शेखर जोशी की वसीयत 'ओलियागाँव के लिए कुछ सपने'
इस जीवन की अपनी एक सीमा है। कहा जा सकता है कि जन्म लेना और अन्त होना यह जीवन की अनिवार्य विशिष्टता है। यही इस जीवन की खूबसूरती भी है। लेकिन मनुष्य अपने विशिष्ट कार्यों के जरिए खुद को अमर कर लेता है। इस बात में कोई दो राय नहीं कि शेखर जोशी एक बेजोड़ कहानीकार थे। उनका व्यक्तित्व उन्हें असाधारण बना देता था। अपने जीवन के अन्तिम दिनों में उन्होंने अपनी एक वसीयत लिखी। शेखर जी की यह वसीयत नवीन जोशी द्वारा लिखी गई 'शेखर जोशी: कुछ जीवन की कुछ लेखन की' किताब में संकलित है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं शेखर जोशी की वसीयत 'ओलियागाँव के लिए शेखर जी के कुछ सपने'।
'ओलियागाँव के लिए शेखर जी के कुछ सपने'
नवीन जोशी
अपने नब्बेवें जन्म दिन से करीब दो-ढाई महीने पहले शेखर दाज्यू ने अपनी वसीयत लिखी थी- 'मन की बात' शीर्षक से। मई-जून में वे बेटी कृष्णा के पास पुणे में थे। कोविड का हलका झटका लगा था लेकिन उबर आए थे। तभी यह 'मन की बात' लिखी गई। आँखों की बीमारी के कारण लिखना आसान नहीं था। तीस जून (2022) से लिखना शुरू किया और थोड़ा-थोड़ा कर के छह जुलाई तक पूरा किया। बाद में भी कुछ जोड़ा। स्वस्थ होकर वे संजय के पास ग़ाज़ियाबाद आ गए थे। वहीं उनका प्राणांत हुआ।
'मन की बात' में उन्होंने अपने बीते दिनों की चर्चा करने के बाद कहा है कि - "मैं एक सुखी और संतुष्ट व्यक्ति की तरह दुनिया को प्रसन्नतापूर्वक अलविदा कहूँगा।" इसी तरह वे गए भी। उनकी इच्छानुसार मेडिकल कॉलेज को देहदान करते हुए 'शेखर जोशी- लाल सलाम' के नारे लगाए गए और उनकी कविता का पाठ किया गया। दुख स्वाभाविक था लेकिन कोई रोया नहीं। यह एक प्रतिबद्ध और विनम्र जन कथाकार की शानदार विदाई थी, जैसा वे चाहते थे। उनके जाने के बाद उनकी 'मन की बात' पढ़ी गई। बंटू (उनकी बेटी कृष्णा) ने उसे पढ़ कर रिकॉर्ड किया और भाईयों को भेजा। अपनी किताबों और बैंक में जमा छोटी-सी पूँजी का बच्चों में रचनात्मक उत्तरदायित्व के साथ बँटवारा करने के बाद उन्होंने अपने ओलियागाँव और आस-पास के इलाके के बारे में अपने कुछ स्वप्न भी साझा किए हैं और उत्तराखण्ड की सरकार से कुछ अपेक्षाएँ को हैं। उनका यह स्वप्न और अपेक्षाएँ बताती हैं कि वे पहाड़ और अपने इलाके के बारे में कितना कुछ सोचते थे और उसमें कैसा ऐतिहासिक, सांस्कृतिक चिंतन और विकास दृष्टि शामिल थे। यहाँ उनकी पूरी वसीयत इसलिए दी जा रही है क्योंकि इसमें व्यक्त दृष्टि, चिंतन और आशाएँ उनके सम्पूर्ण व्यक्तित्व को ही स्पष्ट करते हैं-
"लाई हयात आए कज़ा ले चली चले
अपनी खुशी न आए न अपनी खुशी चले'
- शेख इब्राहीम जौक
प्रकृति का नियम है कि जो दुनिया में आया है उसे एक न एक दिन जा ही होगा। यह दिन कल भी हो सकता है और दो साल बाद भी। जाने से पह अपने मन की बात अपने लोगों से साझा करना बड़े सौभाग्य की बात है। मैं ज भी आपको अलविदा कहूँगा, यह बात कहना चाहता हूँ कि मैंने बहुत सुख जीवन जिया है। बचपन में गाँव के स्वजन-परिजन का खूब लाड़-प्यार मिला लड़कपन में परदेस में मामा-मामी का स्नेह और ममता। अपने गुरु जी, कालांतर में श्वसुर जी और अपनी गुरुपत्नी का अपार स्नेह मिला। गुरु जी के द्वारा मेरी पढ़ाई को दिशा मिली, प्रोत्साहित करते रहने के कारण मैं पूरे स्कूल का हीरो बना हुआ था। देहरादून में कालेज की शिक्षा के दौरान नवसृजित लाइब्रेरी में पहली बार ढेरों पुस्तकें पढ़ने को मिलीं। मेरे मन में साहित्य के प्रति गहरी रुचि पैदा हो गई और विज्ञान एवं गणित की कक्षाएँ छोड़कर लाइब्रेरी में कविता-कहानी में डूबे रहने के कारण इण्टर फाइनल में मैं असफल रहा, लेकिन इस दौरान एक उपलब्धि यह हुई कि कालेज के इतिहास में पहली बार कालेज मैगजीन में किसी प्रथम वर्ष के छात्र की दो-दो रचनाएँ प्रकाशित हुईं। एक अंग्रेजी में 'सेल्फ ऑबिचूरी' शीर्षक से और दूसरी हिंदी में 'रवींद्र कविता कानन का भ्रमण'। पत्रिका के सम्पादक छात्र नेता नित्यानंद स्वामी थे जो कालांतर में उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री बने। छात्रों के बीच तभी से 'कवि जी' की उपाधि मिल चुकी थी। मैं चाहता था कला विषयों में अपनी पढ़ाई चालू रख कर अच्छे डिवीजन से परीक्षा पास करूँ, लेकिन ददा ने मामा जी के भय के कारण, जो मुझे इंजीनियर ही बनाना चाहते थे, उन्होंने सहमति नहीं दी। बिल्ले के भाग से छींका टूटा। इसी बीच मैंने अंग्रेजी अखबार में एक विज्ञापन पढ़ा जो सुरक्षा विभाग की ईएमई कोर में चार वर्षीय अप्रेंटिसशिप के बाद सात वर्ष तक सुपरवाइजर के पद पर नियुक्ति के बारे में था। मैंने ददा को वह विज्ञापन दिखा कर आश्वस्त किया कि विज्ञापन को शर्तों के अनुसार मैं विभाग में इंजीनियर के पद पर नियुक्त हो सकता हूँ। विज्ञापन के अनुसार सफल प्रशिक्षु के अभिभावकों को एक बॉण्ड भरना पड़ेगा कि यदि चार वर्ष की ट्रेनिंग के बाद सात वर्ष की विभागीय सेवा से पहले आवेदक विभाग से मुक्त होना चाहेगा तो उसके अभिभावक को चार हजार रुपए चुकाने पड़ेंगे। ददा ने मुझे परीक्षा में बैठने की अनुमति दे कर आवेदन पत्र भर कर भेज दिया। नियत तिथि पर परीक्षा हुई और सैन्य अधिकारियों द्वारा अंग्रेजी भाषा में इण्टरव्यू हुआ।
गुरु जी की कृपा से मेरा अंग्रेजी भाषा पर अच्छा अधिकार था। साक्षात्कार मेरे उत्तर सुन कर अधिकारी प्रसन्न हुए और अट्ठारह चयनित छात्रों में में भी एक सफल छात्र था। संयोग से मेरे अलावा अन्य सत्रह छात्र पंजाब प्रांत के थे। 505, कमाण्ड वर्कशॉप में हमारी ट्रेनिंग शुरू हुई। दिल्ली प्रवास के उन चार वर्षों में मेरी सामाजिकता खूब लाभदायक रही। दिल्ली में छोटे-बड़े होटलों और ढाबों में अधिकांश कर्मचारी पहाड़ के लड़के थे जिन्हें विनोद में आईसीएस (इण्डियन कुकिंग सर्विस) कहा जाता था। कामरेड पी सी जोशी के सुझाव पर कुछ होटल वर्कर्स यूनियन के पहाड़ी कामरेडों ने 'पर्वतीय जन विकास समिति' की स्थापना कर रखी थी। एक दिन अखबार में 'पर्वतीय जन विकास समिति' की सूचना पढ़ कर मैं भी मीटिंग स्थल पर पहुँच गया। मेरी उस संस्था के पदाधिकारियों से मित्रता हो गई और मैं भी समिति का सदस्य हो गया। हम लोगों ने 'पर्वतीय जन' नाम का एक बुलेटिन निकालना शुरू किया। चंद्रकांत छद्म नाम से मैं भी इसके सम्पादक मण्डल में शामिल हो कर पहाड़ सबंधी लेख और टिप्पणियाँ लिखता था। जब बुलेटिन के प्रकाशन को एक वर्ष पूरा हुआ तो हमने पत्रिका के रूप में पर्वतीय जन का विशेषांक निकालने की योजना बनाई। नंद किशोर नौटियाल जी ने मुझसे कहा कि मैं एक ऐसी कहानी लिखूँ जिसमें कहानी का नायक कोई होटल कर्मचारी हो। तब मैंने 'दाज्यू' कहानी लिखी जो मेरी फोटो के साथ प्रकाशित हुई। मैंने उस अंक में ददा द्वारा खींचे गए चकरौता के भी कुछ सुंदर फोटो प्रकाशित किए थे। इस कहानी के माध्यम से पी सी जोशी से मेरी पहचान बनी। जब मैं इलाहाबाद में नियुक्त हुआ तो गोविद सिंह जी ने मेरे इलाहाबाद जाने की सूचना जोशी जी को दी। उन्होंने पूछा कि क्या मेरा दिल्ली छोड़ना जरूरी है। मैंने चार हजार रु बॉण्ड की बात बताई कि मेरे लिए मजबूरी है। एक-दो वर्ष बाद जब चीनी सांस्कृतिक दल भारत आया तो गोविंद जी से सूचना पा कर मैं कानपुर गया। अल्मोड़ा से लोक कलाकार संघ की टीम भी आई थी। एक बड़े हाल के मंच पर नृत्य-संगीत का प्रदर्शन हो रहा था। पूरा हाल मजदूरों, मिल के कर्मचारियों से भरा था। मैं भी दीवार से सट कर खड़ा हो गया। तभी देखा कि हाल के दूसरी ओर कामरेड जोशी और कल्पना जी खड़े हैं। मैं उनके पास पहुँच गया। जोशी जी ने कल्पना जी की ओर इशारा करके पूछा ये तेरी बोज्यू (भाभी) और चुवा (कोटू और रामदाना) तो भोजन की अनिवार्य सामग्री है। अब तो सिसूण (बिच्छू घास) भी प्रचलन में आया है। बंदरों द्वारा नष्ट न किए जाने वाले उत्तम फलों- अखरोट, दाड़िम, जामिर, नारंगी, माल्टा, पोदीना और पिपरमेण्ट तो यहाँ सामान्य बात है। अखरोट का काष्ठ खेलों के उपकरण और इमारती लकड़ी के रूप में बहुत कीमती होता है।
मेरी तीसरी इच्छा है कि पूर्व दिशा में बमणतोई से सुपकोट जाने वाले मार्ग तक दीवार उठा कर एक विस्तृत जलाशय का निर्माण कर दिया जाए। यह बहुत सुंदर पर्यटन स्थल बन सकता है। चातुरमास में इस गाँव की नदी में इतना अधिक पानी आता है कि कई बार बड़ी-बड़ी शिलाएँ बह कर नई जगहों में बैठ जाती हैं। ऊपर का सदानीरा झरना भी खूब जल प्रवाहित करता है। चारों ओर के ऊँचे पहाड़ों से बारिश का पानी आकर नदी में गिरता है। एक-दो वर्षों की बारिश के बाद जलाशय लबालब भर जाएगा। विनायक थल पर एक हैलीपैड बन जाए तो पर्यटक ट्रैकिंग करते हुए माई का थान से हिमालय के दर्शन कर सकते हैं। पर्यटन स्थल बन जाने से इस क्षेत्र में रोजगार की अपार सम्भावनाएँ बढ़ेंगी और इस क्षेत्र से मैदानी शहरों के लिए जनता का पलायन रुकेगा। मैं अपने प्रवासी बिरादरों से भी आग्रह करता हूँ कि अपने पूर्वजों के गाँव की उन्नति के लिए सरकार पर जोर डालें और सहयोग करें।
मेरा सपना है कि एक दिन जब पर्यटन विभाग विनायक थल में हैलीपैड बना लेगा तो मैदानी पर्यटक वहाँ ट्रैकिंग करते हुए गणानाथ मंदिर, ऊपर माई का थान जा कर हिमालय के विस्तृत फलक का दृश्य देखेंगे और लौटते हुए हर्बल विलेज के विश्राम स्थल में रात्रि विश्राम कर सुबह हर्बल विलेज की खेती, झील और झरने का सौंदर्य देख कर पं. हरिकृष्ण पाण्डे मार्ग से देवदार का जंगल पार करते हुए रनमन से टैक्सी अथवा बस द्वारा अपने गंतव्य को लौटेंगे। एक्स सर्विसमैन के प्रयासों से टैक्सियों की कोई कमी नहीं रहेगी।
मेरा गाँव वीरान हो चुका है। आज के दिन वहाँ मूल निवासियों में केवल एक शिक्षक वृद्धा और एक साठ पार के अविवाहित पुरुष रहते हैं। दो खेतिहर क्षत्रिय परिवारों ने भी वहाँ आश्रय ले रखा है जो हर्बल खेती में सहायक हो कर अच्छी मजदूरी पा सकते हैं। अपने न रहने पर मैं अपनी रचनाओं के प्रचार-प्रसार के लिए इस प्रकार अधिकृत करता हूँ-
प्रतुल जोशीः दूरदर्शन, आकाशवाणी और रंगमंच में छायांकन, प्रसारण, और मंचन की अनुमति देने के अधिकारी होंगे। इसके अतिरिक्त पुस्तकों, रचनाओं के उर्दू अनुवाद के प्रकाशन के लिए भी वह अपनी सहमति दे सकते हैं। संजय जोशीः प्रकाशकों द्वारा पाठ्य पुस्तकों में रचनाएँ शामिल करने, फिल्म निर्माताओं द्वारा कहानियों की माँग और अन्य प्रांतीय या विदेशी भाषाओं में प्रकाशन की अनुमति के लिए वह अपने अनुभवों से उनकी पात्रता की पहचान कर अनुमति देंगे।
मेरी रचनाओं की रॉयल्टी, मानदेय तीन हिस्सों में बराबर विभाजित किया जाएगा। इसमें नवारुण प्रकाशन से प्राप्त रॉयल्टी भी शामिल है। तीन लाभार्थियों में प्रतुल, संजय और कृष्णा होंगे।
अपनी सीमित पेंशन से मैंने जो धनराशि बैंक में जमा की है उसका वितरण इस प्रकार होगा-
पहला गार्गी जोशीः विवाह के अवसर पर उपहार स्वरूप एक लाख रुपए।
दूसरा पूजा जोशीः विवाह के अवसर पर उपहार स्वरूप एक लाख रुपए।
तीसरा पाखी जोशीः विवाह के अवसर पर उपहार स्वरूप एक लाख रुपए।
चौथा श्रद्धा जोशीः इनका हिस्सा इनकी माता जी को एक लाख रुपए अग्रिम दिया जा चुका है।
पाँचवाँ संजय जोशीः प्रस्तावित सिनेमा योजना के प्रारम्भ हो जाने पर एक लाख रुपए सहयोग राशि।
छठा, पच्चीस हजार रुपया: कुमाउँनी संकलन के निमित्त नवीन जोशी को।
सातवाँ, कृष्णा जोशीः उपरोक्त जमा राशियों के ब्याज के अतिरिक्त अन्य राशि दिव्यांगों के कल्याण के लिए तथा साधनहीन छात्रों की शिक्षा के लिए।
मूल कुमाउँनी में लिखी हुई रचनाएँ श्री नवीन जोशी के पास सुरक्षित हैं। शब्दचित्र, आलेख, क्वीड़ और कविताओं का यदि एक संकलन 'पहाड़' संस्था (नैनीताल) और डॉ. बी के जोशी द्वारा स्थापित 'दून लाइब्रेरी और रिसर्च सेण्टर' की ओर से प्रकाशित हो सके तो उसे स्कूल-कालेज की लाइब्रेरी में निःशुल्क वितरित कर दिया जाए।
मैं चाहता हूँ कि मेरी यह मन की बात सार्वजनिक कर दी जाए ताकि मेरे सपनों से अधिक से अधिक लोग जुड़ सकें और उन्हें साकार करने में सहायक हों।
मैं एक सुखी और संतुष्ट व्यक्ति की तरह दुनिया को अलविदा कहूँगा।
शेखर जोशी, 30 जून-06 जुलाई, पुणे"
यह है शेखर दाज्यू के मन की बात। कैसी निस्स्वार्थ अपेक्षाएँ हैं उनकी और कैसे व्यावहारिक सपने! यह मानने का कोई कारण नहीं है कि उनके बेटे-बेटी उनको दिए गए दायित्व का आदर एवं श्रद्धापूर्वक पालन नहीं करेंगे। कुमाउँनी संकलन के प्रकाशन के लिए जो दायित्व वे मुझे सौंप गए हैं, उनके परिवारी जनों, मित्रों-सबंधियों के सहयोग से वह पूरा हो रहा है। जहाँ तक पहाड़ के अपने ओलियागाँव के बारे में उनके सपनों का सवाल है, सहसा विश्वास नहीं होता कि उत्तराखण्ड की सरकारें पहाड़ के एक विख्यात लेखक के मन की बात सुनेंगी और उस पर ध्यान देंगी। सरकार में बैठे लोगों को शायद ही शेखर जोशी जी के बारे में ठीक से मालूमात हो। अलग उत्तराखण्ड राज्य बन जाने के बाद उसका शोषण-दोहन ही अधिक हुआ है। जो विकास हुआ, उसके केंद्र में न प्रकृति है, न जन। राज्य से जनता का मोहभंग ही हुआ है। तो भी, आज या कल सत्ता में बैठने वाले कतिपय संवेदनशील आँख-कानों तक उनका व्यावहारिक सपना पहुँचेगा और उस ओर कुछ काम होगा, यह उम्मीद करना बिल्कुल बेमानी भी नहीं।
सम्पर्क
नवीन जोशी
मोबाइल : 9793702888
प्रेरक है यह वसीयत। जिज्ञासा है यह जानने की कि शेखर जी की लिखी बातों पर विभिन्न स्तरों पर अमल कितना हुआ। उत्तराखंड शासन की ओर से कोई सुगबुगाहट?
जवाब देंहटाएंयादवेन्द्र
अपनी जन्मभूमि और परिवार के प्रति शेखर जोशी की प्रतिबद्धता!
जवाब देंहटाएंनमन
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