संतोष पटेल का आलेख 'ज़ुबिन गर्ग : संगीत के सम्राट और मानवता के दूत'

 

ज़ुबिन गर्ग


जुबिन गर्ग (18 नवम्बर 1972 – 19 सितम्बर 2025) असम के प्रख्यात गायक थे। वे संगीत निर्देशक, गीतकार, संगीतकार, फिल्म अभिनेता, निर्माता, निर्देशक, वादक, कवि के साथ साथ सामाजिक कार्यकर्ता भी थे। उन्होंने असमीया, हिन्दी, बंगाली, बोड़ो, राजबंशी (कमतापुरी/गोलपारिया), चाय बागानी भाषा, हाजोंग, मिशिंग, कार्बी, गारो, राभा, डिमासा, आहोम, देउरी, नेपाली, भोजपुरी, विष्णुप्रिया मणिपुरी, ककबरक, उड़िया, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, अंग्रेजी, मलयालम, मराठी, संस्कृत, सिन्धी, उर्दू आदि अनेक भाषाओं में गीत गाए। जुबिन गर्ग ने तीन साल की उम्र से ही गाना शुरू कर दिया था। उनकी पहली गुरु उनकी माँ थीं, जहाँ से उन्होंने गाना सीखा और फिर उन्होंने पंडित रॉबिन बनर्जी से 11 साल तक तबला सीखा। गुरु रमानी राय ने उन्हें असमिया लोक से परिचित कराया। गर्ग अपने स्कूल के दिनों से ही गीतों की रचना कर रहे थे और गायकों को गाने के लिए देते थे। 19 सितम्बर 2025 को सिंगापुर में स्कूबा डाइविंग दुर्घटना के बाद जुबीन गर्ग का निधन हो गया। पानी के नीचे उन्हें सांस लेने में दिक़्क़त हुई, वहाँ से बचाने के बाद कार्डियोपल्मोनरी रिससिटेशन (सीपीआर) देने पर भी स्थानीय अस्पताल के गहन चिकित्सा कक्ष में भर्ती करने के बाद उन्हें मृत घोषित किया गया। वह सिंगापुर में नॉर्थ ईस्ट इंडिया फेस्टिवल में भाग लेने गए थे, जहाँ उनका कार्यक्रम प्रस्तुत करने का भी कार्यक्रम था। 2019 में गुवाहाटी के बी. बरूआ कॉलेज में आयोजित एक संगीत कार्यक्रम में जुबिन ने यह इच्छा व्यक्त की थी कि उनके निधन पर उनका गीत "मायाबिनी रातिर बुकुट" बजाया जाना चाहिए। उनकी मृत्यु के बाद, यह गीत न केवल उनके अंतिम संस्कार में, बल्कि पूरे असम में घरों और सार्वजनिक आयोजनों में भी व्यापक रूप से बजाया गया और "श्रद्धांजलि" का एक सामूहिक गान बन गया। जुबिन गर्ग पर संतोष पटेल ने आलेख और एक कविता लिखी है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं संतोष पटेल का जुबिन गर्ग पर लिखा श्रद्धांजलि आलेख और कविता।


श्रद्धांजलि लेख

'ज़ुबिन गर्ग : संगीत के सम्राट और मानवता के दूत' 


संतोष पटेल



संगीत की धरती पर एक अनमोल नाम


18 नवंबर 1972 को असम के जोरहाट ज़िले में जन्मे ज़ुबिन गर्ग केवल एक गायक नहीं, बल्कि संगीत और संवेदना के अद्भुत संगम थे। उनके पिता इली गर्ग असमिया संगीत जगत के सम्मानित कलाकार थे, जबकि माँ इती गर्ग ने बचपन से ही उनमें रचनात्मकता, संवेदना और करुणा का संस्कार डाला।


ज़ुबिन दा ने 1990 के दशक में अपने संगीत जीवन की शुरुआत की और जल्द ही असमिया, हिन्दी, बंगला, नेपाली सहित कई भाषाओं में अपनी आवाज़ का जादू बिखेरा। फ़िल्म गैंगस्टर का प्रसिद्ध गीत “या अली” उन्हें राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाने वाला साबित हुआ। लेकिन ज़ुबिन गर्ग का जीवन केवल संगीत तक सीमित नहीं था - वे समाज के लिए समर्पित, जनभावनाओं से जुड़े हुए एक मानव प्रेमी कलाकार थे।



जनता के दिल में बसने वाला कलाकार


ज़ुबिन गर्ग का जीवन दर्शन सरल था — “कला का उद्देश्य केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि समाज में प्रकाश फैलाना है।” उन्होंने अपने गीतों, कार्यक्रमों और सामाजिक अभियानों के माध्यम से शांति, प्रेम, समानता और सद्भावना का संदेश दिया।


असम और उत्तर-पूर्व भारत में जब भी प्राकृतिक आपदाएँ आईं, ज़ुबिन दा सबसे पहले मदद के लिए आगे बढ़े। उन्होंने अपने फाउंडेशन के माध्यम से जरूरतमंदों को सहायता प्रदान की, युवाओं को नशे से दूर रहने की प्रेरणा दी, और हमेशा सामाजिक एकता की बात की। उनकी लोकप्रियता केवल मंच तक नहीं, बल्कि हर दिल तक पहुँची — क्योंकि वे संगीत में करुणा और सेवा की भावना को जीवंत रखते थे।



संगीत रुका नहीं, स्वर अमर हुआ


19 सितंबर 2025 — यह दिन असम ही नहीं, पूरे भारत के लिए शोक का दिन बन गया।सिंगापुर में आयोजित North East India Festival में भाग लेने गए ज़ुबिन गर्ग का आकस्मिक निधन हो गया। बताया गया कि वे समुद्र तट पर तैरते समय अचानक अस्वस्थ हो गए। उन्हें तुरंत Singapore General Hospital ले जाया गया, जहाँ डॉक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया। मृत्यु प्रमाण पत्र में कारण “डूबना (Drowning)” बताया गया। यह खबर सुनते ही पूरे देश में शोक की लहर दौड़ गई। असम की धरती से ले कर दिल्ली, मुंबई और कोलकाता तक हर जगह ज़ुबिन दा के गीतों की गूंज श्रद्धांजलि बन गई। उनकी अंतिम यात्रा में उमड़े जनसागर ने यह सिद्ध कर दिया कि ज़ुबिन गर्ग केवल एक कलाकार नहीं, बल्कि मानवता के प्रतीक थे।



उनकी विरासत – प्रेम, करुणा और स्वर की लौ

ज़ुबिन गर्ग का जीवन और संगीत हमें यह सिखाता है कि सच्ची कला वही है जो समाज के दुःख को महसूस करे और इंसानियत का दीप जलाए। उनकी आवाज़ अब भी हर दिल में गूंजती है — या अली में... यदि भक्ति है तो “मायाबीनी” के गीत में करुणा है, और हर धुन में मानवता की लौ जलती है।


वे हमें यह याद दिलाते हैं कि कलाकार की मृत्यु नहीं होती — उसका संगीत, उसका संदेश और उसकी संवेदना युगों तक जीवित रहती है।


ज़ुबिन दा आज भले ही हमारे बीच नहीं हैं, पर उनका स्वर, उनकी मुस्कान और उनका मानवीय संदेश हमेशा जीवित रहेगा। वे केवल असम के नहीं, बल्कि पूरे भारत और विश्व के थे। उनका जीवन इस बात का प्रमाण है कि संगीत जब सेवा से जुड़ता है, तो वह पूजा बन जाता है। उनका संगीत सदा जन-जन में जीवित रहेगा।


“ज़ुबिन : एक जीवित दर्शन”


भाग 1 : 

मनुष्य के रूप में ज़ुबिन


वह कोई गायक भर नहीं,

वह ध्वनि में मनुष्यता की प्रतिध्वनि है।

वह सुर में नहीं, संवेदना में गाता है —

कि मनुष्य अपने भीतर लौटे,

अपनी जड़ों, अपनी मिट्टी, अपने घर की ओर।


वह कहता है —

“दिल में बात मत रखो,

क्योंकि सच्चाई को दबाना पाप है।”

वह कहता है —

“अविश्वास मत पालो,

क्योंकि विश्वास ही वह एकमात्र ऋतु है

जहाँ फूल खिलते हैं।”


वह चलता है अपने मन की राह पर,

बिना किसी के विचार को थोपे,

बिना किसी को अपने पीछे घसीटे।

वह हवा की तरह चलता है —

छूता है, बदलता नहीं।



भाग 2 : 

प्रेम का तत्वज्ञान


ज़ुबिन कहता है —

“प्रकृति से प्रेम करो।”

और उसके स्वर में बहती हैं नदियाँ,

उसकी आँखों में चमकते हैं सितारे।


वह जानता है —

कि धरती बिना प्रेम के बंजर हो जाती है,

और भाषा बिना करुणा के मर जाती है।


वह माँ को प्रणाम करता है —

माँ जो जीवन है,

मातृभाषा जो आत्मा है,

मातृभूमि जो स्मृति है।


वह जानता है —

संस्कृति कोई प्रदर्शन नहीं,

वह जीवन की सादगी है 

गाँव की मिट्टी में लिपटा गीत,

किसी अजनबी की मुस्कान,

किसी बूढ़ी औरत की कहानी।


भाग 3 : 

करुणा का समाजशास्त्र


वह कहता है 

“जरूरतमंद का साथ दो,

मदद करो।”

और यह वाक्य नहीं,

एक सांस्कृतिक पुनर्जागरण है।


वह चाहता है कि

हर मनुष्य खुद को दूसरों के बीच महसूस करे —

अलग नहीं, एक हिस्सा बन कर।

वह कहता है —

“लोगों का काम करो,

लोगों के बीच रहो।”


वह अंधविश्वास से दूर है,

वह जाति-पात के नाम पर बनी दीवारें तोड़ देता है,

वह फर्जी गुरुओं की माला नहीं पहनता।

वह नम्रता से कहता है —

“कोई भगवान नहीं,

मनुष्य ही मनुष्य का सहारा है।”


वह स्त्री का सम्मान करता है,

क्योंकि उसके भीतर स्त्री की आँखों का जल बसता है।

वह बालक की मासूमियत को

धरती का भविष्य मानता है।


भाग 4 : 

जीवन का सौंदर्य और संघर्ष


वह छोटी-छोटी चीज़ों में सौंदर्य खोजता है 

एक पत्ता, एक बूंद, एक ध्वनि,

एक मुस्कान में दुनिया देख लेता है।


वह धर्म का भेद नहीं करता,

वह मनुष्यता को ही एकमात्र धर्म मानता है।

वह कहता है —

“जो बोलो, करो।”

क्योंकि शब्द और कर्म के बीच

झूठ की दीवार सबसे ऊँची होती है।


वह अपने लिए नहीं जीता —

वह गाता है सबके लिए।

वह कहता है —

“लाइफ ही असली शिक्षा है।”

पुस्तकें तो केवल पथ बताती हैं,

चलना तुम्हें खुद होता है।


वह कहता है —

“किसी के पीछे मत भागो,

दूसरों को आज़ाद रखो।”

क्योंकि प्रेम का दूसरा नाम स्वतंत्रता है।



भाग 5 : 

ज़ुबिन — एक युग का प्रतीक


वह रियल हीरो है —

जो मंच पर नहीं, भीड़ के बीच चमकता है।

वह बगावती है —

क्योंकि वह झूठी परंपराओं से नहीं डरता।

वह पॉलिटिकल फाइटर है —

क्योंकि वह सत्ता से नहीं,

अन्याय से लड़ता है।


वह सोशल लेफ्टिस्ट है —

क्योंकि उसके दिल के केंद्र में मनुष्य है।

वह संत है —

क्योंकि उसके भीतर कोई अभिमान नहीं,

सिर्फ समर्पण है।


वह एक फेनोमेना है —

सदी में एक बार घटित होने वाला संगीत,

जो विचार में बदल जाता है,

और विचार जो जीवन में उतर जाता है।


ज़ुबिन गर्ग —

तुम आवाज़ नहीं,

एक आत्मा हो।

तुम गीत नहीं,

एक आंदोलन हो।

तुमने गाया —

और लाखों दिलों में

मानवता ने जन्म लिया।


जहाँ भी सत्य की आवाज़ उठेगी,

वहाँ ज़ुबिन की गूँज होगी।

जहाँ भी प्रेम और प्रतिरोध साथ खड़े होंगे,

वहाँ उसका स्वर सुना जाएगा।

वह समाप्त नहीं हुआ —

वह समय के भीतर गूँजता रहेगा —

“कुछ अलग करो,

मानव बनो।”



संतोष पटेल



संतोष पटेल की कविता


मैं मुक्त! मैं कंचनजंगा 


मैं ज़ुबिन नहीं,

नाम तो बस एक पुकार है 

पहचान की दीवार पर टँगा एक धुँधला अक्षर।

मैं वह शिखर हूँ

जहाँ बर्फ भी सांस लेती है

और बादल झुक कर

धरती को प्रणाम करते हैं।


मुझसे पूछो न

जाति क्या होती है —

मैंने तो हर बर्फ के कण में

मनुष्य का चेहरा देखा है,

जो तप से पिघलता है,

और करुणा बन कर बह जाता है।


मेरा कोई धर्म नहीं,

क्योंकि सूरज जब उगता है

तो वह किसी मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर

या बोधिवृक्ष से नहीं पूछता 

किस दिशा में रोशनी भेजनी है।


मेरा कोई भगवान नहीं,

क्योंकि मैंने हर जीव में

प्रकाश की वही चिंगारी देखी है,

जो किसी मूर्ति में नहीं,

किसी आकाश में नहीं —

मनुष्य के हृदय में जलती है।

भक्ति नहीं, करुणा ही मेरा धर्म है,

और सृष्टि ही मेरा आलय।


मैं मुक्त हूँ 

न किसी ध्वज में,

न किसी सीमा-रेखा में,

न किसी ग्रंथ की मुहर में बंधा।

मैं वही हूँ

जो प्रेम की ऊष्मा से

बर्फ को भी गीत बना देता है।


मैं कंचनजंगा हूँ —

ऊँचाई नहीं,

मानवता का प्रतीक हूँ।

जहाँ सब एक हैं,

जहाँ हर स्वर गूंजता है

“मैं हूँ — बस मानव।”



सम्पर्क 


संतोष पटेल

मोबाइल : 9868152874


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