शिवदयाल का आलेख 'जीवन में नयी अर्थवत्ता की खोज'

 

फणीश्वर नाथ रेणु 


हिन्दी साहित्य में फणीश्वर नाथ रेणु अपने किस्म के अलग कहानीकार हैं। मौलिकता उनकी रचनाओं का प्राण तत्त्व रहा है। यह मौलिकता उनकी कहानियों के कथ्य से ले कर भाषा एवम शैली तक में सहज ही देखी जा सकती है। उनके बारे में शिव दयाल उचित ही कहते हैं कि 'वे अपने पात्रों को जमीन से जस का तस उठाते हैं उनकी कमियों और खूबियों के साथ, और मनकों की तरह कथा में पिरो देते हैं - अपने समय के सच को उद्घाटित करने के लिए।' 3 फरवरी को उनका जन्मदिन था। उनके जन्मदिन पर कल हमने कुमार वीरेन्द्र का आलेख प्रस्तुत किया था। आज उसी कड़ी में प्रस्तुत है शिवदयाल का आलेख 'जीवन में नयी अर्थवत्ता की खोज'।



एक आदिम रात्रि की महक ...


'जीवन में नयी अर्थवत्ता की खोज'

                                  

शिवदयाल

    

रेणु की मौलिकता की खूब चर्चा होती है। उनकी मौलिकता की थाह लेने के लिए शायद उन्हें कभी प्रेमचंद तो कभी बांग्ला कथा-परम्परा से जोड़ने की कोशिश की जाती है, और इस पर विवाद भी खूब होता रहा है। इसमें कोई संदेह नहीं कि रेणु पर दोनों ही प्रभाव हो सकते हैं, तब भी उन्हें किसी एक परम्परा की उपज बताना उनके साथ ज्यादती होगी। वास्तव में उनकी मौलिकता ही ऐसे प्रयासों के आड़े आती है। अगर यथार्थवाद की कसौटी पर उन्हें प्रेमचंद का उत्तराधिकारी माना जाता है, तो वे प्रेमचंद के मुकाबले अधिक, बल्कि अतिशय यथार्थवादी हैं। प्रेमचंद के यहाँ यदि यथार्थ का 'बेस स्ट्रक्चर' है तो रेणु के यहाँ उसका 'सुपर स्ट्रक्चर' भी मौजूद है। रेणु का पात्र केवल अपने परिवेश और परिस्थितियों के साथ ही नहीं, बल्कि अपनी मूल वृत्तियों, स्वभावगत विशेषताओं और ऐन्द्रिक संवेगों के साथ उपस्थित है। रेणु के पहले कम से कम हिन्दी कहानी में रूप, रस, गंध और ध्वनि की मौजूदगी एक साथ नहीं देखी गई। रेणु के यहाँ कुछ भी सपाट नहीं, भंगिमाविहीन नहीं। अभिधा भी व्यंजना के रस में डूबी उपस्थित होती है, या यों कहें कि दोनों का फर्क मिट जाता है। इन्हीं अर्थों में रेणु हिन्दी के अत्यन्त मौलिक कथाकार हैं। वैसे वे अवस्थिति और भाषा के लिहाज से भी हिन्दी के अपूर्व कथाकार तो हैं ही। वे अपने पात्रों को जमीन से जस का तस उठाते हैं उनकी कमियों और खूबियों के साथ, और मनकों की तरह कथा में पिरो देते हैं - अपने समय के सच को उद्घाटित करने के लिए। इसके लिए वे जिस भाषा को काम में लाते हैं वह उस अवस्थिति का पता देती है जहाँ घटनाएँ घट रही हैं। वे भाषा को मानकता की कसौटी पर कसना जरूरी नहीं समझते, बल्कि उसे और समृद्ध करते जाते हैं, प्रसार करते जाते हैं, - हिन्दी मानो ‘खरी’, ‘खड़ी’ न रह कर थोड़ी ‘नय’ जाती है, विनम्र और ग्रहणशील हो जाती है। उनकी कहानियों में कोसी अंचल मानो स्वयं बोलने लगता है, अपने को परत-दर-परत खोलने लगता है। रेणु सूक्ष्म (माइक्रो) स्तर पर जीवन-व्यापार देखते हैं। यह उनका देखा-भाला ही नहीं, ‘छाना’ हुआ इलाका है।

    

‘आदिम रात्रि की महक’ गंध-संवेदना की संभवतः एकमात्र कहानी है। इसका पूरा कथानक गंध में लिपटा है। तरह-तरह की गंध स्मृति से ले कर वर्तमान तक पसरी हुई है। इन्हीं में, इन्हीं से चीजें पहचान पा रही हैं। किसी खास गंध में स्मृति कौंधती है, तो किसी में अरमान भी जगते हैं। कहते ही हैं कि हर व्यक्ति की अपनी एक गंध होती है - देह गंध, लेकिन इसे जानने के लिए अतिशय संवेदनशीलता की जरूरत होती है। कहानी के प्रमुख पात्र करमा, उर्फ करमचन में एक महक है मछली की, उसका साहब बताता है। डोमपट्टी की किशोरवय लड़की में भी बिन नहाए देह की एक अजीब-सी गंध थी, जिसे करमा कभी प्यार से हलवा-पूरी खिलाना चाहता था। इस कहानी में तो कुत्ता भी कुछ-कुछ सूँघ रहा है। एक रात चूना-वार्निश के गंध से कहानी शुरू होती है और एक सुबह जब समाप्त होती है, तब करमा गंध के सागर में डूबा हुआ है।

    

कहानी कटिहार-मनिहारी घाट रेल सेक्शन के एक स्टेशन आदमपुर के नये बने भवन से शुरू होती है जबकि चूने और वार्निश की गंध करमा को सोने नहीं देती, उसकी कनपटी में 'चवन्नी-भर दर्द’ चिनचिनाता रहता है। करमा 'रिलिफिया' बाबुओं के साथ पिछले बारह वर्षों से रहता चला आ रहा है। वह न रेलवे का कर्मचारी है न इन बाबुओं का नौकर। वह उनके साथ रहता है, उनकी सेवा करता है और बदले में कोई पगार या ‘मुसहरा’ नहीं लेता, इसलिए वह कहता है - हम बाबू के साथ रहते हैं, यह नहीं कहता कि उनका नौकर है, और यही सच है। ‘‘एक पैसा भी मुसहरा न लेने वालों को नौकर’ तो नहीं कह सकते!’’ वह 'पेट-माधोराम मर्द’ है। पेट भर भात पर अपनी सेवाएँ देता है।

    

‘करमा’ नाम भी एक रिलिफिया बाबू का दिया हुआ है - गोपाल बाबू का। आसाम से लौटती हुई कुली-गाड़ी में एक ‘डोको’ के अंदर पड़ा यह जीव मिला, बिना 'बिलटी-रसीद’ के ही - लावारिस माल, एक अज्ञात-कुलशील बालक जिसका नामकरण उन्होंने किया - करमा। उन्होंने उसे साथ रखा पूरे पाँच साल। यह करमा जिसे बाद में अलग-अलग बाबुओं ने अलग-अलग नाम से पुकारा, दरअसल गोपाल बाबू की ही खोज या आविष्कार है। तब से बारह सालों में एक दिन के लिए करमा रेल की पटरी से अलग नहीं हुआ। ‘रिलिफिया’ बाबू को छोड़ कर किसी ‘सालटन बाबू’ के साथ वह कभी नहीं रहा। सालटन बाबू का मतलब किसी टिसन’ पर ‘परमानंटी’ नौकरी करने वाला, फैमिली के साथ रहने वाला। रेणु ने यह एक विचित्र चरित्र खड़ा किया है करमा का जिसके एक तो कुल-गोत्र का कुछ पता नहीं, जो एक कुली गाड़ी के ‘डोको’ में पड़ा मिलता है, रिलिफिया बाबुओं के साथ रह कर पलता-बढ़ता और पोसाता है जो वास्तव में रेलवे के स्थानापन्न अस्थायी कर्मचारी हैं जिन्हें छुट्टी या अन्य कारणों से अस्थायी रूप से कुछ दिनों के लिए खाली पदों पर काम करने के लिए एक स्टेशन से दूसरे स्टेशन भेजा जाता है। दूसरी बात कि मौका मिलने पर भी वह रेलवे की इंजन टँकी नीली कमीज पहनने को तैयार नहीं होता, यानी पोटर, खलासी, 'पैटमान' या पानी-पाँड़े की स्थायी नौकरी नहीं करता। तीसरी बात कि वह बाबुओं से भी एक पैसा पगार नहीं लेता, उनका ‘नौकर’ नहीं बनता। दो पटरियों के बीच सिमटे इस जीवनक्रम को वह जहाँ-तहाँ खींच कर विस्तारित भी करता है - वह खुली आँखों से जिज्ञासा के साथ जगत व्यापार देखता है। रेलवे के बाहर के चरित्र भी उसके जीवन में दाखिले होते हैं - अलग-अलग स्थानों के, जिन्हें वह याद करता रहता है - प्रायः अलग-अलग गंधों से - चाहे वह मनिहारी घाट के कुली-कुल के मस्तान बाबा हों या वारिसगंज टिसन के निकट तंबुओं में रहने वाले डोमपट्टी के मगहिया डोम की छौंड़ी (लड़की)। वह निर्जन लखपतिया टिसन के पास पोखरों में घंटों गले तक डूब कर स्नान-सुख लेता है, कदमपुरा में कदम (कदम्ब) के हजारों पेड़ हैं - उनकी चटनी चखता है। उसे ‘कितनी जगहों, कितने लोगों की याद आती है’ - बथनाह टिसन का सूनापन, सोनबरसा के आम, कालूचक की मछलियाँ, महोदर का दही...। तरह-तरह की ध्वनियाँ भी उसका पीछा करती रहती हैं जिस पर आगे चर्चा होगी।

    

नई जगह, नये टिसन में पहुँच कर आस-पास के गाँवों का एकाध चक्कर लगाए बिना उसे चैन नहीं आता। यहाँ आमदपुर में भी ‘डिसटन सिंगल’ के उस पार दूर-दूर तक फैले खेत, ताड़ का अकेला पेड़ और काला जंगल मानो उसे आमंत्रित कर रहे हैं। वह बाबू को भोजन करा कर उस ओर निकल पड़ता है। गाँव के सिवान पर उसे वह बूढ़ा मिलता है जो स्टेशन पर पंद्रह बोरे बैंगन बुक कराने आया था और बदले में पंद्रह नग बैंगन कर्मचारियों को बख्शीश दी। बूढ़े ने उससे खूब कुल-गोत्र, पता-ठिकाना पूछा था और हर सवाल पर करमा ने आसमान की ओर अंगुली उठा दी थी - मस्तान बाबा की तरह। बूढ़ा उसे घर ले जाता है, आज भी उससे कई सवाल करता है, उसके गमछे में बँधी अभी-अभी पकड़ी गई मांगुर मछलियों के बारे में भी। खासकर वह उसकी कमाई और पगार के बारे में पूछता है और सब जान कर हँस कर यह विशेषण देता है - ‘पेट-माधोराम मर्द!’ पेट भात पर खटने वाला आदमी। और हाँ, ‘बूढ़ा ठीक साहू बाबू टीटी के बाप की तरह हँसता है।’ यह करमा उर्फ करमचन को हमेशा के लिए बदल देने वाली घटना है जो रेल पटरियों के बाहर घट रही है।




    

जब बूढ़ा उससे पूछता है - ‘मछली है? बाबू के लिए ले जाओगे?' तो करमा जवाब देता है - ‘नहीं। ऐसे ही .... रास्ते में शिकार .....।’ इस पर बूढ़ा आवाज देता है - ‘सरसतिया की माय! मेहमान को चूड़ा भून कर मछली की भाजी के साथ खिलाओ....’ फिर करमा को कहता है, किंचित व्यंग्य में - ‘एक दिन दूसरे के हाथ की बनाई मछली खा लो जी!’ इस घर का करमा पर उपकार अभी समाप्त नहीं होता, अभी तो उसे तारने वाला प्रसाद बाकी है। जलपान करते करमा सुनता है, सरसतिया की माँ से कोई औरत सवाल करती है -


‘कहाँ का मेहमान है?’

‘कटिहार का।’

‘कौन है?’

‘कुटुम ही है।’

‘कटिहार में तुम्हारा कुटुम कब से रहने लगा?’

‘हाल से ही।’

    

‘कुटुम!’ अनाथ, निराश्रित, पेट भर भात पर जीवन चलाने वाले करमचन के लिए मानो जनमों के संचित पुण्यों का फल है यह शब्द! जीवन में पहली बार एक औरत के मुख से उसके लिए निकला शब्द! उसे तो ‘जनाना’ शब्द से ही नफरत-सी हो गई थी - वह सच्छात राक्षसी गोपाल बाबू की ‘बौमा’ (बहू माँ) जो उन जैसे सीधे-सरल आदमी को हाड़-गोड़ सहित चबा कर खा गई! लेकिन यहाँ तो नेह का, ममता का अमरित बरस रहा है, हाल ही में पुत्र-शोक से उबरी, या कि अब तक उसमें डूबी सरसतिया के माय के मुख से - ‘एक दिन फिर आना’; ‘अपना ही घर समझना!’ हाँ, सरसतिया जब चिलम फूँकती है तो उसके गाल मोसम्बी की तरह गोल हो जाते हैं!

    

लौटते समय करमा को लगता है, जैसे तीन जोड़ी आँखें उसकी पीठ पर लगी हैं - डिसटन सिंगल, होम सिंगल और पैट सिंगल की लाल-लाल रोशनी। कथाकार यहाँ ठहराव का इशारा कर रहा है। आखिर पंद्रह दिन बीत जाते हैं। रात की गाड़ी से टिसन से साल्टन-मास्टर बाबू आए हैं - बाल बच्चों के साथ। भोर की गाड़ी से करमा को अपने बाबू के साथ हेड क्वाटर लौट जाना है। कल सुबह जाना है। करमा को नींद नहीं आ रही। गोपाल बाबू जैसे बाबू मजे में सो रहे हैं - ‘न किसी की जगह से तिल-भर मोह, न रत्ती-भर माया।’ करमा भी इन पड़ावों के प्रति यही भाव रखता आया है। लेकिन आज वह यह किन बंधनों में जकड़ रहा है - ‘एक दिन फिर आना’, ‘अपना ही घर समझना’, ‘कुटुम?'!

    

अचानक करमा को एक अजीब गंध लगती है, शायद स्वप्न में ही। वह गंध का पीछा करते ज्यों ही रेलवे लाइन पर पैर रखता है अचानक सभी सिंगल (सिगनल) जोर-जोर से बिगुल फूँकने लगते हैं, मानो उसे सावधान करते हैं। फैमिली क्वाटर से गोपाल बाबू की बौमा चिल्लाती है - ‘चो-ओ-ओ-र.’! सपने में ही एक इंजिन उसके पीछे दौड़ा आ रहा है। मगहिया डोम की छौंड़ी को देख वह तंबु में छिप जाता है। अब यहाँ सपने में वारिसगंज की छौंड़ी और खिलखिलाती हुई सरसतिया मिल कर एक हो जाती है, वरना सरसतिया में करमा को बेनहाई देह की गंध कैसे मिल सकती है? करमा डर जाता है। ‘डर कर सरसतिया की गोद में .... नहीं, उसकी बूढ़ी माँ की गोद में अपना मुँह छिपा लेता है। रेल और जहाज के भोंपे एक साथ बजते हैं। सिंगल की लाल-लाल रोशनी ....!’ यानी रुकने का संकेत! करमा मातृविहीन ही नहीं, स्त्रीविहीन व्यक्ति है, उसके जीवन में कोई स्त्री नहीं है, कुछ स्मृतियाँ हैं जिनका कोई खास मतलब नहीं। करमा सपने में सरसतिया की बूढ़ी माय की गोदी में शरण पाता है। यही स्वप्न उसका भवितव्य है। कथाकार ने यहाँ स्त्रीत्व के मातृपक्ष को वरीयता दी है, मूल्य और मान दिया है। आखिर तो मातृ-संसर्ग, उसका स्पर्श और उसकी छाया जीवन का पहला बोध है, भले ही वह करमचन के जीवन में देर से आया हो! सुबह होती है और बाबू उसे उठाते हैं तो ‘करमा एक गंध के समुद्र में डूबा हुआ है...’ यह कैसी गंध है? अजीब-सी गंध..! कहीं यह ममता की गंध ही तो नहीं जो बारह सालों से इस रेल सेक्शन पर रिलिफिया बाबुओं के साथ रहते, खाते-पीते, उनकी झिड़कियाँ और खर्राटे सुनते असल -‘पेट-माधोराम’ करमचन उर्फ करमा को उस चूने और वार्निश की गंध वाले आदमपुर टिसन पर रोक लेती है! वह बाबू के सामान डिब्बे में चढ़ाता है लेकिन ऐन वक्त कहता है - बाबू? ... मैं नहीं जाऊँगा!’’ वह चलती ट्रेन से उतर जाता है, उसे ठोकर लगती है लेकिन संभल जाता है। प्लेटफार्म पर उसे गाड़ी में चढ़ा देख कूँ-कूँ करते बेचैन कुत्ते को भी चैन मिला (होगा!)।

    

तो यह कहानी है ‘आदिम रात्रि की महक...।’’ लेकिन कुछ और प्रसंगों पर भी थोड़ी चर्चा होनी चाहिए। कहानी में करमा अपने चटाई लपेटू तदर्थवादी जीवन से अलग हो भूल कर भी स्थिरता की ओर नहीं जाना चाहता; वह ‘साल्टन’ नहीं बनना चाहता। यह अस्वाभाविकता उसमें एक भय से उपजी है। उसे नाम-पहचान, नेम-छोह देने वाले पिता तुल्य गोपाल बाबू जब तक रिलिफिया बाबू बने रहते हैं, तब तक सब ठीक रहता है। ज्योंही वह साल्टन होते हैं, फैमिली बनाते हैं और क्वार्टर में रहने लगते हैं, उनका जीवन नष्ट हो जाता है। निश्छल करमा के अंदर इसका भय पैठ गया है।

    

कहानी में एक सपने की बात है। आदमपुर टिसन पर शायद पहली ही रात को जब वह चूने और वार्निश की गंध से परेशान है, एक सपना आता है। सपने में धड़धड़ाता हुआ इंजिन उसके ऊपर से गुजर जाता है। उसका सर अलग छिटक जाता है, और दोनों पाँव अलग। दोनों पाँवों को बटोर कर देखता है कि यह तो एंटोनी ‘गाट’ साहब के बरसाती जूते का जोड़ा है - ‘गम बोट’। करमा इस सपने की बात शुरू करते ही बाबू से डाँट सुनता है। यूँ, यह सपना अगर नहीं भी होता तो कथानक पर कोई खास फर्क नहीं पड़ता, लेकिन कथा-कहानी में कई बार चीजें संकेत करने के लिए भी होती हैं। कहते हैं, अपने मरने का स्वप्न शुभफलदायी होता है। वास्तव में यह स्वप्न यह संकेत है कि करमा का जीवन बदलने वाला है, इन रेल पटरियों से उतरने वाला है।




    

रेणु ध्वन्यात्मक बिम्बों के अद्भुत चितेरे हैं। इस कहानी में भी ध्वनियों के अर्थ व संदर्भ हैं। ध्वनियों में भी कथ्य अभिव्यक्ति पाता है। रेल की सीटी, जहाज का भोंपू - भों-ओं-ओं, तार की घंटी, गार्ड साहब की सीटी, घटही गाड़ी की अलग चीख - सी ई ई..., ‘इसपेसल’ के ‘कल’ की आवाज, टिटिहरी और चील की पुकारें। सिंगल (सिगनल) की ध्वनियाँ...। रेणु की इस कहानी में तो कुत्ता भी भौंकता नहीं, ‘बुफ’, ‘बुफ’ करता है। रिलिफिया से साल्टन बने गोपाल बाबू के फैमिली क्वार्टर के कमरे से भी रात को करमा ध्वनियाँ सुनता है और सिहरता है - ‘गों-गों’, फों-फों, मिनमिनाना, चीखना, चिल्लाना....। बाबुओं के किसिम-किसिम के खर्राटों का विवरण मजेदार है। अलग-अलग स्थितियों और प्रसंगों में पाठक इन ध्वनियों के अलग-अलग अर्थ-संकेत ग्रहण करता है।

    

इस कहानी में शुरू से आखिर तक विनोद और परिहास का जबरदस्त पुट है। यह कहने में कोई हिचक नहीं कि इस एक गुण या प्रभाव के कारण भी यह कृति अमर है। यह हास-परिहास और व्यंग्य-व्यंजना इतना स्वाभाविक, सामयिक (टाइमली) और सुस्थापित है कि स्थान-स्थान पर, बल्कि लगभग निरंतरता में पाठक विभोर होता रहता है। व्यंग्य-विनोद कहानी की भाषा में ही रचा-बसा है। यह हास-परिहास मुख्य पात्र करमा उर्फ करमचन के आत्मावलोकन और कहीं-कहीं आत्महीनता से भी पैदा होता है - ‘‘करमा उठ कर ताखे पर रखे हुए आईने में अपना मुँह देखने लगा। उसने ‘अ-जू-ऊ-ऊ-बा’ कह कर देखा। छिः, उसके होंठ तीतर के चोंच की तरह ....।’’ ‘‘करमा ने ताखे पर रखे आईने में फिर अपना मुखड़ा देखा। उसने आँखें अधमुँदी कर के दाँत निकाल कर हँसते हुए मस्तान बाबा के चेहरे की नकल उतारने की चेष्टा की - ‘मस्त रहो!... सदा आँख-कान खोल कर रहो। ...धरती बोलती है। गाछ-बिरिछ भी अपने लोगों को पहचानते हैं। ...है-है-है...मस्त रहो। ...', करमा को क्या पता कि बाबू पीछे खड़े हो कर सब तमाशा देख रहे हैं। बाबू ने अचरज से पूछा - ‘तुम जगे-जगे खड़े हो कर भी सपना देखता है?... कहता है कि गाँजा नहीं पीता?’’ कहीं-कहीं चुटीली व्यंजक उक्तियों का कमाल देखते ही बनता है - ‘‘बौमा का मिजाज तो इतना खट्टा था कि बोली सुन कर कड़ाही का ताजा दूध फट जाए।'’ ‘'लखपतिया टिसन का नाम कितना जब्बड़ है! मगर टिसन पर एक सत्तु-फरही की भी दुकान नहीं।’’ ‘बस नाम ही आदमपुरा है - आमदनी नदारद। सात दिन में दो टिकट कटे हैं। और सिर्फ पाँच पैसेन्जर उतरे हैं, तिसमें दो बिना टिकट के।’ और यह ध्वनि-चित्रण से झरता हास्य देखिए - ‘‘चलो, बाबू को फिर नींद आ गई। बाबू की नाक ठीक बबुआनी आवाज में ही डाकती है। पैटमान जी तो लगता है लकड़ी चीर रहे हैं। गोपाल बाबू की नाक बीन जैसी बजती थी - सुर में। असगर बाबू का खर्राटा....; और सिंघ जी फुफकारते थे, और साहू बाबू नींद में बोलते थे - ए, डाउन दो, गाड़ी छोड़ा...!''

    

रेणु के यहाँ वस्तुएँ हैं किस्म-किस्म की, और उतने ही विविध विवरण हैं। रेल यात्रा, सहयात्री, प्लेटफार्म आदि अनेक कहानियों और उपन्यासों में मिल जाएँगे। इस कहानी में रेलवे की भीतरी व्यवस्था खुल रही है। कई पाठक पहली बार रिलिफिया बाबू से परिचित होंगे। रेल से जुड़ी अलग से पूरी एक शब्दावली उपस्थित है। केवल आदमपुर स्टेशन ही नहीं, कटिहार-मनिहारी घाट रेल सेक्शन के कई छोटे-बड़े स्टेशनों और उनसे जुड़ी चीजों के प्रामाणिक विवरण दिए गए हैं। ‘घटही गाड़ी’, यानी ऐन घाट तक जाने वाली गाड़ी, और उससे समयाबद्ध जहाज जो उस पार साहेबगंज की तरफ जाता है, से पाठक परिचय ही प्राप्त नहीं करता, उनसे एक जुड़ाव भी अनुभव करता है।

    

कुछ बड़े सुंदर दृश्य-बिंब रेणु जी ने उकेरे हैं - ‘मगर सबसे ज्यादा आती है मनिहारी घाट टीसन की याद। एक तरफ धरती, दूसरी ओर पानी। इधर रेलगाड़ी, उधर जहाज। इस पार खेत-गाँव-मैदान, उस पार साहेबगंज-कजरौटिया का नीला पहाड़। नीला पानी- सादा बालू! .... तीन एक, चार-चार महीने तक तीसों दिन गंगा में नहाया है करमा। चार ‘जनम तक’ पाप का कोई असर तो नहीं होना चाहिए! .... मछुए जब नाव से मछलियाँ उतारते तो चमक के मारे करमा की आँखें चौंधिया जातीं। .... रात में उधर जहाज चला जाता - धू-धू करता हुआ। इधर गाड़ी छकछकाती हुई कटिहार की ओर भागती। अजू साह की दुकान की झाँपी बंद हो जाती तब घाट पर मस्तान बाबा की मंडली जुटती ...।'

    

करमा जिस गंध का, अजीब गंध का पीछा करता आया, वह आखिरकार उसे सरसतिया की माँ की गोद में पहुँचा देती है, और मानो उसकी यह लम्बी लेकिन अनजानी खोज पूर्ण होती है। यह ममता-माया को जीवन में प्रमुखता देने वाली उच्च मानवीय सरोकारों की कहानी है जिसका एक संदेश यह भी है कि जीवन में नई अर्थवत्ता के लिए ‘सालटन’, बनी-बनाई पटरियों को छोड़ना पड़ता है।     



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)



लेखक परिचय

शिवदयाल

हिन्दी के समकालीन सृजनात्मक एवम् वैचारिक लेखन के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर। दो उपन्यास (छिनते पल छिन, एक और दुनिया होती), कहानी संग्रह (मुन्ना बैंडवाले उस्ताद), कविता संग्रह (ताक पर दुनिया), निबंध संग्रह (स्वतंत्र हुए स्वाधीन होना है), बिहार पर केंद्रित दो पुस्तकें (बिहार की विरासत; बिहार में आंदोलन, राजनीति और विकास), भारत का लोकतंत्र, जे पी आंदोलन और भारतीय लोकतंत्र (सं), जय प्रकाश नारायण (सं, वैचारिकी) आदि पुस्तकों समेत दर्जनों वैचारिक लेख-निबंध, कविताएं, कहानियां, समीक्षाएं आदि प्रकाशित। उपन्यास ' एक और दुनिया होती ' के मराठी अनुवाद सहित कई रचनाओं का मराठी, उर्दू, पंजाबी, अंग्रेजी आदि भाषाओं में अनुवाद। संवेद के रमेश चंद्र शाह अंक का संपादन, 'विकास सहयात्री', 'बाल किलकारी' सहित अनेक पत्रिकाओं का संपादन। 


शिव दयाल



संपर्क : 


305, शांति सुनयना सदन अपार्टमेंट, 

अभियंता नगर, न्यू बेली रोड, 

पटना - 801503


मोबाइल : 9835263930

ई मेल : sheodayal@rediffmail.com

टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

हर्षिता त्रिपाठी की कविताएं