अरुण जी का संस्मरण 'पेरिस मेट्रो के अनुभव''
किसी भी देश की संस्कृति को जानना हो तो स्थानीय यात्रा के लिए वहां की परिवहन व्यवस्था का उपयोग कीजिए। वहां आपको उस देश के तमाम लोग एक साथ दिख जाएंगे। उनका शिष्टाचार और व्यवहार दिख जाएगा। वहां की खूबियां और खामियां दिख जाएंगीं। पेरिस मेट्रो दुनिया की पुरानी और सुव्यवस्थित मेट्रो में से एक है। अरुण जी ने पेरिस यात्रा के दौरान वहां की मेट्रो की यात्रा करते हुए फ्रांस को देखने, समझने, जानने की कोशिश की है। इस यात्रा के दौरान ही उन्होंने यह अनुभव किया कि 'जो लहज़ा मेरे लिए सामान्य व स्वाभाविक है वह पेरिस के लोगों के लिए अशिष्टता की श्रेणी में आता है।' पेरिस यात्रा के अपने अनुभवों को अरुण जी ने शब्दबद्ध किया है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं अरुण जी का संस्मरण 'पेरिस मेट्रो के अनुभव'।
'पेरिस मेट्रो के अनुभव'
अरुण जी
आप पेरिस भ्रमण के लिए गए और आपने मेट्रो से सफ़र नहीं किया? फिर तो आप पेरिस के एक महत्वपूर्ण पक्ष को देखने से वंचित रह गए। मेट्रो वहाँ की लाइफलाइन है। उसमें आपको पेरिस के आम जीवन के रूप-रंग, उसकी झलक, उसकी गति मिलती है। वहाँ के लोग, उनकी सभ्यता, संस्कृति को नजदीक से देखने का मौका मिलता है। इसके अलावा मेट्रो में आपके समय की बचत होती है। खर्च की भी।
फ्रेंच भाषा की कोमल ध्वनियों को सुनने, समझने का मेट्रो से बेहतर अवसर आपके लिए और कोई नहीं है। अँग्रेजी से परिचित हमारे जैसे भारतीय पर्यटकों के लिए फ्रेंच की उन ध्वनियों को सुनना कई बार अचरज से भर देता है। रोमन अक्षरों में लिखे शब्दों के जिस अँग्रेजी उच्चारण से अब तक आप आदी हैं उससे बिल्कुल भिन्न।
पेरिस मेट्रो की पहली लाइन का शुभारंभ 1900 में हुआ। उसके बाद धीरे-धीरे इसका विस्तार होता रहा। पेरिस में मेट्रो के आज 14 लाइन है। इनकी लम्बाई लगभग 245 किलोमीटर है जिसपर 700 ट्रेन दौड़ती हैं। शहर का कोई भी कोना मेट्रो से अछूता नहीं है। 320 स्टेशन हैं। लगभग हरेक 500 मीटर पर एक। मेट्रो का विस्तार आज भी जारी है। इसे आजकल उपनगरीय इलाकों से जोड़ने का काम चल रहा है।
पिछले साल 21 दिन के पेरिस प्रवास के दौरान हमनें मेट्रो का भरपूर उपयोग किया। घूमने, फिरने और इस खूबसूरत ऐतिहासिक शहर के दर्शनीय स्थलों को देखने के लिए। सफ़र में ज्यादातर अनुभव हमारे मीठे थे। पर एक-दो कड़वे व खट्टे भी। मेट्रो में अपने पहले दिन का अनुभव यह है कि एक स्टेशन पर मेरे उतरने से पहले ही मेट्रो का दरवाजा बन्द हो गया। बाकी लोग उतर गये और मैं सबसे अलग हो गया। खो गया। फिर करीब दो घंटे तक पेरिस जैसे अनजान शहर में मुझे किन-किन समस्याओं से जूझना पड़ा।
उसके अलावा मेट्रो में दो बार हमारा सामना पाकेटमारों से हुआ। एक बार मेरा और दूसरी बार बन्दना का। हालांकि दोनों बार हम उनके चंगुल से निकलने में कामयाब हो गए।
हमारा पहला मुकाबला हुआ 24 अक्टूबर को। उस दिन हम लूव्र म्यूज़ियम देख कर लौट रहे थे। वही लूव्र म्यूज़ियम जिसे देखने लोग दुनियां के अलग-अलग कोने से आते हैं। विश्व का सबसे लोकप्रिय म्यूज़ियम। पेरिस में पाँच सबसे लोकप्रिय दर्शनीय स्थलों में से एक।
लूव्र म्यूज़ियम पूरी तरह अंडरग्राउंड है। इसमें प्रवेश करने के लिए आपको एस्केलेटर से ज़मीन के नीचे उतरना पड़ता है। म्यूज़ियम एक विशाल महल की तरह है जिसमें आपके खोने की सारी संभावनाएं मौजूद हैं। कलाकृतियों के लिए इतनी सारी गैलरीज़ हैं कि एक दिन में उन्हें देखना सम्भव नहीं। उन्हें ठीक से देखने और समझने के लिए एक सप्ताह भी शायद कम पड़ जाय। हमारे पास लूव्र के लिए बस एक दिन का समय था।
उस दिन लूव्र को देख कर हम लौट रहे थे। थके हुए थे। हमें बेल्विल, अपने घर, पहुंचने की जल्दी थी। सब-वे से होकर हम लूव्र-रिवोली मेट्रो स्टेशन पहुंचे। बन्दना (पत्नी), मेधा (बेटी) और मैं। हम ट्रेन का इंतजार करने लगे। हमारे अलावा प्लेटफार्म पर आठ-दस और लोग होंगे। मैंने उनकी ओर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया। ट्रेन आई और हम सामने वाले कोच में चढ़ने लगे। अचानक तीन लड़कियां उसी कोच में चढ़ने आ गईं। उनके कारण दरवाजे पर थोड़ी धक्का-मुक्की वाली स्थिति हो गई। मेरे लिए वैसे यह सामान्य बात थी। बिहार के ट्रेनों में मैंने इससे ज्यादा भीड़-भाड़ का सामना किया है। खैर, दरवाजा बन्द हुआ और ट्रेन चल पड़ी। मैं सबसे आगे था। मेरे पीछे बन्दना। मेधा हम-दोनों के पीछे।
ट्रेन खुलने के क़रीब एक मिनट के अंदर अचानक मुझे मेधा के चिल्लाने की आवाज़ सुनाई पड़ी: What are you doing? मुड़ कर देखा कि मेधा एक लड़की पर चिल्ला रही थी। जवाब में वो लड़की इससे फ्रेंच में जोर से कुछ बोल रही थी। जब तक मैं कुछ समझ पाता, अगला स्टेशन आ गया और वो लड़की अपनी दो साथियों के साथ उतर गई। ये पूरा वाकया कोच के दरवाज़े के पास हुआ। ये तीनों लड़कियां वही थीं जो हमारे साथ लूव्र-रिवोली मेट्रो स्टेशन पर चढ़ी थीं।
ये पाकेटमारों का एक गैंग था। जिसमें से एक ने बन्दना के पर्स पर हमला किया और दूसरी ने मेधा के पर्स पर। इन दोनों की उम्र कम थी। शायद बीस से भी कम। तीसरी उन सबमें बड़ी थी। उसकी उम्र तीस के आस-पास होगी। कोच में चढ़ते वक्त मेधा ने उनके इरादे को शायद भांप लिया था। वह सजग हो गई थी। तभी उसने उनका प्रयास विफल कर दिया।
इस घटना के क़रीब 15 दिनों बाद मैं भी पाकेटमारी का शिकार होते होते बचा। पटना लौटने के ठीक एक दिन पहले तन्मय (बेटा) के साथ मैं कुछ सामान खरीदने निकला था। बेल्विल से मेट्रो ले कर हम बस्टील नामक स्टेशन पर उतरे।
फ्रांसीसी क्रांति के समय बस्टील में एक क़िला था जिसे राजा चार्ल्स ने 14वीं शताब्दी में सुरक्षा के दृष्टिकोण से बनवाया था। 17वीं शताब्दी आते आते यह एक राजकीय जेल में तब्दील हो गया जहां राजनीतिक क़ैदियों, सरकार के ख़िलाफ़ लिखने वाले लेखकों वगैरह को रखा जाने लगा। 18वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक यह राजा लुई की निरंकुश सत्ता का प्रतीक बन चुका था। जनता उसे घृणा की दृष्टि से देखती थी।
14 जुलाई 1789 को फ्रांसीसी क्रांतिकारियों ने क़िले पर हमला कर दिया। भीषण लड़ाई में कई लोग हताहत हुए। पर आखिर में क्रांतिकारियों की जीत हुई। वे क़ैदियों को वहां से मुक्त करवाने में सफल हो गए। यह एक बड़ी घटना थी। राजतंत्र के खिलाफ लड़ाई में क्रांतिकारियों की एक बड़ी जीत। फ्रांस के लिए यह दिन इतना महत्वपूर्ण है कि 14 जुलाई को फ्रांस में 'बस्टील डे' या 'राष्ट्रीय दिवस' के रूप में मनाया जाता है।
क़िले की जगह आज वहां एक स्मारक है जिसके चारो ओर खुला आसमान है। तन्मय के साथ वहां पहुंचकर कुछ पल के लिए मैं रोमांच से भर गया। सोच कर कि मैं एक ऐसी जगह पर खड़ा हूं जहां आज से 200 साल पहले कुछ लोगों ने फ्रांस की मदमस्त राजकीय सत्ता की ईंट से ईंट बजा दी थी। जिन्होंने अपने संघर्ष और बलिदान से फ्रांसीसी क्रांति को मजबूती प्रदान की थी। वही क्रांति जिसने दुनियां भर में लोकतंत्र का सूत्रपात किया है।
लौटते वक्त हम बस्टील स्टेशन पर मेट्रो में चढ़े। कोच के दरवाज़े पर थोड़ी भीड़ थी। तन्मय मेरे आगे था और मैं उसके पीछे। अचानक मैंने देखा कि तन्मय और मेरे बीच एक हट्टा-कट्टा व्यक्ति आ गया जो मुझे दूसरी ओर धकेलने लगा। मैं बगल वाले एक व्यक्ति पर गिरते-गिरते बचा। तन्मय ने मुड़ कर देखा तो उसने मुझसे हिंदी में कहा : पापा, अपने सामान का ध्यान रखिएगा। मैं चौकन्ना हो गया। मैंने महसूस किया कि कम उम्र का एक लड़का मेरे पाकेट को टटोलने की कोशिश कर रहा था। मैंने तुरंत अपने आप को उससे अलग किया। अपने बैग और मोबाइल की सुरक्षा के लिए मुस्तैद हो गया। किसी तरह बच गया।
इन दोनों घटनाओं में कुछ समानताएं थीं। दोनों में पाकेटमारों की उम्र, उनकी संख्या, उनके तौर-तरीके समान थे। पहली घटना में तीनों लड़कियां थीं। पर घटना को अंजाम देने वाली लड़कियां कम उम्र की थीं। दूसरी घटना में भी तीन लोग थे। लेकिन कम उम्र वाले लड़के ने ही मेरे पाकेट को हाथ लगाया था। ग्रुप के बाकी सदस्य उसे मदद कर रहे थे। इससे उनकी रणनीति का पता चलता है। कि मुख्य अपराधी अगर पकड़ा भी जाए तो उसे बाल अपराधी होने का लाभ मिल जाए।
बाल अपराधियों का पाकेटमारी जैसे अपराध में होना कोई नई बात नहीं है। 1838 में प्रकाशित चार्ल्स डिकेंस का बहुचर्चित उपन्यास ‘ओलिवर ट्विस्ट’ इसी थीम पर आधारित है। यह ओलिवर नामक एक गरीब और अनाथ बच्चे की कहानी है जो गांव से भाग कर लंदन आता है और पाकेटमारों के चंगुल में फंस जाता है। पाकेटमारों के इस गैंग का सरदार एक अधेड़ उम्र का अपराधी है जो भोले-भाले बच्चों को अपने जाल में फंसा कर उन्हें अपराध करने को मज़बूर करता है। ओलिवर ट्विस्ट में डिकेंस ने 19वीं सदी के लंदन में ग़रीब बच्चों की दुर्दशा का मार्मिक चित्रण किया है।
लंदन का तो पता नहीं पर पेरिस और पटना में आज भी स्थिति वही है। पेरिस के अनुभव को मैं ऊपर व्यक्त कर चुका हूं। पटना के बारे में भी मैंने पिछले साल जनवरी में छपे दैनिक भास्कर के एक रिपोर्ट में पाकेटमारी के बारे में पढ़ा था। कि कैसे यहां अधेड़ उम्र का एक शातिर अपराधी बच्चों को पाकेट मारने के लिए मजबूर करता है।
पाकेटमारी की इन दोनों घटनाओं की मदद से हमें पेरिस के लोगों एवं उनकी संस्कृति को समझने का मौका मिला। पहली घटना में जब मेधा उस पाकेटमार का हाथ पकड़ कर चिल्लाई तो आस-पास के लोगों ने एक बार उसकी ओर देखा जरूर। पर उन्होंने अपने मुंह फेर लिए। उनके चेहरे के भाव बतला रहे थे कि ये तुम्हारा मामला है। हमें इससे क्या? उसी तरह तन्मय के साथ हुई घटना में जब उस हट्टे-कट्टे व्यक्ति के कारण बगल के एक व्यक्ति पर मैं गिरने लगा तो उसने मुझे घूर कर देखा। मानो वो कह रहा हो कि तुम्हारी समस्या जो भी हो पर मुझसे दूर रहो। उसके चेहरे के भाव को पढ़ कर कुछ पल के लिए मैं अपराध बोध से भर गया।
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बस्टील में अरुण जी। फोटो क्रेडिट: तन्मय |
ऐसी घटनाएं भारत के किसी ट्रेन में होतीं तो लोग आपकी मदद के लिए खड़े हो जाते। अपराधी को पकड़ने में, पुलिस को सूचित करने में मदद करते। हालांकि ऐसी मदद कभी कभी भारी भी पर जाता है। क्योंकि कुछ लोग कानून हाथ में ले कर मारपीट पर उतारू हो जाते हैं। जो कि सरासर ग़लत है। ग़ैरक़ानूनी होने के साथ-साथ अमानवीय भी।
पेरिस में ठीक इसके विपरीत लोग अपने आप तक सीमित रहते हैं। आस-पास के लोगों में उनकी दिलचस्पी नहीं होती। वैसे तो कमोबेश दुनियां के अन्य महानगरों में भी यही संस्कृति है। दिल्ली का मेट्रो हो या लंदन का ट्यूब लोग अजनबियों से घुलने मिलने से बचते हैं। पर पेरिस इस मामले में कुछ ख़ास है। वहां लोगों की आंखों में एक विशेष किस्म की बेरुख़ी दिखाई देती है। मेट्रो की भीड़ में चलते हुए भी आप बिल्कुल अकेले महसूस करते हैं। भारत से आये मेरे जैसे व्यक्ति को उनकी ये बेरुख़ी चुभ सकती है।
पेरिस में फ्रेंच भाषा सुनने का एक महत्वपूर्ण एवं उपयोगी श्रोत है मेट्रो में होने वाली आधिकारिक घोषणाएं। जो निरंतर होती रहती हैं। लेकिन उसके अलावा मेट्रो में लोगों की बातचीत को सुनने का अवसर मुश्किल से मिलता है। आज मोबाइल युग में बातचीत का सिलसिला वैसे भी कम हो गया है। पर पेरिस में लोग अगर बात करते भी हैं तो काफ़ी धीमी आवाज़ में। धीमी आवाज़ में बात करना उनकी संस्कृति का हिस्सा है। यह केवल मेट्रो में ही नहीं बल्कि किसी अन्य सार्वजनिक स्थान पर भी आप देख सकते हैं।
इसका अनुभव मुझे खासकर तब हुआ जब हम पेरिस के एक पारंपरिक रेस्तरां में खाना खाने गए। डिस्ट्रिक्ट 11 में स्थित इस रेस्तरां का नाम था पॉलीचे। रेस्तरां का परिवेश, परोसे गए व्यंजन, स्टाफ की तत्परता तथा उनका व्यवहार। सब-कुछ लाजवाब था। हम चार लोग एक टेबल पर थ्री कोर्स फ्रांसीसी भोजन का लुत्फ़ उठा रहे थे। साथ में बातें भी कर रहे हैं। अचानक एक बार तन्मय ने मुझे इशारा किया कि मेरी आवाज़ ऊंची है। मुझे तो इसका भान भी नहीं था। क्योंकि मेरे लिए वह सामान्य-सी बात थी। पर पास के टेबल पर बैठे लोगों की ओर जब मैंने ध्यान दिया तब समझ में आया कि उनकी आवाज़ इतनी धीमी थी कि हम उन्हें सुन नहीं सकते थे। मुझे थोड़ा झटका सा लगा कि बातचीत का जो लहज़ा मेरे लिए सामान्य व स्वाभाविक है वह पेरिस के लोगों के लिए अशिष्टता की श्रेणी में आता है।
इस घटना के ठीक पांच दिन बाद हम लंदन गए। वहां लंच के लिए एक भारतीय रेस्तरां में पहुंचे। नाम था ढ़िशूम। 2010 में स्थापित कोवेंट गार्डन का ढ़िशूम लंदन में आजकल काफ़ी लोकप्रिय है। यह एक ब्रांड के रूप में विकसित हो रहा है। युनाइटेड किंगडम के अलग-अलग शहरों जैसे लंदन, मैनचेस्टर, एडिनबर्ग, बर्मिघम में अभी इसकी दस शाखाएं हैं। बम्बई में बीसवीं सदी की ईरानी कैफ़े के तर्ज़ पर शुरू किए गए ढ़िशूम का महत्वपूर्ण उद्देश्य है संस्कृति की सीमाओं को लांघना। विविधता एवं समावेश ढ़िशूम की पहचान है।
हालांकि पेरिस का पॉलीचे और लंदन का ढ़िशूम दोनों की अपनी-अपनी ख़ासियत है। दोनों के बीच तुलना करना उचित नहीं होगा। जगह, उद्देश्य, माहौल भी अलग हैं। पर व्यक्तिगत रूप से पॉलीचे की अपेक्षा ढ़िशूम मुझे ज्यादा अच्छा लगा। ढ़िशूम की चहल-पहल, उसका खुलापन मेरे लिए ताज़ी हवा के झोंके के समान था।
(इस पोस्ट में प्रयुक्त सभी चित्र हमें अरुण जी के सौजन्य से प्राप्त हुए हैं।)
सम्पर्क
ई मेल : arunjee@gmail.com
बहुत सुन्दर.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद।
हटाएंशानदार अनुभव एवं उत्कृष्ट लेखन...
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