रणविजय सिंह सत्यकेतु की कहानी 'शाइस्तगी के पत्ते'


रणविजय सिंह सत्यकेतु



हमारा समाज बहुत हद तक एक परंपरागत यानी कि बन्द समाज है। वह किसी भी बदलाव या खुलेपन को सहज ही स्वीकार नहीं करता। एक हिचक लगातार उसके अन्दर बनी रहती है। इतिहास गवाह है कि मजहब हमेशा आधुनिकता को स्वीकार कर पाने में बड़ी बाधा खड़ा करता है। यही नहीं दूसरे मज़हब को स्वीकार कर पाने की उदात्तता भी इन मजहबों में प्रायः नहीं होती। अपना दीन (मजहब) और ईमान सबसे ऊंचा लगता है। लेकिन आगे बढ़ते जाना वक्त का दस्तूर है जबकि अपनी मान्यताओं (जिसे हम जड़ता भी कह सकते हैं) पर टिके रहना मनुष्य की फितरत। दोनों के बीच के द्वंद्व चलता ही रहता है। आज का जो दौर चल रहा है उसमें प्रगतिशीलता कहीं पीछे छूटती जा रही है जबकि प्रतिगामिता आगे दौड़ती माकती जा रही है। ऐसे में भले ही हमें विकसित देश बनने का सपना दिखाया जा रहा हो, उसके  हाल फिलहाल यथार्थ में परिणत होने की कोई संभावना दूर दूर तक नजर नहीं आ रही। संकुचित मानसिकता आपको दूर तक नहीं ले जा सकती। 'वनमाली कथा' के नवम्बर-दिसम्बर 2025 अंक में छपी रणविजय सिंह सत्यकेतु की कहानी 'शाइस्तगी के पत्ते' में इन सारे परिप्रेक्ष्य को देखा जा सकता है। यह अंक की एक उम्दा कहानी है और इसे अंक की उपलब्धि माना जा सकता है। इस कहानी के कई अलग अलग शेड्स हैं, जो कहानी के अंग की तरह हैं। इसमें सरकारी विभागों में धीरे धीरे घर कर रही उस सांप्रदायिकता को भी महसूस किया जा सकता है जिसकी पदचाप को अब हर महकमे में स्पष्ट तौर पर सुना जा सकता है। पुलिस महकमे का रूदल यादव ऐसा ही प्रतीक है जो बदरुद्दीन को उसके सही नाम से न पुकार कर बदरी कहता है। इस कहानी में उस ईर्ष्या द्वेष को भी सहज ही देखा जा सकता है जिसमें हमारा समाज आकंठ डूबा हुआ है। मंज़िल सदाबहार को ले कर मुहल्ले की कुण्ठित सोच इस कहानी की रीढ़ की तरह है। मंज़िल सदाबहार के प्रति शिकायतें और ईर्ष्या भाव इसीलिए है, क्योंकि उसके रहवासियों की सोच परंपरागत न हो कर समय के अनुकूल यानी कि आधुनिक है। परंपरावादियों के लिए मुहल्ले की मरजाद बुर्के में है। भारत सरकार लिखी काली कार इन्हें खटकती रहती है। काज़िम का आबकारी में बड़े ओहदे पर होना चुभता रहता है। इनकी सोच यह है कि बकौल कहानीकार 'बेटे-बेटियों पर लगाम न रखोगे तो फर्ज़ लांघते देर न लगेगी। इसलिए नज़र रखो कि वे तरीके के कपड़े पहनें, दीन-धरम की डोर थामे रहें।' इसी कहानी में वे किरायेदार लड़के भी हैं जो पढ़ने लिखने के लिए किसी तरह अपना समय बिता रहे होते हैं और जिन्हें मुहल्ले के लोग हेय दृष्टि से देखते हैं। इसी कहानी में बिटौना चौराहे पर हुई अनवारुक हक और लुटुर झा गैंग की आपसी भिड़ंत भी है जिसमें दो निर्दोष किशोरों की जान चली जाने की खबर है। ये सारे शेड्स कहानी को आज की हकीकत में बदल देते हैं। कहानी में कई जगह बातचीत के क्रम में ही ऐसी बातें कह दी गई हैं जो मुहावरा सरीखी हैं। यह सामान्य बात नहीं। नए मुहावरे को गढ़ना हमेशा चुनौतीपूर्ण होता है और सत्यकेतु इस चुनौती पर पूरी तरह खरे उतरे हैं। ये मुहावरे महज मुहावरे ही नहीं बल्कि आज के पर्याय बन गए हैं। 'सूखे गले में अटक रही धड़कनें', 'सकरी बोतल से घी निकालना' जैसे कई उम्दा मुहावरे आप इस कहानी में देख सकते हैं। कहानी में कहानीपन का वह जबरदस्त रसायन है जिसे एक बार शुरू करने के पश्चात आप बिना पूरी किए वापस नहीं लौट सकते। यानी कहानी आपको पूरा किए बिना छोड़ती ही नहीं। एक कहानीकार को इससे ज्यादा भला और क्या चाहिए। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं रणविजय सिंह सत्यकेतु की कहानी 'शाइस्तगी के पत्ते'।



(कहानी)  

शाइस्तगी के पत्ते


रणविजय सिंह सत्यकेतु


अचानक से सरकारी गाड़ियां दनदनातीं मोहल्ले के मोड़ पर आ कर रुकीं। बीच वाली काली लंबी कार के आगे पीछे पुलिस की मोटर। बाशिंदों की नजरें उधर ही टिक गईं। सबके कान खड़े हो गए। कोई अपनी जगह से हिला नहीं मगर अपने तईं अंदाजा लगाने लगा... रामनौमी बीती, मोहर्रम-चेहल्लुम ख़त्म... सावन का सिरा भी छूटा... अब भला कौन सी हिदायत देने आए हैं पुलिस वाले। किशन-बलदाऊ पैदा हुए, छठी-बरही हुई, राधा रानी की अष्टमी भी गई, फिर क्या बचा है? शायद दशहरे के बावत कुछ परहेज बताने आए हों। कुछ समझ नहीं आया। दुकानदारों ने खामोश सतर्कता ओढ़ ली। कनखियों से गाड़ियां निहारते खुद को कामों में यूं मशगूल किया गोया अपनी दुकान के बाहर की आवाजाही की उन्हें ज़रा भी ख़बर नहीं।


मगर दिल ही दिल ख़ौफ़ कि बिजली वाले न हों, काफी से ज़्यादा बकाया पड़ा है। रसद महकमे वाले न हों, सामान की तहक़ीक़ात के नाम पर ग़ैरमुनासिब जुर्माना ठोंक देंगे। मार्केटिंग या नगर निगम वाले न हों, लाइसेंस और टैक्स का जाल फेंक कर पसीने की कमाई उड़ा ले जाएंगे। इन्हीं कयासों में आवाजाही करते मोड़ के दुकानदार होने वाले नफा-नुकसान के गणित में उलझे थे।


हां, बच्चों का खेलना ज़रूर रुक गया। वे रुकी गाड़ियों के खुलने या निकल जाने का इंतज़ार करने लगे। खुले तो खेलें इस तरह कि किसी नुकसान का अंदेशा न रहे। निकले तो अपने अंदाज़ में खुल कर खेलें।


खुले आगे-पीछे की मोटर के गेट। उतरे पुलिस के कारिंदे। कुछ पहचाने, कुछ अनजाने।


दीवान रूदल यादव के साथ दो सिपाहियों को अपनी दुकान की ओर आता देख मास्टर बदरुद्दीन तेज़-तेज़ पैर चलाने लगे। मशीन पर अटके कपड़े की सिलाई में खुद को मशगूल कर लिया।


वर्दी वाले जब बिलकुल ही नज़दीक आ गए, दीवान का एक पैर दुकान की चढ़ौनी पर टिक गया तो मजबूरन मास्टर बदरुद्दीन ने नजरें उठाईं और जूते खोजने में खुद को मसरूफ कर लिया।


'अऊर.. बदरी मियां, कैसे हैं?'


रूदल यादव ने पूछा तो मुस्कुरा कर ही था, लेकिन मास्टर बदरुद्दीन को दीवान का अंदाज़ बड़ा तीखा लगा। दिल ही दिल खौले... 'बेहूदे को कितनी बार बताया कि मेरा नाम बदरी नहीं, बदरुद्दीन है। पूरा तलफ़्फ़ुज़ न कर पाए तो कम-अज़-कम बदरू ही कहे। मगर नहीं... यादवी रुआब का मारा है। कहेगा बदरी ही। किसी जनम में बाप रहा होऊंगा साले का।' मगर सारे ख़यालात जज़्ब कर गए। सिर पर टोपी डालते हुए उठ खड़े हुए, 'मेहरबानी है साहेब!'


दीवान को गलियों और मकानों का मुआयना करते देख मास्टर बदरुद्दीन ने पूछा, 'सब ख़ैरियत?'


'ख़ैरियत क्या रहेगी मियां... सड़कें गलियां बन गई हैं। मकानों को कबूतरखाना बना रखा है। न कहीं बोर्ड लगा है और न किसी के नाम की पट्टी?'


मास्टर बदरुद्दीन को लगा, दीवान मोहल्ले की आबादी और बसावट पर तंज़ कर रहा है। फिर भी, समझदारी से बोले, 'ऐसी कोई बात नहीं, कहें तो मुद्दई को ढूंढने में मदद करूं?'


'बदरी मियां, मुद्दई से ज़्यादा ज़रूरी कसूरवार का पता लगाना होता है', रूदल यादव ने एक खड़ी नज़र मास्टर बदरुद्दीन पर डाली तो वो ऐसे सकपका गए गोया कसूरवार का इशारा उनके लिए ही हो। लेकिन अगले ही पल दीवान को मुस्कुराता देख खिसियानी हंसी तक जा पाए, क्योंकि दिमाग़ अंदाज़ा लगाता रहा कि आख़िर वर्दी वाले का शिकार कौन है।


कानों में आवाज़ दीवान की ही सुनाई पड़ी, 'मुद्दई तो फिर भी सामने होता है बदरी मियां, छुपा तो कसूरवार होता है। बल्कि छुपाया गया होता है। क्यों..?'


मास्टर बदरुद्दीन ने महज सिर हिलाया। कुछ बोलना मुनासिब न लगा। बोले रूदल ही, 'और आप जानते हैं बदरी मियां... कसूरवार को तहों से खींच लाना दीवान रूदल यादव के लिए कितना आसान होता है।'


'जी ज़नाब!'


'मुद्दई को भी पता होता है कि कसूरवार किधर है। कसूरवार भी जानता है कि दीवान उसे कहां से, किस तरह खींच निकालेगा। बीच में भद पिटती है तहों की। ख़ामख़ाह बेपर्द हो जाती हैं।'


रूदल की जुबान तीर की तरह चुभ रही थी, लेकिन मास्टर बदरुद्दीन चुप ही रहे। एक दो मामलों में उन्होंने भी जानकारियां छुपाई थीं, जो बाद में सामने आ गईं। पुलिस के अलावा लोगों की लानतें सुननी पड़ी थी। इसलिए भी वह रूदल यादव से घबराते थे। चाहते थे कि इधर चाहे जो पुलिस अफसर आए, बस एक रूदल न आए।


दरअसल रूदल यादव के कारनामे जगजाहिर थे और क़िस्से मशहूर। जिस भी इलाके में पोस्टिंग हुई, अच्छे अच्छों की रंगबाजी पर पानी फेर दिया। गोली से ज़्यादा बोली से ख़ौफ पैदा करते थे। सुरागरसी तो कमाल की थी। बरसों से ग़ायब और गुम शातिरों तक की कॉलर पकड़ लेते थे। ग़ज़ब के जांबाज और दिमाग़दार रूदल यादव का नाम तब सुर्खियों में आया जब भैया ठाकुर, परबत साह और झुन्ना खान की ख़ौफनाक तिकड़ी को झटके में तोड़ दिया था।


चांदनी रात में उतरी बाढ़ के पानी पर तैरती नाव पर जश्न करते महारथियों को ज़रा भी शक नहीं हुआ था कि गरम गोश्त की नरमी पर ठंडे गोश्त की गरमी ढीली करती उनकी देह उस दिन आख़िरी दम भरेगी। मल्लाही के हुनर की वाहवाही उनकी महफिल जड़ से उजाड़ देगी। धीमे धीमे सरपतों के बीच खिसकती नाव बिना हिचकोले खाए तिकड़ी को उद्दाम सुख से तर-ब-तर कर रही थी। बेपरवाही के बिछौने की तरफ अचानक पतवार की मूठ मुड़ी और गोलियों की तड़तड़ाहट से नदी की शांत पेटी गूंज उठी। मस्ती में डूबी वासना उछली.. तड़पी.. थरथराई, नाव हिली। गर्म खून से सनी देह मिट्टी हुई, नाव पलट गई।


सुबह की स्याही अख़बारों के पन्नों पर चमक रही थी, 'दीवान रूदल यादव ने किया आतंक का सफाया'। हिन्दुओं ने ग़द्दार कहा, मुसलमानों ने सांप्रदायिक। मगर खूंखार तिकड़ी ने जिनके दिलों के रेशे उधेड़े थे, जिनकी बहू-बेटियों की हया खरोंची थी, उन्होंने रूदल यादव को बतौर देव और वली ही देखा। समय के साथ वो दीवान से दरोगा हुए, दरोगा से इंस्पेक्टर लेकिन उनके नाम के साथ दीवान जैसे दर्ज हो गया। रूदल यादव भी दीवान पुकारे जाने से फ़ख्र महसूस करते थे गोया पुलिस के ओहदेदार न हो कर किसी रियासत के वजीर हों।


उस वाकये के बाद रूदल यादव ने पुलिस महकमे का भरोसा जीत लिया। फिर किसी टेढ़ी खीर को थाली में परोसनी हो या फिर संकरी बोतल से घी निकालना हो, रूदल यादव ही याद किए जाते रहे। चुनाव हो या सरकारी अभियान, ईद-बकरीद-मोहर्रम हो या दशहरा-दिवाली-होली... अति संवेदनशील इलाकों की कमान रूदल यादव के जिम्मे रहा। हर कठिन चुनौती को धूल चटाने का बीड़ा दीवान के नाम दर्ज किया जाता रहा। कभी किसी टास्क फोर्स का हिस्सा नहीं बने रूदल। अपनी खास टीम थी उनकी, जिसमें बाकी चेहरे तो बदलते रहे लेकिन दरोगा खान बहादुर और दरोगा आजाद राम कंधे से कंधा मिलाए रहे। कई दफा हुआ कि वारदात के समय रूदल कहीं और व्यस्त रहे और मोर्चा खान बहादुर और आजाद राम को संभालना पड़ा। उनमें से एक चर्चित वाक़या क़िस्मतपुर का है।


क़िस्मतपुर के हसन अंसारी को अपनी ही ज़मीन पर चबूतरा बनाने से दबंग सुखदेव राम ने रोक दिया। इस पर मोहल्ले में खासा बखेड़ा खड़ा हो गया। दो पड़ोसियों का झगड़ा हिन्दू मुस्लिम विवाद और तनाव में बदल गया। हसन मेल-मिलाप से मामला सुलझाना चाहता था लेकिन उसके चचेरे भाई और ख़ुद को मोहल्ले का दादा समझने वाले मुनीर ने सुखदेव राम के कदम को मुस्लिमों के ख़िलाफ साजिश के तौर पर प्रचारित किया। लोगों में डर पैदा किया कि आज सुखदेव ने चबूतरा रोका है, कल को घर हटाने कहेगा। फिर एक-एक कर सभी मुसलमानों को मोहल्ले से बाहर भगाने का सिलसिला शुरू हो जाएगा। सुखदेव ने भी हिन्दुओं को भड़काने की खूब कोशिश की। बताया कि आज खाली ज़मीन पर चबूतरा बनाएगा, कल दीवार खड़ी करेगा। ग़रीब हिन्दुओं के शादी-ब्याह के शामियाने इसी खाली जगह पर लगते रहे हैं। जब वो रहेगी ही नहीं तो फिर क्या होगा। महंगे विवाह घर बुक कराने की कुव्वत कितने लोगों के पास है?


बात थाने पहुंची मगर इत्तेफाकन दीवान रूदल यादव शहर में नहीं थे। मोर्चा खान बहादुर और आजाद राम ने संभाला। पूरी फोर्स के साथ क़िस्मतपुर पहुंचे। मोहल्ले के बुजुर्गों से पूछताछ की। हसन अंसारी से अलग बात की। पार्षद मरहबा बेग से मशवरा किया। फिर जो सच सामने आया, उसने क़िस्मतपुर वालों की आंखें खोल दी।


हसन अपने मरहूम वालिदैन की ख़्वाहिश पर कायम था कि ग़रीबों की भलाई के लिए अपनी खाली ज़मीन को वह घेरेगा नहीं। बल्कि वह तो चबूतरा ही इसलिए बना रहा था कि शादी-ब्याह, बहुभोज, वलीमे या मजलिसों के लिए मुस्तक़िल इंतजाम हो जाएगा। सुखदेव का घर उस ज़मीन के बाद पड़ता था लेकिन बिना मतलब के उसने टंटा खड़ा किया।


अगर हसन अपने फायदे के लिए भी चबूतरा बनाना चाहता था तो वह उसका कानूनी हक़ था। लेकिन मुनीर ने पैंतरा खेला। दरअसल हसन की खाली ज़मीन पर मुनीर की नज़र थी। इसके लिए उसने सुखदेव को उकसाया, बढ़िया कमीशन देने का वादा किया। बदमाश बदमाश मौसेरे भाई बन गए। फिर प्लानिंग के मुताबिक पहले सुखदेव ने चबूतरे का काम रोका। फिर मुनीर ने न केवल ऐतराज किया बल्कि मुद्दे को मुस्लिमों के खिलाफ साजिश करार देने का हौव्वा खड़ा किया। सुखदेव ने हिन्दुओं को भड़काया और देखते-देखते दोनों तरफ से नारेबाजियां शुरू हो गईं। दुखी हसन ने पहले पार्षद को, फिर थाने को इत्तिला दी।


मोहल्ले में पुलिस की आहट होते ही मुनीर अंसारी और सुखदेव राम ग़ायब हो गया। अपने अपने नेता के भाग जाने से हिन्दू और मुसलमान हक्के बक्के रह गए। चबूतरा बनाने का हसन का असल मकसद जान कर दोनों तरफ के लोग पछताने लगे।


इसी अफसोस के भाव ने खान बहादुर और आजाद राम को सूत्र थमा दिया। आधे घंटे के भीतर मुनीर अंसारी और सुखदेव राम को एक ही साथ रणवीर राजपूत के घर से दबोच लिया। रणवीर यहां-वहां फोन घुमाता रह गया, राजपूती हनक दिखाता रह गया लेकिन खान बहादुर और आजाद राम पर कोई असर नहीं हुआ। मुनीर और सुखदेव को लगभग घसीटते हुए क़िस्मतपुर ले आए। मोहल्ले के बुजुर्गों ने दोनों को जूतों की माला पहनाई, लानतें भेजी। खुन्नस खाए लड़कों ने अपने हाथ साफ किए। वहां से हवालात पहुंचने पर दोनों का हंटरों से मसाज़ किया गया।


ज़माने में मशहूर हो गया कि दीवान नहीं रहें तो भी चिंता नहीं, दो नायब दीवान ही बददिमाग़ों को संभालने के लिए काफी हैं। हालांकि पुलिस महकमे में इनसे जलने वालों, अफसरों से इनकी टांग खिंचाई करने वालों की कमी नहीं थी लेकिन पब्लिक रूदल आजाद खान की तिकड़ी को पसंद करती थी। इसलिए अफसर कान भरने वालों को तवज्जो नहीं दे पाते थे।




'नाम बताएं दीवान साहेब, मकान तक हम ले चलते हैं।' मास्टर बदरुद्दीन ने गुजारिश की।


'सैय्यद शादाब को जानते होंगे?' दुकान के आगे टांग कर रखे गए नए सिले कुर्ते की छेद में उंगली फंसाते रूदल ने पूछा।


'क्यों नहीं साहेब!' मास्टर बदरुद्दीन का लहजा खुशामदी हो गया, 'ये भी कोई पूछने की बात है। मोहल्ले में उनसे अमीर और ख़ानदानी भला और कौन है!'


रूदल बोले, 'तो फिर उनके दरवज्जे तक छोड़ आएं।'  


'मगर...' बदरुद्दीन हिचकिचाए.. 'वो तो अब इस दुनिया में रहे नहीं। दो बेटे हैं। अच्छे मुकाम पर हैं। कोई ग़लत कारोबार करते तो सुना नहीं क़सम से!'


'सही-ग़लत का फैसला पुलिस और कानून पर छोड़ें, आप चल कर घर दिखाएं।' रूदल यादव ने आदेश किया, 'और हां..., कपड़े ठीक से सिला करें। कुर्ते में छेद हो तो बदन बेआबरू हो जाता है।'


रूदल की चुहल और मुस्कान पर बदरुद्दीन ने दिल ही दिल मोटी-ढलकती गालियां दीं। जुबां से बस इतना कहा, 'ग़लती से कैंची लग गई होगी।'


आजाद राम चार सिपाहियों के साथ मोहल्ले के मोड़ पर ही रुक गए। खान बहादुर हमराहियों के साथ गली के मुहाने पर खड़ी काली कार के पास मुस्तैद रहे। बदरुद्दीन के साथ रूदल गली में दाखिल हुए।


दीवान ने देखा, दोनों तरफ के मकान ठीक ठाक दूरी पर थे। लोगों ने आगे बालकनी बना कर, घेरा डाल कर या बैठकी ढाल कर अच्छी खासी सड़क को संकरी गली में बदल दिया था। जगह कम बची थी, लेकिन आवाजाही और शोर-शराबा खूब था। बच्चों की भागदौड़ में मुर्गियां और मेमने भी हिस्सेदारी निभा रहे थे। बिना वजह चुहल कर रहे कुत्तों को बकरे सींग चला कर ख़बरदार कर रहे थे। कबाड़ी अजीब सी आवाज़ों में बेकार की चीजों को बाहर करने की हांक लगा रहा था। हरेक माल वाला सस्ते सामान खरीदने की पुकार लगाए था। बिजली के टेढ़े-टूटे पोलों पर तारों के जंजाल के बीच से मकानों के छोटे छोटे आबाद तल्ले कनखियों से झांक रहे थे। किसी घर से कुकर की सीटियां आ रही थीं, किसी घर में मिक्सी चीख रही थीं। कहीं से गीले कपड़ों पर पिटुआ चलने की आवाज़ें आ रही थीं तो कहीं जनानियों की घिक्का-मत्थी दहलीज़ लांघ रही थी। मकानों के बाहर कुर्सियां डाले बुजुर्गवार पोते पोतियां संभाले दुनिया जहान के मसाइल पर माथापच्ची कर रहे थे।


वर्दीधारी को देख गली सकते में आ गई। मन ही मन मास्टर बदरुद्दीन की चाल में मुख़बिरी तलाशने लगी।


गली के आख़िर में बड़ा सा पक्का ऊंचा दालान आया जिस पर चढ़ने के लिए नक्काशीदार सीढ़ियां बनी हुई थीं। कमरों का दायरा थोड़ी दूर चलने पर शुरू हो रहा था। सामने बड़े से बोर्ड पर लिखा था... मंज़िल सदाबहार।


रूदल यादव मुस्कुराए और बदरुद्दीन को लौट जाने का इशारा किया। बदरुद्दीन ने दीवान पर एक भेदी नज़र डाली और जान छुड़ाऊ चाल पकड़ ली।


गली के सवालों से बचते-बचाते मास्टर बदरुद्दीन अपनी दुकान पर आ कर ही रुके। उखड़े मिजाज को दुरुस्त करने पानी पी कर कुर्सी पर बैठे ही थे कि नुक्कड़ के दुकानदार एक-एक कर पास पहुंच गए। मास्टर बदरुद्दीन खिसिया गए। बतियाना नहीं चाहते थे, क्योंकि मोड़ पर ही आजाद राम अपनी टीम के साथ खड़े थे। हर आने-जाने वाले से कुछ न कुछ पूछ रहे थे।


मास्टर बदरुद्दीन ने दबी ज़बान से बताया कि शादाब के मकान की घेरेबंदी है।


गफूर ने हाथ पर हाथ मारा मगर आवाज़ नहीं निकलने दी। खुफिया अंदाज़ में बोला, 'काज़िम का तो पता नहीं.. हाशिम पर पूरा शक है। जब देखो हिन्दू लौंडों के साथ मटरगश्ती करता मिलता है। बॉडी ऐसी बनाई है कि रुस्तम का ख़िताब लेना हो। जरूर उसने कोई कांड किया होगा। पुलिस ऐसे ही किसी के घर धावा नहीं बोलती।'


'सही बात है', खुट्टन पान वाले ने समर्थन किया, 'पुलिस आने का मतलब है कुछ ग़लत उसने सूंघ लिया है।' फिर बगुले की तरह गर्दन लंबी कर के एक आंख दबाते हुए फुसफुसाया, 'राखी के दिन पिंटू साव की बहन इसके पीछे मोटरसाइकिल पर बैठ कर आई थी।... कहता है मुंहबोली बहन है।' कुछ सेकेंड की चुप्पी के बाद ऐतराज़ उड़ेला, 'है तो उसके घर जा कर राखी बंधवाओ। यहां लाने की क्या जरूरत थी।... और लाते तो बुर्क़े में लाते। मोहल्ले की मरज़ाद तो रहती। कल को हमारे घरों के लड़के-लड़कियां यही सीखेंगे। दायरा लांघने की हिम्मत करेंगे।' जैसे पहले से ग़ुबार हो दिल में, खुट्टन का लहजा सख्त हो गया, 'मैं तो कहता हूं, लै जाए पुलिस हशिमवा को उठा कर और जिस्म पर लाठी रेल कर गली में फेंक जाए। सारी हेकड़ी निकल जाएगी।'  


आंखें उचकाते हाजी शब्बीर बोले, 'काली कार देखो। भारत सरकार लिक्खा है उस पर। हमें तो यह इनकम टैक्स वालों का छापा लग रहा है।'


मंजूर किराने वाले ने सहमति में सिर हिलाया, 'आप सही कह रहे हैं हाजी साहब! तजुर्बा इसी को कहते हैं। सब लोग पुलिस पर अटके थे, अब तक किसी की नज़र काली कार की असलियत पर पड़ी ही नहीं थी। काज़िम आबकारी में बड़े ओहदे पर है। महंगे अपार्टमेंट में दो-दो फ्लैट ले रखा है। महंगी गाड़ी, ब्रांडेड कपड़े, कीमती तोहफे... बस्स बस्स! पक्का इनकम टैक्स वालों ने सूंघ लिया होगा। अब चुकाएं खामियाजा।'


तिरछी मुस्कान फेंकते सलामत सिद्दीकी ने हथेली उठा कर तीन उंगलियों को बाहर रखते हुए अंगूठे और बगल वाली उंगली को मिलाया और कहावत उड़ेली... 'बड़े ख़ानदानी करे नादानी...' फिर गफूर की ओर देखते हुए अगली लाइन का आधा हिस्सा सवाल की तरह उछाला.. 'भूसा घर में...?


'गढ़ै कहानी...!' पंक्ति पूरा करते हुए गफ्फूर हंसा और अपना हाथ सलामत सिद्दीकी के हाथ पर दे मारा लेकिन आवाज़ ऊंची नहीं होने दी।


पुलिस और काली कार को ले कर सब अपना अपना तुक्का भिड़ा रहे थे लेकिन इतनी धीमी बतकही कर रहे थे कि मास्टर की दुकान के नीचे खड़ा आदमी तक न सुन पाए।  


सच ये है कि सैय्यद शादाब के परिवार से ये लोग चिढ़ते थे, बल्कि मोहल्ले के अधिकांश मुसलमान मंज़िल सदाबहार के रहवासियों से नाखुश थे। एक तो इसलिए कि शादाब परिवार की मिल्लत हिन्दुओं से खूब थी। दूसरे इसलिए कि उनके रहन-सहन और पहनावे को वे इस्लामिक दायरे के बाहर का मानते थे। उनकी जदीद तालीम और तरक़्क़ी से कमतरी के अहसास में डूबे मोहल्ले वाले ये भी नहीं चाहते थे कि काज़िम और हाशिम यहां से चले जाएं, क्योंकि जरूरत और फिक्र के वक़्त उनसे खूब मदद भी मिलती थी। लेकिन उनका यहां रहना भी खटकता था क्योंकि उन्हें अंदेशा था कि कभी-कभार की आजादखयाली का इजहार करने वाले इसके-उसके घरों के बच्चे कल को सच में उनके कहे से बाहर हो गए तो मोहल्ले को 'सदाबहार' होने से बचाया नहीं जा सकता।


मौलाना वाहिद अक्सर हिदायत करते रहते थे, 'बेटे-बेटियों पर लगाम न रखोगे तो फर्ज़ लांघते देर न लगेगी। इसलिए नज़र रखो कि वे तरीके के कपड़े पहनें, दीन-धरम की डोर थामे रहें। काज़िम-हाशिम और उनके बच्चों की देखादेखी करोगे तो मोहल्ले को मॉल बनने से रोक नहीं पाओगे।'


बड़े-बुजुर्ग न चाहते हुए भी मौलाना वाहिद की बात सुन लेते थे, मगर कुछ लड़के चुटकी लेने से बाज नहीं आते। एक दिन ऐसे ही बीच हिदायत अजीर कुरैशी के बेटे ने कह दिया, 'और नहीं तो क्या, हटिया में शराफत की चीज़ें बहुत सी बिकती हैं लेकिन मोहब्बत में लोग कुछ भी खरीद लेते हैं। मिठाई न सही, चुपके से कटहल का कोवा ही खिला देते हैं।' इस पर सारे लड़के ठहाके लगा उठे। अजीर कुरैशी को भी हंसी आ गई लेकिन उन्होंने मुंह दूसरी ओर कर लिया।


'भोसड़ी के...' तमतमा गए मौलाना वाहिद, 'मदद करना भी अब गुनाह हो गया?'


'नहीं..ईं..ईं..' साहिल ने नहीं को लंबा खींचते हुए चुटकी ली, 'साइकिल पर बैठा कर बगीचे तक छोड़ना गुदगुदा गया।'


फिर ठहाका।


आफाक ने जुमला उछाला, 'हमें सिखाएं दुश्मनी, खुद सुड़कें हिन्दुअन की चुम्मी।'


फिर ठहाका।


बड़ी बेइज्जती महसूस की मौलाना वाहिद ने। आंखें लाल हो गईं। फुफकार उठे, 'अजीर मियां, अपने लौंडे को डांटने की बजाय उसकी बकवास पर खुद हंस रहे हो? लगाम कसो लगाम, नहीं तो सिर के बाल तेरे ही उतरेंगे। फिर रोते-गाते न आना मेरे पास' गरियाते-फनफनाते तेज कदमों से निकल गए मौलाना लेकिन उनका सिर घूम गया। उन्होंने तो अपने तईं बड़ी होशियारी दिखाई थी। यहां तो पूरे मोहल्ले की जुबां पर फैला है फसाना।


थोड़ी ही देर में दीवान रूदल यादव गली से बाहर लौट आए। अदब से हाथ का इशारा किया। काली कार के अगले दरवाजे खुल गए। ड्राइवर फुर्ती से बाहर निकला और अपनी तरफ का पिछला दरवाजा खोल दिया। खान बहादुर के साथ मौजूद एक सिपाही ने लपक कर पिछली सीट की दूसरी तरफ का दरवाजा खोला।


ड्राइवर के बगल वाली सीट से बीसेक साल की एक लंबी छरहरी चित्ताकर्षक युवती बाहर निकली। पहनावा अल्ट्रा मॉडर्न। पीछे एक तरफ से जींस टीशर्ट में पचासेक साल का ऊंचे कद का आदमी निकला। दूसरी तरफ से स्लेटी सिफॉन में तकरीबन पैंतालीस साला महिला निकली। साड़ी की सलवटें ठीक कीं। नाजुक अदा से लंबे काले बालों को हल्के हाथों से पीछे की ओर धकेला और एक ही नज़र में मोहल्ले का मुआयना कर लिया।


चलने का इशारा होते ही सब गली की ओर बढ़े। आगे रूदल यादव। उनके पीछे दो सिपाही। बीच में पति-पत्नी और बेटी। पीछे खान बहादुर और दो हमराह। बाकी सिपाही आजाद राम के साथ चाय की दुकान पर डट गए।


गली के मकानों के दरवाजे खुल गए। सास, अम्मा और दादी उम्र की महिलाएं कुछ सामान ढूंढने, जाला झाड़ने या मुर्गियों को दाना डालने के बहाने बाहर निकल आईं। कुछ की आंखों में ऐतराज था, कुछ के चेहरे पर नाखुशी। कुछ अजनबियत को गौर कर रही थीं, कुछ पहनावे को कोस रही थीं। और सबके सब इस बात पर कुढ़ रही थीं कि उमर और कमर की ढलान पर भी उन सबके मियां नैन सुख की तरावट में ईमान तर्क कर रहे थे।


ऊपरी तल्लों की खिड़कियां खुल गईं। बहू-बेटियों के उत्सुक चेहरे गली से गुजर रही दो पीढ़ियों पर टिके थे। कुछ को दिल में ठंडक का अहसास हुआ, कुछ ने खुद को गली में चलते पाया। एक-दूसरे से नज़रें टकराईं... मुस्कुराईं और इशारों में तस्दीक की... क्या जंच रही हैं दोनों।


शफ़क़ और सायेमा आमने सामने की खिड़कियों पर थीं। दोनों नवेलियां। दोनों तालीमशुदा। खुशमिज़ाज और बेतकल्लुफ़। अक्सर दिल बहलाने खिड़कियों पर आ कर बातें कर लिया करती थीं। गली से गुजर रही लड़की की तरफ दिखाकर शफ़क़ ने बताया, 'इस तरह की दो ड्रेस मैंने भी ली है।'


'पहनोगी कब?' सायेमा थी।


'अगले हफ्ते गोवा जा रही हूं। वहीं...' शफ़क़ चहकी।


'मैंने भी एक बेलबॉटम और एक शार्ट्स लिया है।' सायेमा ने ख़बर दी, 'नीचे जब सारे नींद में होते हैं तो पहन लेती हूं। खूब पोज मारती हूं... सेल्फी लेती हूं।'


'मियां जी कुछ बोलते हैं?' शफ़क़ को जिज्ञासा हुई।


'खुश हो जाते हैं...' सायेमा ने आंखें मटकाई, 'दो-चार शेर भी अर्ज कर देते हैं।'


ऐसे ही नाज़नीन, रब्बो, फ़राह, निहाल, सबिहा खुश हुईं। आपस में कहा, 'हम ऊपर मस्ती कर रही हैं, वो दोनों गली में हमारी नुमाइंदगी कर रही हैं।'


ऊपर के तल्लों का फोकस गली से गुजर रहे फैशन पर था, निचले तल्लों में पुलिस को ले कर हड़बोंग का आलम था।


छोटी बच्चियों को भेज कर भीतर ही भीतर मोहल्ले को खबर कर दी गई। खदीजा बी के आंगन में गपोड़ जनानियों का और सिलौकी के बैठकखाने में फिक्रमंद मर्दों का जमावड़ा लग गया।


जनानखाने की चर्चा मंज़िल सदाबहार के तौर-तरीकों और मेहमानों के सलीके पर पर टिकी थी। मर्दों की बैठकी में पुलिस के धमकने की वजह पर घोल-पचक्कर मचा था।  


खदीजा बी बग़ैर सिगनल वाली ट्रेन की तरह धौंके जा रही थीं, 'मैं शुरू से कह रही हूं कि रेहाना बेग़म को मोहल्ले की कोई फिकर नहीं है। इकलौती बेटी करी जो अच्छे ख़ानदान में चली गईं। दो ही बेटे जने, दोनों कमाऊ हैं। बहुएं ऐसी आई हैं कि उनके मुसलमान होने पर शक होता है। ज़िद करती हैं हमारी बेटियां भी वैसे ही कपड़े पहनने की। उन्हीं के जैसा हेयर कट रखने की। कभी-कभार मिल कर आती हैं तो उनके जैसा मुंह टेढ़ा-मेढ़ा करके बोलने की अदा दिखाती हैं। मदरसे जाने के नाम पर नाक-भौं सिकोड़ती हैं। कॉन्वेंट की रट लगाए रहती हैं। बाज़ार का नाम लो तो सोचने से पहले तैयार हो कर सामने खड़ी हो जाती हैं। ये कोई अच्छे लच्छन नहीं हैं।... मतलब कि एक घर है मगर उसका साया पूरे मोहल्ले पर पसरा है। जिसके करम फूटे वही यहां घर बनाए।'  


'ऐ बहिन' खदीजा बी को न रुकती देख इनाया की अम्मा ने पान चभलाते हुए गिलौरी को एक गाल की तरफ सेट किया। फिर हल्की मुस्कान के साथ धीमे-धीमे लफ़्ज़ों को पानरस में भिगो-भिगो कर बोलीं, 'इनैय्या कल बोलिस कि... इकरा के बियाह में लहंगा ही पहनेगी।'


'इकरा कौन?' सल्लो ताई ने टोका।


'अरे वही.. मेरी सौतेली अम्मा की लाडली।'


'कभी सुना नहीं, तुम्हारी सौतेली अम्मा भी है!'


'अब क्या बताती बाप ने किस किस को किया बगलगीर, किन किन ने ज़ाया किया, किन किन की खुली तक़दीर...' इनाया की अम्मा के अंदाज़े बयां पर खदीजा बी का जनानखाना खिखियाने लगा। हालांकि ख़ुद खदीजा बी को ये बात पसंद नहीं आई। शाइस्ता ताई के लिए हुक्का बनाना छोड़ खड़ी हो गईं और कमर पर हाथ रख इनाया की अम्मा पर ऐतराज़ की निगाहें टिका दीं। उनकी तल्खी भांप कर कुछ औरतों ने इनाया की अम्मा को टहोका, 'धत.. अपने वालिद के बारे में ऐसा बोलते हैं क्या!'


'वालिद को कहां बोला, बाप को बोला।'


'जलेबी न छानो...बात तो एक ही है।'


'एक ही कैसे?... वालिद मतलब मेरी महतारी का दूल्हा। बाप मतलब जिसने भकोसा दस-बीस कूल्हा।'


अब तो हंसी सबकी छूट पड़ी।  


हल्की मुस्कान खदीजा बी के होंठों पर चमकी मगर उन्होंने खुद को जज़्ब कर लिया। बोलीं, 'लंका में आग लगाने के लिए रेहाना बेग़म के घर फुलझड़ियां बहुत हैं, इसलिए पटाखा बनने की जरूरत नहीं है।... ये बताओ कि लहंगे की बात पर इनाया के अब्बा क्या बोले?'


खदीजा बी को लगा कि इनाया की अम्मा ने जानबूझ कर लहंगे की बात छेड़ी है। पिछली दो ईद से उनकी बड़ी बेटी लहंगे की मांग कर रही है लेकिन जलाल फ़िजूलखर्ची कह कर टालते-डांटते रहे हैं। इनाया की अम्मा को ये बात पता थी। सो मटक कर बोली, 'अब्बा उसके सुनते ही आंख लाल कर लिहिस। बोलिस, दोबारा जुबां पर ऐसी बात नहीं आनी चाहिए।'


'काहे.. खर्चा खातिर?'


'नाहीं..'


'तो..?'


'लहंगा उन्हें नुमाइशी लगता है।'


'फिर...?'


'फिर क्या! हम समझाए कि यही उम्र है मनमाफिक पहनने की। मचलने-इठलाने की। दस-पंद्रह हजार का सूट बोले ही हो लेने के लिए, चार-पांच हजार और लगा दो। अरमान तो बाक़ी नहीं रहेगा बेटी का।' इनाया की अम्मा की बातों में ठसक थी। खदीजा बी को पैसे वाली बात लग गई। चिढ़ कर बोली, 'क्यों, ब्याह के बाद पहनने-ओढ़ने से मनाही हो जाती है क्या?'


'बाद में क्या होगा... किसने देखा है, कौन गारंटी लेता है।' खदीजा बी की तल्खी को नज़रअंदाज कर इनाया की अम्मा संजीदा हो गई, 'ब्याह के बाद जाने कैसा मरद मिले। चटाई बिछाए कि बोरा ओढ़ाए...। बाद में तो तमाम तमन्नाएं दिल ही दिल सिसकती रह जाती हैं। ज़िंदगी जिस्म हो कर रह जाती है। दिन-रात चौका से चौकी तक का सफर तय करती हुई मिट्टी हो जाती है।'


कुछ देर पहले सबको हंसा-हंसा कर लोटपोट करने वाली खातून पल में सूफियों सी तकरीर करने लगी। तीन तिहाई औरतें इनाया की अम्मा के बोल में अपनी ज़िंदगी के चित्र देखने लगीं। माहौल और संजीदा हो जाता अगर क़मर और अस्मां दौड़ती-हांफती न आई गई होती।





खदीजा बी ताजा समाचार सुनने को आतुर थी। हांफती बच्चियों को डपट लगाई, 'अब कुछ बोलोगी भी या यूं ही हांफती रहोगी।'


'तीन लोग बेग़म दादी की कोठी के भीतर चले गए।'


'कौन कौन?'


'दो औरत और एक बिना वर्दी वाला आदमी।'


'बाकी?'


'बाकी बाहर कुर्सियों पर बैठे हैं। सब पुलिस वाले हैं।'


'अंदर से डांटने-फटकारने की आवाज़ भी आ रही थी?'


'नहीं... वो सब तो ऐसे हंस-बोल, बतिया रहे थे जैसे कितने क़रीबी हों। पुरानी पहचान लगती है अम्मा!'


'तुम्हें कैसे पता?'


'करी पत्ता तोड़ने के बहाने अहाते में गई। खिड़की से देखा...'


'क्या देखा?'


'अम्मी टाइप की औरत बेग़म दादी के एक तरफ, लड़की दूसरी तरफ सट कर बैठी थी। बेग़म दादी दोनों को अंकवारे में चिपकाए खूब खुश हुए जा रही थीं। लेकिन आपस में क्या बतिया रही थीं, यह नहीं सुनाई पड़ा। साथ वाला मरद घुटनों के पास बैठा था, बहुत स्मार्ट था। बेग़म बीच-बीच में कुछ बोलतीं, मुस्कुरातीं और उसके सिर पर हाथ रख देतीं।' क़मर ने एक सांस में सारी बात बता दी।


'काज़िम और हाशिम थे?'


'हां'


'उनकी बीवियां'


'वो भी वहीं बैठीं थी। हैप्पी-हैप्पी थीं।'  


'हैप्पी की चमची... ये तो बता, का पहने थीं?'


क़मर ने मचलते हुए कहा, 'बड़ी वाली बिना बांह की कुर्ती और लैगिन पहने थी, छोटी वाली लोअर और टीशर्ट। एकदम मस्त लग रही थीं।'


'चुप कर हरामखोर, तेरे भी पंख निकल आए हैं। उड़ने की कोशिश की तो काट ही दूंगी, हां। और क्या देखा, सो बता!'


बार-बार डांटे जाने से क़मर का चेहरा उतर गया। अस्मां ने आगे बताया, 'काज़िम चा कुछ बताए जा रहे थे। बीच-बीच में मिठाई और नमकीन की प्लेटें बढ़ाते थे। हाशिम चा गिफ्ट की एक थैली उठाते और अम्मी टाइप की मोहतरमा से पूछते, फिर दूसरी उठाते और पूछते। फिर तीसरी, चौथी, पांचवीं, छठी।'  


'पहाड़े छोड़, आगे बोल' खदीजा बी की उकताहट और बेमतलब टोकाटाकी से अस्मां भी कुढ़ गई। लेकिन अम्मा के मिज़ाज को जानती थी, सो उसकी हलबलाहट को नज़रअंदाज कर बोलती रही, 'मोहतरमा उंगली के इशारे से बता रही थीं कौन सी थैली किनके लिए है। फिर उठ कर अपने हाथों से सबको गिफ्ट की थैली दी। पहले हाशिम की बीवी को दिया, फिर हाशिम को। उसके बाद काज़िम की बीवी को, फिर काज़िम को। आख़िर में दादी बेग़म को दो थैलियां थमाईं और कुछ बोल कर हाथ जोड़ लिया। दादी बेगम ने दोनों हाथों से उनका चेहरा थामा और माथा चूम लिया।'


'फिर...'


'फिर हाशिम की बीवी खिड़की की तरफ आने लगी तो हम भाग आए।'


'लो भई, भीतर रासलीला चल रही है और हम यहां मातम मना रहे हैं। किसको खतरा किससे है, सब जने खुद ही सोच लो।' खदीजा बी ने अपनी कुढ़न का जाल जनानियों पर फेंका।    


'काहे का खतरा', इनाया की अम्मा ने सवाल किया, 'खतरा न उनसे हमें है, न हमसे उन्हें। बस हम मन में ग़लतफहमियां पाले बैठे हैं। वो उनके घर गए, डर हमारे दिलों में समा गया। उन्होंने खुशी से इस्तक़बाल किया, जल-भुन हम रहे हैं। कुछ भी सोचने-बोलने या अंदाजा लगाने से पहले पता तो कर लें कि उनका रिश्ता क्या है? नहीं... रश्क में डूबे जा रही हैं। हवाई खतरे से डरे जा रही हैं।'


इनाया की अम्मा के कहे में खदीजा बी ने अपने लिए तंज़ पाया। हाथ चमका कर बोलीं, 'काहे का डर और काहे की नाखुशी। भई, बग़ैर किसी बवाल के पुलिस आई तो शक होना लाजिमी है। जिनके सर कुछ गुनाह थे उन्हें ख़बरदार कर दिया गया, इसमें हर्ज क्या है। शिकवा इसलिए है और रहेगा कि एक मोहल्ले में रहते ताल्लुक हमसे नहीं, बाहरियों से है।'  


'कब मना किया बेग़म ने मिलने से या किस ग़मी-खुशी में हमारे घर नहीं आईं वो।' इनाया की अम्मा ने सवाल किया, 'कोई वाकया बताएं जिसे हमसे राब्ता न रखने का सबूत माना जाए। अब ये तो नहीं हो सकता न कि वो अपने सारे ताल्लुकात दरकिनार कर दिन-रात हमारी पसंद-नापसंद का खयाल कर दुबली होती रहें।'


बाकी जनानियों को इनाया की अम्मा के कहे पर मुतस्सिर देख खदीजा बी ने सफाई का रास्ता पकड़ा, 'मैं कहां मना करती हूं कि उनका हमसे राब्ता नहीं है। ऐतराज बाहर वालों की मिल्लत से है।'


'नहीं, असल ऐतराज सदाबहार मंज़िल वालों के शिया होने से है। वरना हममें से कितने जने हैं जिनके ताल्लुकात बाहर वालों से नहीं हैं? बाहर वालों से आपका मतलब जाहिर है.. हिन्दुओं से है तो क्यों न रहे उनसे मिल्लत? आपके नहीं हैं? सल्लो ताई के नहीं हैं? असकरी आपा के नहीं हैं? मेरे नहीं हैं?'


खदीजा बी को ग़ुस्सा तो बहुत आया इनाया की अम्मा पर। मन ही मन दो-चार गालियां रसीद कीं। लेकिन बीच बैठक अपना पलड़ा कमज़ोर पड़ता देख खुद को कंट्रोल किया। सधी जुबान में कहा, 'असल ऐतराज़ हमारी तहज़ीब, हमारे सलीके की नाफरमानी से है। हमारे बच्चों के दिमाग़ को बेरास्ता करने से है।


'कमाल है!' इनाया की अम्मा ने खदीजा बी को छोड़ बैठक में मौजूद बाकी औरतों के चेहरे पर हैरत फेंकी, 'कोई बताए कि अपने मन की करने, पहनने या जीने की तमन्ना किसे नहीं होती। नहीं कर पाते, नहीं पहन पाते या नहीं जी पाते तो ये दिक्कत हमारी है, किसी और की वजह से नहीं।' फिर खदीजा बी से मुखातिब हुईं, 'आज के बच्चे जानते हैं कि उन्हें क्या करना है, किधर जाना है, कैसे जीना है। उनको जो करना होगा, वही करेंगे... डांट-फटकार पर हो सकता है सामने चुप लगा जाएं लेकिन कतई गुमान न करें कि बाहर भी वो आपके हमारे बनाए घेरे में ही घिरे रहेंगे। ज़्यादा नसीहत नाफरमानी की वजह बन जाएगी। इसलिए अपनी सोचें। अपने बाड़े में क़ैद रहना ही अगर तहज़ीब है और अपना सोचा-किया व्यवहार ही अगर सलीका है तो जान लें इसे हर कोई तोड़ देना चाहता है। यकीन न हो... तो अपने अपने दिलों से पूछ लें।'


'कह तो ठीकै रही हो इनाया की अम्मा...' शाइस्ता ताई ने हुक्के से मुंह हटाते हुए असमंजस भाव से कहा, 'मगर अपनी ज़िंदगी की डोर अपने हाथों में है कहां!'


'नहीं ताई', इनाया की अम्मा ने असहमति जताई, 'हम कुछ सोचते नहीं। एक खांचे में सरकते जा रहे हैं बग़ैर किसी कोशिश के... बिना सोचे, बिना विचारे। इसलिए हर कोई हमारे लिए लछमन रेखा बना कर भूल जा रहा है। मान ले रहा है कि हमें कुछ याद आनी नहीं है... अपनी तो ख़ैर बिलकुल नहीं। जो सिखा देगा, सीख लेंगे। जो रटा देगा, रट लेंगे। पिंजरे में बंद सुग्गे हैं। हिम्मत है नहीं, खीझ किसी और पर उतारते हैं।'


'मैं सुग्गा नहीं हूं...!' अलीना ने कहा तो था अल्हड़पने में लेकिन खदीजा बी को उसमें बग़ावत की बू सुनाई पड़ी जिसकी बुनियाद इनाया की अम्मा रखे जा रही थी। दिल की आग को रोकते-रोकते भी लपट निकल ही गई, 'चुप नालायक। खाल खींच लूंगी जो बदज़ुबानी की।' गनीमत थी कि असकरी ने अलीना को अपनी ओर खींच लिया, वरना खदीजा बी का तमाचा सीधे उसकी गाल पर पड़ता। इस नाकामी से खदीजा बी का ग़ुस्सा और बढ़ गया लेकिन अब निशाने पर इनाया की अम्मा थी। उठे हाथ की दिशा बदली और उंगली तन गई, 'ज़्यादा गिरथाइन न बनो। भजन-कीर्तन का शौक चढ़ा है तो अपने घर जा कर हारमोनियम पर हाथ फेरो। यहां डुगडुगी बजाने की कतई जरूरत नहीं है।'


खदीजा की लानत के बावजूद इनाया की अम्मा ने आपा नहीं खोया। मुस्कुराती हुई उठीं और शरारती जुमला फेंका, 'अपना मर्ज़ न बढ़ाएं बहिन, जा कर भेजती हूं दीवान रूदल यादव को...'


'काहे, खदीजा के घर उस करमजले का क्या काम?' असकरी ने आंच उकसाई।


'आजाद राम की गुंजाइश है नहीं, खान बहादुर से संभलेगा नहीं। एक वही सयाना बचता है, दिल में वही दीवाना बसता है।'  


जनानखाने में हंसी फूट पड़ी। बाहर जाती इनाया की अम्मा की पीठ पर गालियां पड़ती रही। फनफनाई खदीजा बी खिखियाती अलीना को मारने दौड़ी।


सिलौकी के बैठकखाने में अलग माथापच्ची चल रही थी। दीवान रूदल यादव, खान बहादुर और आजाद राम की कंप्लीट टीम को मोहल्ले में पहुंची देख सबके होश उड़े हुए थे। लड़कों से कई बार पूछा गया कि किसी ने कुछ किया तो नहीं। बाजार, मैदान या किसी दूसरे मोहल्ले में झगड़े-वगड़े तो नहीं हुए। लड़कों के इनकार के बावजूद सबके चेहरे तनावग्रस्त थे। बार-बार सबका शक सुक्खाडीह मामले पर जा कर टिकता था। सुक्खाडीह में मोहर्रम और रामनवमी का जुलूस आमने-सामने आ जाने से अनवारुल हक और लुटुर झा की टोली के बीच कहासुनी हो गई थी लेकिन बात बिगड़ने से पहले दोनों तरफ के बुजुर्गों ने हस्तक्षेप कर उन्हें शांत करा दिया था। बात आई-गई हो गई थी। लेकिन आज जब फोर्स मोहल्ले में दाखिल हुई तो सिलौकी के मन में खटका हो गया कि बिलौकी का बेटा अल्ताफ़ अनवारुल के साथ था। शम्सुल का लड़का याक़ूब वैसे तो सीनाजनी कर रहा था लेकिन लुटुर झा का ग्रुप कुछ ज़्यादा उछलने लगा तो वह भी सामने आ गया था। कहीं ऐसा न हो कि उसी झगड़े की शिकायत पर पुलिस आई हो। वर्दीवालों का क्या भरोसा, कब का मुर्दा कब उखाड़ दे। इसलिए मुश्ताक से दो-तीन बार पूछ कर तसल्ली की गई कि अल्ताफ़ और याक़ूब को ख़बरदार कर दिया कि नहीं। मुश्ताक़ ने यकीन दिलाया कि उसके सामने ही अल्ताफ़ और याक़ूब मोहल्ले से निकल गए थे।


शिकायत कर कौन सकता है? सवाल उठा बैठकखाने में, क्योंकि उस झगड़े को बहस से ज़्यादा कुछ और नहीं कहा जा सकता था। हिन्दू-मुस्लिम जैसा तो कतई नहीं था, बल्कि अनवारुल और लुटुर झा की आपसी खींचतान ही थी। फिर भी, पुलिस आई है तो शिकायत जरूर हुई होगी। सिलौकी गोकि सैय्यद शादाब का क़रीबी दोस्त रहा था लेकिन शक बार-बार उसके बेटों काज़िम और हाशिम पर ही जाता था। उसका तर्क था कि पुलिस जिसके दरवाजे पर आई है, जाहिर है.. शिकायत वहीं से हुई होगी।


'कह तो रहे हो लेकिन हमें यकीन नहीं होता' गुलाम सरवर ने इनकार में सिर हिलाया।


'क्यों यकीन नहीं होता?' सिलौकी ने तल्खी से पूछा।  


'भई दोस्ती तुमसे थी, तुम बेहतर जानते होगे। मगर मेरी समझ से शादाब के लड़के ऐसे हैं नहीं।' भरोसे के साथ बोले गुलाम सरवर, 'रेहाना बेग़म का मिजाज भी इस तर्क से मेल नहीं खाता। ये भी तो देखो कि उस दिन मोहर्रम वाले जुलूस में सैय्यद परिवार का कोई नुमाइंदा मौजूद भी नहीं था।'


'इससे तो शक और पक्का हो जाता है।' सिलौकी ने ज़ोर दे कर कहा, 'सब जानते हैं काज़िम-हाशिम के अधिकतर दोस्त हिन्दू हैं। उसे कहीं न कहीं से भनक हो गई होगी कि लुटुर झा हंगामा करने वाला है। इसलिए दोनों भाई मातम से दूर रहे और चुपके से थाने में हंगामे की शिकायत भी कर दी।'


'देखो, इनका हमारा मेल कभी रहा नहीं' हाजी सलाउद्दीन ने पुराना राग छेड़ा, 'न ज़मीन खरीदने के ज़माने में और न मोहल्ला बसने के वक़्त। यह जरूर है कि यहां की पहली ज़मीन शादाब के वालिद सैय्यद सफी ने ही खरीदी थी। जगह क्या थी, गड्ढे और ऊबड़-खाबड़ ढूह थे। जंगल था एक तरह से। सस्ती का दौर था और सैय्यद सफी की कमाई ज़बरदस्त थी। माइनिंग ऑफीसर थे, बड़े शायर भी। बड़ी बड़ी महफ़िलों में शिरकत के लिए बुलावा आता था। वज़नी थैलियां भी नज़र की जाती थी। एकमुश्त हज़ार वर्ग गज ज़मीन खरीद ली। लगे हाथ कोठी भी तैयार कर ली। दूसरे कोने में शम्सुल के वालिद ज़ायेद मियां ने चार सौ गज का टुकड़ा लिया और घर बनाया। मैंने जब यहां ज़मीन ली, तब यही दो घर थे। बाक़ी खाली। मैंने सैय्यद सफी से पूछा भी था कि इतना बड़ा टुकड़ा खरीदा तो आगे सड़क की तरफ बढ़ना चाहिए, कोना क्यों पकड़ लिया। उनका एक ही जवाब था, 'सुकून की ख़ातिर। कोई हंगामा हो या वारदात, रोड साइड के लोग सबसे पहले असर में आते हैं। हमें कोना पसंद है मगर हंगामा नहीं।' वही रवैया शादाब का था। मोहल्ले वालों से राब्ता कम ही रहा। यारी दोस्ती में तुम और बिलौकी उसके घर बैठकी करने जाते थे लेकिन याद करना, कभी शादाब किसी के घर बैठने या महफ़िल जमाने नहीं आता था। अलग ही दिमाग़ का था। नामचीन प्रोफेसर... बड़े और संजीदा लोगों से बावस्ता... दो बार वाइस चांसलर बनने का मौका आया मगर नहीं, साफ मना कर दिया। काहे भाई? फिर वही बाप वाला जवाब, 'सुकून की ख़ातिर।'


'ऐसा भी क्या सुकून जो मोहल्ला-बिरादरी से दूरी बना दे।' मुश्ताक के सवाल में ऐतराज़ था।


'दूरी बना कर रखना ही सुकून का असली मकसद था।' हाजी सलाउद्दीन ने राज़ खोलने के अंदाज़ में कहा, 'पहली ज़मीन खरीदने और पहला मकान बनाने के बावजूद सैय्यद खानदान मोहल्ले में रह गया अकेला। इनका कोई नाते-रिश्तेदार या जान-पहचान वाला यहां बस नहीं सका, सो मोहल्ला हो गया सुन्नियों का। बाद में पछताए होंगे। इसलिए शुरू से सदाबहार मंज़िल वाले ऊपर से हम सबसे हंसते-बतियाते थे लेकिन ख़ुद को रिज़र्व रखते थे। हम लोग भी कम पेच नहीं भिड़ाए। कितनी तो कोशिश किए कि आजिज़ आ कर ये लोग मोहल्ला छोड़ दें लेकिन ये भी गनगुआर की तरह कुंडली मार कर जमे रहे। फिर हम लोगों ने दूसरा दिमाग़ लगाया। ला-ला कर अपने लोगों को बसा लिया। छोटे-छोटे टुकड़े दिलाए। किसी को पैसा नहीं जुटता तो मिल-जुल कर पूरा कर देते। आज मोहल्ले का नक्शा देखो। बड़ा प्लॉट वाला पीछे, छोटे प्लॉट वाले आगे। हालत ऐसी है कि दरवाजे तक कार भी नहीं जा सकती। बनते रहो खानदानी, समझते रहो ऊंची ज़ात और नाक वाला।'


हाजी सलाउद्दीन तंज़ से खिखियाते हुए उठे और खिड़की से तंबाकू बाहर फेंका। फिर पलटे तो मुंह पर उंगली रखी हुई थी। धीमे से बोले, चुप रहना। कोई कुछ बोलना नहीं। हाशिमवां आ रहा है।


'हैं!...' सिलौकी का माथा ठनका। शक जाहिर किया, 'लगता है इन लोगों को मीटिंग की ख़बर हो गई थी।'


'कोई बात नहीं', हाजी सलाउद्दीन ने सुझाया, 'टॉपिक बदल कर बात करते हैं। चुप रहेंगे तो अंदेशा होगा।'


जब तक नई टॉपिक शुरू करते, हाशिम की हांक अंदर आ गई, 'सिलौकी चा.. ओ सिलौकी चा। किधर हैं, क्या कर रहे हैं?'


'हां-हां.. आओ आओ हाशिम।' गला खखारते हुए सिलौकी ने आवाज़ बाहर फेंकी।


हंसता-मुस्कुराता हाशिम अंदर। हाथ में मिठाई का बड़ा डब्बा। मोहल्ले के मानिंदों का जमावड़ा देख हाशिम भी थोड़ा अचरज में पड़ा, फिर खुशी जताई, 'भई वाह। अच्छा हुआ सब एक जगह मिल गए। एक साथ मिठाई बंट जाएगी।'


सिलौकी मिठाई के पीछे की खुशी तलाशने हाशिम का चेहरा पढ़ने की कोशिश करने लगे। इतने में हाजी सलाउद्दीन पूरे व्यंग्य के साथ बोले, 'किस बात की मिठाई मियां हाशिम! ट्रंप ने हमसे टैरिफ हटा लिया या इजरायल ने ग़ाज़ा पर हमले बंद कर दिए?'


हाशिम हंसने लगा। बोला, 'ये मसले हमारी रेंज से बाहर के हैं। और इतने हल्के भी नहीं कि चलताऊ तरीके से इन पर बतकही की जाए। संजीदगी के सवाल फिकरेबाजी से हल नहीं होते।'


'तुम्हारा क्या मतलब है मियां' हाजी सलाउद्दीन को हाशिम का जवाब नागवार गुजरा। एक तरह से बेअदबी मानी, क्योंकि वह उम्र में उसके बाप से भी बड़े थे।


हाशिम जानता था कि हाजी सलाउद्दीन कभी उसके परिवार के खैरख़ाह नहीं रहे। इसके उलट हमेशा राह में कांटे ही बोने की कोशिश की है। फिर किस बात का अदब। वो आया था खुशी बांटने, ये चले हैं इंटरनेशनल इश्यू के बहाने मज़ाक उड़ाने। बग़ैर किसी हिचक के अपनी बात और साफ की, 'यही कि इंटरनेशनल मसले मोहल्लेदारी नहीं होते। डिप्लोमेटिक होते हैं जिनसे निबटने का काम सरकार का है। मुल्क के नुमाइंदे नेशनल स्ट्रेटेजी के साथ आगे बढ़ते हैं या पीछे हटते हैं। वो हमारे और आपके दायरे के बाहर की बात है।'


हाजी सलाउद्दीन कसमसा कर रह गए। गुलाम सरवर खुश हुए।  


बहस को बम बनती देख सिलौकी ने हस्तक्षेप किया और सीधे मुद्दे पर आ गए, 'सुना तुम्हारे यहां गौरमेंट के लोग आए हैं?'


'अरे हां, आए थे और चले भी गए।' हाशिम मुस्कुराया।  


'चले गए?' सिलौकी की आवाज़ में अचरज था और चेहरे पर खुशी। सुन कर सुकून मिला गोया अल्ताफ़ और याक़ूब पर आया संकट टल गया।


'हां, समय कम था। आज ही दिल्ली लौटना था।' हाशिम ने बताया, 'और हां, आपके बारे में पूछ रहे थे, बिलौकी चा के लिए अफसोस कर रहे थे।'


सिलौकी की धुकधुकी बंध गई, 'क्या कह रहे हो, गौरमेंट के लोग हमें क्यों पूछेंगे?'


'आपको खूब जानते हैं।'


'कौन रूदल यादव?'


'नहीं'


'तो.. ओ.. खान बहादुर?'


'अरे नहीं सिलौकी चा', हाशिम ने मीठी झिड़की लगाई, 'मैं आपको दिल्ली से जोड़ रहा हूं और आप थाने से आगे बढ़ ही नहीं पा रहे।'


'हां... मैं समझ नहीं पा रहा। बताओ ठीक ठीक।' अकबकाए हुए थे सिलौकी। लगा हाशिमवां खेल रहा है उनसे।


'आप 35-36 साल पीछे जाइए।'


'हां, चला गया।'


'मेरे घर के पीछे वाले हिस्से में कुछ स्टूडेंट रहते थे?'


'हां, रहते थे।'


'तब दूरदर्शन पर महाभारत सीरियल आता था?'


'हां, आता था।'


'आप और बिलौकी चा आते थे महाभारत देखने हमारे घर?'


'हां, आता था।'


'हमारे यहां रह रहे स्टूडेंट भी आते थे टीवी देखने?'


'हां, आते थे।'


'उसी वक़्त बहादुर शाह ज़फर सीरियल शुरू हुआ था?'


'हां, हुआ था।'


'अशोक कुमार ज़फर का रोल कर रहे थे?'


'हां, कर रहे थे।'


'ज़फर के रोल को ले कर आपकी किसी से बहस हुई थी?'


'हां, हुई थी।'


'क्रिकेट मैच के दौरान भी अक्सर उन्हीं से बहस होती थी?'


'हां, होती थी।'


'किनसे होती थी?'


'नटवर से..!'


'जी, वही तो आए थे।'


सिलौकी दंग। एकटक हाशिम को देखे जा रहे थे गोया ऐतबार न हो रहा हो। मन में घुमड़ने लगा... नटवर आया था। इतने सालों बाद। पुरानी जगह देखने। उसे हमारी भी याद थी। कितनी बड़ी बात है!


'कहां खो गए सिलौकी चा?' हाशिम के टोकने पर खयालों की लड़ी टूटी सिलौकी की। मन में हिलोर उठी। चेहरे पर चहक थिरकी। आंखों में तरावट उतर आई। दोनों हाथों से हाशिम के कंधों को थामा। होंठों को भींच कर कहा, 'बहुत बड़ी बात है हाशिम। बमुश्किल तीन-चार साल किराए पर रहा शख्स 35-36 सालों बाद उस जगह को अदब के साथ देखने आए... बहुत बड़ी बात है। सलाम करने की बात है।'


सिलौकी ने हाथ पकड़ कर हाशिम को तखत पर बैठाया। इत्मीनान मगर फख्र से बोले, 'नटवर और उसके साथ रहने वाले लड़के हिन्दू थे, पूरा मोहल्ला मुसलमान। वे अदब से रहते, मोहल्ला उन्हें शक से देखता। उन्हें बार-बार हिदायतें दी जातीं, वे संजीदगी से चुपचाप सुन लेते। उनके खोट निकालने की कोशिश की जाती, वे हमेशा बेदाग दिखाई देते।'


'ज़नाब नटवर साहेब कैसे थे?' हाशिम ने कुरेदा।


'बहुत प्यारा। शादाब और रेहाना भाभी का दुलारा। उम्र में छोटा था मगर अच्छी नॉलेज रखता था। हमसे तगड़ी बहस होती थी लेकिन मनमुटाव जैसा नहीं था। अगले दिन फिर हम साथ बैठते थे। मानता हूं, कई बार मेरा नज़रिया ग़लत होता था लेकिन उसने कभी सीधे-सीधे ग़लत नहीं कहा। दलीलों से लाजवाब कर देता था। हम उसे बहुत तवज्जो नहीं देते, फिर भी वह हमारी बड़ी इज़्ज़त करता था।'


'तभी तो आपके बारे में पूछ रहे थे और ये मिठाई भिजवाई।'


'लाओ पहले मिठाई खा लूं... लो भाई लोग, आप सब भी खाओ। ये महज़ मिठाई नहीं.. मोहब्बत, एहतेराम और भरोसे का सबूत है।'


बैठकखाने में मौजूद हर बंदे ने एक-एक मिठाई उठाई।


'फिर ये रूदल की टीम क्या करने आई थी?' लूंगी से हाथ साफ करते हुए सिलौकी ने पूछा।


'प्रोटोकॉल में, प्रोटेक्शन में।'


'हैं...प्रोटोकॉल में? सो क्या करता है नटवर? नेता-मंत्री हो गया क्या?


'अरे नहीं सिलौकी चा, भले लोग भी भला पॉलिटिक्स करते हैं क्या?


'तो फिर?'


'होम मिनिस्ट्री में ज्वाइंट सेक्रेटरी हैं।'


'क्या बात करते हो? इतना बड़ा आदमी हो गया नटवर!' अचरज में थे सिलौकी। फिर अफसोस किया, 'ओह, मिलवाना चाहिए था यार। एक शानदार शख्सियत बगल में आ कर चली गई और हम यहां बैठे क्या से क्या सोचते बहस करते रह गए। ...अच्छा, कभी बात हो तो हमारा सलाम कहना। फिर कभी आए तो मिलवा देना।'


'जी ज़रूर...हाशिम उठ खड़ा हुआ, 'अच्छा, अब चलता हूं।'


कुछ कदम आगे बढ़ कर फिर लौटा हाशिम, 'सिलौकी चा, एक और ज़रूरी बात कहनी थी।'


'हां-हां, कहो!'


'अल्ताफ़ और याक़ूब के लिए दीवान रूदल यादव ने हिदायत भेजी है कि अनवारुल से दूर रहे।'


'ऐसा क्यों कहा?' बात समझते हुए भी अनजान बनते हुए सिलौकी ने पूछा।


हाशिम गंभीर हो कर बताता रहा.. 'दीवान साहेब बोले, अभी बच्चे हैं दोनों, पूरी उम्र पड़ी है। पढ़ाई करे, काम सीखे और घर संभाले। बहकावे में न आए। फालतू की बैठकों में शिरकत न करे। अनवारुल और लुटुर झा की ज़िंदगी पटरी से उतर चुकी है। हम नहीं चाहते कि नामसझी और लड़कपन में कोई घुन की तरह पिस जाए।'


'अच्छा चलता हूं।' हाशिम ने कहा मगर सिलौकी ने सुना नहीं। हाशिम बैठकखाने से निकल गया, लेकिन सिलौकी ने जैसे देखा नहीं। वह दृश्यों में खो गए... नटवर से बहस हो रही है, मोहल्ले की एकमात्र नल पर घड़ों और बाल्टियों की लंबी कतार लगी है। घंटे भर इंतज़ार के बाद भी नटवर की बारी नहीं आती। नल को घेरे औरतें 'किराएदारों को आखि़र में मिलेगा पानी' कह कर उसे दुरदुराती हैं। बहुत देर से नटवर की बेबसी देख रहे मस्ज़िद के इमाम साहेब अपनी सुराही का पानी नटवर की बाल्टी में उड़ेल देते हैं। खूब शोर होता है। पहले आतिशबाजी, फिर बमबाजी होती है। रूदल आजाद खान के चौमुहां घोड़े दौड़ते हैं। अख़बारों की सुर्खियों में शहर मोहल्ले मोहल्ले बिसूरता है। सड़कों पर जुलूस है। या अली, जय बजरंग बली के गगनभेदी नारे गूंजते हैं। सड़क से नीचे उतरता अल्ताफ़ कांटों से घिर जाता है... मदद कर रहे याक़ूब के पांव दलदल में फंस जाते हैं। रूदल आजाद खान की आंखों से अंगारे बरसते हैं। एक बड़ी सी गाड़ी आ कर रुकती है। मिठाई का डब्बा लिए नटवर उतरता है। दीवान रूदल यादव अदब से हाथ बढ़ाता है। अल्ताफ़ और याक़ूब राग इजहार गाते हैं,  अंधेरे में रोशनी के दीये जलाए, उसे मंज़िल सदाबहार कहते हैं।  


खेद और खुशी से सिलौकी के कोर भीग जाते हैं।


सिलौकी अहाते के पेड़ पर फुदक रहे, इतरा रहे चिड़ों-चुनमुनों को आसक्त निहारे जा रहे थे। तस्वीर बदलने की उम्मीद को ख्वाबों के धागे से तुरप ही रहे थे कि पीछे बरामदे से आवाज़ आई, 'भाई साहब!'


सिलौकी पीछे मुड़े। बिलौकी की बीवी नसीबा थी। पूछा, 'कोई बात?'


'वो... अल्ताफ़ नज़र नहीं आ रहा, आपने देखा है क्या?' नसीबा का सवाल था।


'नहीं... देखा तो नहीं, मुश्ताक बता रहा था शायद याक़ूब के साथ कहीं निकला है।' सिलौकी ने मोहल्ले से जानबूझ कर दोनों को हटाने की बात छिपा ली। उसका ध्यान बटाने के लिए पूछा, 'कुछ काम हो तो करवा दूं मुश्ताक से?'


'नहीं..ऐसा कोई काम नहीं, मगर बिला वजह बाहर निकलता है तो मन घबराता है।' फ़िक्रमंद थी नसीबा, 'वक़्त औंधा है, दायरे में रहे तो बेहतर। कच्ची उम्र की घुमाई, खटके से मिताई।'


'ऐसी भी कोई बात नहीं... ज़्यादा सोचा न करो' सिलौकी ने नसीबा की परेशानी को हल्का करने की कोशिश की, 'अपने घर के लड़के ठीक हैं... बाहर भी रहेंगे तो कायदा नहीं छोड़ेंगे।'


'ये रूदल किस वास्ते आया था?' नसीबा को खुदबुदी हुई।


'शादाब के घर मेहमान आए थे, बड़े हुकूमती रुतबे वाले। उन्हीं के प्रोटोकॉल में आया था।' सिलौकी के लहजे में फ़ख़्र का पुट आ गया, 'जानते थे हमें भी। शादाब के घर रह कर ही ग्रेजुएशन की पढ़ाई की थी। रोज़ाना मुलाकात होती थी तब तो। अब बड़े लोग हो गए हैं, फिर भी मिठाई भिजवाई थी। अलमीरे में रखी है।'


'ग़नीमत है किसी और काम से आया था यहां।' नसीबा ने मेहमान वाली बात को तवज्जो ही नहीं दी। दीवान रूदल यादव पर ही अटकी रही, 'बड़ा मनहूस है मुआ। सूंघनी लगी है उसकी नाक में। हर वक़्त किसी तिल की तलाश रहती है उसे, मिल गया तो ताड़ बना कर ही छोड़ता है।'


'आज तो खान बहादुर भी आया था, आजाद राम भी।' सिलौकी ने फोकस प्वाइंट को डायल्यूट करना चाहा। लेकिन नसीबा असर में नहीं आई। तंज़ ही किया, 'तीन तिलंगे!... एक करेला दूजे नीम।'


नसीबा आंगन की ओर लौटी तो सिलौकी की मानो जान छूटी। सोचा, बचपने से आदत है। किसी बात पर अटकती है तो उसे मथ डालती है। आज तो कम ही पूछताछ की।


नसीबा सिलौकी की बुआ की बेटी थी और छोटे भाई बिलौकी की ब्याहता। नसीबा की छोटी बहन नशवा सिलौकी के चचेरे भाई शम्सुल से ब्याही गई थी। घर में एक सिलौकी ही थे जिनकी बीवी बाहर के खानदान से आई थी। सिलौकी के ससुराल वालों की माली हालत बेहतर थी, इसलिए उनकी बीवी थोड़ी ठसक से रहती थी। नशवा के शौहर घड़ी वाली बैटरी के कारखाने में कैशियर थे। बंधी-बंधाई माहवारी इनकम की वजह से वह किसी को सेटती नहीं थी। नसीबा तीनों में अधिक तालिमयाफ्त थी, सो किसी को मुंह नहीं लगने देती थी। मगर बिलौकी के गुज़र जाने के बाद उसके गिर्द कमतरी की चादर का घेरा बन गया था। क्रशर प्लांट में सुपरवाइजर रहते बिलौकी ने नसीबा को बड़ी खुशियों के झूले पर तो नहीं बैठाया, लेकिन छोटे-मंझौले सुख के पल जरूर मुहैया कराए। टीबी की जद में न आते बिलौकी तो नसीबा का संसार खुशहाल ही रहता। अब तो अल्ताफ़ के कल की फ़िक्र में ही समय काटे जा रही है।


भाइयों में सिलौकी ही बिना नौकरी के रहे, इसलिए पारिवारिक कामकाज के लिए उनकी मौजूदगी ज़्यादा रही। घरेलू जरूरियात ठेकेदारी से अच्छे से पूरे हो जाते थे। अपनी औलाद हुई नहीं, अल्ताफ़ और याक़ूब पर ही दुलार नाजिल करते रहे। ख़ासकर नसीबा और अल्ताफ़ को माली तकलीफ न हो, इसका खयाल जरूर करते रहे। इस वजह से बीवी से अक्सर सिलौकी की नोकझोंक हो जाती थी। सिलौकी समझाते, 'बेकार की डाह पाले हुई हो। नसीब ने अल्ताफ़ को ही खानदान का चराग़ बनाया है तो बेमन से कबूलने की बजाय इस हक़ीक़त को खुशी से मंजूर करो।'


कुछ ठेकेदारी से हासिल इफरात वक़्त और कुछ मिज़ाज की वजह से सिलौकी के ताल्लुकात तंजीमों से खूब थे। समाजी कामों में भी लगे रहते थे। ठेकेदारी में हर तबके से सामना होता था मगर मसरूफियत और दिल्लगी मुस्लिमों के बीच ही थी। इस मामले में अपने दोस्त शादाब से बिलकुल उलट थे। हालांकि मजहबी ऐतबार के बावजूद सिलौकी व्यवहार कुशल थे।  


मुर्गियों को चकमा दे कर चूजों पर झपट रही बिल्ली को पंजे मार कर ख़बरदार कर रहे मुर्गे में सिलौकी को अपनी ही तस्वीर दिखाई पड़ी। मुर्गियों में नसीबा और नशवा... चूजों में अल्ताफ़ और याक़ूब। अभी होठों पर मुस्कान बिखरी ही थी कि कानों में एक कंपन-सी हुई, लगा दूर कहीं धांय-धांय हुई है। पल के लिए बिखरे खयालों को जोड़ ही रहे थे कि सायरन का शोर होने लगा। दूर से, पास से। मोहल्ले के दाएं से, बाएं से। उत्तर से, दक्षिण से। पूरब से पश्चिम से।


सिलौकी पुलिस की गाड़ियों के जाने की दिशा का अनुमान लगाने लगे। घबराहट सी हुई, चहलकदमी करने लगे। आशंकाएं घेरने लगीं, मुश्ताक को खोजने लगे।


एक-एक कर मोहल्ले के लोग सड़क पर निकलने लगे। गुलाम सरवर, हाजी सलाउद्दीन, खुट्टन पानवाला, गफूर, हाजी शब्बीर, सलामत सिद्दीकी सबके चेहरे आशंकाओं से पुते हुए थे। एक-दूसरे को देखते, मगर कुछ पूछते बोलते नहीं।


'कोई कांड हो गया क्या सरवर, इतनी सारी पुलिस की गाड़ियां दौड़ रही हैं!' घर से बाहर निकल आईं जनानियों की तरफ से गुलाम सरवर की अम्मा ने पूछा, 'पता तो करो, काहे का कोहराम है? मोबैलिया खोल के देखो।'


गुलाम सरवर ने हामी भरी, 'हां अम्मा... देखते हैं।'


सबकी जेब में मोबाइल फोन था, लेकिन किसी को उसका खयाल ही नहीं आया। गुलाम सरवर की अम्मा के याद दिलाने से उस तरफ ध्यान गया। अपनी अपनी जेबों से मोबाइल फोन निकालने लगे।


'अनवारुल अरेस्ट हो गया।'


आवाज़ की ओर सबकी नज़रें घूमी। सिर से ऊपर उठे हाथ में मोबाइल थामे मौलाना वाहिद करीब आ गए थे। उन्होंने सूचना दोहराई, 'अनवारुल अरेस्ट हो गया।'


'ये तो होना ही था' गुलाम सरवर के मुंह से सहज ही निकल गया।


'अचानक से कैसे?' हाजी सलाउद्दीन गिरफ्तारी की वजह और समय के तार जोड़ नहीं पा रहे थे, 'अभी तो ऐसा कुछ हुआ भी नहीं!'


'लुटुर झा गैंग से सामना हो गया था।' मौलाना वाहिद ने जानकारी दी।


'कहां?' यह गफूर था।


'बिटौना चौराहे पर' मौलाना वाहिद बोले।


'तुरंत पुलिस कहां से आ गई?' हाजी सलाउद्दीन ने जानना चाहा।


'ये नहीं मालूम', मौलाना वाहिद झुंझलाए, 'मोबाइल खोलिए... सब पता चल जाएगा। एक्टिव सिटी वाले ब्रेकिंग न्यूज़ चला रहे हैं।'


अनवारुल की गिरफ्तारी महज एक सूचना नहीं थी। एक इशारा था जिसका रिफ्लेक्शन मोहल्ले की हर गली, हर दहलीज़ तक पहुंच रहा था।


बाकी लोग 'अरेस्ट' पर तर्क-वितर्क करने लगे। न्यूज़ एप और व्हाट्सएप मैसेज पर मसरूफ हो गए। बिटौना चौराहे के पहचान वालों को फोन करने लगे। बेचैन सिलौकी इधर-उधर मुश्ताक को ताकने लगे। वो कहीं दिखाई नहीं दे रहा था। सरवर से पूछा, हाजी सलाउद्दीन से तहक़ीक़ात की। उन्हें भी मालूम नहीं था।


सिलौकी ने अल्ताफ़ को फोन लगाया... स्विच ऑफ था। याक़ूब को मिलाया... बंद था। मुश्ताक का नंबर डायल किया... आउट ऑफ नेटवर्क था।


खटका घेरे हुए था। बुरे खयालों के जाले को झटकना ही चाह रहे कि 'सिलौकी चा..आ..आ! ओ सिलौकी चा...!' की पास आती आवाज़ की ओर घूमे। तब तक हशमत आ कर सामने खड़ा हो गया। हांफता-थरथराता। मुश्किल से बोल पा रहा था... 'बड़ा कांड हो गया सिलौकी चा!'


'क्या हुआ रे!' डरा हुआ सवाल था सिलौकी कहा कि कहीं उल्टी सीधी ख़बर न सुना दे हशमत।


'बेमौत मार दिया सालों ने। बिटौना चौराहे पर गोलियां दाग दी सिलौकी चा... जल्लादों ने घेर कर मार दिया।' सूखते गले में अटक रही धड़कनों को संभाले बोल गया हशमत।


हशमत की बदहवासी ने मोहल्ले को अकबका दिया था। जो जिस हाल में था, सिलौकी की तरफ लपका।


घबराए सिलौकी ने हशमत को झकझोरा... 'किसको मार दिहिस रे!... किसकी बात कर रहा है रे हशमतवा!?'


'ये नहीं मालूम चच्चा, मगर सब नई उमर के लड़के थे!' हशमत किसी तरह बोल पाया, 'पुलिस वाले बोले जा रहे थे। बिटौना चौराहे की तरफ जाने से सबको रोक रहे थे।'


हशमत को खड़ा नहीं हुआ जा रहा था। भागता हुआ आने से पेट में दर्द उखड़ गया था। ठेहुने पर दोनों हाथ रख कर सिर झुका लिया, ताकि उखड़ी सांस नार्मल हो और पेट दर्द से राहत मिले।


बेचैन सिलौकी वहीं चुकुमुकु बैठ गए। मन में खुदबुद मची थी। पूछा,  'तू कहां था रे हशमत?'


'बगल में ही ट्रैफिक तिराहे पर था..' थोड़ा दम लौटा था हशमत लेकिन मुंह झुकाए ही बोलता गया, 'बिटौना चौराहे पर फायरिंग हो रही थी। चीखें सुनाई दे रही थीं। गालियां बकी जा रही थी। सब भाग रहे थे.. डर के मारे मैं भी भाग आया।'


सेकेंडों की चुप्पी के बाद हशमत ने पूछा, 'अल्ताफ़ और याक़ूब किधर हैं सिलौकी चा?'


'क्यों क्या हुआ?' अचकचाए सिलौकी।


'भागते वक़्त रास्ते में कादिर भाई बोल रहे थे... घटना के ठीक पहले मुश्ताक के साथ दोनों को बाइक से बिटौना चौराहे की तरफ जाते देखा था उन्होंने।'  


'क्या फालतू बकता है रे।' एकबारगी हिल गए सिलौकी, 'अल्ताफ़-याक़ूब को उधर कहां से देख लिया कादिर ने? तीनों आज साथ में निकले ही नहीं। जरूर नज़र का धोखा हुआ होगा।'


'कादिर भाई झूठ क्यों बोलेंगे सिलौकी चा?' उल्टा सवाल किया हशमत ने।  


'मैं कह रहा हूं न हशमत!' सिलौकी ने यकीन से कहा, 'अल्ताफ़ और याक़ूब इधर थे ही नहीं। पुल पार दोस्तों की तरफ निकल गए थे दोनों। मुश्ताक ने ही दोनों को भेज कर इत्तिला दी थी। क़सम खा कर बताया था, बच्चे इधर थे ही नहीं!'


कहने को तो कह गए सिलौकी, मगर भीतर बैठा ख़ौफ़ नज़रों के सामने नाचने लगा। अनवारुल को दी गई लुटुर झा की धमकी कानों में गूंजने लगी... 'मारे जाओगे मियां। खुद भी निपटोगे और घुन भी पिसेंगे।' जागृति सेना के सरदार जगपत राय की ललकार लहकने लगी, 'भर नज़र देख लो सिर पर सजा साफा... ललाट पर लगा टीका! सलाम करो या क़िस्सा तमाम समझो।' पुलिस की हिदायत हदबदाने लगी, 'जिनकी जिंदगी के रास्ते ब्लॉक हो चुके हैं, उनकी सोहबत की डोर थामना ख़ुद को कुर्बान करने के बराबर है। लड़कों को बारूद से बचा कर रखो।'


अनहोनी की डोंगी पर डमगमगाती जनानियां भी घरों से सड़क पर बह आई थीं।


तरह तरह की ख़बरों से बौखलाए मोहल्ले वालों के हाथों में अटके मोबाइल पर ब्रेकिंग न्यूज़ शोर कर रही थी... बिटौना चौराहे पर हुई अनवारुक हक और लुटुर झा गैंग की भिड़ंत... दो किशोरों की गई जान... तीन की हालत गंभीर। शहर में वीआईपी मूवमेंट को लेकर हर जगह सुरक्षा बल तैनात थे। ऐसे में बीच शहर दिनदहाड़े गैंगवार होना दुस्साहस से कम नहीं था। पुलिस ने तुरंत मोर्चा संभाला। कानून व्यवस्था को चुनौती देने वालों की घेरेबंदी शुरू कर दी। इससे पहले कि पुलिस के हाथ गिरेबां तक पहुंचते, लुटुर झा गैंग चकमा दे कर चौराहे से ओझल हो गया। लेकिन अनवारुल को पकड़ने में पुलिस कामयाब हो गई। गौर करने वाली बात यह है कि अनवारुल को लेकर पुलिस के हटते ही लुटुर झा गैंग दोबारा सामने आ गया और विरोधी गैंग के गुर्गों पर फायरिंग शुरू कर दी। गुर्गे तो भाग निकले, मगर प्यादे जद में आ गए। प्रत्यक्षदर्शियों का कहना है कि जिन किशोरों को गोली लगी, उनका कोई आपराधिक इतिहास नहीं है। वे कौतूहलवश चौराहे पर आ गए थे। वहीं दूसरी ओर, कुछ लोगों का कहना है कि वे लड़के अनवारुल गैंग का हिस्सा नहीं थे, लेकिन अक्सर उनके साथ देखे जाते थे। जानकारों ने बताया कि मोहर्रम की दसवीं पर भी... लुटुर झा से झड़प के दौरान ये लड़के अनवारुल के पीछे खड़े हो कर नारेबाजी करते नज़र आए थे। अब यह जांच का विषय है कि लुटुर झा गैंग की गोलीबारी के दौरान भागदौड़ में लड़के अनजाने में निशाना बने या फिर लुटुर झा के इशारे पर जानबूझ कर उन पर गोली चलाई गई।

 

मोबाइल पर चल रही न्यूज़ मौलाना वाहिद और हशमत के कहे की तस्दीक कर रही थी। हर दिमाग़ सन्न था... हर दिल डरा हुआ।


सिलौकी मुश्ताक को फोन लगाए जा रहे थे। मिनटों पहले खाई मिठाई का स्वाद कसैला हो गया था। नसीबा अल्ताफ़ का नंबर डायल किए जा रही थी। बिलौकी के गुज़रने के बाद ग़ुरबत के टीले पर बेपर्द रही जिंदगानी बेचारगी बन कर आंखों से झड़े जा रही थी। नशवा याक़ूब के मोबाइल के बटन दबाए जा रही थी। बीच शहर महफ़ूज़ बसेरे की खुशफहमी के धागे भीगे जा रहे थे।  


आशंकाएं तमाम थीं। उम्मीदों के पत्ते डोल रहे थे। इंतक़ामी गंध से हवा का दम घुट रहा था। नफ़रती बयार से शाइस्तगी के पत्ते मुसलसल झर रहे थे।



सम्पर्क 


मोबाइल - 9532617710

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