मां की मृत्यु पर कविताएं
मां, एक ऐसा शब्द जो आकार में बहुत छोटा है लेकिन जिसकी व्याप्ति असीम है। जब तक रहती है तब तक अपनी छाया से सबको सुरक्षित रखती है। लेकिन जब वह नहीं रहती, तब उसकी कमी को कोई भी पूरा नहीं कर पाता। दुनिया के प्रायः सभी कवियों ने मां पर कविताएं लिखी हैं।लेकिन मां की मौत पर जब मैं अंतर्जाल पर कविताएं ढूंढने लगा तो कुछ ही कविताएं मिलीं। अब जब कि हमारे सिर पर मां की छाया हट चुकी है, इस दुःख और विषाद को महसूस कर सकता हूं। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं मां की स्मृति में लिखी गई कविताएं।
मां की मृत्यु पर कविताएं
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| केदार नाथ सिंह |
जैसे दिया सिराया जाता है
केदार नाथ सिंह
कल माँ को सिरा आया भागीरथी में
कई दिनों से गंगा नहाने की
कर रही थी ज़िद
सो, कल भरी दोपहर में
जब सो रहा था सारा शहर कोलकत्ता
मैंने उसे हथेलियों पर उठाया
और बहा दिया लहरों पर
जब वह बहती हुई
चली गयी दूर तो ध्यान आया
हाय, ये मैंने क्या किया
उसके पास तो वीजा है न पासपोर्ट
जाने कितना गहरा-अथाह जलमार्ग हो
जल के कस्टम के जाने कितने पचड़े
कुछ देर इस उम्मीद में
शायद कुछ दिख जाए
खड़ा खड़ा देखता रहा...
देखता रहा जल के भीतर की
वह गहरी अँधेरी जाम-लगी सड़क
और जब कुछ नहीं दिखा
तो मैंने भागीरथी से कहा
माँ,
माँ का ख्याल रखना
उसे सिर्फ भोजपुरी आती है
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| प्रभाकर माचवे |
मां की मृत्यु पर
प्रभाकर माचवे
माता! एक कलख है मन में, अंत समय में देख न पाया
आत्मकीर के उड़ जाने पर बची शून्य पिंजर सी काया ।
और देख कर भी क्या करता? सब वि न जहां पर हारे,
उस देहली को पार कर गयी, ठिठके हैं हम ’मरण-दुआरे’।
जीवन में कितने दु:ख झेले, तुमने कैसे जनम बिताया!
नहीं एक सिसकी भी निकली, रस दे कर विष को अपनाया?
आंसू पिये, हास ही केवल हमें दिया, तुम धन्य विधात्री!
मेरे प्रबल, अदम्य, जुझारू प्राणपिंड की तुम निर्मात्री ।
कितने कष्ट सहे बचपन से, दैन्य, आप्तजनविरह, कसाले
पर कब इस जन को वह झुलसन लग पायी, ओ स्वर्ण-ज्वाले !
सभी पूत हो गया स्पर्श पा तेरा, कल्मष सभी जल गया,
मेधा का यह स्फीत भाव औ’ अहंकार सब तभी जल गया,
पंचतत्त्व का चोला बदला, पंचतत्त्व में पुन: मिल गया,
मुझे याद आते हैं वे दिन, जब तुम ने की थी परिचर्या,
शैशव में, उस रूग्ण दशा में तेरी वह चिंतातुर चर्या !
मैं जो कुछ हूं, आज तुम्हारी ही आशीष, प्रसादी, मूर्ता,
गयीं आज तुम देख फुल्लपरिवार, कामना सब संपूर्ता
किंतु हमारी ललक हठीली अब भी तुम्हें देखना चाहें,
नहीं लौट कर आने वाली, वे अजान, अंधियारी राहें ...
मरण जिसे हम साधारण-जन कहते हैं, वह पुरस्सरण है ।
क्षण-क्षण उसी ओर श्वासों के बढ़ते जाते चपल चरण हैं ।
फिर भी हम अस्तित्व मात्र के निर्णय को तज, नियति-चलित से
कठपुतली बन नाच रहे हैं, ज्यों निर्माल्य प्रवाह पतित से !
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| मंगलेश डबराल |
माँ का नमस्कार
मंगलेश डबराल
जब माँ की काफ़ी उम्र हो गई
तो वह सभी मेहमानों को नमस्कार किया करती
जैसे वह एक बच्ची हो और बाक़ी लोग उससे बड़े
वह हरेक से कहती बैठो कुछ खाओ
ज़्यादातर लोग उसका दिल रखने के लिए
खाने की कोई चीज़ ले कर उसके पास कुछ देर बैठ जाते
माँ ख़ुश हो कर उनकी तरफ़ देखती
और जाते हुए भी उन्हें नमस्कार करती
हालाँकि उसकी उम्र के लिए यह ज़रूरी नहीं था
वह धरती को भी नमस्कार करती
कभी अकेले में भी
आख़िर में जब मृत्यु आई तो उसने उसे भी नमस्कार किया
और जैसे अपना जीवन उसे देते हुए कहा होगा
बैठो कुछ खाओ।
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| प्रमोद बेडिया |
माँ की मृत्यु
प्रमोद बेड़िया
वह स्त्री मेरी माँ है
वह पुरुष मेरा पिता है
पिता जब नहा रहे थे, तब माँ
बाहर दीवार से लगी बैठी मर गई थी
हम दोनों भाई, बल्कि छोटा भी, याने तीनों भाइयों को
पिता ने चीत्कार की तरह पुकारा
हम तीनों आए तो नब्ज देखी, डॉक्टर को बुलाया
तब तक माँ मर चुकी थी
पिता ने शिकायत के स्वर में कहा कि तुम लोग कहाँ रहते हो
यहाँ कोई मर रहा है, तुम्हें पता ही नहीं है, तो मैंने बड़े बेटे के लिहाज़ से कहा
कि बाबूजी, हम सभी घर में ही थे, अब कोई बोल कर तो मरता नहीं है
अब आप भी तो उस समय बाथ रूम में नहा ही रहे थे
मन ही मन कहा-स्त्रियाँ ऐसे ही मरती हैं, बाबू जी
जीवित को तो आप भी नहीं
मैं भी नहीं और यह भी नहीं, वह भी नहीं
कोई नहीं पूछता है
अब ठीक है
जो होना था वह हो गया॥
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| अनिल जनविजय |
मां के बारे में
अनिल जनविजय
मां
तुम कभी नहीं हारी
कहीं नहीं हारी
जीतती रहीं
अंत तक निरन्तर
कच कच कर
टूट कर बिखरते हुए
बार-बार
गिर कर उठते हुए
घमासान युद्ध तुम लड़ती रहीं
द्वंद्व के अनन्त मोरचों पर
तुम कभी नहीं डरीं
दहकती रहीं
अनबुझ सफ़ेद आग बन लहकती रही
तुम्हारे भीतर जीने की ललक
चुनौती बनी रहीं
तुम जुल्मी दिनों के सामने
चक्की की तरह
घूमते रहे दिन-रात
पिसती रहीं तुम
कराही नहीं, तड़पी नहीं
करती रहीं चुपचाप संतापित संघर्ष
जब तक तुम रहीं
फिर एक दिन तुम
आसमान में उड़ीं
उड़ती रहीं, बढ़ती रहीं
अनंत को चली गईं
खो गईं
एक माँ की मौत
अनुवाद : देवी नागरानी
अतिया दाऊद
ज़िंदगी मेरे बच्चे के गाल-सी मुलायम
और कहकहों जैसी मधुर है
उन मधुर सुरों पर झूमते सोचती हूँ
मौत क्या है...? मौत क्या है...?
क्या मौत बेख़बरी की चादर है?
जिसे ओढ़ कर इतनी मैं पराई बन जाऊँगी
अपने बच्चे की ओर भी देख न पाऊँगी
मौत अँधेरे की मानिंद मेरी रागों में उतर जाएगी!
आख़िर कितना गहरा अँधेरा होगा
क्या मेरे बच्चे का चेहरा
रोशनी की किरण बन कर मेरे ज़हन से नहीं उभरेगा?
मौत कितनी दूर, आख़िर मुझे ले जाएगी
क्या अपने बच्चे की आवाज़ भी मुझे सुनाई नहीं देगी?
मौत का ज़ायका कैसा होगा?
और भी कड़वा या इतना लजीज़
जब मांस चीरते रग-रग दर्द में तड़पी थी
दर्द के गरिया में गोता लगाकर
एक और मांस मैंने तख़्लीक किया था
क्या ममता के आड़े भी
मौत के समंदर की लहर तेज़ है?
मेरे बच्चे के आँसू
उस बहाव में मुझे क्या बहने देंगे?
आख़िर कब तक मैं खामोश रहूँगी
अपने बच्चे को सीने से लगाए बिना
साफ़-सुथरे कफ़न में लिपटी हुई
अकेली किसी अनजान दुनिया की ओर चली जाऊँगी
मौत, मेरे गले में अटका हुआ इक सवाल है
और ज़िंदगी
मेरे बच्चे का दिया हुआ चुंबन!
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| जसवीर त्यागी |
तस्वीर
जसवीर त्यागी
घर में सभी की तस्वीर है
एक माँ को छोड़ कर
कई बार सोचा भी था
किसी रोज उतरवाएँगे
माँ की एक बढ़िया-सी तस्वीर
माँ है कि अपनी दुनिया में मस्त
बच्चों की भीड़ में
मन्दिर में या फिर
चिड़ियों को दाना खिलाने में व्यस्त
पता नहीं क्यों माँ को?
तस्वीर खिंचवाना भाता न था
अक्सर पूछने पर वह डांट देती थी
'तस्वीर....
कोई देखेगा तो क्या कहेगा?'
मानो कुछ अप्रत्याशित घटा हो
फिर एक रोज
माँ ने पकड़ ली चारपाई
हम सब दवा-दारू में जुट गए
किसी को भी
यह ख्याल नहीं आया
कि माँ की एक भी तस्वीर
नहीं है घर में
माँ अपनी सबसे अच्छी तस्वीर भी
ले गयी अपने साथ
अब माँ नहीं है
और न ही माँ की कोई तस्वीर
लेकिन! जब कभी
बात चलती है तस्वीर खिंचाने की
मुझे याद आता है
चिता की लपटों में जलता
माँ का शरीर।
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| राकेश रोहित |
माँ की स्मृति में
राकेश रोहित
(1)
दुख की लंबी उड़ान के बाद
कहाँ लौटती है आत्माएँ
कहाँ रीत जाता है
इच्छा के अक्षय पात्र में सिमटा आत्मा का जल!
हजारों ईश्वर से भरी आकाशगंगा में मिलने को आतुर
ऊर्जा की एक लहर
गंध बन कर डोलती रहती है दिशा-दिशांतर में
एक बहुत बड़े ब्लैक होल के अंदर रची दुनिया में
छीज जाता है मेरे अंतर का एक अस्तित्व
मैं लौटता हूँ,
मैं माँ के पास, माँ के साथ लौटता हूँ।
जब मैं एक नदी से मिलता हूँ
मैं एक नदी ले कर लौटता हूँ,
एक शब्द की गूंज सारी सृष्टि में समायी है
उसी एक शब्द से संसार की सारी नदियाँ निकलती हैं।
(2)
ऐसा भी होता है
कि दुख सालता है अनश्वर आत्मा को
और एक दिन दुख इतना बड़ा हो जाता है
कि आत्मा देह छोड़ कर
रहने लगती है दुख के घर में।
विद्वत लोग जो आत्मा को जानते हैं
दुख को नहीं जानते हैं।
(3)
हम सब जान नहीं पाते
एक दिन
दुख ही तुम्हारे अंदर आत्मा बन कर रहने लगता है।
आत्मा छोड़ जाती है देह
या दुख ही तुम्हें मुक्त करता है!
मैं "माँ" कह कर बुलाता हूँ तुम्हें
मैं देखता हूँ मेरे सामने बस एक नदी है।
(4)
बूंद-बूंद टपकता है जल पीपल की जड़ों में
सोने के पंख वाली चिड़िया चुगती है दाने वहीं पास
हजार पत्तों में डोलता है एक चंचल मन
माँ, क्या तुम सुनती हो एक खामोश करबद्ध प्रार्थना?
(5)
मैं लौटता हूँ
मैं लौटता हूँ अंधेरे में!
कौन चलता है मेरे साथ
कौन रोता है पकड़ कर मेरा हाथ
कौन बोलता है अब लौटना नहीं होगा!
इस धरती को अंधेरे ने ढंक लिया है
सुबह की स्याही दिन पर फैल गयी है
जिसकी लोरी सुन कर सो जाते थे बच्चे
वो सो गयी है और बच्चे जाग रहे हैं।
कितनी भी जोर से पुकारूं
तुम तक नहीं पहुंचते तुम्हारे सिखाये शब्द!
रोने की कोई वर्णमाला नहीं होती
इसलिए जब मृत्यु की छाया छूती है
अकेले मन को
आवाज से पहले छूटती है रूलाई
पर सर को नहीं छूता तुम्हारा हाथ!
अपने अंदर भी एक वीरान आकाश होता है
किसी ने नहीं बताया
या वह धीरे-धीरे उतरता है
तुम्हारी आत्मा से मिलने!
यह आत्मा देह धारण किये रहती है
या दुख ही देह में आत्मा बन रहता है?
ये जो छाया सा छूता है मेरे मन को
यह अनश्वर आत्मा है
या इस गेह में सिमटा दुख?
माँ अज्ञान के नीरव क्षण में पूछता हूँ यह जान
कि अब जानना नहीं होगा!
तुमने ही सिखाया वो शब्द
जिससे तुम्हें पुकारता रहा
वो शब्द आज भी हैं पर तुम नहीं हो।
सारे शब्दों में व्यक्त नहीं हो पायेगी मेरी तनहाई
माँ बहुत अकेला हूँ मैं!
ये किस धुन में गाती है निर्गुण हवा
मैं जितना भी जोर पुकारूं
शून्य के पार नहीं जाती मेरी आवाज
बस शून्य थोड़ा और करीब आ जाता है
इच्छाओं के निर्वात में तैरता है मेरा मन
जैसे नदियों के जल से आप्लावित है धरती
दुख से भींज गया है आत्मा का कोर।
हजारों देह का दुख धारण किये है यह धरती
हजारों तन की तपन है आग की इन लपटों में
अनगिन आँखों के आँसू से आलोड़ित है ये लहरें
बेचैन हवाएं छूती हैं हड्डियों को कहीं बहुत भीतर
मन के अंदर की शून्यता से ही भरा है यह
विश्व पर फैला आकाश।
वहीं छोड़ आया हूँ माँ को
जिसने कभी अकेला नहीं छोड़ा मुझे,
इस धरती पर चलता हूँ जिसके सिखाये
नदी से करता हूँ प्रार्थना जिसके बताये।
नदी तुम्हें दुलारेगी
ये मन जब तुम्हें पुकारेगा
मैं मन को समझा नहीं पाता हूँ
माँ अब मिलना नहीं होगा!
(6)
और तुम जब नहीं थी
नदी के पास जा कर मैंने पुकारा- 'माँ'
और फिर
नदी ने मुझको बहते हुए देखा!
(7)
(एक दुख जिसे मैं लिखना नहीं चाहता था,
एक दुख जो मुझे लिखता है!)
यह कौन हर पल मेरे साथ
छायाओं की तरह चलता है?
कौन छू कर मुझे निकल जाता है
जब पलट कर बुलाती है कोई पुरानी आवाज?
हम सब अपने अंदर के शून्य में रहते हैं
जैसे ब्रह्मांड के निष्ठुर एकांत में रहती है
पृथ्वी पर कांपती एक अकेली हरी पत्ती,
मेरी आँखों में उदासियां पढ़ने वालों
इससे पहले मैं कहूँ कि
मेरी माँ नहीं रही
मैं चाहता हूँ थम जाए सृष्टि
इस तरह कि एकांत का नीला रंग फैल जाए धरती पर
और शब्दों को कुछ कहने की जरूरत न रह जाए!
जब तुम प्रार्थनाओं के आकाश से
बाहर चली गयी हो
मैं आँखें बंद कर अपने अंदर के रेगिस्तान में
उड़ती चिड़िया की आवाज सुनता हूँ।
रात जब कोई नहीं बोलता
तब डोलती है पृथ्वी
और मैं तुम्हारी बेचैनियां सुनता हूँ
क्या तुम तक पहँचती है मेरी आवाज?
वो दुख जिसे हर दिन मैं जज्ब कर लेता हूँ
आँखों में छलकने से पहले
क्यों फैल जाता है रिस कर मेरे अस्तित्व से बाहर
क्यों हर दिन एक फूल खिलने से रह जाता है?
क्यों हर दिन एक बात कहने से रह जाती है?
जब कोई दिखाई नहीं देता इस अंधेरे में
कौन देखता है अंधेरे में मुझे
जब कुछ कहता नहीं हूँ मैं
इस नीरव रात्रि में
कौन सुनता है मुझे!
एक दिन जब सहने को था इतना दुख
और कहने को कुछ नहीं था
मैंने अपने मन से पूछा,
जब शब्दों से घुलती नहीं दुखों की स्याही
तुम्हारे अंदर कौन खामोश बैठा कविता लिखता है?
(8)
इतना हरा होगा दुख
नहीं जानता था
कि जैसे रिस रही हो आत्मा
आती-जाती सांस संग
और उड़ रही हो हवा में
यह देह निरुद्देश्य!
आधी रात जब आसमान में खो जाता है चाँद
तारे झरते हैं रात भर
जैसे झरती है ओस
और खामोश भींगती है पृथ्वी।
इतना काला होता है मृत्यु का रंग
कि अनंत की तरह दिखता है अंधेरा
और टूट जाता है भरोसा उस शब्द पर
जिसे पुकारता मैं धरती पर आया था!
(9)
मैंने करवट बदली
पैर मोड़े
और कुहनी पर सो गया।
माँ नहीं थी
और मैं याद करना चाहता था
मैं इस धरती पर किसकी सुरक्षा में आया था!
(10)
मैंने पुकारा- माँ
और हवा जोर से मुझसे लिपट गयी
उसने नहीं पूछा
मैं उदास क्यों हूँ
उसने मेरे आँसू पोंछे
और बहने लगी!
*** ***
मौत
अनुज
माँ मार्च में गुजरी,
और ढूँढने पर भी एक अच्छी तस्वीर न मिली,
एक जो थी बची,
उसमें वह शाल ओढ़े थी...
मैं तस्वीर देखता और लगता...
कि माँ को मरने से पहले ठंड लग रही होगी.
सब कहते हैं कि माँ सबको एकटक देखने लगी थीं,
होता हो ऐसा,
कि मरने से ठीक पहले हो जाता हो मरने का भान.
मैं जो हूँ, भीरु, रुख्सत हो जाना चाहता हूँ नींद-नींद में,
होश में भाई मरा, माँ मरी
एक तड़पते कहते हुए मरा कि वह जीना चाहता है,
एक तड़पती कहते हुए मरी कि अब जीने को जी नहीं चाहता,
दोनों यह जानते हुए मरे कि उनका मरना तय है.
इस भिज्ञता से बड़ी पीड़ा भला और क्या होगी,
कि साँस अब रूक जानी है, लहू अब जम जाना है.
हरकत जिंदगानी की थम जानी है.
मौत, राजेश खन्ना के आनंद की कोई कविता नहीं है, न कोई रूमानी अदांज-ए-बयाँ
एक गाज है, गिरती है, तबाह करती है.
मौत खालीपन की वह अँधेरी खाई है, जो जाने वाला कभी न भर पाने के लिए छोड़ जाता है.
स्नेह के फेहरिस्त से किसी का भी जाना आपकी भी मौत है...
उस हिस्से की मौत है जहाँ वे थे, भरे-अटे, कब्ज़ा किए, हक़ से।
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| भानु प्रकाश रघुवंशी |
तुम्हारे जाने के बाद
भानु प्रकाश रघुवंशी
तुम्हारे जाने के बाद
न सूरज ने कम किया अपना ताप
न तुम्हारी कहानियों में बार-बार आने वाले
चन्दा मामा ने घटाई शीतलता
ठोस हो चुकी स्मृतियों की गेंद
फैलती-सिकुड़ती रही रात-दिन,
हवा बहती रही अपनी ही गति से
धरती रोई नहीं तुम्हारी अंतिम विदाई के समय
न आकाश ने बहाये आॉंसू
कुछ भी कम न हुआ इस संसार में
सिर्फ एक तुम्हारे सिवाय।
घर में तुम्हारी गैर मौजूदगी के
पहाड़ से, पूरे दस दिन बीत गए
तुम्हारे जाने के बाद
बस एक दीया जल रहा है, घर में
और उसी की लौं में देखता हूॅं मैं तुम्हारा अक्स।
हर सुबह स्नान करने के बाद जल
और हर शाम दीया जलाती रहीं तुम जहां
घर-परिवार के सुख-समृद्धि के लिए,
तुलसी का वह बिरवा भी मुरझा गया है।
सिर पर तुम्हारा हाथ और
तुम्हारे पास होने का अहसास भी किसी दिन
तुलसी के बिरवा की तरह मुरझा जायेगा
पर तुम,
संसार की सभी स्त्रियों में जिंदा रहोगी।
माॅं, मैंने ईश्वर को नहीं
हमेशा तुम्हें ही देखा है विराट स्वरूप में।
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| समर्थ वशिष्ठ |
कन्याकुमारी में माँ
समर्थ वशिष्ठ
वह पहली और आखिरी बार था
कि हम छुट्टी मनाने कहीं गए
छुट्टी भी क्या कि पिता को अकेले रहते
एक अरसा बीत चुका था
सो इरादा हुआ कि देखा जाए
केरल का थ्रिस्सूर नाम का यह शहर
जिसका चिट्ठियों में इतना ज़िक्र हो चुका था
आखिर है कैसा
बहन ने स्ट्रॉ वाली हैट पहनी
ट्रेन में बैठे तो माँ बोली
कि अब यह चले तो यक़ीन हो
कि हम निकल पड़े हैं
माँ को किसी बात का कभी यक़ीन नहीं हुआ
अनिष्ट होने की धुकधुकी उसके मन में
ऐसे घर थी कि वह अनिष्ट को
सादर आमंत्रित करती थी
थ्रिस्सूर में तो ख़ैर क्या मिलना था
एक लम्बे रेलगाड़ी के सफ़र के बाद
एक और रेलगाड़ी में सवार हो कर
हम कन्याकुमारी पहुंचे
एक सस्ते होटल के एक ही कमरे में
जमे चार लोगों के हमारे कुनबे ने
जब बाहर निकलने की तैयारी की
तो माँ ने सूटकेस से नई नाइटी निकाली
जो टखनों से थोड़ा ही ऊपर थी
अपनी कल्पना के समुद्र तट पर घूमने के लिए
वह इसे साथ लाई थी
पहले पिता ने मना किया फिर मैंने
कि यह बिल्कुल वैसा तट नहीं था
जहाँ नाइटी पहन कर घूमा जा सके
मैं कुल चौदह बरस का था
माँ ने जीवन भर उस तट का इंतिज़ार किया
जहाँ वह बिना किसी की परवाह किए
नाइटी पहन कर टहल सके
67 की उम्र में माँ ने अपनी नर्स से
फोटो खिंचवा कर मुझे मैसेज की
साथ में लिखा कि बताओ
कहीं से लगती हूँ मैं
सड़सठ साल की?
दो महीने बाद जब वह चली गई
सड़सठ की तब भी नहीं लगती थी
पर इससे आगे की गिनती नहीं थी
उसके पास
मेरे लंदन आने से चार महीने पहले
माँ चली गई
रेस्त्रां में अकेला बैठ कर सोचता हूँ
यहाँ होती तो मना ही लेता उसे
जींस पहनने को
अड़तीस की उम्र
चौदह की उम्र से
बहुत अलग होती है
मैंने कितने ही ऐसे समुद्र तट देखे ज़िंदगी में
जहाँ नाइटी पहन कर बिना कुछ सोचे
मीलों चला जा सकता है
पर माँ कैसे पहुँचती उन तक
कि उसका पासपोर्ट नहीं बना था
कहाँ जाती हैं वे सारी ख्वाहिशें
जिनके लिए कोई जगह नहीं होती
न कोई वक़्त?










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