।' लड़की एक कुर्सी पर स्थापित कर दी गयी। उसकी सहेली उसके पीछे कुर्सी पकड़ कर खड़ी हो गयी। दोनों महिलाएँ एक सोफे पर। अफसर वर और उसकी बहन और दोनों छोटे बच्चे एक लंबे सोफे पर दुल्हन के आमने सामने। दोनों बच्चे दुल्हन को टुकुर टुकुर। पिता जी का ध्यान सबसे पहले दुल्हन के पैरों यानी उसके सैंडिल पर गया। उनका सिर षड्यंत्र को सूँघता हुआ हिला और उन्होंने बारी बारी से अपने पुत्र और पत्नी को देखा और इशारा किया।
'इस बार कितने में तय हुआ?' अधिकारी जी पिता जी के कानों में फुसफुसाये।
'छह लाख, एक गाड़ी और ब्याह का सारा खर्चा वर्चा।' पिता जी भी उसी तरह अधिकारी जी के कानों में फुसफुसाये।
'कामरेड है, देगा कहाँ से?' अधिकारी जी
'कामरेड है तो भक्खर में जाये।' पिता जी।
'तय करने के पहले सोचते।' अधिकारी जी।
'यह काम उसका था। और जो ट्रेड यूनियन का चंदा वसूलता है वह?' पिता जी।
'कम्युनिस्ट लोग ऐसे नहीं हैं।' अधिकारी जी।
'तुम साले गधे हो।' पिता जी।
'खच्चर से ही तो गधे की दोस्ती होगी।' अधिकारी जी।'
पिता जी ने खुश हो कर अधिकारी जी का हाथ पकड़ लिया। मुँह फाड़ कर हँसने का अवसर नहीं था। बेटा दुल्हन का 'साक्षात्कार' ले रहा था और वह लजा रही थी। जब भी वह शरमा कर चुप होती और सिर नीचा कर लेती तो अफसर जी थोड़ा चटखारे के साथ मेहरा कर बोलते, 'इरे, जरा सीधे ताकिये न।' इस पर लड़की और शरमा जाती। तब पीछे खड़ी उसकी सहेली उसके कंधों को छू कर बार बार दिलासा देती। ...लेकिन पिता जी अधिकारी जी के साथ बैठे हुए एक आँख और एक कान से यह भी ताड़ रहे थे कि उनका बेटा कहीं लस तो नहीं रहा है।
'नपनी कहाँ है?' पिता जी ने एकाएक पूछते हुए अपनी पत्नी की ओर देखा, 'उसका नाम क्या है?' पिता जी को पहली बार ध्यान आया कि उसका कोई और नाम भी होगा।
'पारमिता।' पिता जी की पत्नी ने कहा।
'उपधिया ससुर।' पिता जी ने ठसका लगाया, 'घर में भूजी भाँग नहीं और नाम रखा है पारमिता! है कहाँ?' पिता जी ने अपनी पत्नी को देखा।
'उस कमरे में।'
पारमिता सिर नीचा किये कमरे में आयी, जैसे उसी को दिखाया जा रहा हो। दुल्हन की माँ पिता जी को लगभग घूर कर देख रही थीं, किस तरह 'नपनी' का नाम जानने के बाद उन्होंने उसके बाप के लिए अपमानजनक शब्दों का व्यवहार किया। पिता जी ने अपनी होने वाली समधिन की टेढ़ी आँख भाँप ली।
'अइसे जानिए' पिता जी समधिन की ओर मुखातिब हुए, 'कि नपनी बोलने की हमें कइसे आदत पड़ी। इसके पिता जी जो हैं न, तो एक सेर उसिना चाउर का भात सुबहे सुबह खाते हैं। तो जब यह लड़की छोटी थी तभी से धइली में से अँजुरी अँजुरी चाउर निकालती थी। इसकी अम्मा को इसकी अँजुरी से ही अंदाजा हो गया था। आठ अँजुरी। तो उपधिया जी कहते थे, ये मेरी नपनी है। मेरे भोजन का चाउर नापती हैं और कोई नापता है तो घट बढ़ जाता है। ...तो हमको भी इसीलिए नपनी नपनी बुलाने की आदत पड़ गयी।' पिता जी ने अपने उजले दाँत दिखा दिये।
नपनी ने क्रोध से आगबूबला होते हुए पिता जी को देखा।
उनकी पत्नी भी कथन की इस शैली और पिता जी की कल्पना शक्ति यानी झूठ बोलने की अनायास क्षमता पर हैरान रह गयीं। अधिकारी जी को लगा कि उनका दोस्त तो किसी को भी पदा सकता है।
'बंद करो बेटे, आवाज सुन तो ली। और क्या इंटरव्यू लेना है। और हटो वहाँ से।' पिता जी ने कहा।
अफसर बेटा उठा और दूसरी ओर जा कर एक सोफे पर बैठ गया।
'बेटी, अपनी सैंडिल उतार दो तो।' पिता जी ने दुल्हान से कहा।
लड़की ने कुछ यों देखा, जैसे समझी न हो।
'सैंडिल।' अफसर बेटे या पति होने को आतुर नौजवान ने लड़की से उतारने का इशारा किया।
लड़की का साँवला चेहरा ताँबई हो गया। वह लगभग काँपती हुई सैंडिल उतारने लगी।
'और तुम कुर्सी के पीछे से हटो तो।' पिता जी ने दुल्हन की सहेली को सख्त लहजे में इशारा किया।
'क्यों?' अधिकारी जी ने पिता जी के कानों में फुसफुस किया।
'देख नहीं रहे हो बैकग्राउंड में एक करिया भुचंग को खड़ा कर दिया है जिससे नेता जी की लड़की कुछ कम काली लगे। खड्यंत्र समझता हूँ मैं।' पिता जी ने फुसफुस किया।
दुल्हन की सहेली पीछे से हट कर दीक्षित जी की पत्नी के बगल में बैठ गयी।
'खड़ी हो जा बिटिया!' पिता जी ने दुल्हन से कहा। लड़की खड़ी हो गयी।
'नपनी, बगल में जाओ तो।' पिता जी बोले। नपनी जा कर दुल्हन के बगल में खड़ी हो गयी।
'बराबर से।' पिता जी किसी बढ़ई की तरह बोले जो सूत से सूत मिला रहा हो।
सबने देखा। पिता जी ने अपनी पत्नी, पुत्री और अधिकारी जी को।
अधिकारी जी भी मापने वाली नजरों से दखते रहे।
'झुट्ठा।' पिता जी ने अधिकारी जी के कान में कहा, 'नपनी के बराबर है।'
'पारमिता बेटी, वाश बेशिन पर बिटिया को ले जाओ और मुँह धो दो।' पिता जी ने कहा।
'अब क्या करोगे?' अधिकारी जी पिता जी के कान से लगे।
'धोखा।' पिता जी बोले।
'अरे, धोखा तो है लेकिन मना कैसे करोगे?'
'कर देंगे।' पिता जी फुसफुसाये।
'कैसे?
'कई बार जैसे करे हैं।'
अधिकारी जी थोड़ा चिढ़ से अपने दोस्त को देखने लगे।
'कह देंगे, आपकी बेटी की कुंडली में संतान योग ही नहीं है।' पिता जी फुसफुसाये।
अधिकारी जी ने पिता जी को भयग्रस्त नजरों से देखा।
पिता जी ने अधिकारी जी के कंधों पर एक धौल जमाया।
पारमिता (यानी नपनी) ने दुल्हन का हाथ पकड़ा और उसे बाथरूम की ओर वाश बेसिन पर ले गयी।
'मैं धो लूँगी।' लड़की ने मुँह पर छींटे मारते हुए कहा।
वह अपना आँसू और अपना गुस्सा साथ साथ धो रही थी। तौलिये से मुँह पोंछने पर भी उसके आँसू थम नहीं रहे थे। आँखें एकदम सुर्ख थीं। उसने पारमिता की ओर देखा जो पास ही खड़ी थी।
'तुम अब पहले से ज्यादा सुंदर दिख रही हो।' पारमिता ने कहा।
लड़की आँसुओं में मुस्कुरायी। फिर सकपका गयी। उसने देखा, पारमिता भी रो रही थी।
'तुम क्यों रो रही हो?' दुल्हन ने कहा।
'तुम इस आदमी के मुँह पर एक तमाचा जड़ नहीं सकती?' पारमिता ने कहा।
'सच!' दुल्हन पास आ गयी। पारमिता ने सिर हिलाया, जैसे वही दुल्हन हो।
लड़की फिर शीशे के सामने चली गयी। उसने अपने जूड़े से पिन निकाले और बाल बिखरा दिये। दुपट्टे को लापरवाही से कंधे पर इधर उधर फेंका, बाथरूम से बाहर आयी। सभी लोग उसे हैरान परेशान देखते रहे। पारमिता एक कोने में दुबक गयी। लड़की की माँ उठ कर खड़ी हो गयीं। 'यू आर एन ईडियट।' लड़की ने पिता जी के गाल पर एक जोर का तमाचा जड़ा और धड़धड़ाती हुई सीढ़ियाँ उतर गयी।
'बिलरंखी थी।' पिता जी ने लौटते हुए कार में अधिकारी जी से कहा।
'शायद।' अधिकारी जी हँसे,,,,,,
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
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