शर्मिला जालान का आलेख ‘ऐ लड़की’: एक पुनर्पाठ

 

कृष्णा सोबती


कृष्णा सोबती की कहानी 'ऐ लड़की' हिन्दी की कालजयी कहानियों में से एक है। कहानी के औपन्यासिक स्वरूप को देखते हुए कुछ लोग इसे उचित ही लघु उपन्यास की संज्ञा देते हैं। यह कहानी दरअसल दो पीढ़ियों की स्त्रियों के बीच रिश्ते और संवाद की मार्मिक कहानी है। दो पीढ़ियों का अभिप्राय होता है अलग-अलग जीवन मूल्य और अलग-अलग नैतिकताएं। खासकर स्त्रियों के सन्दर्भ में यह और भी महत्त्वपूर्ण है। इस कहानी में एक मां का अपनी पुत्री के साथ ममतामयी रिश्ता तो है ही, साथ ही साथ द्वंदात्मक रिश्ता भी है। यह द्वंद्व पीढ़ी का द्वंद्व है, जिसे शर्मिला जालान ने अपने इस आलेख में खुबसूरती से उभारने का प्रयत्न किया है। ऊपर से देखने पर लगता है कि यह कहानी मृत्यु की प्रतीक्षा में एक बूढ़ी स्त्री की है लेकिन वह उसकी समूची ज़िंदगी के आर-पार की कथा व्यथा है, जिसे अपने मरने के पहले अपनी अचूक जिजीविषा से वह याद करती है। इसे पढ़ते हुए कविता के इलाक़े से गद्य का अहसास होता है। मां का अनुभव मृत्यु के क्षेत्र से जीवन का चुपचाप उठाकर लाए-सहेजे गए अनुभव में तब्दील हो जाता है। शर्मिला जालान इस आलेख के बारे में लिखती हैं - 'मैंने अपनी पुरखा मन्नू भंडारी, गगन गिल और अलका सरावगी के साथ संवाद करते हुए लेख को प्रस्तुत किया है'। कल 18 जनवरी को कृष्णा सोबती का जन्मदिन था। हम पहली बार की तरफ से उनकी स्मृति को नमन करते हैं। आइए इस अवसर पर आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं शर्मिला जालान का आलेख ‘ऐ लड़की’: एक पुनर्पाठ।



‘ऐ लड़की’ : एक पुनर्पाठ


शर्मिला जालान


‘ऐ लड़की’ ऐसी विरल-सी लम्बी कहानी है जिसके बहुतेरे सन्दर्भ और अर्थ खुलते हैं। बार-बार पढ़ते हुए दिलचस्प, आत्मीय और गहरे अनुभव मिलते हैं। यह कृति आज भी प्राणवान और प्रबल इसलिए है कि इसमें अम्मू का अपनी लड़की के साथ ममतामयी रिश्ता तो है ही पर साथ ही साथ द्वंदात्मक रिश्ता भी है। इसमें कई तरह की प्रतिध्वनियाँ हैं।



लड़की की प्रतीक्षा

इस कहानी में प्रेम की प्रतीक्षा की, उस आवाज की जो लड़की को पुकारेगा की प्रतिध्वनि है। ऐसा लगता है कि यहाँ लड़की को जीवन में किसी के आने की प्रतीक्षा है! किसकी? कोई ऐसा भाव, कोई ऐसा प्रेम, कोई ऐसा अनुराग, जो सच्चा हो, जो छल न हो जिस पर लड़की की आस्था हो। क्या सोबती जी के मन में अमूर्त रूप से ऐसा कोई भाव था? कोई ऐसा जीवन मे आये, किसी भी उम्र में आए, प्रौढावस्था में ही सही पर कोई आए, तभी लड़की शादी के घेरे में जाने का साहस करेगी। ‘ऐ लड़की’ की लड़की के मन में माँ का पारम्परिक संयुक्त परिवार का जीवन जीने और चुनने की, उस जीवन में प्रवेश करने की कोई इच्छा नहीं है। तो उसके मन में क्या है? लड़की कहती है-


“मैं किसी को नहीं पुकारती। जो मुझे आवाज़ देगा, मैं उसे जवाब दूँगी। अम्मू अब तो तसल्ली है?” (‘ऐ लड़की’)


जो मुझे आवाज देगा। यह ‘जो’ कौन है? किसी का इंतजार है शायद। लड़की के जीवन में जब कोई ऐसा क्षण आएगा, जब कोई ऐसा गहरा एहसास होगा कि कोई उसे आवाज दे रहा है तब शायद वह परिवार के बंधन में बंधने की इच्छा रखेगी। अगर यह कहानी अम्मू के गहरे जीवन बोध और उनकी कलात्मक अंतर्दृष्टि को जानने की कहानी है तो साथ ही साथ लड़की के आधुनिक जीवन को उसके मूल्य बोध को उसकी अंतर्दृष्टि को जानने की कहानी भी है। यह वाक्य लड़की के मानवीय अस्तित्व के होने या ना होने को भी अभिव्यक्त करता है। लड़की की शांत चुपचाप और गहरी भूमिका इस कथा को नया आयाम देती है।



एक घर उल्टा एक घर सीधा


‘ऐ लड़की’ का स्थापत्य, यहाँ आए संवादों का सिलसिला, एक तरफ पारंपरिक जीवन के सुख और सीमाओं को तो दूसरी तरफ आधुनिक जीवन के आकाश को अभिव्यक्त करता है। आधुनिक और पारंपरिक दोनों प्रकार के जीवन के द्वंद को पारदर्शी भाषा में भी दिखाता है। यहाँ किसी भी तरह का मेलोड्रामा और सेंटीमेंटल एप्रोच नहीं है बल्कि कहानी कहने के ढंग की प्रगल्भता, प्रवीणता और गुणवत्ता है।


कहानी की बुनावट ऊन के गोले और सलाइयों से बुने उस स्वेटर की तरह है जिसमें एक घर उल्टा और एक घर सीधा होता है। अम्मू के पल-पल बदलते मूड, मन में आते-जाते कई मौसम, उन मौसम की प्रवृत्तियां, उन मौसम के, राग-रंग सच्चे और प्रभावशाली ढंग से संवाद में आते हैं। अम्मू एक ऐसा संगीत रच रही है जिसमें एक पल अपने संयुक्त परिवार के वैभव का गीत गा रही है तो दूसरे ही पल लड़की को तंज कस रही है और तीसरे पल लड़की के जीवन के प्रति यह भाव भी आता है कि वह अपनी अस्मिता और अपनी आजा़द ख्याली की संभावनाओं को छूने वाला जीवन है। इस तरह यहाँ माँ बेटी का शाश्वत संवाद है, मन में उठने वाले द्वंद्व, ऊहापोह, विश्वासों और दुविधाओं का।


अम्मू और लड़की की अपनी-अपनी निजी विशिष्टताएँ हैं। लड़की का माँ की बातों पर संयमित रहना और धीरज धारण करना, संबंधों का एक संतुलित संसार बनाता है। एक ऐसा सुंदर और संभव संसार जहाँ अपनी-अपनी स्पेस बनी हुई है, मिली जुली पारस्परिक स्पेस।


‘ऐ लड़की’ का टेक्स्ट हमें पारंपरिक समाज से जोड़ता है। जहाँ पर हमारा अपना मन बहुत ज्यादा है। सोबती जी की कहानियों और उपन्यास में परिवार में स्त्री आती है अपनी अस्मिता के साथ। अपने तेज के साथ। मन्नू भंडारी के यहाँ मध्यवर्गीय कामकाजी स्त्रियाँ आती हैं जो दोहरी भूमिका निभाते हुए लहूलुहान होती है जिसके जीवन के अपने संघर्ष और चुनौतियाँ हैं, सोबती जी के यहाँ जो स्त्री आती है वह पारंपरिक जीवन जी रही है, उनके मन में वह जीवन बहुत ज्यादा है अपने राग और रंग में। अपने सही और गलत, अच्छे और बुरे सन्दर्भ में।


आज की बहुतेरी नई स्त्रियाँ वह जीवन नहीं जी रही हैं पर वे उसी जीवन से निकली हैं। इस उपन्यास में माँ का अपने जीवन से लगाव और अनुराग है और उसके प्रति अहंकार भी कि कितना कुछ मिला। और मिला भी जैसा कि अम्मू बताती हैं -


“तुम्हारे पिता स्वभाव के बड़े शांत। गंभीर। मैं जरा कठोर। पर मुझमें सिखने की उमंग थी ...सीखा। उनसे बहुत कुछ सीखा।” (‘ऐ लड़की’)


अम्मू के पति अच्छे थे। हाँ अम्मू ने यह नहीं किया कि -


“-चाहती थी पहाड़ियों की चोटियों पर चढू। शिखरों पर पहुँचू। पर यह बात घर की दिनचर्या में कहीं न जुड़ती थी।” (‘ऐ लड़की’)


पर जो किया और कर पाई उसके प्रति अम्मू के मन में अभिमान है। इस तरह ‘ऐ लड़की’ के टेक्स्ट की बुनावट में एक घर उल्टा, एक घर सीधा है। जो मिला उसका बखान और जो नहीं मिला उसको लेकर उदासी का भाव। खरी भाषा में।


मन्नू भंडारी 



तनाव


कहानी में तनाव है। जब इस कहानी में माँ बार-बार कहती है कि लड़की तुम अपने आप में क्या हो? लड़की के मन के तानों-बानों को समझें, उसके मानस में झाँके तो महसूस कर सकेंगे कि लड़की के मन में माँ की बातें सुन कर तनाव उतरता होगा।


“-इस चमत्कार का तुम्हें क्या पता! इसकी जानकारी किताबों में नहीं मिलती। दीवारों को देखते चले जाने से उन पर तस्वीरें नहीं खिंचती! ऐसा हो सकता तो जाने तुम क्या-क्या ना आँक लेतीं। न लड़की, सेमल के पेड़ से भी कभी सेब उतरते होंगे। लड़की खीझ कर उठ खड़ी हो जाती है। मैं तुम्हें चुभा थोड़े रही हूँ। सखी-सहेलियाँ भी ऐसी बातें कर लेती हैं। मैं किसी से ऐसी बातें नहीं करती और न ही सुनती। कैसे सुनोगी! सब सपाट है। यह बीहड़। मुझे तो कुछ दीखता नहीं है। कैसे सुनोगे! सब सपाट है। बीहड़। मुझे तो कुछ दीखता नहीं! क्या तुम्हें दीखता है!


इतना तो बताओ मुझे तुम खड़ी कहाँ हो! किस मोड़ पर हो! पंक्ति में है कोई? भाई बहनों के दरवाजे के बाहर हो तुम। (‘ऐ लड़की’)


तुम क्या हो? यह ऐसी बात है जो पूरे अस्तित्व को हिला कर रख दे। इस बात से मन में क्रोध उत्पन्न होगा। यह बात अस्मिता पर प्रश्नवाचक चिन्ह लगाती है। लेकिन पुत्री में धीरज है। लड़की ने अपने अंतर्मन और बाहर के यथार्थ से एक रिश्ता बनाया है। नए समय के दबावों के कारण लड़की के जीवन में जटिल और अलग-सी अनुभूतियों का जन्म होता रहता होगा। वह अपनी नई संवेदनाओं, नए आकारों और रूपों को माँ के सामने अभिव्यक्त नहीं करती। स्वाधीन जीवन का कौन-सा रूप फैशन और चलन में है, वह माँ से साझा नहीं करती है। वहाँ पर माँ दांपत्य जीवन की बात करती है, जीवन में पिता ने कैसा साथ निबाहा की बात करती है, पर लड़की मौन है। यहाँ एकालाप है, शुद्ध चर्चा, बहस की ज़मीन नहीं है। माँ के संवाद, उनकी सोच अलग रंग लिए हुए हैं। उसकी अपनी कथा है और लड़की का संसार अमूर्त ही रह जाता है।


माँ की मुक्ति पारिवारिक जीवन में नहीं है तो लड़की की मुक्ति भी उस अकेले जीवन में, उस अकेली यात्रा में नहीं है। इस प्रसंग में, इस संदर्भ में लड़की संयमित है, कम बोलती है। अगर वह बोलती, ज़्यादा बोलती तो कथा टूट भी सकती थी। विश्रृंखलित हो सकती थी। यह कथा परिवार रस में डुबोती है। इस तरह यह कहानी पाठक के मन में भी कोई कलह, तनाव, क्लेश या क्रोध पैदा नहीं करती बल्कि पाठक एक संतुलित दृष्टि से इस टेक्स्ट से बाहर निकलता है। तो यह उस कला की, कृष्णा सोबती के क़लम की, भाषा की खूबसूरती है।



संवाद


माँ और पुत्री के संवाद में नया कुछ भी नहीं है। माँ अपनी बेटी को जानती है, बेटी भी माँ को जानती है। लेकिन उसके बाद भी दो पीढ़ियों के बीच में संवाद है। यह थीम दिलचस्प, मार्मिक और शाश्वत है। इस लंबी कहानी में चरित्र के नाम पर माँ, बेटी और सूसन हैं। वहाँ ऐसा कुछ नहीं हो रहा है जिसे कहा जा सके कि कोई घटना घटित हो रही है। अम्मू बीमार हैं और पट्टियाँ बदली जा रही हैं। उसी से कहानी आगे बढ़ती है। नाटक लिखने वाले जानते हैं कि संवाद लिखना कितना कठिन काम है। तीन पीढ़ियों का संवाद है। नानी को याद करती है। अम्मू स्वयं तो मौजूद है ही और बेटी है। लड़की कम बोलती है। थोड़ा बोलती है और यह भी लगता है कि बेटी और क्या बोलेगी! कितना बोलेगी! वह जीवन में जो कर रही है, जहाँ खड़ी है, उसे माँ से साझा नहीं कर रही है। या तो उसके पास ऐसा कुछ नहीं जिसे माँ को कहा जा सके या तो माँ समझेगी नहीं। लड़की का रीतापन हमारे मन में भी उतरता है और अम्मू की टीस हमारे मन में भी टीस बन कर उभरती है। पर लड़की अपने आप में आप है। मन के अंदर तरह-तरह की चीज़ें चलती हैं। वे तरह-तरह की चीज़ें इस कहानी में चल रही हैं जबकि ‘ऐ लड़की’ कहानी है कोई नाटक नहीं है। यह कहानी की शक्ति है। सत्तर-अस्सी पन्नों की कहानी जिसमें माँ अपने विराट जीवन को साझा कर रही है और सूसन माँ की देखभाल करते हुए कई तरह के काम करती हुई दिखाई दे रही है।


यहाँ बाहर का परिवेश मरीज़ का परिवेश है। डॉक्टर, ऑपरेशन, दवा-पट्टी, इंजेक्शन, ग्लूकोज़, ऑक्सीजन, दवा, नींद की गोली आदि की बात हो रही है। पर अम्मू के भीतर की दुनिया में भरा-पूरा परिवार है। रोज़ काम आने वाली छोटी-छोटी चीज़ों की चर्चा है – फ़र का कोट, मेवेवाला डिब्बा, बादाम गिरी, मुनक्के, इलायची, दालचीनी और गिरियाँ, लिपटन ग्रीन चाय, नींबू, संतरे, अचार, चूर्ण, आम पापड़ा आदि।



टीस


यदि इस लंबी कहानी को हम तीन भाग में बाँटें तो एक भाग बेटी के अकेलेपन की टीस से भरा हुआ है। अम्मू कहती है- आखिर तुम किस को पुकारोगी!


‘यह बताओ, तुम क्यों नीली चिड़िया बनी बैठी हो!’ (‘ऐ लड़की’)


बेटी का भविष्य क्या होगा, उसको ले कर लगातार माँ के अंदर टीस रहती है। लड़की अपनी ख़ामोशी, प्रतीक्षा और आकांक्षाओं को किसके साथ बाँटेगी! अम्मू लड़की के जीवन की निर्जनता को महसूस कर रही है। अम्मू के पास यथार्थ का एक ठोस आधार है – सुलझा और सधा हुआ पुख़्ता आधार – परिवार का आधार। पर एक तरह का अधूरापन, अकेलापन भी है।


लड़की के जीवन में अम्मू परिवार के विघटन, पतन और विनाश को देख रही है और उस पीड़ा से गुजर रही है। अम्मू को ऐसा लगता है कि लड़की एक तरह की निरंतरता खो रही है। अम्मू को लड़की का जीवन अधूरा लगता है, पर इस कहानी का परिवेश विषादमय नहीं है।


गगन गिल



विस्मरण


अम्मू में विस्मरण है। जो जीवन में नहीं मिला, उसका विस्मरण। यहाँ इस प्रसंग में कुछ लेखक और कवि याद आते हैं जिन्होंने अलग-अलग प्रसंग में ‘विस्मरण’ के महत्त्व और मूल्य का उल्लेख अपने गद्य में किया है।


‘गगन गिल’ अपनी पुस्तक 'देह की मुँडेर पर' में एक लेख ‘ऋषिका महादेवी’ में पहले महादेवी वर्मा के एक उद्धरण को 'श्रृंखला की कड़ियाँ' से उद्धृत करती हैं-


“यदि स्त्री अपनी दुरवस्था के कारणों को स्मरण रख सके और पुरुष की स्वार्थपरता को विस्मरण कर सके, तो भावी समाज का स्वप्न सुंदर और सत्य हो सकता है।”


उसके बाद गगन गिल लिखती हैं-


‘पुरुष की स्वार्थपरकता का विस्मरण। दूसरों ने तुम्हारे साथ क्या किया, इसका विस्मरण। ऐसा कोई सुझाव भारत जैसी किसी प्राचीन परंपरा से ही आ सकता था - जहां दलदल है, कभी सूखी, उजली, ठोस धरती।’ (देह की मुँडेर पर : ऋषिका महादेवी)


अलका सरावगी एक अलग प्रसंग में अपने नए उपन्यास 'कुलभूषण का नाम दर्ज कीजिए' में कहती हैं- भूलने का बटन। वहाँ भी विस्मरण है।


मन्नू भंडारी के माँ पर लिखे गए लंबे संस्मरण और आत्मकथ्य ‘एक कहानी यह भी’ माँ-बेटी के मूल्यों, विचारों और दृष्टियों की टकराहटों, परस्पर लगाव और समझ का आख्यान है।


मन्नू भंडारी जब अपनी माँ पर लिखती हैं, स्मृतियों के झीने तारों को छेड़ती हैं, तब वहाँ उनके कन्सर्न, कुछ सरोकार, कुछ चिंताएँ, और चिंतनाएँ नजर आती हैं। वहाँ परंपरा के बंधन का भले ही हौलनाक दृश्य न हो पर डर, तनाव, गुलामी का वह जीवन विचित्र, रोष भरा और दयनीय है।


“विश्वास ही नहीं होता कि बिना नहाए-धोए, एक मिनट को भी कमर सीधी किए बिना, किसी से एक शब्द भी बोले बिना, रात-दिन लंबा घूँघट काढ़े, सीढ़ियों पर बैठ कर एक साढ़े-चौदह-पंद्रह साल की लड़की, पूरे छः महीने गुज़ार सकती है। पर मेरी माँ ने गुज़ारे। कारण मेरी माँ का किसी तरह का कोई गुनाह नहीं, बस, सिर्फ़ दादी का वहम।”


माँ का गृहस्थी की व्यस्तताओं से भरा जीवन। माँ के जीवन से अंतरंग संबंध बनाते हुए लेखिका के भीतर कई जिज्ञासाएँ और प्रश्न खड़े होते हैं, बुआ से पूछती हैं, यह कैसा जीवन जिया! 


“कैसी ज़िन्दगी जी है गेंदी बाई आपने… इतने कष्ट, इतनी तकलीफ़ें!’ इस पर वे बोलीं -‘अरे, तुम्हारी माँ ने जो सहा उसके आगे हमारा क्या सहना? तुम्हें का बताया नहीं माँ ने कि कैसे छः महीने उन्होंने नाल (सीढ़ी) पर बैठ कर काटे थे?’ और तब उन्होंने यह सारा क़िस्सा विस्तार से बताया…इस टिप्पणी के साथ कि मेरा और सीता-मन्नी का बड़ा मन करता कि हम कुछ मदद ही कर दें और कुछ भी तो दो बात ही कर लें पर किसी की...।”


यह एक बातचीत है, वार्तालाप जो एक स्त्री पिछली पीढ़ी से कर रही है। जीवन को जानने-समझने की अपने तईं कोशिश। माँ से संवाद में माँ पर लिखते हुए वह एक स्वतंत्र मेधा वाली स्त्री की तरह अकेली हो जाती हैं। उनको लेकर पीड़ा भी है और पिता और माँ के बीच अनकहे प्रेम का सम्मान भी है।


संस्मरण जटिल नहीं है, इकहरा है पर वहाँ परंपरा के नीति नियम का ऐसा संश्लिष्ट ताना-बाना है, भाव की गहनता, कि रचना भीतर तक जुड़ी मालूम पड़ती है।


माँ में विस्मरण है। पुरुष की स्वार्थपरता का विस्मरण। दूसरों ने उनके साथ क्या किया, उसका विस्मरण। तभी वह अटूट प्रेम खोज पाती है। यह वह प्रेम है जो प्राचीन परंपरा से आता है। माँ ने एक संयमित और व्यवस्थित जीवन जिया। आत्मसंयम और नियंत्रण है। घर-परिवार में गहरे तक धँसी, पति से अपेक्षित प्रतिदान न मिलने के बावजूद दुखी नहीं हैं। किसी को दोष और उलाहना नहीं देतीं। पर माँ कभी भी उनका आदर्श नहीं रहीं। इन सभी बातों को नीचे उद्धृत लंबे उद्धरण के माध्यम से समझा जा सकता है।


“अजमेर लौटते ही मैंने माँ से पूछा- ‘दादी साहब ने आपको छः महीनों तक सीढ़ी पर बिठा कर रखा था और आपने यह बात हम लोगों को कभी बताई तक नहीं।’ माँ मेरा चेहरा ऐसे देखने लगीं जैसे कोई भूली-बिसरी बात याद कर रही हो।”


“भानपुरा में सुन कर आई दिखे या बात। बड़ी पुरानी बात हुई या तो और क्या बताती… बताने जैसा इसमें है ही क्या?”


“पर आप बैठी ही क्यों? क्यों नहीं मना कर दिया आपने कि मैं नहीं बैठ सकती छः महीने के लिए सीढ़ियों पर। ऐसी सज़ा भी कोई दे सकता है भला?’ मेरा ग़ुस्सा फिर भड़क उठा। माँ हँस कर बोली- ‘अरे, जिसने सहा उसे तो कोई ग़ुस्सा नहीं और तू सुन कर ही लाल-पीली हो रही है। तू नी समझेगी… वो ज़माना ही ऐसा था। सासू जी थीं वो मेरी। उन्होंने जो किया वो हक़ था उनका और जो मैंने सहा, फ़र्ज़ था मेरा। और सहा क्या   बस, यों समझो कि फ़र्ज़ पूरा किया अपना।”


“माँ की ज़िन्दगी भी क्या थी... बस, काम और काम। बीस-बाईस आदमियों का खाना वे एक वक़्त में पकाती थीं। सवेरे का खाना उनके गले में पूरी तरह उतरता भी नहीं होगा कि शाम के खाने में जुट जातीं। पिता जी अपने दोनों छोटे भाइयों को भी पढ़ाने के लिए इंदौर ले आए थे... आठ-नौ विद्यार्थियों को भी घर में रख कर पढ़ा रहे थे। उनमें से कुछ तो भानपुरा के ही थे। आने-जाने वाले और मिलने वालों का ताँता तो लगा ही रहता था और जिनमें से कइयों के लिए पिता जी का आग्रह कि खाना यहीं खा कर जाएँगे, सो माँ तो सारा दिन रसोई में ही झुकी रहतीं।”


“आश्चर्य! माँ के मुँह से मैंने दादी के विरुद्ध तो क्या, उनकी शिकायत करते हुए कभी, एक शब्द तक नहीं सुना। जो कुछ उन्होंने सहा-भोगा उसमें दादी की कोई ज़्यादती नहीं… यह तो अपनी क़िस्मत का लेखा-जोखा था जो उन्हें भोगना था। समझ नहीं आता इसे माँ की सहनशीलता कहूँ या दब्बूपन। और यही दब्बूपन उनके व्यक्तित्व का अभिन्न हिस्सा बन गया था, जिसे वे सारी ज़िन्दगी ढोती रहीं। पिता की ज़्यादतियों के ख़िलाफ़ भी कभी एक शब्द तक न बोल सकीं। शायद इसीलिए मैंने कभी लिखा था कि मेरी सारी सहानुभूति हमेशा चाहे माँ की ही तरफ़ रही हो, पर वे मेरा आदर्श कभी नहीं बन सकीं।”


“कभी-कभी सोचती हूँ कि क्या थी उस ज़माने की औरतों की ज़िन्दगी।”


“मैंने देखा कि गर्मी के दिनों में पिता जी सोते तो माँ उन्हें पंखा झलने के लिए बैठतीं। दिन भर के काम से थकी-हारी माँ कभी ऊँघने लगतीं तो पिता जी की नींद उचट जाती और वे भन्ना पड़ते- ‘अरे, पंखा क्यों बन्द कर दिया... देखती नहीं, कैसी गर्मी पड़ रही है।’ आख़िर एक दिन मैं बिगड़ पड़ी- ‘गर्मी क्या केवल आपको सता रही है, माँ को नहीं?’”


“आज माँ पर लिखते हुए समझ ही नहीं आता कि धरती से भी ज़्यादा धैर्य वाली इस माँ को धिक्कारूँ या उसके आगे नतमस्तक होऊँ? नहीं, नतमस्तक तो मैं न तब कभी हुई, न इस ज़िन्दगी में कभी हो सकती हूँ। होती हूँ तो केवल चकित… चकित से भी ज़्यादा शायद दुखी। क्यों सहती रही हैं वे पति की इन ज़्यादतियों को?”  (‘एक कहानी यह भी’)


इस तरह हम यह देखते हैं कि ‘ऐ लड़की’ कई तरह के सन्दर्भ, अर्थ और प्रतिध्वनियों से समृद्ध लंबी कहानी है।


शर्मिला जालान 



सम्पर्क 


ई मेल : sharmilajalan@gmail.com

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