वीरेन डंगवाल की कविताएँ
वीरेन डंगवाल |
वीरेन डंगवाल (जन्म: 5 अगस्त 1947; निधन: 28 सितंबर 2015)
कवि कर्म महज कागजों को काला करने वाला धंधा नहीं अपितु अत्यधिक कठिन कर्म है। कवि एक सामाजिक जिम्मेदारी के तहत कविताएं लिखता है। यह जिम्मेदारी उसे कोई सौंपता नहीं बल्कि वह खुद ब खुद उठाता है। ऐसे में कवि से जनता को एक सहज उम्मीद होती है। कविता चाटुकारिता नहीं बल्कि उसके खिलाफ खड़े हो कर बात करने की कला है। वीरेन डंगवाल अपनी कविताओं में उस मनुष्यता के पक्ष में निर्विवाद रूप से खड़े नजर आते हैं जो आज सबके निशाने पर है। भीड़ से अलग खड़े होकर कहने का दुर्लभ साहस वीरेन में दिखाई पड़ता है। हां में हुंकारी तो सभी भरते हैं। नकार का साहस इक्का दुक्का ही दिखाई पड़ता है। अपनी एक कविता में वे लिखते हैं : "बेईमान सजे-बजे हैं/ तो क्या हम मान लें कि/ बेईमानी भी एक सजावट है?/ कातिल मजे में हैं/ तो क्या हम मान लें कि कत्ल करना मजेदार काम है?" कल यानी 28 सितंबर को प्रिय कवि वीरेन डंगवाल जी की पुण्यतिथि थी। उनकी पुण्य स्मृति को हार्दिक नमन करते हुए हैं उन्हें पहली बार की तरफ से श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं कवि वीरेन डंगवाल की कुछ कविताएँ।
वीरेन डंगवाल की कविताएँ
उजले दिन जरूर
(निराला के लिए)
आएँगे, उजले दिन ज़रूर आएँगे
आतंक सरीखी बिछी हुई हर ओर बर्फ़
है हवा कठिन, हड्डी-हड्डी को ठिठुराती
आकाश उगलता अंधकार फिर एक बार
संशय-विदीर्ण आत्मा राम की अकुलाती
होगा वह समर, अभी होगा कुछ और बार
तब कहीं मेघ ये छिन्न-भिन्न हो पाएँगे।
तहख़ानों से निकले मोटे-मोटे चूहे
जो लाशों की बदबू फैलाते घूम रहे
हैं कुतर रहे पुरखों की सारी तस्वीरें
चीं-चीं, चिक्-चिक् की धूम मचाते घूम रहे
पर डरो नहीं, चूहे आख़िर चूहे ही हैं,
जीवन की महिमा नष्ट नहीं कर पाएँगे।
यह रक्तपात, यह मारकाट जो मची हुई
लोगों के दिल भरमा देने का ज़रिया है
जो अड़ा हुआ है हमें डराता रस्ते में
लपटें लेता घनघोर आग का दरिया है।
सूखे चेहरे बच्चों के उनकी तरल हँसी
हम याद रखेंगे, पार उसे कर जाएँगे।
मैं नहीं तसल्ली झूठ-मूठ की देता हूँ
हर सपने के पीछे सच्चाई होती है
हर दौर कभी तो ख़त्म हुआ ही करता है
हर कठिनाई कुछ राह दिखा ही देती है।
आए हैं जब हम चल कर इतने लाख वर्ष
इसके आगे भी तक चलकर ही जाएँगे,
आएँगे, उजले दिन ज़रूर आएँगे।
मसला
बेईमान सजे-बजे हैं
तो क्या हम मान लें कि
बेईमानी भी एक सजावट है?
कातिल मजे में हैं
तो क्या हम मान लें कि कत्ल करना मजेदार काम है?
मसला मनुष्य का है
इसलिए हम तो हरगिज नहीं मानेंगे
कि मसले जाने के लिए ही
बना है मनुष्य।
समोसे
हलवाई की दुकान में घुसते ही दीखे
कढ़ाई में सनसनाते समोसे
बेंच पर सीला हुआ मैल था एक इंच
मेज़ पर मक्खियाँ
चाय के जूठे गिलास
बड़े झन्ने से लचक के साथ
समोसे समेटता कारीगर था
दो बार निथारे उसने झन्न-फन्न!
यह दरअसल उसकी कलाकार इतराहट थी
तमतमाए समोसों के सौंदर्य पर
दाद पाने की इच्छा से पैदा
मूर्खता से फैलाए मैंने तारीफ़ में होंठ
कानों तलक
कौन अभागा होगा इस क्षण
जिसके मन में नहीं आएगी एक बार भी
समोसा खाने की इच्छा
जलेबी
भारत को बचा कर रखेगी
जलेबी
यों ही नहीं बन गया
वह ख़मीर
उसके पीछे है
हज़ारों बरस की साधना और अभ्यास
जिसे रात-भर में अंजाम दे दिया गया
इतनी क़रारी पूर्णता के साथ।
तपस्वी विलुप्त हो गए
घुस गए धनुर्धारी महानायकों के दौर
गांधी जी तक हलाक़ कर दिए गए
जलेबी मगर अकड़ी पड़ी है थाल पर
सिंककर खिली
किसी फूल की
वह सुंदर और गर्मागर्म
पेचीदा सरसता।
कवि
मैं ग्रीष्म की तेजस्विता हूँ
और गुठली जैसा
छिपा शहद का ऊष्म ताप
मैं हूँ वसंत में सुखद अकेलापन
जेब में गहरी पड़ी मूँगफली को छाँटकर
चबाता फ़ुरसत से
मैं चेकदार कपड़े की क़मीज़ हूँ
उमड़ते हुए बादल जब रगड़ खाते हैं
तब मैं उनका मुखर ग़ुस्सा हूँ
इच्छाएँ आती हैं तरह-तरह के बाने धरे
उनके पास मेरी हर ज़रूरत दर्ज है
एक फ़ेहरिस्त में मेरी हर कमज़ोरी
उन्हें यह तक मालूम है
कि कब मैं चुप हो कर गर्दन लटका लूँगा
मगर फिर भी मैं जाता रहूँगा ही
हर बार भाषा को रस्से की तरह थामे
साथियों के रास्ते पर
एक कवि और कर ही क्या सकता है
सही बने रहने की कोशिश के सिवा
कविता है यह
जरा सम्हल कर
धीरज से पढ़
बार-बार पढ़
ठहर-ठहर कर
आँख मूँदकर आँख खोल कर,
गल्प नहीं है
कविता है यह।
परंपरा
पहले उसने हमारी स्मृति पर डंडे बरसाये
और कहा - 'असल में यह तुम्हारी स्मृति है'
फिर उसने हमारे विवेक को सुन्न किया
और कहा - 'अब जाकर हुए तुम विवेकवान'
फिर उसने हमारी आँखों पर पट्टी बाँधी
और कहा - 'चलो अब उपनिषद पढ़ो'
फिर उसने अपनी सजी हुई डोंगी हमारे रक्त की
नदी में उतार दी
और कहा - 'अब अपनी तो यही है परंपरा।'
हम औरतें
रक्त से भरा तसला है
रिसता हुआ घर के कोने-अंतरों में
हम हैं सूजे हुए पपोटे
प्यार किये जाने की अभिलाषा
सब्जी काटते हुए भी
पार्क में अपने बच्चों पर निगाह रखती हुई
प्रेतात्माएँ
हम नींद में भी दरवाज़े पर लगा हुआ कान हैं
दरवाज़ा खोलते ही
अपने उड़े-उड़े बालों और फीकी शक्ल पर
पैदा होने वाला बेधक अपमान हैं
हम हैं इच्छा-मृग
वंचित स्वप्नों की चरागाह में तो
चौकड़ियाँ
मार लेने दो हमें कमबख्तो!
प्रेम के बारे में एक शब्द नहीं
शहद के बारे में
मैं एक शब्द भी नहीं बोलूँगा
वह
जो बहुश्रुत संकलन था
सहस्र पुष्प कोषों में संचित रहस्य रस का
जो न पारदर्शी न ठोस न गाढ़ा न द्रव
न जाने कब
एक तर्जनी की पोर से
चखी थी उसकी श्यानता
गई नहीं अब भी वह
काकु से तालु से
जीभ के बीचों-बीच से
आँखों की शीतलता में भी वही
प्रेम के बारे में
मैं एक शब्द भी नहीं बोलूँगा।
तोप
कंपनी बाग़ के मुहाने पर
धर रखी गयी है यह 1857 की तोप
इसकी होती है बड़ी सम्हाल
विरासत में मिले
कंपनी बाग की तरह
साल में चमकायी जाती है दो बार
सुबह-शाम कंपनी बाग में आते हैं बहुत से सैलानी
उन्हें बताती है यह तोप
कि मैं बड़ी जबर
उड़ा दिये थे मैंने
अच्छे-अच्छे सूरमाओं के छज्जे
अपने ज़माने में
अब तो बहरहाल
छोटे लड़कों की घुड़सवारी से अगर यह फारिग हो
तो उसके ऊपर बैठकर
चिड़ियाँ ही अकसर करती हैं गपशप
कभी-कभी शैतानी में वे इसके भीतर भी घुस जाती हैं
ख़ासकर गौरैयें
वे बताती हैं कि दरअसल कितनी भी बड़ी हो तोप
एक दिन तो होना ही है उनका मुँह बंद!
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
बहुत सुन्दर अर्थ-गर्भित कवाताएं पढ़कर दिन बन गया
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