राहुल सांकृत्यायन का आलेख 'साहित्यकार का दायित्व'
किसी भी भाषा का साहित्य उस क्षेत्र विशेष की सामाजिक, सांस्कृतिक स्थिति को रेखांकित करने का कार्य करता है। इस साहित्य का लोगों के मन मस्तिष्क पर गहरा असर पड़ता है। ऐसी स्थिति में साहित्यकारों का दायित्व कहीं और बढ़ जाता है। महापण्डित राहुल सांकृत्यायन ने अपने एक आलेख में इस मुद्दे पर विचार करते हुए लिखते हैं : 'साहित्य में संकीर्ण धार्मिक या राजनीतिक सम्प्रदायवाद नहीं आने देना चाहिए। ऐसी संकीर्णता अपना प्रभाव बहुत दिनों तक रख भी नहीं सकती।' आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं राहुल सांकृत्यायन का आलेख 'साहित्यकार का दायित्व'।
'साहित्यकार का दायित्व'
राहुल सांकृत्यायन
अंग्रेज पत्रकारों ने बड़े आश्चर्य और खेद के साथ इसी दिल्ली में देखा था कि रूसी नेताओं के स्वागत करने के समय पोस्टरों और तोरणों-लेखों में अंग्रेजी का पूरी तौर से बायकाट किया गया है, और हिन्दी तथा मेहमानों की भाषा रूसी को ही वहां स्थान दिया गया था। अंग्रेजों ने तो अपने इन भावों को अपने अखबारों में व्यक्त किया, किन्तु अंग्रेजी के हिमायती काले साहबों की छाती पर सचमुच ही उस समय सांप लोट रहा था।
यदि आज दिल्ली के धनी–धोरी हिन्दी की उपेक्षा या विरोध कर रहे हैं, तो यह उसके लिए कोई नई बात नहीं है। बारहवीं शताब्दी के अंत में दिल्ली विदेशी विजेताओं की राजधानी बनी, तब से जब तक कि अंग्रेजों का इस पर अधिकार नहीं हो गया, यानी अठारहवीं सदी के उत्तरार्द्ध तक प्रायः छः शताब्दियों तक, दिल्ली के धनी-धोरियों को हिन्दी से कोई वास्ता नहीं था। या वास्ता था, तो बाजार में साग-सब्जी खरीदने या नीच समझे जाने वाले लोगों से टूटी-फूटी भाषा में बोलने भर का। उस वक्त हिन्दी नहीं, बल्कि फारसी शासन की भाषा थी। उसी में फरमान निकलते थे, उसी में सरकारी काम-काज होता था। उसी में लिखे ग्रंथों को पुरस्कृत किया जाता था और उसी के थर्ड-रेटी कवियों को 'मलिकुश्शोअरा' बनाया जाता था। थर्ड-रेटी मैं जान-बूझ कर कह रहा हूं, क्योंकि छः शताब्दियों तक दिल्ली पर फारसी की हुकूमत रहते हुए भी, खुसरो और एक-दो ही हमारे देश के फारसी के कवियों को, फारसी की दुनिया गिनने के लिए तैयार है। अपने मुंह मिठू बनने से कुछ नहीं होता। हाल में हमारे यहां के लिए महाकवि ने फारसी में कविता की थी। उनके उपलक्ष में हमारे देश के प्रतिनिधि तेहरान में कोई अच्छी-खासी साहित्य-गोष्ठी मनाने का आयोजन करना चाहते थे। इसकी ओर उपेक्षा देख कर मैंने वहां के एक विद्वान से जब पूछा, तो उन्होंने कहा, ऐसी फारसी कविता करने वाले हमारे एक शहर में बावन गंडे मिल सकते हैं। उनका यह कहना यथार्थ का अपलाप करना था, यह मैं मानता हूं, लेकिन फारसी कविता की कसौटी वह हो सकते हैं, जिनकी फारसी अपनी भाषा है, हम और आप नहीं। हमारे उन महाकवि ने झख मारा, जो पराई भाषा में उन्होंने कविता की। गालिब को किसी ने ठीक ही सलाह दी और उन्होंने मान भी ली कि-मियां फारसी छोड़ो, उसमें कभी तुम नाम नहीं कमा सकते, अपनी भाषा को अपनाओ। गालिब का दीवान फारसी में भी है। लेकिन वह अपनी हिन्दी-या कह लीजिए फारसी लिपि में लिखी जाने वाली हिन्दी की कविता के लिए अमर हैं।
यहां दो शब्द उर्दू के बारे में भी कह दूं। उर्दू हमारी भाषा है, हिन्दी की एक शैली है, जिसमें फारसी-अरबी के शब्द अधिक इस्तेमाल किए जाते हैं। दूसरी भाषा और उसके बोलने वालों के घनिष्ठ सम्पर्क में आने पर शब्दों का ऐसा लेन-देन सभी देशों और कालों में हुआ है। शुद्ध देववाणी संस्कृत भी इससे बरी नहीं है। 'केन्द्र' जैसे शब्द ग्रीक भाषा के हैं। आज यह कहने पर भी लोगों को आश्चर्य होता है। फारसी बोलने वाले तथा अरबी में अपने धर्म ग्रंथों को पढ़ने वाले, जब इस देश में शताब्दियों तक रहे और अन्त में लोगों में घुल-मिल गए, तो फारसी-अरबी शब्दों का हमारी भाषा में आ जाना कोई आश्चर्य नहीं है। हां, यह जरूर है कि कोई भी भाषा एक सीमा तक ही शब्दों को उधार ले सकती है। यह नहीं हो सकता कि नब्बे प्रतिशत उधार शब्द हों और दस प्रतिशत असली भाषा के। हम समझते हैं कि इसमें उर्दू वालों ने गलती की, जिसका परिणाम यह हुआ कि उसका समझना आम लोगों के बूते के बाहर की बात हो गई। पर इसे तो हमारे भावी साहित्यकारों को सोचना होगा।
जो अमर साहित्यकार उर्दू में लिख चुके हैं, उनकी कृतियों को हम बदल नहीं सकते और न उन्हें छोड़ सकते हैं। शिष्टाचार और किसी को खुश करने के लिए नहीं, बल्कि हमें दिल से उर्दू की महान विभूतियों को अपना समझना होगा। अब तो सुझाव देने की भी जरूरत नहीं है। गालिब, नजीर, अकबर आदि की उर्दू कृतियां नागरी अक्षरों में छप चुकी हैं और लोग उन्हें हाथों-हाथ अपना रहे हैं।
इसी दिल्ली के श्री गोयलीय जी ने शेर-ओ-शायरी, शेर-ओ-शखुन जैसे-विस्तृत परिचय के साथ-उर्दू कवियों के संग्रह निकाले, जिसे हमारे पाठकों ने खूब अपनाया है। हम चाहते हैं कि उर्दू की कोई महत्वपूर्ण कृति नागरी अक्षरों में छपे बिना नहीं रहे। यह कोई प्रश्न नहीं है कि उर्दू की दुरूहता के कारण हिन्दी जन-साधारण उसको अपना नहीं सकेंगे। आखिर अपने प्रदेशों और विशेषज्ञों से भिन्न लोगों के लिए डिंगल, ब्रज और मैथिली कविताओं के बारे में भी यही बात है। हिन्दी जन-साधारण की उन कविताओं के साथ जो बर्ताव होगा, वही उर्दू के साथ भी-इसमें मुझे संदेह नहीं है।
साहित्य में संकीर्ण धार्मिक या राजनीतिक सम्प्रदायवाद नहीं आने देना चाहिए। ऐसी संकीर्णता अपना प्रभाव बहुत दिनों तक रख भी नहीं सकती।
दिल्ली ने अपने पुराने छः सौ वर्षों के इतिहास में यहां की भाषा के संबंध में यही रुख लिया था, तो भी उसे उसमें पूरी तौर से सफलता नहीं मिली। राजा और राजवंश चिड़िया-रैन बसेरा रखने वाले होते हैं; अमर तो है जनता। जिसने उसका पल्ला पकड़ा, उसी का बेड़ा पार है।
दिल्ली दरबार में यद्यपि हिन्दी की पुकार नहीं थी, किन्तु यहीं के एक महान दरबारी अब्दुर्रहीम खानखाना थे। क्या हिन्दी से उनके नाम को हटा कर किसी दूसरे को उस जगह पर बैठाया जा सकता है? रहीम के दोहे सिर्फ पंडितों और विद्वानों की नहीं, बल्कि हिन्दी जन-साधारण की जबान पर चढ़ गए हैं। दिल्ली में साहित्य देवताओं की पूजा के लिए न होने पर हमें किसी को पैदा करना पड़ता। पर, यहां के दिल्ली के सूर्य रहीम अपनी उपेक्षित समाधि में अनन्त निद्रा में सो नहीं रहे, बल्कि जग रहे हैं। वह जग रहे हैं क्योंकि उनके जगने का समय आया है, जब उनकी हिन्दी हमारे स्वतंत्र देश की सर्वव्यापी महान भाषा है। रहीम की समाधि को हमें हिन्दी-साहित्य का एक तीर्थ बनाना है। उनके निर्वाण दिवस को ढूंढ निकालना चाहिए और अंग्रेजी महीने और तारीख के अनुसार, उस दिन हर साल वहां एक बड़ा साहित्यिक मेला करना चाहिए। आरम्भ आप कर दीजिए, उसको विशाल रूप देने के लिए हमारी अगली पीढ़ियां आ रही हैं। रहीम लंका के विभीषण समझे गए थे, किन्तु वह विभीषण नहीं थे, जो कि सारी जनता की वाणी बन कर आए थे। विभीषणों को दूसरी जगह ढूंढ़ना होगा।
रहीम का स्मरण आने पर एक और विभूति का ख्याल आ जाता है। यद्यपि वह हिन्दी के नहीं, संस्कृत के थे। पर, हिन्दी और संस्कृत का संबंध सौतेला नहीं है। यह संबंध बहुत घनिष्ठ, मधुर और सदा काम आने वाला है। संस्कृत ने भूत काल में हमारे लिए जो किया है, उससे भी अधिक अभी उसे करना है। हमारी हिन्दी को दुनिया की सबसे समृद्ध भाषाओं की पंक्ति में लाने में जिस ज्ञान-विज्ञान की कमी है, उसके एक सबसे महत्वपूर्ण अग-परिभाषाओं को पूरा करने में संस्कृत को हाथ बंटाना है। इन परिभाषाओं द्वारा, वह हमारे देश की सभी राष्ट्रभाषाओं-असमिया, बंगला, उड़िया, तेलुगु, तमिल, मलयालम, कन्नड़, मराठी, गुजराती, पंजाबी, आदि-को एक सूत्र में बांधती है, और आगे और भी बांधती जाएगी, इस देश की सभी भाषाओं में घनिष्ठ आत्मीयता स्थापित करने का अत्यन्त महत्वपूर्ण काम संस्कृत के जिम्में है। मैं जिस विभूति और उसके दिल्ली के संबंध के बारे में कहना चाहता हूं, वह थे पंडितराज जगन्नाथ। वह सर्वतोमुखी प्रतिभा के धनी थे। संस्कृत कविता के बारे में तो मैं यही कहने की धृष्टता करता हूं कि कालिदास और वाण के युग के कवियों को छोड़ देने पर यही ऐसे कवि हुए, जिन पर हम अभिमान कर सकते हैं।
पंडितराज के पिता पद्मभट्ट आंध्र से आ कर काशी में बस गए थे। जगन्नाथ काशी में पैदा हुए। संस्कृत के सभी शास्त्रों में पारंगत थे। काव्य ही नहीं, व्याकरण और दर्शन में भी उनका लोहा माना जाता था।
इस दिल्ली में खानखाना रहीम के थोड़े ही दिनों बाद शाहजहां के युवराज दाराशिकोह पैदा हुए, जिनको भारतीय साहित्य और दर्शन से अपार प्रेम था। जब उनकी इच्छा संस्कृत साहित्य पढ़ने की हुई उस समय कौन अध्यापक हो, इसके लिए चारों ओर नजर दौड़ाई गई, तो काशी के जगन्नाथ पर सबकी नजर पड़ी। आसाम तक कई दरबारों की खाक छानने के बाद पंडितराज और दिल्ली का सौभाग्य अब खुला। वह यहां बुलाए गए। उस वक्त वह नौजवान थे। कई वर्षों तक वह दिल्ली में रहे। उन्होंने इस दिल्ली-निवास की मधुर स्मृति के बारे में स्वयं कहा है :
दिल्ली वल्लभपाणिपल्लवतले नीतं नवीनं वयः।
मैंने पंडितराज को सर्वतोमुखी प्रतिभा का धनी कहा है। इतना ही कहना उनके लिए पर्याप्त नहीं है। वह अपने समय से बहुत पहले हुए थे, वैसे ही, जैसे दाराशिकोह और उनके परदादा अकबर। एक कहावत मशहूर है और उसके संबंध में उनका एक श्लोक अब भी मौजूद है, जिससे कहावत की सत्यता सिद्ध होती है। कहते हैं बादशाह, शायद शाहजहां, ने प्रसन्न हो कर एक दिन जगन्नाथ से कहा कि पंडितराज, जो चाहो मांग लो। इसी समय पंडितराज की दृष्टि दीवानेखास की किसी सुन्दरी पर पड़ी, या कहना चाहिए कुछ समय से पड़ रही थी। उन्होंने इस पद्य द्वारा अभिलषित वस्तु मांगी :
न याचे गजालिं न वा वाजिराजि न वित्तेषु चित्तं मदीयं कदापि ।
इयं सुस्तनी मत्तकन्यस्तहस्ता लवंगी कुरंगी दृगंगी करोतु ॥
पंडितराज ने गजों की आलि और घोड़ों की राजि को नहीं मांगा और न धन पाने की प्रार्थना की। उन्होंने मृगनयनी लवंगी को मांग लिया।
यह मांगना साधारण कामुक भी कर सकता था, इसमें कोई विशेषता नहीं थी। परन्त् पंडितराज ने इतने हल्के दिल से लवंगी को नहीं मांगा था। उन्होंने उसे अपने अर्धांग के तौर पर स्वीकार किया। उस समय की काशी, या देश का हिन्दू धर्म, भला इसे कैसे बर्दाश्त कर सकता था? सबके मुंह से यही निकलने लगा-पंडितराज तो धर्मभ्रष्ट हो गया। उनका हर तरह से अपमान किया जाने लगा। कोई उनके हाथ का पानी पीने के लिए तैयार नहीं था। गले में हाथ लगा कर उन्हें हिन्दू–समाज से निकालने का पूरा प्रयत्न किया।
लेकिन पंडितराज नाम के पंडितराज नहीं थे। उन्होंने अपनी संस्कृति का गम्भीर अध्ययन किया था। वह जानते थे कि इन कूपमण्डूकों को आज से चार शताब्दियों के बाद कोई पूछेगा भी नहीं। वह अडिग रहे। पंडितराज रहे, जगन्नाथ रहे। अपने धर्म पर उनकी पहले ही की तरह आस्था रही। बुढ़ापे में उन्होंने मथुरा में जा कर अपना जीवन बिताया। वह नियमपूर्वक साल में काशी जाया करते थे। उनके विद्यार्थी गुरु के चरणों में आते, उन्हें वह विद्यादान देते। काशी के दूसरे पंडित उन्हें इस पुण्य-कार्य से नहीं रोक सकते थे। लवंगी पंडितराज के साथ थी। दोनों का निजी जीवन और दिनचर्या कैसी थी, वह बड़ी मनोरजंक बात हो सकती है। पर उसे जानने का अब साधन क्या है? उनकी विद्वता के सभी कायल थे, और निर्भीकता तथा साहस के भी।
'न याचे गजालिं' इस श्लोक को मैंने पहले-पहल एक बहुत ही पुराने विचार के धार्मिक पंडित के मुख से अभिमानपूर्वक कहे जाते सुना था। यह पंडितराज की निर्भीकता और साहस का प्रमाण था। लोग तब भी यह फतवा देते ही थे कि पंडितराज हिन्दू नहीं, धर्म-भ्रष्ट यवन है। लेकिन यही लोग अन्त में उनकी धर्मनिष्ठता को पूरी तौर से मानने के लिए मजबूर हुए।
इसके बारे में निम्न परम्परा आज भी दोहराई जाती है। यद्यपि इसके सत्य होने में पूरा संदेह है, किन्तु यह एक उत्कृष्ट कविता की तरह मधुर है। पंडितराज और उनकी पत्नी लवंगी ने अपनी धार्मिकता को साबित करने का निश्चय कर लिया। छात्रों द्वारा इसकी खबर पहले ही काशीवासियों को मिल गई थी। लवंगी के साथ पंडितराज मणिकर्णिका घाट की सबसे ऊपर वाली सीढ़ी पर जा कर बैठे। फिर उन्होंने गंगा की स्तुत्ति अपनी 'गंगालहरी' के मधुर छंदों में करनी शुरू की। गंगा से उन्होंने मानो कहा- 'यदि तू मुझे सच्चा समझती है, तो आ, मेरी साखी दे'। कहते हैं, 'गंगालहरी' के एक-एक पद के मुख से निकलते ही गंगा एक-एक सीढ़ी ऊपर चढ़ती आई। जब लहरी का अंतिम पद समाप्त हुआ, तो गंगा जगन्नाथ और लवंगी के पास ही नहीं पहुंच गई, बल्कि अपनी गोद में ले कर कहा- 'पवित्र पुत्र, तू मेरे साथ चल, और लवंगी भी'। इस प्रकार पंडितराज ने अपनी शुद्धता की गंगा-परीक्षा दी।
खानखाना और पंडितराज जगन्नाथ ने अपने समय दिल्ली का ध्यान खींचा। आज दिल्ली के धनी-धोरी हिन्दी का लोहा जबर्दस्ती मानने के लिए मजबूर हुए हैं। तो भी, उनका विरोध अब भी रुका नहीं है। पर, मैं समझता हूं, उनका विरोध काल के प्रचण्ड प्रवाह के सामने बेकार सिद्ध होगा। हमें उससे डरने की जरूरत नहीं। दिल्ली में वे ही सब कुछ नहीं हैं जो कि हिन्दी को फूटी आंखों नहीं देखना चाहते हैं।
दिल्ली उस भूमि की महानगरी है, जो हिन्दी की जन्मभूमि है। जमुना के दोनों तरफ बसे कुरु कुरुजांगल देश की ही भाषा-कौरवी-से हिन्दी पल्लवित हुई। जमुना के पूर्व मेरठ में और जमुना के पश्चिम हरियाणा में सुन कर हमें मेरठी और हरियाणी को दो भाषाएं नहीं समझना चाहिए। जिस तरह यहां ’सै’ और ’है’ का भेद है, वैसे ही गुजराती में भी ’स’ और ’ह’ का भेद देखा जाता है। काठियावाड़ी 'हारो' बोलते हैं और दूसरे गुजराती 'सारो' (अच्छा)। लेकिन, इस 'स' और 'ह' के भेद से गुजराती की एकता में कोई बाधा नहीं होती। वही बात हरियाणी और मेरठी की भी है।
मेरे जैसे अधिकांश हिन्दी के सेवक ऐसे हैं, जिनकी मातृभाषा हिन्दी नहीं, बल्कि भोजपुरी, अवधी, ब्रज या दूसरी भाषा है। हम अपने भाषा-क्षेत्र में अपनी मातृभाषा का व्यवहार करते हैं, कोई-कोई उसमें लिखते भी हैं। वहां भी हिन्दी के पीछे अपार जनता है, तो यहां प्राचीन कुरुकुरुजांगल या यौधेयगण देश के बारे में क्या कहना, जहां कि साहित्यिक और बोलचाल की भाषा एकमात्र हिन्दी है। इतने नर-नारियों की अपनी मातृ-भाषा होने के कारण दिल्ली के कुछ त्रिशंकु हिन्दी का अनिष्ट करना चाहें तो वह कर क्या सकते हैं?
हिन्दी की स्थानीय भाषा कौरवी की तरफ हमें विशेष ध्याना देना चाहिए। खास कर इस भूमि के साहित्यकारों का यह कर्तव्य है कि वे कौरवी को न भूलें। कोई भी वह साहित्यिक भाषा जीवट वाली भाषा नहीं हो सकती, जिसका अपनी स्थानीय भाषा-डाइलेक्ट-से अविच्छिन्न संबंध नहीं है। विद्वानों का विचार है कि स्थानीय भाषा से जिस साहित्यिक भाषा का संबंध टूट गया है, वह प्रवाह-विच्छिन्न नदी की छाड़न जैसी है। यदि छाड़न का पानी सड़े भी नहीं, तो भी उसमें वह ताजगी और जीवनदायिनी शक्ति तो हो ही नहीं सकती जो निरन्तर प्रवाहित धारा में होती है। हमारे प्रेमचन्द भोजपुरी भाषा-भाषी थे, उन्होंने केवल शहर के मध्यवर्ग को ही चित्रित नहीं करना चाहा। उनकी अमर लेखनी जन-साधारण की ओर दौड़ी, और जन-जीवन को चित्रित करने में वह भोजपुरी के कितने ही शब्दों को लेने के लिए मजबूर हुई यद्यपि भोजपुरी के हिन्दी से दूर की भाषा होने के कारण उसमें खपने लायक शब्दों को परखना प्रेमचन्द की पैनी दृष्टि का ही काम था, तो भी उसके बहुत कम ही शब्द लिए जा सके। कौरवी का तो हिन्दी के साथ और गहरा संबंध है। उसके तो संख्या में और भी अधिक शब्द खप सकते हैं। यही नहीं, बल्कि जीवन के जिन अंगों को दूसरे हिन्दी लेखक शब्दों की कठिनाइयों के कारण अधूरा छोड़ देते हैं, उन्हें हमारे कौरवी क्षेत्र के साहित्यकार पूरा चित्रित कर सकते हैं। इस विषय में संकोच करना, मैं समझता हूं, भारी गलती है। मैला आंचल में हिन्दी के सीमान्त के जिले पूर्णिया के सैकड़ों शब्द बड़ी खूबी के साथ ले लिए गए हैं, और उनके कारण भाषा कितनी चमत्कारिक हो गई है, इसे सहृदय पाठक जानते हैं। इससे हमें शिक्षा लेनी चाहिए।
कौरव क्षेत्र का एक और भी भारी महत्व है, जिसकी ओर अभी हमारी दृष्टि नहीं गई। कौरवी लोक-साहित्य की ओर देर से ही सही, अब नौजवान साहित्यकारों का ध्यान गया है, और उसके संग्रह के लिए वे प्रयत्न कर रहे हैं। लेकिन, कौरवी क्षेत्र में हिन्दी के प्राचीनतम लिखित साहित्य के मिलने की संभावना है, जिसकी ओर मैं आपका ध्यान आकृष्ट करना चाहता हूं। राजस्थानी और गुजराती ही नहीं, बल्कि द्रविड़ वंश की कन्नड़ जैसी भाषाओं के भी प्राचीनतम साहित्य जैनों के द्वारा सिरजे गए और उन्हीं के द्वारा सुरक्षित हुए। जैन धर्म, और, अपने भारत में रहते समय, बौद्ध धर्म भी, लोक–भाषा का बहुत आदर करता रहा, उसमें साहित्य-निर्माण कर उसे सुरक्षित करता रहा। इसके परिणामस्वरूप प्राकृत और अपभ्रंश की तरह उपरोक्त आधुनिक भाषाओं के प्राचीनतम साहित्य को भी उन्होंने सुरक्षित रखा। कौरवी के प्रदेश के हरेक कस्बे और शहर में ही नहीं बल्कि बहुत से बड़े-बड़े गांवों में भी जैन गृहस्थ रहते हैं। वहां उनके मंदिर, उपाश्रय हैं, जिनमें कुछ धर्म-पुस्तकों का रहना अनिवार्य है। इन पुस्तकों में बहुत से हस्तलिखित ग्रंथ भी होते हैं। ऐसे मंदिरों और उपाश्रयों की संख्या कौरवी क्षेत्र में हजारों है, अर्थात ऐसे कई हजार छोटे-मोटे पुस्तकालय यहां मौजूद हैं, जिनमें हिन्दी के प्राचीनतम लिखित साहित्य के मिलने की संभावना है। 'ज्ञानपंचमी कथा' जैसी पुस्तकें साधारण श्रद्धालु नर-नारी के उपयोग के लिए हर समय जैन विद्वान लिखते रहे हैं। बारहवीं से सोलहवीं सदी तक कौरवी क्षेत्र में इस तरह की पुस्तकें कौरवी भाषा में जरूर लिखी गई होंगी। वे गद्य में भी हो सकती हैं और पद्य में भी, उन्हें ढूंढने की बड़ी आवश्यकता है। क्या कोई एक-या अनेक-साहित्य-प्रेमी तरुण, सत्तू बांध कर, इस काम के लिए जुट सकते हैं?
हिन्दी के बारे में 'गतिरोध' शब्द बहुत इस्तेमाल किया जाता है। मेरी समझ में यह ख्याल गलत है। यदि प्रगति का मतलब है हर दशाब्दी में प्रेमचन्द और प्रसाद पैदा होते रहें, तो यह कभी और कहीं नहीं हुआ है। इस ख्याल को हटा कर यदि हम देखें, तो चाहें कथा साहित्य हो, चाहे कविता या ज्ञान-विज्ञान, सब में हमें प्रगति दीख पड़ती है। हिन्दी के लिए एक सब से असुविधा की बात यह है कि उसके साहित्य के प्रकाशन का कोई एक बहुत बड़ा केन्द्र नहीं है।
बंगला साहित्य के प्रकाशन का केन्द्र कलकत्ता है, अब पाकिस्तान के बनने के बाद ढाका भी हो रहा है। उड़िया का कटक, तमिल का मद्रास, मराठी का बम्बई और कुछ-कुछ पूना भी है। इसी तरह हमारी साहित्यिक भाषाओं के भी एक या दो ही शहर केन्द्र हैं, इसलिए वहां जितनी पुस्तकें निकलती हैं, उनका पता आसानी से लग जाता है। हिन्दी का प्रकाशन यदि विकेन्द्रित है, तो इसे बिल्कुल दोष भी नहीं कहा जा सकता। पर यह तो है ही कि हिन्दी के विशेषज्ञों को भी पता नहीं लगता कि अपने सम्पर्क वाले नगर से दूर कौन सी पुस्तकें किस विषय पर निकल रही हैं। हिन्दी पुस्तकें कलकत्ता से भी निकलती हैं, पटना और बनारस से भी। प्रयाग और लखनऊ भी उसके बड़े केन्द्र हैं, जबलपुर, आगरा, ग्वालियर, जयपुर - इसी तरह बम्बई आदि, नगरों में हिन्दी-प्रकाशन का काम होता है। इसके लिए प्रकाशन समाचार और हिन्दी प्रचारक का हमें कृतज्ञ होना चाहिए, जिन्होंने इस अज्ञान को दूर करने में काफी काम किया है।
तो भी यह तो कहना ही पड़ेगा कि हिन्दी के प्रकाशन के एक बहुत बड़े केन्द्र का अभाव खटकता है। इस अभाव को दिल्ली पूरा करने के लिए तैयार है, यह देख कर बड़ी प्रसन्नता हो रही है। पिछले चार-पांच सालों में हिन्दी प्रकाशन क्षेत्र में दिल्ली बहुत आगे बढ़ रही है। यहां के प्रकाशन व्यवसायियों के साहस को देख कर और भी खुशी होती है। इसे मानने में किसी को उज्र नहीं हो सकता कि अगले एक दर्जन वर्षों में ही हिन्दी का सबसे बड़ा प्रकाशन केन्द्र दिल्ली में हो जाएगा। तब हिन्दी के प्रकाशकों के बारे में जो भारी अज्ञान आज भिन्न जगहों से संख्या में ही नहीं, बल्कि गुण में भी बहुत-सी अच्छी पुस्तकें निकल रही हैं। जब तक उन्हें नहीं देख लिया हो, तब तक यह कहना उचित नहीं है कि हिन्दी में अच्छी चीजें नहीं निकल रही हैं, या साहित्य में 'गतिरोध' हो गया है। अपनी प्रगति से हमें असंतोष होना चाहिए, इसे मैं मानता हूं। अगर हम संतुष्ट हो जाएंगे तो आगे बढ़ने के लिए प्रयत्न कैसे करेंगे? हमारे साहित्यकार अपनी कमियों को महसूस करें। कितने ही विषयों में हमारे लेखक गम्भीरता लाने के लिए अपने को तैयार नहीं करते। प्रतिभा और क्षमता रहते हुए भी, वे आलस्य करते हैं। बहुत जगहों पर तो लोग बिल्कुल अनधिकार धांधली-सी मचा रहे हैं। व्यवसायी खोटे सिक्कों को चलाने के लिए तैयार हों तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। पर, पारखी लोग भी प्रभाव में आ जाते हैं, या 'मन तुरा हाजी बगोयम् तू मरा हाजी बगो' की कहावत को चरितार्थ करने लगते हैं। इससे साहित्य का अनिष्ट होता है। ये साहित्य के आगे बढ़ने में रुकावटें हैं, जिन्हें दूर करना चाहिए।
प्रकाशकों को जब तक पाठ्य-पुस्तकों का प्रलोभन है, तब तक अच्छे साहित्य के प्रकाशन में भारी दिक्कत रहेगी। पाठ्य-पुस्तकों के प्रकाशन को वस्तुतः सरकार को अपने हाथ में ले लेना चाहिए, ऐसा करने में कुछ दोष भी आ सकते हैं, लेकिन दोष और गुण सबको देखना होगा। मैं समझता हूं, पाठ्य-पुस्तकों के प्रकाशन का काम सरकार के हाथ में चले जाने पर अच्छा ही होगा। फिर प्रकाशक साहित्य की अच्छी सेवा कर सकेंगे। सामान्य साहित्य की पुस्तकें कम खपती हैं। उसके लिए प्रकाशक को अधिक पूंजी लगाने का प्रोत्साहन नहीं हो सकता। यह शिकायत बेजा नहीं है। और इस शिकायत से लेखक भी सहमत हैं। हिन्दी लेखकों की और सामान्य साहित्य की पुस्तकों के प्रकाशकों की दिक्कतें एक-सी हैं। हिन्दी भाषा वालों की संख्या 15-16 करोड़ है, और हिन्दी के किसी ग्रंथ का दो हजार का संस्करण भी बड़ा समझा जाता है, जब कि 15 लाख की आबादी वाले ताजिकिस्तान सोवियत गणराज्य में उपन्यासों, कहानियों, कविताओं के सात-सात, आठ-आठ हजार के संस्करणों का होना मामूली बात है। उस हिसाब से तो हिन्दी की किसी भी अच्छी पुस्तक का संस्करण एक लाख से कम नहीं होना चाहिए। भविष्य में वह अच्छा होगा भी, लेकिन मालूम नहीं उस भविष्य की प्रतीक्षा हमारी अगली पीढ़ी को भी करनी पड़ेगी या नहीं।
पुस्तकों के भारी संस्करण के लिए सार्वजनिक शिक्षा के साथ-साथ लोगों की आर्थिक स्थिति का बेहतर होना भी आवश्यक है। खाना, कपड़ा, मकान और बाल-बच्चों के पालन-पोषण के लिए जो खर्च अनिवार्य है, उसे कर लेने के बाद यदि आपकी जेब में दस-बीस रुपये हर महीने बच रहें, तभी आप उनका उपयोग मनोविनोद या ज्ञान-विज्ञान बढ़ाने के लिए कर सकते हैं। पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तकों का जो मूल्य है, यदि वह आपकी मासिक आमदनी का नगण्य-सा अंश है, तो आप उनको ज्यादा से ज्यादा खरीद सकते हैं। हमारे देश में यही दिक्कत है। शिक्षा कम है। जो शिक्षित हैं, उनकी आर्थिक स्थिति इतनी बुरी है कि वे अपना और अपने परिवार का पेट काट कर ही पुस्तक की लालसा पूरी कर सकते हैं। 'सर्वे पदा हस्तिपदे निमग्ना' के अनुसार अब इस समस्या का भी हल देश की गरीबी और भुखमरी के दूर करने पर निर्भर है। यह बड़ी अच्छी बात है, क्योंकि आर्थिक कठिनाई को दूर करने के लिए अब हम मजबूर हैं।
हमें हिन्दी के लिए दिल्ली में अपने एक केन्द्रीय स्थान की आवश्यकता है, जिसमें व्याख्यानशाला हो, रंगमंच हो, अच्छा पुस्तकालय हो, जहां पर राजधानी और बाहर के विद्वान विचार-विनिमय करें, और सहायता प्राप्त कर सकें। हमें दिल्ली में एक बड़ा साहित्य-तीर्थ सौभाग्य से रहीम की समाधि के रूप में मिला हुआ है। इसे हमें एक विशाल रूप देना चाहिए।
फारसी का महान कवि फिरदौसी अपने समय के जिस महानगर तूस में पैदा हुआ था, वह अब कई मीलों तक फैला सूखा बयाबान है। वहां की प्रकृति वर्षा में उदार नहीं है, जिसके कारण चारों तरफ नजर दौड़ाने पर कहीं हरियाली नजर नहीं आती। ईरान ने फिरदौसी की कदर करनी सीखी, और वहां हजारसाला जशन मनाया गया। उस समय इस बयाबान में फिरदौसी की समाधि को सजाने की कोशिश की गई। मैं भी एक बार वहां पहुंचा। मशहद से कई मील चल कर वहां जाने पर मुख्तसर से मकबरे को देख लेने पर भूख-प्यास जोर मारने लगी। पर वहां कुछ नहीं था। यदि पास में माली ने खरबूजे न लगाए होते, तो भूखे-प्यासे ही लौटना पड़ता। रहीम की समाधि तूस जैसा बयाबान में नहीं है, वह बढ़ती हुई दिल्ली के भीतर है। उसे हमें एक तीर्थ के अनुरूप बनाना चाहिए। फूल हों, बाग हो, पुस्तकालय हो, सह-मिलन और गोष्ठी के लिए छत-और आकाश के नीचे विस्तृत स्थान - हो। इन दो संस्थाओं की दिल्ली को बड़ी आवश्यकता है।
प्रस्तुति : आलोक कान्त
{साभार : ’आजकल’, अप्रैल, 1993}
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