ललन चतुर्वेदी का व्यंग्य 'एस. के. सिंह रिटायर हो गए हैं'
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| ललन चतुर्वेदी |
जीवन का एक समय ऐसा भी होता है जब नौकरी करना जरूरत या कहें मजबूरी होती है। अलग बात है कि यह जरूरत जीवन बदल कर रख देती है। नौकरी करने वाला चाहें जिस महकमें में जिस पद पर आसीन हो, उसमें साहबियत की बू आ ही जाती है। वह उन लोगों से ही बचने की कोशिश करने लगता है जिनके बीच से वह खुद आया होता है। और उसे अपने रोब दाब भी तो दिखाना यानी कि प्रदर्शन करना ही होता है। बहरहाल, एक दिन ऐसा भी आता है जब वह नौकरी से रिटायर हो जाता है और तब जीवन की असलियत उसके सामने आने लगती है। जीवन भर आम लोगों से दूर रहने वाला अब आम लोगों से बात करने के लिए तरस जाता है। लेकिन चाकरी तो चाकरी ही होती है। रिटायर व्यक्ति के निगरानी की जिम्मेदारी अब उसकी पत्नी सम्भाल लेती है। यानी कि अब पत्नी ही उसकी साहेब की भूमिका सम्भाल लेती है। कहीं भी आने जाने, रहने खाने का हिसाब प्रति सेकेंड की दर से उसे रोजाना देना होता है। ऐसे में उस व्यक्ति को अपने नौकरी के दिन याद आते हैं जब तरह तरह की छुट्टियों के लिए उसे अर्जी लगानी पड़ती थी। ललन चतुर्वेदी का व्यंग्य इस विडम्बना को करीने से उद्घाटित करता है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं ललन चतुर्वेदी का व्यंग्य 'एस. के. सिंह रिटायर हो गए हैं'।
व्यंग्य
'एस. के. सिंह रिटायर हो गए हैं'
ललन चतुर्वेदी
(यह कहानी एस. के. सिंह साहेब की है। कहानी उनकी नहीं भी हो सकती है। इसका किसी से साम्य होना महज संयोग है। इसका उद्देश्य किसी को भावनात्मक कष्ट पहुंचाना नहीं है। यह कहानी किसी जमाने में प्रकाशित सत्यकथा की काल्पनिक कहानियों की तरह है। वास्तविकता से इसकी मुठभेड़ दुर्घटना के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है।)
संत बाबू रिटायर हो गए हैं। इसके पूर्व उन्हें एस. के. सिंह साहब और संक्षेप में सिंह साहेब के नाम से जाना जाता था। नाम अभी सार्वजनिक हुआ है। पहले सब कुछ गोपनीय था।अब बहुत कुछ सार्वजनिक हो रहा है। नाम की भांति वह भी अभी-अभी सार्वजनिक अर्थात सर्व सुलभ हुए हैं। रिटायर्ड आदमी के पास और देवालय में कोई भी जा सकता है। रिटायर्ड आदमी और देवता दोनों चाहते हैं कि भक्त उनके पास आते-जाते रहें ताकि चहल-पहल बनी रहे। वैसे, रिटायरमेंट के बाद अधिकांश आदमी संत की भूमिका में आ जाते हैं। बहुत कम लोग हैं जो पुराने दिनों के तेवर में रहते हैं। अनेक लोग तो बिहारी लाल के दोहे को दोहराते हुए अफसोस करते रहते हैं -
जिन दिन देखे वे कुसुम गई सु बीती बहार।
अब अलि रही गुलाब में अपत कंटीली डार।।
रिटायर्ड आदमी की पीड़ा को कौन समझता है? वह न घर का रह जाता है, न घाट का। आफिस जा नहीं सकता, घर में एडजस्ट नहीं हो सकता। गांव में फिट नहीं हो सकता। फिर भी उसका मन बार-बार मिट्टी की ओर लौटता है। गांव जा कर अफसोस करता है। नौकरी जवानी खा जाती है। अशक्त तन और टूटे मन से कहता है - "सब मिट्टी में मिल गया।" संत बाबू गांव से लौट कर इसी उधेड़बुन में कुर्सी से टिके अपने से बतिया रहे थे कि मैंने उनका ध्यान भंग किया - " संत जी! कहां खोए हुए हैं?"
नज़रें उठा कर गंभीर मुद्रा में गमगीन से हो गए। सोचने लगे आज तक कोई उन्हें नाम से पुकारता नहीं था। सब लोग सर, सर करते रहते थे। इस रिटायरमेंट ने उन्हें मिस्टर एस. के. सिंह से संत जी बना दिया। चुप रह गए।
मैंने बगल की कुर्सी खींच ली और पूछ डाला - "बहुत दिनों से आपको देखा नहीं। कहीं बाहर गए थे?"
"देखो भाई! सेवा में था तो समय नहीं मिलता था। गांव जाने का मौका नहीं मिलता था। इधर कुछ दिनों के लिए गांव चला गया था। परंतु श्रीमती जी के सुबह-शाम के धमकी भरे फोन से आजिज आ कर भागा- भागा आया।"
मैं उनकी स्थिति समझ रहा था। मैडम थोड़ी कड़क मिजाज की हैं। मातहतों को यह सुविधा रहती है कि वे अफसर की शिकायत अपनों के बीच कर संतोष कर लेता है। इस बतरस से सिद्ध होता है कि संतोष में सुख है। परंतु आदमी, उसमें भी अफसर अपनी पत्नी की शिकायत करने के दुर्लभ सुख से प्रायः वंचित रहता है। अधिकांश अफसरों की गंभीरता का राज यही है। लुटे- पिटे से आफिस आते हैं और अधीनस्थों पर गुस्सा झाड़ते हैं। शाम में बुझे-बुझे से डेरा जाते हैं। रिटायरमेंट के बाद उन्हें शिकायत करने की सुविधा प्राप्त हो जाती है। सेवानिवृत्ति का एक लाभ यह भी है। बस, इसका आनंद लेना हो तो अफसर के साथ कुछ समय बिताइए। रिटायर्ड अफसर लोगों को सुनाना चाहता है। ऐसे भी सेवा काल में वह सुनने का नहीं सुनाने का ही काम करता है। हां, रिटायरमेंट के बाद उसकी शैली बदल जाती है। वह कुछ मधुर और मोहक अंदाज में बातें करना लगता है। श्रोता भी स्वयं को धन्य समझता है कि इतना बड़ा अफसर रिटायरमेंट के बाद ही सही, उससे बातें तो कर रहा है।
ख़ैर, संत जी ने उस दिन दिल खोल कर ही रख दिया - "क्या कहूं प्यारे! नौकरी में था तो साहबों से छुट्टी लेनी पड़ती थी। घंटे भर के लिए बाहर जाओ तो परमिशन लेना पड़ता था। आकस्मिक, अर्जित, त्यौहार आदि किसिम-किसिम के अवकाश की सुविधा थी। थोड़ी कठिनाई होती थी लेकिन छुट्टी मिल जाती थी। लेकिन अब तो उससे भी कठिन स्थिति हो गई है।"
मैंने थोड़ा सहानुभूतिमिश्रित आश्चर्य व्यक्त किया - "संत जी! ऐसा तो नहीं होना चाहिए। अब तो आप आजाद हैं। मुक्त गगन है, मुक्त पवन है। मुक्त गरबीली सांस लीजिए और प्राणायाम करते हुए बाबा रामदेव की तरह युवा दीखिए।"
"क्या बात करते हो भाई! अब भी मैं मातहत हूं। आज भी मुझे आकस्मिक अवकाश लेना पड़ता है। छुट्टी की अर्जी लगानी पड़ती है। मैडम की मर्जी के बिना कहीं बाहर नहीं जा सकता। पहले हेडक्वार्टर छोड़ने के लिए परमिशन लेनी पड़ती थी। अब घर से बाहर अपने ही शहर में जाने के लिए परमिशन लेनी पड़ती है। देर-कुबेर होने पर छुट्टी बढ़ाने के लिए यथोचित कारण बतलाना पड़ता है। लौट कर दौरा रिपोर्ट सबमिट करना पड़ता है। अनावश्यक बिलंब करने के लिए शो कॉज नोटिस का जवाब देना पड़ता है।"
मैंने कहा- " संत जी! रिटायरमेंट समर्पण काल है। इसमें अपना सारा समय पत्नी को समर्पित कर देना चाहिए। जरा सोचिए, पत्नी का सहयोग और समर्पण नहीं मिलता तो आप सेवा पूरी कर लेते? पत्नी को दरकिनार कर जीवन भर सरकार की सेवा करते रहे। रिटायरमेंट के बाद पत्नी का खयाल रखा कीजिए। इसमें कोई बुराई नहीं है।"
संत जी ने चुप्पी साध ली।
धीरे-धीरे मैं संत जी का मुंहलगा बन गया था। कोई औपचारिकता नहीं थी। खुल कर बातें कर सकता था। अब वह साहेब नहीं थे। ऐसे ही माहौल में मैंने एक दिन एक गंभीर बात कही। वह आपके लिए भी गौर करने लायक है। इस पर विचार कीजिएगा। इसे अपने अहं पर ठेस पहुंचाने वाला बयान मत समझिएगा। वैसे सच थोड़ा कड़वा लगता ही है। मैंने तो इसे वार्तालाप के क्रम में संत जी से कहा है कि आदमी अफसर की चापलूसी करे या ना करे, उसे पत्नी की चापलूसी करनी ही पड़ती है। पत्नी के सामने बड़े-बड़े बयान वीरों की घिग्घी बंध जाती है। वह भी ऐसे समय में जब महिला सशक्तिकरण की दुंदुभि बज रही है। पुराना ज़माना भूल जाइए जनाब! समय के साथ चलना सीखना ही होगा। आफिस में आप पत्नी को डिपेंडेंट घोषित करते हैं लेकिन घर में आप उसी पर डिपेंड हैं। इस मुद्दे पर आप डिफेंड नहीं कर सकते।
अनुभव की बात बतलाता हूँ। कर्मचारी की बात तो मैं नहीं कह सकता लेकिन रिटायरमेंट के बाद अफसर समझदार हो जाता है। नख-दंत विहीनता का एहसास किसी में सीधापन ला देता है। संत जी समय को पढ़ने वाले हैं। इसीलिए, आजकल चुप रहते हैं। कम बोलते हैं। मैं उन्हें जो सुनाता हूं, ध्यान से सुनते हैं। लगता है कुछ दिनों में वे बुद्ध की मुद्रा धारण कर लेंगे। रिटायर्ड लोगों के साथ ऐसा होता है। उनकी पीड़ा बड़ी है।उनका घाव गहरा है। उन्हें राजमार्ग त्याग कर बुद्ध मार्ग पर आना पड़ता है। रिटायरमेंट के बाद वह जीवन का मर्म पकड़ने की कोशिश में लगे रहते हैं। हालांकि उनकी पकड़ लगातार ढीली पड़ती जाती है। धीरे-धीरे वह स्वयं को कैद करने लगते हैं। एस. के. सिंह भी द्रष्टा हो गए हैं। साक्षी भाव से सारी चीजों को देखते हैं। मुझे ऐसे कड़क अफसर की इस स्थिति से सहानुभूति है। मैं उनके साथ समय बिताना चाहता हूं। उनके अनुभवों से लाभ उठाना चाहता हूं। वह जौहरी ही है जो हीरा का मोल समझता है।
मुझे दुःख होता है जब लोग मुझे उनके पास बैठने को ले कर नुक्ताचीनी करते रहते हैं। ऐसे ही एक शाम मैं उनके पास बैठा था। रास्ते से गुजरते हुए एक जवान भद्दा मजाक करते हुए चलता बना- "क्या रोज यहां हाजिरी लगाते हो? जानते नहीं हो? एस. के. सिंह रिटायर हो गए हैं।" मुझे अपने ही एक सहकर्मी की बात याद आ गयी- बाघ जब बूढ़ा जाता है तो बकरी चुम्मा लेने लगती है।
(पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग कवि विजेन्द्र जी की है।)
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