भरत प्रसाद के उपन्यास पर सुनील कुमार शर्मा की समीक्षा 'छात्र राजनीति की निस्सारता'

 




कम रचनाकार ही ऐसे होते हैं जो एक साथ साहित्य की विविध विधाओं में एक साथ साधिकार लेखन करते हैं। भरत प्रसाद ऐसे ही रचनाकार हैं जिन्होंने की विविध विधाओं में स्तरीय लेखन किया है। कविता, कहानी, उपन्यास, आलोचना, संस्मरण जैसी विधाओं में वे लगातार आवाजाही करते रहे हैं। हाल ही में उनका एक नया उपन्यास 'काकुलम' प्रकाशित हुआ है। इस उपन्यास की एक समीक्षा लिखी है कवि आलोचक सुनील कुमार शर्मा ने। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं भरत प्रसाद के उपन्यास काकुलम पर सुनील कुमार शर्मा द्वारा लिखी गई समीक्षा 'छात्र राजनीति की निस्सारता'



'छात्र राजनीति की निस्सारता'  

                                                         

सुनील कुमार शर्मा 

                       

कोई भी साहित्यिक कृति सामजिक जीवन से अलग हो कर सार्थक नहीं बन सकती। साहित्यकार की निजी विचारधारा सामाजिक परिवेश से प्रेरित एवं प्रभावित रहती है। आधुनिक जीवन के जटिलतर यथार्थ कि अंदरूनी हकीकतों को उसकी पूरी जैविकता के साथ संप्रेषित करने की क्षमता, साहित्यिक विधाओं में उपन्यास को प्राप्त है। सद्यः प्रकाशित उपन्यास 'काकुलम' भरत प्रसाद का पहला उपन्यास है। हालाँकि भरत प्रसाद जी अपनी कविताओं और अपनी आलोचना दृष्टि से साहित्य में सक्रिय भूमिका का निर्वहन एक लम्बे समय से कर रहे। भरत प्रसाद साहित्य की अधिकतर विधाओं में अपनी लेखनी चला चुके हैं। उनके कहानी संग्रह भी बहुत पहले प्रकाशित हो चुके हैं। उपन्यास विधा में भरत प्रसाद का यह पहला प्रयास है। गद्य साहित्य में ‘का गुरु’ कहानी एक दशक पहले बहुत चर्चित हुई थी।

           


स्वतंत्रता के बाद, संस्कृति के नाम पर नये मूल्यों व मान्यताओं की स्थापना होने के कारण भारतीय संस्कृति में बिखराव आया है। जीवन के समस्त-विकास के लिए पाश्चात्य देशों की संस्कृति के अन्धानुकरण और विकास की अंधी दौड़ के चलते आज भारतीय सांस्कृतिक दृष्टि में पिछड़ापन आया है। भारत की वर्तमान संस्कृति न देश की है, न विदेश की, उसे एक 'बेमेल खिचड़ी' मानना ही उपर्युक्त होगा। शिक्षा जगत भी इससे अछूता नहीं रहा है। पाश्चात्य सभ्यता को फैशन और आधुनिकता का नाम दे कर अधिकांश स्वतंत्र भारतीय बौद्धिकों ने अपनाया जो धीरे-धीरे सामान्य जनमानस के स्तर तक बढ़ता गया। आज यह सांस्कृतिक विघटन भारतीय परिवार की नींव तक को उजाड़ने में सक्षम बन गया है। परिवेश में फैलता मीठे ज़हर की तरह पाश्चात्य चिन्तन व्यक्ति को किसी निर्णय पर न पहुँचा कर छोड़ देता है। फलस्वरूप, व्यक्ति अपने चिन्तन, अपनी माटी और संस्कृति से कटता हुआ, दिखावटी चेहरा लिए हुए और नकली व्यवहार का प्रयोग करता हुआ अपने को रहस्य के आवरण में छुपाना चाहता है। पश्चिम से उधार ली हुई आधुनिकता का प्रभाव पारिवारिक विघटन के रूप में शुरु हो कर सामाजिक विघटन में स्पष्ट होता जा रहा है। भरत प्रसाद इन स्थितियों को देख कर चिन्तित है और वे छात्र जीवन के मार्फ़त गांव देश से शुरू कर विश्वविद्यालय की राजनीति को विश्लेषित करते है अपने उपन्यास 'काकुलम' में।

                                


इस उपन्यास को पिछले सालों में उन्होंने टुकडो टुकडो में कहीं कहीं प्रकाशित किया था। तभी से एक जिज्ञासा थी इसके प्रकाशित होने की। अब यह पाठकों के हाथ में है तो इस पर बातचीत लाज़मी हैं। भरत प्रसाद के पूर्व प्रकाशित कथा साहित्य पर नजर डालें तो हम पाते हैं कि उनकी दृष्टि शोधपरक और विश्लेषणात्मक है। वो इस उपन्यास में भी दिखाई पड़ती है। उपन्यास के शीर्षक के साथ उन्होंने जोड़ दिया है ‘युवा सपनों की उड़ान की मुक्ति गाथा’। हालाँकि पढ़ते हुए हम पाते हैं कि इसमें मुक्ति से ज्यादा युक्ति है, मुक्ति गाथा के बजाय सिर्फ गाथा रहता तो वह ज्यादा उपयुक्त लगता। गाथा शब्द अपने में बहुत विस्तार लिए हुए होता हैं, इसमें सब समाहित हो जाता है।

           


उपन्यास की शुरुआत होती है नायक के गांव से। यहाँ भरत जी ने नाटकों की भांति नायक का वर्णन सूत्रधार की तरह कराते है। और यह सिलसिला लम्बा चलता है। नायक धवल के पूरे परिवार से आपको लेखक इसी माध्यम से मिलवा देता है। नायक के पिता अचल जी जो कि प्राइमरी के शिक्षक है उनको आप एक सहृदय पिता के रूप में पाते है जो कि अपनी छोटी सी गृहस्थी को बड़े सपनो के साथ चला रहे, उनकी उम्मीद नायक धवल है जो कि उपन्यास के शुरुआत में ही हाईस्कूल की परीक्षा पास कर चुका है। और आगे की पढ़ाई के लिए कालेज में दाखिला लेने जा रहा है। उसकी पढाई का खर्च और घर का खर्च ये सब लेखक ने बहुत यथार्थ तरीके से रचा है जिससे हर मध्यवर्गीय परिवार रोज दो चार हो रहा है -  “तीन सौ धवल की  फीस में नौ सौ साइकिल में, सौ-दो सौ पुलक के एडमिशन में। अब छ में जाएगा ना!”

    

यह खर्च जोड़ना मध्यवर्गीय परिवार के जीवन का अनिवार्य हिस्सा है। लेखक ने धवल के परिवार के साथ साथ गावं की राजनीति समाज का भी थोडा रूप दिखाया है। हालाँकि उसका अंश बहुत कम है। कालेज का जीवन भी इस उपन्यास में है हालाँकि इंटरमिडीएट स्तर के कालेज में इतना प्रेम प्रसंग पर लिखने के बजाय लेखक वहां की जीवन चर्या पर लिखता तो और रोचक होता। और प्रेम प्रसंग को बीच में ही छोड़ कर आगे बढ़ जाना थोडा अखरता है, हालाँकि उस स्तर पर उस समय ऐसी कहानिया ऐसे ही दम तोड़ देती हैं। गांव में होने वाले त्योहारों राखी और दिवाली का लेखन ने बड़ा सजीव वर्णन किया  है। बिलकुल वहां कि मनोदशा को उतार दिया है, बच्चों की चुहल, बड़ों की फटकार, पैसों को ले कर बच्चों में आपसी  द्वन्द, उनका मनोविनोद बहुत अच्छा बन पड़ा है।

          

उपन्यास अपनी गति पाता है जब नायक इलाहाबाद की तरफ कूच करता है। और शुरू होती है छात्र राजनीति। छात्र एवं छात्रसंघ महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों के दशकों से अनिवार्य घटक हैं, विशेषकर पूर्वांचल एवं उत्तर भारत में। छात्रसंघ का चुनाव सिर्फ छात्रसंघ का चुनाव नहीं होता था, उसमें छात्र के नाम पर कई पीढियां एक साथ विश्वविद्यालयों में पढ़ती और लड़ती थी, जिसमें 20 वर्ष से लेकर 50 वर्ष तक के छात्र नेता शामिल रहते थे। 

                                       

“इलाहाबाद विश्वविद्यालय अर्थात् छात्र-राजनीति का अखाड़ा, दबंगई का गढ़। जहाँ छात्र-संघ का अध्यक्ष होना, पाँच-छः साल बाद विधानसभा में एक सीट रिजर्व कर लेना है। जहाँ के छात्र नेता खुद को एस.पी. दरोगा से जौ भर कम नहीं समझते। जहाँ की राजनीति में नीति का निहितार्थ लंठई है और राज का मतलब? कुछ लंठई जैसा शब्द ढूँढ़ लीजिए। धवल ने जीवन में पहली बार छात्र-राजनीति का मतलब समझा। छात्र नेता किराए वाले क्वार्टर में नहीं रहा करते। उनके लिए एक से बढ़ कर एक सुदृढ़ छात्रावास आरक्षित हैं। डायमंड जुबली, हिन्दू, झा हॉस्टल, ताराचन्द, छात्रावास ऐसे ही मेधावी ताओं से अंटे पड़े हैं। महीने भर बाद छात्र संघ का चुनाव होगा। हर नेता की तैयारी पर्चेबाजी, पोस्टर बाजी में एक दूसरे को उखाड़ती-पछाड़ती हुई।”

                       

भरत प्रसाद 



जिस किसी ने भी इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अध्ययन किया होगा उसके सामने ऊपर लिखा वृतांत पढ़ते हुए आँखों में दृश्य उतर आएगा। इतना गहन और सूक्ष्म ऑब्जरवेशन बताता है कि लेखक ने कितनी छोटी छोटी बातों का ख्याल रखा है। बात यहीं ख़त्म नहीं होती दरअसल लेखक ने छात्र राजनीति के माहौल को नहीं दिखाया बल्कि उसके सन्दर्भ को लेते हुए राजनीति की पूर्वपीठिका को भी समझाया है। वहां अधिकतर राजनीति किसी गंभीर मुद्दे पर ना हो कर बल्कि जाति, धर्म साम्प्रदायिकता इन सबके बेसिस पर होती है –

                                

“छात्र राजनीति की असलियत ने उसके मन-मस्तिष्क को बुरी तरह झकझोर रखा है। शासन सत्ता राजनीति नेता, चुनाव, जैसे शब्द उसके भीतर अजीबो गरीब कडवाहट, दर्द और खीझ भर देते हैं। राजनीति मेरे ही देश में सत्य विरोधी क्यूँ है? वह क्यूँ इतनी घटिया मूल्यहीन और शतरंजी है? क्या मेरे देश की राजनीति का उद्धार असंभव है? ...................................... अर्धशिक्षित और लम्पट हो कर भी नेता सर्वश्रेष्ठता की हैसियत कैसे और क्यूँ प्राप्त कर लेते हैं? इन्हें क्यूँ राजनीति के अयोग्य घोषित किया जाता? ब्राहमण और क्षत्रिय को श्रेष्ठ कहलाने का क्या अधिकार है? समाज में इन्हें ही सर्वसम्मानित क्यूँ कहा जाए? समाज में राजनीति में शिक्षा और व्यवस्था में घृणा, उपेक्षा, भेद और ईर्ष्या का वातावरण इन दोनों जातियों के कारण बना हुआ है। विश्वविद्यालय हों या ग्राम विद्यालय सब जगह इन्हीं की चलती है”।

      


यह एक ऐसा यथार्थ है जिसे शिक्षित युवा वर्ग बार बार चिन्हित कर रहा है। नायक धवल भी इन सवालों से दो चार होता है। इस तरह की राजनीति सिर्फ स्वार्थजनित परिणाम ही उत्पन्न करती है। नायक का इलाहाबाद में भी प्रेम होता लेखक ने दिखा दिया है और वह ख़त्म भी हो गया है। पर एक बात गौर करने वाली है नायिका नायक के कमरे पर जाती है, समय, देश-काल, गत परिवेश को ले कर बात की जाये तो यह लेखक ने असंभव प्रयास को संभव कर दिया। इलाहाबाद में होस्टल से बाहर रहने वाले छात्रों को जिन जगहों पर रहना होता है उसे लॉज कहते हैं और लॉज संस्कृति में कन्या का जाना बहुत समय तक निषेध था, फिर भी, लेखक ने हिम्मत दिखाई।

            


समकालीन हिन्दी उपन्यास ने बहुत सूक्ष्म संवेदन, गहराई और विस्तार मे जा कर देश, समाज और व्यक्ति पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन कथात्मक धरातल पर किया है। विगत 20-25 वर्षों में वैश्विक आर्थिक चेतना विविध रूपों में व्यक्त हुई है। देखा जाए तो भारत के लिए यह एक सांस्कृतिक संक्रमण का काल है, उपन्यासकारों ने इन वैश्विक प्रभावों का आकलन जिस रूप में किया है वह अपने आप में बेहद महत्त्वपूर्ण है। लेखक अपने नायक को अब बड़ा फलक देते हुए जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग का छात्र बना देता हैं और फिर यहाँ की छात्र राजनीति का विस्तृत वर्णन। उपन्यास पढ़ते हुए यह बार बार लगता है कि लेखक का जे एन यू मोह कहीं भी तनिक कम नहीं हुआ है। यहाँ एक दिलचस्प बात भी है, जे एन यू में चित्रित पात्रों में सभी बड़े नाम मसलन प्रणय कृष्ण, कामरेड चंद्रशेखर, काल्पनिक पात्र ना हो कर यथार्थ के पात्र है। इस कारण यहाँ के जानने वाले पाठकों या हिंदी साहित्य के पाठको को यह अब उपन्यास कम, संस्मरण ज्यादा लगने लगता है।


                              

जे एन यू की छात्र राजनीति में बौद्धिकता का जो स्तर है उसका चित्रण लेखक ने बहुत सावधानी से किया है। जिसने जे एन यू की  छात्र राजनीति नहीं भी देखी होगी या जानी होगी वह इस उपन्यास को पढ़ कर भली भाँती उससे परिचित हो जाएगा। राजनीति के साथ साथ लेखक ने जो हिंदी विभाग के शिक्षको का को खाका खींचा है वह ये बताने के लिए काफी है कि लेखक यहाँ का पूर्व छात्र रहा है। क्लास का माहौल, शिक्षकों का छात्रों से व्यवहार, उन्मुक्त वातावरण, अभिव्यक्ति की आज़ादी; ये वे चीज़ें है जो जे एन यू को अन्य विश्वविद्यालयों से इसे अलग करती हैं। यहाँ चुनावों में होने वाली आपसी बहस और विचारों की प्रतिस्पर्धा ने जेएनयू को परिभाषित किया है। विजयी मोर्चे का कर्तव्य है कि वह इस संस्कृति की रक्षा करे। यह अद्भुत संयोग है कि इस उपन्यास के एक पात्र बत्ती लाल बैरवा के वहां अध्यक्ष चुने जाने के इतने वर्षों बाद इस वर्ष वहां के चुनाव में विजयी अध्यक्ष प्रत्याशी धनंजय, उन्हीं के समुदाय से आते हैं।

                    


“देश के इस समाजवादी द्वीप पर पहला कदम रखते समय धवल को यह परिसर चारों ओर रहस्यमय दीवारों से बंद नजर आया। वर्षों बाद धीरे-धीरे जाना यह विचारों को ऐसा ज्वालामुखी है, जो फटने के पूर्व बहुत ज्यादा धुँआ उगलता है। आज उसने समझ लिया कि उसकी आत्मा की उड़ान के आगे खड़ी कोई जादुई दीवार है, जिसने दोनों पंखों पर चिंताओं, प्रश्नों का बोझ लाद रखा है। धवल उठना चाहता था-उन्मुक्त, उड़ना चाहता था-बेसीम। निरखना चाहता था, नीलाकाश कितने अनंत में फैला है-सुनना चाहता था, सृष्टि के पोर-पोर से उठता वह अनहद नाद जो हमारे अस्तित्व के पहले से था, हमारे अस्तित्व के साथ निनादित है और मानव-सत्ता मिटने के बाद भी कायम रहेगा। हृदय समर्पित कर पीना चाहता था। पृथ्वी के एक-एक अस्तित्व की धड़कन, चाहे वह चट्टान हो, वृक्ष हो, बियावान, सरहदें, खंडहर, वनस्पतियां या कोई मामूली वस्तु क्यों न हो। साथ जीते सारे दृश्य-अदृश्य वजूद में अपनी नियति भांपकर अपूर्व, विकट मोह से आंदोलित हो उठा”



कुल मिल कर उपन्यास का सामाजिक और सांस्कृतिक विश्लेषण बहुत ही सूक्ष्म और गहन प्रतीत होता है। भरत प्रसाद ने ग्रामीण परिवेश से ले कर शहरी जीवन तक की यात्रा को जिस प्रकार चित्रित किया है, वह वास्तव में सराहनीय है। 'काकुलम' के नायक धवल के माध्यम से भारतीय समाज में शिक्षा और राजनीति के बदलते परिदृश्य को बड़ी ही कुशलता से उजागर किया गया है। धवल का गांव से निकल कर इलाहाबाद और फिर जेएनयू तक का सफर भारतीय शिक्षा व्यवस्था में निहित विसंगतियों और विरोधाभासों का प्रतीक भी बन कर उभरता है। विशेषकर छात्र राजनीति की निस्सारता को लेखक ने जिस बारीकी से उकेरा है, वह पाठकों को सोचने पर मजबूर करता है कि आज के समय में राजनीति किस प्रकार युवाओं के भविष्य को प्रभावित कर रही है। उपन्यास का दूसरा महत्वपूर्ण पहलू लेखक की भाषा शैली और वर्णनात्मकता है। भरत प्रसाद की भाषा में सहजता और प्रवाह है, जो पाठकों को कहानी के साथ बांधे रखती है। उपन्यास में प्रयुक्त बोली-बानी और संवादों ने कहानी को जीवंत बना दिया है। लेखक ने पात्रों के मनोविज्ञान और उनके आंतरिक संघर्षों को जिस तरीके से पेश किया है, वह उनके लेखन की गहराई को दर्शाता है। 'काकुलम' के माध्यम से भरत प्रसाद ने न केवल एक मनोरंजक कथा के साथ-साथ  समाज के विभिन्न पहलुओं पर भी गहन चिंतन किया है। यह उपन्यास अपने आस-पास के समाज को समझने और उसमें हो रहे परिवर्तनों पर विचार करने के लिए भी प्रेरित करता है।


                            

अंत में यह कहना आवश्यक है कि बहुत दिन बाद विश्वविद्यालय के बारे में इतना विस्तार और गहन विश्लेषण के साथ पढने को मिला। उपन्यास के बहाने भरत जी ने वर्तमान पीढ़ी या यूँ कहें चार दशक पहले बड़ी हुई पीढ़ी के जीवन में वर्तमान में जो निस्सारता आ गयी है उसको दिखाया है। इतनी ज्यादा भटकाव इससे पहले कि पीढ़ियों में नहीं था। भरत जी को ढेर सारी शुभकामनाएं इस पठनीय उपन्यास के लिए। एक बात जो मुझे थोड़ी खटकी वह ये कि इलाहाबाद का क्षेत्र अवधी भाषी है वहां भोजपुरी का प्रयोग भौगोलिक रूप से ठीक नहीं,  फ़िलहाल  भरत जी का यह प्रयास सफल रहा, भविष्य में वे उपन्यास लिखते समय थोडा डिटेलिंग से बचें। 


(डॉ सुनील कुमार शर्मा भारतीय रेल में उच्च पदासीन अधिकारी हैं। आजकल  कोलकाता, पश्चिम बंगाल  में पदस्थ हैं।)







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