पूर्णिमा साहू की कविताएं

 

पूर्णिमा साहू


भौतिक संसाधनों की तरफ मनुष्य का आकर्षण सहज ही रहा है। लेकिन जब यह आकर्षण दिक्कतों का बायस बन जाता है, तो समस्या उठ खड़ी होती हैं। युवा कवयित्री पूर्णिमा साहू ने अपनी एक कविता 'लिबास' के जरिए बड़ी खूबसूरती से इसे अभिव्यक्त किया है। नासिर अहमद सिकन्दर ने उचित ही इसे महिलाओं के उस घुटन से जोड़ा है जो उन्हें चाहे अनचाहे अपने जीवन में झेलना पड़ता है। 'वाचन पुनर्वाचन' कॉलम शृंखला के अन्तर्गत इस बार पूर्णिमा साहू को रेखांकित किया गया है।

'वाचन पुनर्वाचन' शृंखला की यह शृंखला छठवीं कड़ी तक पहुंच चुकी है। इस शृंखला में हम प्रज्वल चतुर्वेदी,  पूजा कुमारी, सबिता एकांशी, केतन यादव और प्रियंका यादव की कविताएं पहले ही प्रस्तुत कर चुके हैं। 'वाचन पुनर्वाचन' शृंखला के संयोजक हैं प्रदीप्त प्रीत। कवि बसन्त त्रिपाठी की इस शृंखला को प्रस्तुत करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका है। कवि नासिर अहमद सिकन्दर ने इन कवियों को रेखांकित करने का गुरुत्तर दायित्व संभाल रखा है। तो आइए इस कड़ी में पहली बार पर हम पढ़ते हैं पूर्णिमा साहू की कविताओं पर नासिर अहमद सिकन्दर की महत्त्वपूर्ण टिप्पणी और कवि पूर्णिमा साहू की कविताएं।



आख्यानपरकता और बिम्बधर्मिता की कविताएं


नासिर अहमद सिकन्दर 


पूर्णिमा साहू की कविताएं, समकालीन कविता के भीतर प्रायः हर प्रकार के शिल्प के प्रयोग की कविताएं हैं। इन कविताओं में मुख्य रूप से आख्यानपरकता, बिंबधर्मिता, प्रतीकों का प्रयोग तथा कुछ हद तक फेंटेसी का इस्तेमाल भी शामिल है।


यहां प्रस्तुत ‘लाशों का समंदर’, ‘सफेद कुर्ता’ ‘लिबास’ और ‘मंदिर’ जैसी कविताएं फेंटेसी के स्वरूप में रची गई कविताएं हैं एवं ‘गंदे कपड़े’, ‘चिरैया के फूल’, ‘जमी हुई खामोशी’, ‘साइकिल’ शीर्षक कविताएं आख्यानपरक शिल्प की कविताएं हैं। ये कविताएं समकालीन कविता के उस आख्यानमूलक शिल्प को केन्द्र में रखती हैं जहां कविता का कथ्य-ब्यौरों, बिंबों अथवा कथात्मक शैली में पिरोया जाता है, जहां भाषा की सादगी और अनेकानेक अर्थ लिए सृजनात्मक शब्दों को जोड़ कर काव्यात्मक वाक्यों की संरचना की जाती है। वे अपनी इस आख्यानपरक कविताओं में जीवनानुभवों के साथ, जीवन से जुड़ कर, जीवन के कार्यकलापों, जीवन की भंगिमाओं तथा जीवन के भीतर रची-बसी हमारी कायिक भाषा (बॉडी लैंग्वेज) को भी पढ़ लेती हैं और जिसे वे अपनी कविताओं में बिंबों की कलात्मकता में रचती हैं। मसलन ‘सफेद कुर्ता’ शीर्षक कविता में ‘कीचड़ के छींटे, धब्बे तो पड़ते ही हैं’ की पंक्ति के बाद जब वे अपनी कविता में लिखती हैं कि ‘दहलीज पर रखे पायदान पर/ पंजों को रगड़ते हुए अंदर आई/ ताकि मुझ पर लगी कीचड़ घर गंदा न कर दे’ तो यह उसी क्रिया-कलाप को देखे जाने का अनुभव है। पूर्णिमा साहू अपनी आख्यानपरकता में कथ्य को मार्मिक बना कर इतनी ऊंचाई तक ले जाती हैं कि समकालीन कविता का स्त्री स्वर बहुत मौलिक हो जाता है। वे इसी कविता में जिस दृश्य को स्त्री जीवन से जोड़ कर ‘कीचड़ सने कुर्ते को आलमारी के निचले खाने में रखने’ की बात करती हैं, तो यह स्वर भी स्त्री संवेदना की कविता का नायाब कथ्य बन जाता है। ‘गंदे कपड़े’ शीर्षक कविता भी इसी कथ्य-शिल्प की कविता है।


पूर्णिमा साहू की कविताओं में आख्यानपरकता का ऐसा स्वरूप भी है तथा काव्य भाषा का ऐसा मेल भी है कि वे विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास को पढ़ते हुए कविता लिखती हैं। यानी कि जिसका जिक्र बार बार हो रहा है यानी- वही आख्यान की काव्यात्मक शैली का विशिष्ट शिल्प इन्हीं शिल्पगत मूल्यों पर साहित्यिक परिदृश्य में यह बहस भी गाहे-ब-गाहे भी उठती रहीं- कविता के भीतर कथा या कथा के भीतर कविता। इस तरह आख्यानपरकता के बिंब कविता में दो तरह के काम करते हैं। एक तो कविता की काव्य कला को बड़ा बनाते हैं। दूसरा यह कि कथ्य को प्रामाणिकता और संप्रेषण की ओर ले जाते हैं। यह कला-संप्रेषण-जीवन, हमारे दौर के हिंदी के महत्वपूर्ण कवि विनोद कुमार शुक्ल जी की कविता में अत्यधिक मिलता है। ‘रायपुर-बिलासपुर संभाग’ ऐसी ही कविता है, पूर्णिमा भी उनसे प्रेरित हो कर ‘साइकिल’ शीर्षक कविता लिखती है। जाहिर है कि वे उनकी ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ कथा के टुकड़े या संदर्भ को काव्य में रूपांतरित करती हैं। यहीं समकालीन कविता का वह द्वार भी खुलता है जहां आप कविता के भीतर कहानी अथवा कहानी के भीतर कविता का प्रसंग उठाते हैं, जिसका जिक्र पूर्व में किया जा चुका है। कई बरस तक ये बहस साहित्यिक परिदृश्य में चलती रही है। पूर्णिमा साहू भी अपनी कविता ‘साइकिल’ के माध्यम सेइस बहस को पुनः उठाती हैं:


“सोनसी अब भी छाती से लिपटी है

वे ज़मीन पर उतर आते हैं

सोनसी साइकिल की पहियों की गोल रोटियां बना रही है

अगली बार साइकिल से चाँद का गोल चक्कर लगा आएंगे, 

वह सोचने लगती है!”

(साइकिल)


पूर्णिमा साहू की ‘मंदिर’ शीर्षक भी समकालीन काव्य परिदृश्य में प्रेमाभिव्यक्ति की अनूठी कविता है। ‘चिरैया के फूल’, ‘कुछ शब्द’ शीर्षक कविताएं भी समकालीन कविता की श्रेष्ठ प्रेम कविताओं में शुमार की जा सकती हैं:

“एक दिन मैं अपने शरीर पर गोद दूंगी ढेर सारे शब्द

कुछ प्रेम के, कुछ खुशी के, कुछ आशाओं के


और बुढ़ापे तक पढ़ती रहूंगी

प्रेम, खुशी और आशाएं


क्या तुम भी पढ़ना चाहोगे

बुढ़ापे तक

प्रेम

खुशी

आशाएं?”

(कुछ शब्द)


यहां प्रस्तुत उनकी ‘लिबास’ शीर्षक कविता स्त्री जीवन के पक्ष का नया वर्क (पन्ना) खोलती है तथा समकालीन कविता के भीतर बने स्त्री जीवन के विमर्श को नयी दिशा में ले जाती है। यह कविता भारतीय सामाजिक-पारिवारिक पृष्ठभूमि में वैवाहिक जीवन जीती हुई स्त्री के रुदन व घुटन का नया कथ्य भी प्रस्तुत करती है।


“उस लिबास से इतनी तड़पन होने लगी कि मन किया

अपने शरीर के सारे मांस छीलने भी पड़े

तो भी वो लिबास उतार कर फेंक दूं

पर हिम्मत न हुई”

(लिबास)


हिंदी कविता के भीतर आये ज्यादातर बिंब घर, परिवार, प्रकृति दृष्यों और मनुष्यता से जुड़ कर आए हैं। पूर्णिमा की कविताओं के भीतर ज्यादातर बिंब स्त्री जीवन के निजी अनुभव के बिंब हैं। हिंदी कविता के काव्य संसार में इस तरह के बिंबों का स्वागत किया जाना चाहिए:


“भीगी हुई मैं

कुर्ते पर लगे कीचड़

माथे पर बिख़रे हुए बाल

ऐसे ही आइने में खुद को लगातार देखती रही


शरीर की गर्मी से मेरा बदन सूख गया

लेकिन कुर्ते के किनारों से अब भी पानी टपक रहा था”

(सफेद कुर्ता)


“उसकी गर्दन की नसें उभरने लगी थीं

उसकी आँख़ें एकदम लाल

जैसे लावा को पलकों की बांध से रोका हो”

(गंदे कपड़े)


“वो सारी अनकही बातों का दर्द बिल्कुल वैसा है जैसे

नवजात शिशु के मर जाने पर

छातियों में जमे रह गए दूध से होता है

जिसे ख़ुद ही हाथों से निचोड़ कर

तड़पन मिटानी होती है

(जमी हुई खामोशी)


जब हम पहली बार हाथ पकड़ेंगे

तब हमारी हथेलियों की लकीरें आपस में मिल जाएंगीं

और अलग सी गर्माहट के बाद

उसमें दोनों के पसीने की नमी होने लगेगी”

(चिरैया के फूल)


हाल ही में छत्तीसगढ़ के महत्वपूर्ण आलोचक जय प्रकाश की पुस्तक ‘मुक्तिबोध की जीवनी’ प्रकाशित हुई है जिसमें उन्होनें मुक्तिबोध के व्यक्तित्व को कृतित्व के माध्यम से व्यक्त किया है। पूर्णिमा की कविताओं को पढ़ते हुए इसे इस रूप में देखा जाना चाहिए कि उनकी कविताएं कृतित्व से हो कर व्यक्तित्व तक जाती हैं क्योंकि उनकी कविताएं वैयक्तिक जीवन के सच्चे संवेदनात्मक अनुभवों से बनती हैं।





सम्पर्क

नासिर अहमद सिकंदर

मोगरा 76, ‘बी’ ब्लाक, तालपुरी

भिलाईनगर, 

जिला-दुर्ग छ.ग.490006


मोबाइल : 98274-89585




पूर्णिमा साहू की कविताएं


1.वर्तमान राजनीति

        

लाशों का समंदर


एक दिन मेरी नींद खुलेगी

मैं लाशों के समंदर के बीच ख़ुद को किसी के धड़ के ऊपर लेटी पाऊँगी


चारों तरफ हाँफते हुए नज़रें घुमाऊँगी,

आवाज़ लगाउंगी 

"कोई है... कोई ज़िंदा है क्या यहाँ"


उस समंदर के ऊपर गिद्ध मंडरा रहे होंगे

उन्हें दावत हाथ लगी है, वे ख़ुश हैं

मैं किनारा ढूंढना चाहूंगी,

कोई छोर नहीं दिखेगा

मैं गिद्धों को देख कर अनुमान लगाउंगी 

कि जहाँ वे नहीं होंगे वहाँ हैवानियत का किनारा होगा..

पीछे कुछ गिद्ध कम हैं,


यहाँ तो कंकाल ही रह गए हैं,

क्या यह कुरुक्षेत्र है? क्या यहाँ कोई कृष्ण नहीं? कोई द्रोण, कोई गांधारी??


मुझे किनारा दिखने लगेगा..

मैं ख़ुशी से और तेज़ दौडूंगी


यहाँ.. यहाँ तो,

तलवार लिए लोग दो गुटों में खड़े हैं

प्रतिद्वंदी मालूम होते हैं

लेकिन वे आपस में नहीं लड़ रहे..

वे एक दूसरे की तरफ किसी मिसाइल की तरह आदमियों को छोड़ते हैं

और तलवारधारी उनका गला काट देते हैं..

लाशें समंदर में फेंक दी जाती हैं

और अब तक मैं गिद्धों से भाग रही थीं जो केवल लाश खाते हैं..




2.सफ़ेद कुर्ता


उस दिन तेज़ बारिश हो रही थी

मैं पूरी भीगी हुई घर पहुंची


मेरे सफ़ेद कुर्ते में कीचड़ के कुछ छींटे भी पड़े थे

दहलीज पर रखे पायदान पंजो को रगड़ते हुए अंदर आई

ताकि मुझ पर लगे कीचड़ घर गन्दा ना कर दें


अपने कमरे में गई तो मुझे कपड़े बदलने की इच्छा नहीं हुई


भीगी हुई मैं, कुर्ते पर लगे कीचड़,

माथे पर बिखरे हुए बाल

ऐसे ही आईने में खुद को लगातार देखती रही

शरीर की गर्मी से मेरा बदन सूख गया

लेकिन कुर्ते के किनारों से अब भी पानी टपक रहा था 

भीगने की मदहोशी को फिर से महसूस करने के लिए

मैं गुसलखाने में लगे फव्वारे के नीचे जा कर खड़ी हो गई

लेकिन इस भीगने में वो बात नहीं थी

इसने तो बारिश का पानी भी धो डाला था 

खीज कर मैंने वो कुर्ता उतार दिया


काफ़ी दिनों तक वह कुर्ता वहीं पड़ा रहा

मैंने उसे धोया नहीं

एक दिन उसे सुखा कर कीचड़ का दाग़ पक्का कर लिया,

उस कुर्ते में उस बेवक़्त बारिश की गंध बैठ गई थी.


मैंने वो कुर्ता सहेज कर अपनी आलमारी के निचले खांचे पर रख दिया


उस बरसात को सालों बीत चुके हैं,

दिखाने के लिए मैंने वैसा ही चमचमाता सफ़ेद कुर्ता खरीद लिया है


हाँ, मैंने अक्सर देखा है कि हर औरत के पास एकदम चमचमाता सफ़ेद कुर्ता है

कहीं उनकी भी आलमारी के निचले खांचे में कोई.........


खैर कोई बात नहीं





3. गंदे कपड़े


वह चीख रही थी

हाँ हाँ सच में,चीख रही थी


उसकी गर्दन की नसें उभरने लगी थीं

उसकी ऑंखें एकदम लाल

जैसे लावा को पलकों की बांध से रोका हों


वह अपना गुस्सा कपड़ों पर उतार रही थी

तेज़ तेज़ और तेज़ पटकती जा रही थी

तब मुझे लगा वो चीख उन कपड़ों से आ रही है


नहीं.., ऐसा लग रहा था उसकी चीखें उसकी आत्मा से निकल कर कपड़ों से होते हुए पानी में बहते जा रहीं हैं


इसलिये पानी गाढ़ा और काला होता जा रहा है


मैं डर गई,

तभी वो आया और वह मुस्कुराते हुए बोली

गंदे कपड़े दे दीजिये



4. मंदिर


आज मेरी नजर एक मंदिर पर पड़ी

उधड़ी उधड़ी दीवारें जिसमें तह कर रखी गई ईटें साफ नज़र आ रहीं  थीं

वो मंदिर अपनी ही आस्था को तलाशता हुआ 

किसी मीरा ने यहाँ कोई पत्थर बिठा भगवान बना दिया होगा,

अनेक दीयों और आस्थाओं से यह मंदिर जगमगा उठता होगा


पर आज यह अपने ही अस्तित्व को चीख चीख कर पुकारता हुआ विराने में पड़ा है..


वो मीरा कहीं चली गई शायद,

या शायद कोई उसे विषपान  से बचा ना पाया हो,

या भगवत प्रेम के लाँछन ने मार डाला हो,


ख़ैर आज इस मंदिर में कोई दीपक नहीं जलते,

कोई घंटी नहीं बजती,

कोई राग और रास के गीत नहीं होते,

अब बस वह कहने को मंदिर है

पर है तो वह एक प्रतीक्षार्थी जो आज भी उस मीरा की राह देख रहा है..



5. लिबास


मुझे शौक हुआ मैं लाल रेशमी लिबास पहनूँ

मैने खरीदा वो चमचमाता लाल रेशमी लिबास


मैं उसे पहन यूँ इतरा रही थी मानो उस लिबास के साथ मुझे उजला सा निखरा रूप मिला हो,

उस लिबास की तारीफ़ और चर्चे होने लगे

मैं और इठलाई


वो लिबास इतना भारी और कसा हुआ था कि मेरे बदन में छाले होने लगे,

अब मैं उस  लिबास को उतार फेंकना चाहती थी,

पर वो मेरे बदन के छाले से इस कदर चिपका हुआ कि निकाले नहीं निकलता था।


उस लिबास से इतनी तड़पन होने लगी कि मन किया अपने शरीर के सारे मांस छीलने भी पड़े तो भी वो लिबास उतार कर फेंक दूं

पर हिम्मत न हुई।


धीरे-धीरे वो लिबास सिकुड़ने लगा

उसके अंदर मेरा दम घुटता था,

वो लिबास इतना ख़ूबसूरत था कि किसी से कह भी नहीं पा रही थी कि घुटन होती है मुझे


अब आलम ये है कि वो लिबास 

ख़ूबसूरत रहने की शर्तें रख रहा है

वो मेरे ख़ून का एक-एक क़तरा चूस रहा है

और मैं मर रही हूँ।





6. जमी हुई ख़ामोशी


क्या पता किसी रोज़ हम यूँ ही इत्तेफाक़ से मिले.. 

जहाँ दोपहर छोटी और शाम ज़रा सी लम्बी हो 

जहाँ देर तक समंदर किनारे बैठ

हम अपने पैरों पर लहरों की अठखेलियां देख 

बीते सालों की खामोशी महसूस करें 


बीच बीच में कोई बात याद आ  जाए तो मुस्कुरा दिया करेंगें 

कभी - कभी रो भी लेंगें.. 


उस वक़्त सूरज भी अपनी तपन बुझाने समंदर में डूब रहा होगा 

और मैं इधर सिगरेट सुलगा लूंगी ..


वो सारी अनकही बातों का दर्द बिल्कुल वैसा है जैसे 

नवजात शिशु के मर जाने पर 

छातियों में जमे रह गए दूध से होता है


जिसे ख़ुद ही हांथों से निचोड़ कर 

तड़पन मिटानी होती है 


तुम्हें पाने की कोशिश मैं तब भी नहीं करुँगी,

लेकिन मैं चाहूंगी जब उस क्षितिज पर हम मिलें, 

तब तुम्हारी आँखों में इतना पानी हो कि उससे मेरी सालों की तपन ख़त्म हो जाए 

और मैं तुझमें डूब जाऊं,

फिर से...


7. सूखा पत्ता


कभी -कभी सोचती हूँ 

जब तूम उम्र के बड़े पड़ाव को पार कर 

जीवन के किताब में अपने सुख दुख और उपलब्धियाँ गिन रहे होगे, 


तभी उस किताब में कोई सूखा पत्ता मिल जाए तो 

तो क्या तुम मुझे याद कर पाओगे.. 

समय की सीढ़ी से 40-50 साल निचे उतर कर देख पाओगे. 


क्या महसूस कर पाओगे तब भी अपनी बूढ़ी हथेलियों में मेरी उंगलियों के हेर फेर 

क्या सुन पाओगे तब भी मेरी आवाज में अपना नाम. 

क्या याद कर पाओगे.. 


क्या जी पाओगे उस पल को फिर से 

जब तूझे सोता देख तेरे गालों में चूम कर भाग जाया करती थी मैं.. 

क्या तब भी अपने सीने में मेरे माथे का भार महसूस कर पाओगे.. 


या फेंक दोगे उस सूखे पत्ते को 

लेकिन मैं वादा करती हूँ मैं तब भी जवान रहूंगी.. 

भले ही मेरा चेहरा झुर्रियों से भर  चूका हो, 

ठीक से दिखाई ना दे, 

चलने के लिए भी सहारा लेना पड़ रहा हो 

मैं तब भी जवान रहूंगी 

तुम्हारी इन यादों के लिए 

लेकिन क्या तूम याद रख पाओगे..?





8.साइकिल


(विनोद कुमार शुक्ल जी के उपन्यास 'दीवार में एक खिड़की रहती है' से प्रभावित कविता)


रघुवर प्रसाद एक बार स्कूल में छुटी किसी की साइकिल घर ले आए थे


उनका कुछ नहीं होता था

वे हमेशा छोड़ी छुटी चीजों का जिम्मा उठा लिया करते थे,


हाँ, सोनसी उनकी है

उसे वे साइकिल पर बिठा कर आसमान की सैर पर ले जाना चाहते हैं


सामने की डंडी पर सोनसी बैठी है

रघुवर प्रसाद साइकिल चला रहे हैं


बार बार उनका घुटना उसकी जांघो से टकराता है

"ठीक से बैठी तो हो?" रघुवर प्रसाद ने पूछा

"कहाँ जाना चाहती हो?" सोनसी ने सुना

उस पीपल के पेड़ के ऊपर चलते हैं

तालाब की सतह पर साइकिल चला सकते हैं


सोनसी का गाल रघुवर प्रसाद की छाती से चिपक सा गया है

साइकिल चलाने से उनकी धड़कन तेज़ चलने लगी है


सोनसी धड़कन सुनती है

वह छाती से और सट जाती है


साइकिल पर बैठ उड़ते हुए उन्हें बुढ़िया की दुकान दिखती है,

बुढ़िया हाथ हिलती है

सोनसी खुश हो जाती है


हम कभी ऐसी साइकिल लेंगे "रघुवर प्रसाद ने कहा"


सोनसी अब भी छाती से लिपटी है

वो ज़मीन पर उतर आते हैं

सोनसी साइकिल की पाहियों सी गोल रोटियां बना रही है,

अगली बार साइकिल से चाँद का गोल चक्कर लगा आएंगे वह सोचने लगती है।



9. चिरैया के फूल


 जब हम  पहली बार हाथ पकड़ेंगे 

तब हमारी हथेलियों की लकीरें आपस में मिल जाएंगी 


और अलग सी गर्माहट के बाद उसमें दोनों के पसीने की नमी होने लगेगी 


 जैसे लकीरों की बिजलियां चमकी हो

और दोनों हथेलियों के बदल के टकराने से बारिश हो जाए 


ऐसे मौसम में जानते हो क्या होता है?

चिरैया के फूल खिलते हैं 



10. कुछ शब्द


 एक दिन मैं अपने शरीर पर गोद दूंगी ढेर सारे शब्द 

कुछ प्रेम के, कुछ ख़ुशी के, कुछ आशाओं के 

और बुढ़ापे तक पढ़ती रहूंगी प्रेम, ख़ुश और आशाएं 


क्या तुम भी पढ़ना चाहोगे बुढ़ापे तक  प्रेम, ख़ुशी और आशाएं?



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)



सम्पर्क 


पूर्णिमा साहू

जन्मतिथि : 20 दिसंबर 1997

पता : सांकरा ‘क’ बालोद

(शोधार्थी, हिंदी साहित्य, 

हेमचंद विश्वविद्यालय दुर्ग, छत्तीसगढ़)


मो.नं.: 79998-02890 



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