कँवल भारती का आलेख 'क्या भरपाई सम्भव है?'

 

श्यौराज सिंह बेचैन 



भारतीय परिवेश में जाति प्रथा ने जितना नुकसान समाज और राष्ट्र का किया है उतना किसी और ने नहीं। इस क्रम में दलितों को उन अमानवीय परिस्थितियों में अपना जीवन बिताना पड़ता है, उसकी सामान्य तौर पर कल्पना तक नहीं की जा सकती। दलितों के खाने, पीने, कपड़े, रहन सहन आदि को देखा जाए तो एक तल्ख सच्चाई सामने आती है। दलित आत्मकथाओं ने दलितों के जीवन और परिवेश को दुनिया के सामने उजागर करने का काम किया है। मराठी से शुरू हुई यह परम्परा अन्य भाषाओं में भी आई। इस क्रम में हिन्दी में कई आत्मकथाएं प्रकाशित हुईं, जिन्हें पढ़ कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। श्योराज सिंह बेचैन की आत्मकथा ‘मेरा बचपन मेरे कंधे पर’ को पढ़ने के पश्चात आलोचक कंवल भारती की यह टिप्पणी मानीखेज है - 'लगा कि मैं अपनी सदी में नहीं हूँ, जैसे-जैसे मैं इसे पढ़ता गया, वैसे-वैसे अपने देश के लोकतन्त्र और उसके बारे में गढ़े गये सारे नारे ध्वस्त होते चले गये। बीसवीं सदी का सारा हिन्दी साहित्य बेमानी नजर आने लगा।' हालांकि कंवल जी ने यह टिप्पणी काफी पहले लिखी थी लेकिन आज भी इसकी उपादेयता बनी हुई है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं श्योराज सिंह बेचैन की आत्मकथा  ‘मेरा बचपन मेरे कंधे पर’ पर कंवल भारती की टिप्पणी 'क्या भरपाई सम्भव है?'


'क्या भरपाई सम्भव है?'

(श्यौराज सिंह बेचैन की आत्मकथा पर एक टिप्पणी)



कँवल भारती


डा. श्यौराज सिंह बेचैन की आत्मकथा ‘मेरा बचपन मेरे कंधे पर’ को पढ़ने के बाद लगा कि मैं अपनी सदी में नहीं हूँ, जैसे-जैसे मैं इसे पढ़ता गया, वैसे-वैसे अपने देश के लोकतन्त्र और उसके बारे में गढ़े गये सारे नारे ध्वस्त होते चले गये। बीसवीं सदी का सारा हिन्दी साहित्य बेमानी नजर आने लगा। व्यवस्था बदलने की राजनीति के सारे दल पाखण्ड दिखायी देने लगे। एक किताब सारे समाज को नंगा करती चली गई, गाँधीवाद को भी और लोकशाही को भी। डा. धर्मवीर ने अपने कविता संग्रह ‘हीरामन’ (1987) की भूमिका में सारे दलितों की ओर से उनके सदियों के सन्ताप से उद्वेलित हो कर लिखा है, ‘‘आवश्यकता इस बात की अधिक हो गयी है कि मनुष्य को थोड़ा नंगा किया जाय। यदि ऐसा कहना किसी को अश्लील लगता हो, फिर समाज को नंगा किया जाय। कहने का तात्पर्य यह कदापि नहीं कि इतिहास के एकदम विरोध में जाया जाय। इससे भिन्न, समस्या इस बात को जानने की है कि इन सभ्यताओं और संस्कृतियों के मूल में कौन-सा सत्य ठहरा हुआ है।’’ डा. बेचैन की आत्मकथा इसका सटीक जवाब है। डा. धर्मवीर ने एक और बात बड़े दुखी मन से कही है, ‘‘इस देश में और कुछ भले ही हो गया है, निर्धन के भाग्य ने पलटा नहीं खाया है।’’


 

यहाँ हमारे प्रगतिशील चिन्तक कह सकते हैं कि यदि निर्धन के भाग्य ने पलटा न खाया होता, तो कबीर, रैदास और डा. आंबेडकर जैसे महापुरुष कैसे हो गए? बराक ओबामा कैसे अमेरिका के राष्ट्रपति बन गए? गोर्की, मार्क्स और बालजाक को कौन आज जानता? लेकिन ये कुछ व्यक्तियों के उदाहरण हैं, जिन्हें उनके संघर्ष और उनकी जिजीविषा ने महान बनाया था। सामूहिक रूप से यहाँ दलितों की निर्धनता कभी दूर नहीं हुई। निर्धनता ने उनसे वह कराया, जो करने योग्य नहीं था, वह खिलाया, जो खाने योग्य नहीं था और वह पहनाया, जो पहनने योग्य नहीं था। उसने उन्हें आदमी नहीं बनने दिया, दलित कवि मलखान सिंह के शब्दों में कहूँ तो गरीबी ने उसे ‘दो पाय का जानवर’ ही बनाये रखा। लेकिन यह निर्धनता दलित की थी, सवर्ण की नहीं। सामान्यता गरीबी ने सवर्णों से वह नहीं कराया, जो करने योग्य नहीं था, वह नहीं खिलाया, जो खाने योग्य नहीं था और वह नहीं पहनाया, जो पहनने योग्य नहीं था।

 


श्यौराज सिंह बेचैन ने अपनी आत्मकथा में अपनी पाँच साल की उम्र से ले कर हाईस्कूल पास करने की उम्र तक की अपने संघर्ष का वर्णन किया है। यह संघर्ष एक दलित का भी है और एक बाल मजदूर का भी है, एक गुलाम का भी है और एक भूमिहीन और सर्वहारा चमार का भी है। और इससे भी बढ़ कर यह आजाद भारत के एक गुलाम समाज की कहानी है, जो बताती है कि स्वतन्त्र भारत के शासक वर्ग ने और चाहे जो किया हो, पर वह दलितों को एक सम्मानित जीवन देने में असमर्थ रहा।

 


दलित कवि डा. सोहनपाल सिंह सुमनाक्षर ने 1990 में एक कविता लिखी थी, ‘लिख डालो इतिहास नया’, जिसकी ये पंक्तियाँ भारतीय समाज के विदू्रप को चित्रित करती हैं-


हमारा संविधान है महान

जो सभी को बराबर का सम्मान देता है

लेकिन जहाँ सम्मान निश्चित है जन्म से पूर्व

वहाँ यह बात कौन सुनेगा?

कौन तुम्हें बराबर का सम्मान देगा?

हमारा संविधान है महान

जो सभी को बढ़ने के बराबर अवसर देता है

लेकिन जहाँ समृद्धों की मुट्ठी में बन्द है सारी प्रगति

वहाँ यह बात कौन सुनेगा?

कौन तुम्हें आसानी से आगे बढ़ने देगा?



श्यौराज सिंह बेचैन ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जिस नदरोली गाँव में जन्म (1960) लिया, जहाँ वे पले-बढ़े और जहाँ-जहाँ रोटी के लिये बाल मजदूर के रूप में भटके, वहाँ उन्होंने इसी विद्रूप को पूरे सामाजिक परिवेश में अपनी आँखों से, अपने हाथों से और अपने पेट से जिया था।

 


डा. आंबेडकर ने गुलाम-प्रथा और उसके समकक्ष दलित की स्थिति का तुलनात्मक अध्ययन करते हुए एक जगह लिखा है कि गुलाम-प्रथा में गुलाम को रोटी, कपड़ा और घर देने का दायित्व मालिकों का था। मालिक यह व्यवस्था करने के लिये बाध्य होता था। किन्तु दलित के लिये अपनी रोजी-रोटी और मकान की कोई सुरक्षित व्यवस्था सम्भव नहीं थी। दलित के सम्बन्ध में ऐसा कोई नियम नहीं है कि उसे सुरक्षित रूप से तब तक दाना-पानी मिल सके, जब तक उसे कोई काम नहीं मिल जाता। आंबेडकर कहते हैं कि अछूतों को हिन्दू समाज व्यवस्था में कोई सुविधा प्राप्त नहीं है। उसके लिये सभ्य जीवन का कोई रास्ता नहीं खुला है। हिन्दुओं में से कोई भी अछूत को रोजी-रोटी और घर मुहैया कराने के लिये जिम्मेदार नहीं है और न उसे जीवित रखना किसी की जिम्मेदारी होती है।

 


श्यौराज का बचपन गुलामी से भी बदतर इस नारकीय जीवन का साक्षी ही नहीं, भोक्ता भी है। जब प्रेमपाल सिंह यादव के खेतों में हल चलाते हुए उसका पैर कट जाता है तो खून बहते पैर की मरहम पट्टी और इलाज कराना तो दूर, उस दिन प्रेमपाल सिंह यादव की पत्नी उसे रोटी तक नहीं देती है। बेचैन लिखते हैं, ‘‘शाम को मैं लाठी के सहारे लंगड़ाता हुआ फिर अनौखिया बऊ (प्रेमपाल सिंह की पत्नी) के पास गया, इस उम्मीद से कि वे मुझे खाना खिला देंगी। परन्तु बऊ ने उलटा इस बात का ताना सुना दिया कि ‘‘पाँउ काटि लाये, अब खेत कौन जोतेगो? घर खाली पड़े कहाँ ते खाउगे?’’ यदि मैं स्वतन्त्र काम कर रहा होता, तो एक दिन काम करने के बदले चार दिन रोटी खा सकता था। बऊ जानती थी कि मुझे रोज दाल-रोटी चाहिए। पर उसने मेरे आत्म-सम्मान को घायल करने वाला जो शब्द कहा था, उसे सुन कर मैं घर लौट आया था। मैं जिस दिन काम नहीं कर पाता, उस दिन रोटी देना उन्हें अच्छा नहीं लगता था, बल्कि उस दिन उनकी भाषा बदल जाती थी और व्यवहार बेहद रूखा हो जाता था।’’

 


डा. आंबेडकर ने आजादी से पहले के अछूतों के बारे में लिखा है कि उनकी सबसे बड़ी संख्या गाँवों में रहती थी, जहाँ वे गाँव भर के सेवक और भूमिहीन मजदूर थे। उनकी जीविका सवर्णों पर निर्भर करती थी। संघर्ष करते हुए भी अछूतों को भुखमरी का सामना करना पड़ता था। उन्होंने यहाँ तक लिखा है कि उत्तर प्रदेश के बहुत से गाँवों में अछूत खेत मजदूरों को मजदूरी में ‘गोबराहा’ दिया जाता था। गेहूँ की बालियों पर जब दायाँ चला कर गेहूँ निकाला जाता था, तो बैल घूमते हुए कुछ गेहूँ खा लेते थे। जब वे गोबर करते थे, तो उसमें खाये हुए गेहूँ के दाने भी निकल आते थे। उसी गोबर को ‘गोबराहा’ कहते थे, जो दायें चलाने वाले अछूत मजदूर को बतौर मजदूरी दिया जाता था।

 


लेकिन श्यौराज सिंह बेचैन ने आजादी के दो दशक बीत जाने के बाद तक की इस भयानक स्थिति में जीने के अपने मार्मिक अनुभवों का वर्णन किया है। वे एक जगह लिखते हैं कि विज्ञान, तकनीक और लोकशाही के इस युग में, बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में हमारे परिवार सोलहवीं सदी का जीवन ढो रहे थे। अपने अन्धे बब्बा का जिक्र करते हुए बेचैन लिखते हैं कि गाँव में वे यादवों की हाथ-चक्की पीसते थे और चारा-मशीन खींच कर कुट्टी काटते थे। जब वे चक्की पीसते थे, तब उनके हाथ से छूने पर अन्न अछूत नहीं होता था, पीसने के बाद बतौर मेहनताना एक-दो रोटी का आटा भीख के अन्दाज में दूर से उनकी झोली में डाला जाता था या मुट्ठियों से सूखा अनाज कमीज के पल्लू में डाल दिया जाता था। कुछ कामों में इससे भी ज्यादा शर्मनाक मजदूरी दी जाती थी। उसके बारे में वे कहते हैं, ‘‘मैं और मेरे बब्बा धोवना लदोई (मैली) जैसे मामूली मेहनताने पर काम किया करते थे, मिलने वाला मेहनताना इतना कमतर होता था कि गुजारा करने के लिये लदोई खानी पड़ती थी।’’ गुड़ बनाते समय कड़ाह में खौलते हुए गन्ने के रस की सतह पर जो मैल तैरने लगता था, उसी को ‘मैली’ या ‘लदोई’ कहते थे। यदि इस लदोई में भी कुत्ता मुँह डाल जाता, तो मालिक लोग उसे फेंकते नहीं थे, वरन् उसी को मजदूरी में  देने की कोशिश करते थे।

 


डा. बेचैन की आत्मकथा को पढ़ते हुए कई बार झुंझलाहट भी होती है कि यह कैसा दलित कैरेक्टर है, जिसमें कोई विद्रोह नहीं है, मान-सम्मान का अहसास तक नहीं, पेट का गड्डा भरने के लिये कुछ भी करने को तैयार है। किसी ने कहा, स्कूल मत जाओ, खेत जोत आओ, बन्दा तैयार है, किसी ने कहा, गोबर उठा कर फेंक आओ, बन्दे ने हुक्म बजा दिया, मास्टर की साइकिल में पंचर हो गया तो उसे अपनी साइकिल दे दी, खुद 20 किमी. पैदल स्कूल गये। उसने साइकिल वापिस नहीं की, बन्दे ने माँगी भी नहीं। मेहनत-मजदूरी करके दस सेर गेहूँ जोड़े और प्रेमपाल सिंह की ‘बऊ’ के पास रख दिये। जरूरत पर माँगा तो एक दाना नहीं मिला और बन्दे ने उफ तक नहीं की। दिन भर खेतों में ‘गुलमई’ करने के बाद जाड़ों के लिये कपड़े माँगे, तो मालिक ने भैंस की झूली दे दी। बन्दे ने पलट कर यह नहीं पूछा कि क्या मैं भैंस हूँ? नौवीं कक्षा का छात्र, पास होने की खबर अपनी माँ को देने दूसरे गाँव पाली जाता है, तो माँ उसे चाचा के साथ ठाकुरों की हवेली से मरी गाय को उठाने के लिये भेज देती है और बन्दा एकदम तैयार, जैसे वह इसी काम के लिये पाली आया था। स्कूल जाता है, तो बस्ते में छुरा छिपा कर ले जाता है, ताकि रास्ते में कोई लबारा (भैंस का मृतक बच्चा) पड़ा मिल जाय, तो उसकी खाल निकाल सके और उसे बेच कर कुछ रुपये कमा सके। जिस हालात में बालक श्यौराज सिंह ने यह सब करके अपने को जिन्दा रखा, उसे देखकर उस पर रोना तो आता ही है, उस समाज व्यवस्था पर गुस्सा भी आता है, जिसमें प्रेमपाल सिंह यादव जैसे छद्म अध्यात्मवादी सम्पत्ति पर सम्पत्ति बनाते चले जाते हैं और उनके अध्यात्मवाद को गम्भीरता से लेने वाला ‘सौराज’ उनके खेतों में हाड़-तोड़ मेहनत करने के बाद भी पैसे-पैसे को मोहताज रहता है और उसे अपनी कापी-किताबों और अन्य जरूरतों को पूरा करने के लिये मरे जानवरों की खाल उतारने के गन्दे पेशे में उतरना पड़ता है। गाँवों की इस समाज व्यवस्था को सवर्ण आदर्श व्यवस्था मानते हैं। लेकिन ये वे लोग हैं, जिनकी आँखों का पानी तक उतर गया है और उनकी आत्मा तक मर गयी है। दलित इस व्यवस्था में मनुष्य ही नहीं हैं, पर प्रेमपाल सिंह यादव जैसे सवर्णों को भी मनुष्य कैसे माना जाय, जो सौराज को पढ़ाने के ऐवज में उसकी देह से सारा खून निचोड़ लेना चाहते थे और जाड़ों में ओड़ने-बिछाने के लिये भैंस की झूली दे कर तो वह यही साबित करते थे कि उनका सारा अध्यात्मवाद मिथ्या है और उन्हें अपनी इस नीचता पर कुछ शर्म भी नहीं थी। कोई भी संवेदनशील मनुष्य ऐसा नहीं कर सकता और वह तो बिल्कुल भी नहीं, जो पूरी दुनिया को आर्य बनाना चाहता हो।

 


काल के क्रूर पंजों में दबे हुए एक बेबस बचपन की नियति क्या हो सकती थी? असमय ही मौत और सारी आकांक्षाओं का अन्त। पर पता नहीं, वह कौन-सी शक्ति थी, जिसने इस यन्त्राणा में भी श्यौराज की जिजीविषा को जीवित रखा और जिस मंजिल पर वह जाना चाहता था, उसके करीब पहुँचता चला गया। सचमुच यह जिजीविषा ही थी, जिसने उसे हिम्मत नहीं हारने दी और राह हार गयी, राही नहीं हारा। श्यौराज सिंह बेचैन आज, पी-एच. डी. और डी. लिट्. हैं, दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं, जाने-माने लेखक और पत्रकार हैं। शायद यह उन्होंने भी नहीं सोचा होगा कि खेतों में मजदूरी करने वाला, मृतक गाय-भैंसों की खाल काढ़ने वाला और अपने अंधे ताऊ के साथ मोची-गिरी करने वाला एक बालक राजधानी के विश्वविद्यालय में प्रोफेसर बनेगा और एक लेखक की हैसियत से सूरीनाम, बैकुवर (कनाडा), हालैण्ड और ग्रेट ब्रिटेन की यात्राएँ करेगा। यह एक चमत्कार ही है, जिसने उनके बचपन को रौंदने वाले हर शोषक को भी चमत्कृत कर दिया होगा। ढाई हजार साल पहले एक गुलाम बालक सेठ के घर से अपने कपड़े-लत्ते सब छोड़ कर नंगा भागा था, तब उसे अपनी नग्नता से कोई ग्लानि नहीं थी, बस गुलामी से मुक्ति की खुशी थी। वह बालक महान दार्शनिक मक्खलि गोशाल के नाम से प्रसिद्ध हुआ। वह इतना बड़ा मौलिक दार्शनिक हुआ कि महावीर और बुद्ध तक ने उसके सिद्धान्तों को अपने दर्शन में शामिल किया। मुक्ति की जिस जिजीविषा ने मक्खलि गोशाल को दार्शनिक बनाया, उसी जिजीविषा ने श्यौराज सिंह बेचैन को साहित्य का महान चिन्तक बनाया। उन्होंने अस्पृश्यता और निर्धनता के दोहरे शोषण को जीते हुए जो इतिहास बनाया, वह आज सचमुच गर्व करने योग्य है, पर एक अछूत और निर्धन के रूप में जो उन्होंने खोया है, क्या उसकी भरपाई सम्भव है?


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