प्रमोद कुमार शाह की कविताएँ

 

प्रमोद कुमार शाह


परिचय 


प्रमोद कुमार शाह

जन्म : 20 अगस्त 1966, द्वाराहाट 

जनपद - अल्मोड़ा

शिक्षा: बी. ए., एल-एल. बी.

प्रकाशन: विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में समसामयिक विषयों पर लेखन जारी 

संप्रति:  पुलिस उपाधीक्षक, जनपद चमोली उत्तराखंड 


जीवन की दिक्कतों से ऊब कर तमाम लोग आत्महत्याएं कर लेते हैं। स्त्रियों के साथ यह समस्या दोहरी होती है। इज्जत, प्रतिष्ठा, मान, मर्यादा के जैसे टैग जो उनके साथ नत्थी होते हैं, वे अन्ततः उनके लिए मारक साबित होते हैं। दरअसल इन आत्महत्याओं को भी अलग नजरिए से देखने की जरूरत है। आखिरकार उस तनाव या मनःस्थिति के लिए किसे जिम्मेदार माना जाए जो उस व्यक्ति या स्त्री के लिए अन्ततः संघातक साबित होता है। दुनिया का हर व्यक्ति जीना चाहता है फिर एकाएक क्या हो जाता है कि व्यक्ति अपनी इहलीला समाप्त करने पर उतारू हो जाता है। इसी विषयवस्तु पर कवि प्रमोद कुमार शाह ने एक कविता लिखी है छपाक। इस कविता में कवि लिखते हैं - 'आसान है कह देना,/ यह रास्ता कायरता का है../ लेकिन यह कौन-सी बहादुरी है../ यह कैसा अंधापन है../ जिसमें हम नहीं देखते अपने पास ही,/ एक फूल का कुम्हलाना, मुरझाना,/ और भीतर तक जल जाना?' सरल सहज अंदाज में प्रमोद गम्भीर बातें करते हैं। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं प्रमोद कुमार शाह की कविताएँ।



प्रमोद कुमार शाह की कविताएँ 



केवल भूगोल नहीं होता पहाड़ 


पहाड़!

सिर्फ भूगोल नहीं हैं.. पहाड़!

देखो, जरा गौर से देखो..

इतिहास का बहुरंगी ग्रन्थ हैं,... पहाड़..।

इसकी हर धार का, अलग अध्याय 

हर पत्थर का अलग इतिहास है..।


पहाड़,

सिर्फ भुतहा गाँव,

पिघलते ग्लेशियर..

रोखड़ होती नदियां नही हैं....।


हिम्मत का,

नहीं दर्शन का,

इम्तिहान हैं पहाड़..!


झुकोगे तो चढ़ोगे पहाड़,

अहंकार में लुढ़क जाओगे,

पाओगे गहरी खाई..।


जाड़ा, गर्मी, बरसात..

सब अकेले, अपने भरोसे,

झेल लेते हैं पहाड़...।

तमाम विघ्नों के बीच, 

ढूंढ़ लेते हैं, निर्विघ्न थान ..।


अपनी ऊँचाइयों में,

थाप लेते हैं गणेश, पहाड़..!



रिसर्च स्कॉलर


वे जंगल को पढ़ना चाहते हैं,

रिसर्च स्कॉलर कहलाते हैं..।

ऐसा करते हुए, वे जंगल को,

किताब मान लेते हैं..

खींच लेते हैं,

कुछ आड़ी तिरछी रेखाएँ..

जो रिसर्च कहलाती हैं..।


वे नहीं पढ़ते ,

जंगल की पीड़ा..

ताकते हैं दूरबीन से,

कर देना चाहते हैं,

निर्वस्त्र.. द्रौपदी जैसे।

पूरी देह को,

आँकड़ों से भर देते हैं...।

भूल जाते हैं,

जंगल आँकड़े नहीं होते।


जंगल अपनी ही धुन में,

ख़ुद को गुनगुनाते हैं..

झड़ चुके सूखे पत्तों से भी,

एक संगीत सुनाते हैं..।


वे देखना चाहते हैं जंगल को,

लेकिन भूल जाते हैं..

जंगल को देखा नहीं,

सुना जाता है।

आँख से ज्यादा महत्वपूर्ण,

यहाँ कान होते हैं..

जो सुन पाते हैं,

सूखे पत्ते का गिरना..

और उसके वियोग में,

पेड़ों का सिसकना..।






विडम्बना 


चैत में खिलने थे, फूल

जल गए जंगल..

पक्षी सारे मर गए..

जिनके ज़िम्मे थे,

पहुँचाने गीत प्रेम के ..।


अब देखो आषाढ़ बरस रहा, 

सावन सा...

अब सावन तरसेगा,

जैसे..

तरसते हैं प्राण,

किसी प्रिय के आगमन को

जैसे तरसती हैं आँखें,

पा जाने को बस एक झलक भर

जैसे तरसता रहता है ,

चातक स्वाति नक्षत्र की,

एक बूँद भर को।

क्यों विडम्बनाओं से भर रहा है..?

आकाश प्रिये...!



छपाक


गहरी झील के ऊपर बने पुल पर

बीचों-बीच पहुँच कर

वह मिटा देती है, अपना अस्तित्व..

और बस एक आवाज़ ..

'छपाक'


पहाड़ों से टकरा कर,

लौटती है उसकी अनुगूँज, 

"छपाक-छपाक"

छोड़ देती है कई सारे 

अनुत्तरित सवाल।


क्या उसके ख़ुद को,

मिटा देने से पहले...

ढूंढा जा सकता था, 

उस छपाक का हल? 


एक पल, एक निमिष में,

नहीं चुना था उसने..

ख़ुद के लिए "छपाक" का रास्ता..।

उससे पहले वह कुम्हलाई थी, 

मुरझाई थी और उसने बहाए थे, 

आँसू....!

आँसू जब सूख गए,

जलने लगा जब उसका "हीया"

नरक-सी बेहाल हो गई वह

तब बचाने को अपना हीया,

उसने चुना ठंडक का वह आख़िरी  रास्ता

"छपाक"..।


आसान है कह देना,

यह रास्ता कायरता का है..

लेकिन यह कौन-सी बहादुरी है..

यह कैसा अंधापन है..

जिसमें हम नहीं देखते अपने पास ही,

एक फूल का कुम्हलाना, मुरझाना, 

और भीतर तक जल जाना?






*अनवाल*


ऊँचे पहाड़ों में सजने लगा है 

देवताओं का आसन..

बर्फ़ के सफ़ेद फाहे,

फूल से झरने लगे हैं,


पहाड़ों में बढ़ने लगी है ठंड।

बकरियाँ उतरने लगी हैं,

भाबर को .....।


उदास थके हुए अनवाल की भी,

चमकने लगी हैं आँखें ..।

बढ़ने लगी है आस,

बगवाल ना सही,

ईगास पर होगा, घर के पास।


जाड़ों भर बकरियाँ चरेगीं चारा-पत्ती,

भाबर में ..।

जाड़ों भर अनवाल सीखेगा शऊर ,

शहरी होने का, सजेगा कबूतर सा।

मैस न होने की पीडा़ के साथ।


होली का रंग जैसे ही उतरेगा..

फड़फड़ाने लगेगा अनवाल,

तड़पने लगेगीं बकरियाँ ..।

खुद में कैलाश की ,

बकरियाँ फिर चढ़ने लगेगीं पहाड़।


ऊँचे बुग्यालों की याद में,

नथुनों तक भर आई,

उस हरी घास की ख़ुश्बू से,

दौड़ेंगे फिर दोनों,

बजने लगेगा घंटियों और सीटियों का संगीत

यूँ ही बीत जाएगा , 

अनवाल का एक साल।


अनवाल* बकरी चराने वाला

मैस* मनुष्य

खुद* याद



चिड़िया और माँ 


माँ चिड़िया होती है ..

भूल कर स्वाद ..

याद रखती है, पसंद-नापसंद।

अँधेरे में,

मोमबत्ती से निचोड़ उजाला, 

सुबह का करती बंदोबस्त..

चिड़िया उड़ जाती है..

माँ उलझी रहती है। 

चिड़िया और माँ, 

दोनों बस पँख फैला

देती हैं छाँह

मानो अपना धर्म निभाती।



चाँद


हया से खिली हुई तुम्हारी आभा..

कितनी गुरुतर हो जाती है और..

तुम्हारे माथे की बड़ी बिंदी छोटी पड़ जाती है..

तब मैं चुरा लेता हूंँ

पूनम का चांँद और रख देता हूॅं,

तुम्हारे माथे पर बड़े प्यार से।



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)



सम्पर्क 


अम्बा विहार, तल्ली बमोरी

हल्द्वानी, 

जिला नैनीताल 


मोबाइल नंबर - 8077463606


ई मेल : Sahpramod67@gmail.com

टिप्पणियाँ

  1. बहुत सुंदर कविताएँ, रचनाकार को शुभकामनाएँ।

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  2. पहाड़, छापाक और रिसर्च स्कॉलर वाली पक्तियां बहुत सुंदर पंक्तियां लगी।

    जवाब देंहटाएं
  3. बेहतरीन कविताएं 👌👌👍🌸🙏🏼🙏🏼

    जवाब देंहटाएं
  4. भावों की उन्मुक्त अभिव्यक्ति
    बेहतरीन!!

    जवाब देंहटाएं
  5. आपके समसामयिक और साहित्यिक लेखों को पढ़ते हुए, लिटफेस्ट में लेखकों से साक्षात्कार देखते हुए और साहित्यिक गतिविधियों, समारोहों का संचालन करते हुए सुधी पाठक, दर्शक लाभान्वित होते रहे हैं। यहां प्रकाशित सभी कविताएं अपनी संप्रेषणीयता से पाठकों के मर्म को छूने वाली हैं।

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