उमाकांत मालवीय का आलेख 'कुम्भ मेलाः एक आहट'

 

उमाकांत मालवीय 



हमारे यहां जन सामान्य के बीच एक कथानक प्रचलित है 'कौआ कान ले गया'। कौवे के पीछे जी छोड़ कर भागने वाले अपना वह कान महसूसने की भी कोशिश नहीं करते जो उनके पास ही होता है। महाकुम्भ के 144 साल बाद के दुर्लभ आयोजन के झूठे नैरेटिव पर जनता इस समय पूरी तरह लहालोट है। माघ बीतने के बाद भी जनता पूरी तरह आस्थामय है। इलाहाबाद भीड़ से लबालब भरा हुआ है। वैसे पढ़े लिखे तमाम हिन्दुओं का भी यह मानना है कि 144 साल का यह सौभाग्य बस उनके जीवन को ही मिला है, तो क्यों न इसका फायदा उठा लिया जाए। हालांकि शंकराचार्य तक नहीं जानते कि 144 साल वाली बात कहाँ से आई। बहरहाल अफवाह होने के बावजूद 144 साल वाली यह बात अनाड़ी से ले कर विद्वान तक अधिकृत तरीके से कह रहा है। अब बात चूंकि आस्था और धर्म की है तो सवाल उठाने वाले विधर्मी ही नजर आते हैं।  144 वर्ष बाद महाकुम्भ के विरल संयोग का जो मिथ रचा गया है, वह पिछले कई कुम्भ मेलों में कई बार दोहराया जा चुका है। आगे भी निश्चित रूप से दोहराया जाता रहेगा। किसे फुरसत है कोई भी तहकीकात करने की, अमृत बटोर लेने की बात जो है। लेकिन कम से कम दो महाकुम्भ के बारे में हमें कुछ इसी तरह के 144 साल के दावे वाले साक्ष्य मिले हैं, जिन्हें बीते अभी बमुश्किल 100 साल भी नहीं हुए। 

पहला प्रमाण 1977 के महाकुम्भ के बारे में मिला है। उमाकांत मालवीय 1977 के महाकुम्भ के बारे में अपना आलेख 'कुंभ मेलाः एक आहट' (जो तब धर्मयुग में प्रकाशित हुआ था।) लिखते हुए शुरुआत ही इन पंक्तियों से करते हैं :

"कहा जाता है, लगभग एक सौ चौवालीस वर्षों के उपरान्त ग्रहों का इतना अच्छा सुयोग इस वर्ष कुंभ में जुड़ रहा है।" उमाकांत जी का यह आलेख उनकी किताब 'गंगा : एक अविराम संकीर्तन' में भी पढ़ा जा सकता है।

दूसरा प्रमाण उत्तर प्रदेश सरकार के सूचना प्रसारण विभाग द्वारा 2019 में अर्द्ध कुम्भ पर निकली गई पुस्तिका है  जिसमें 2013 के कुम्भ के बारे में यह बताया गया है कि यह कुम्भ 147 वर्ष के दुर्लभ संयोग के बाद हो रहा है। इस पुस्तिका में विस्तार से यह बताया गया है :

आयोजन स्थल के अलावा कुम्भ में स्नान की तिथियों तथा बाकी चीजों के निर्धारण में ज्योतिष और खगोलीय घटनाक्रमों का महत्वपूर्ण योगदान होता है। साल 2013 में प्रयाग कुम्भ के दौरान साधु-संत और करोड़ों आस्थावान श्रद्धालु एक ऐसी घड़ी के साक्षी बने, जिसका ग्रह संयोग 147 वर्ष बाद बन रहा था। इस बार यह दुर्लभ संयोग 9 फरवरी दोपहर 2.28 बजे से 10 फरवरी को दोपहर 12.47 बजे के बीच देखा गया, जब सूर्य, चंद्रमा और बृहस्पति एक साथ थे। इससे पहले 1865 में प्रयाग में ही अर्द्ध कुम्भ के दौरान ऐसा संयोग बना था, जब शनि और राहु का तुला राशि में प्रवेश हुआ था। लाजिमी तौर पर इस अवसर पर मौजूद लोग खुद को भाग्यशाली ही मान रहे थे। यह ऐतिहासिक पल उन्हें अपने ईश्वर के और करीब ले गया था।

महाकुम्भ 2013 में मेला क्षेत्र लगभग 58 वर्ग किलोमीटर तक फैला था। हर बार कुम्भ में श्रद्धालुओं की संख्या बढ़ती जा रही है। इसे देखते हुए राज्य सरकार ने मेला क्षेत्र का फैलाव बढ़ाने के साथ-साथ बाकी चीजों, सुविधाओं और व्यवस्थाओं में इजाफा किया था। बीते बारह वर्षों में कुम्भ में अस्थाई सड़कों की लंबाई 90 किमी से 150 किलोमीटर से अधिक जा पहुंची और मेला क्षेत्र का क्षेत्रफल 15 हजार से बढ़कर 20 हजार हेक्टेयर को पार कर चुका था। 15 लाख से ज्यादा साधु-संत और करीब सात करोड़ से अधिक भक्तों की उपस्थिति के साथ 55 दिनों तक प्रयाग की छवि एक ऐसे अस्थाई नगर के रूप में हमेशा के लिए याद रह जाती है, जो दिन-रात ना जाने किस अलौकिक शक्ति के सहारे अध्यात्म की डोर थामे बस जगमगाता रहता है, आत्मा को पावन और शुद्ध करता रहता है। एक आस भी मन में जगा देता है कि जीवन में सभी को कम से कम एक बार कुम्भ का अनुभव जरूर करना चाहिए।

संगम नहाना ही है तो किल्लत और जिल्लत झेलने की क्या जरूरत? भगदड़ में शव हो जाने की क्या जरूरत? भीड़ को अतीत हो जाने दीजिए। फिर कभी इत्मीनान से इलाहाबाद आ कर नहा जाइए। आज पहली बार पर महाकुम्भ विशेष के अन्तर्गत हम प्रस्तुत कर रहे हैं उमाकान्त मालवीय का आलेख 'कुंभ मेलाः एक आहट'। प्रस्तुति यश मालवीय की है।






महाकुम्भ विशेष : 17


'कुम्भ मेलाः एक आहट'


उमाकांत मालवीय


कहा जाता है, लगभग एक सौ चौवालीस वर्षों के उपरान्त ग्रहों का इतना अच्छा सुयोग इस वर्ष कुंभ में जुड़ रहा है। मेरे सामने विगत कुम्भ के दृश्य चलचित्र की भाँति तैर जाते हैं। गंगा तोरी लहिर हमारे मन भाई' समवेत गान की स्वर लहरी के साथ एक काफिला, नैनी की ओर से शहर की ओर जमुना पुल के ऊपर से हो कर आगे बढ़ रहा है। मेरे देखने की एक सीमा है। कितना देखूं ? कहां तक देखूं? कब तक देखूं? हर ओर से एक सीमाहीन जनप्रवाह, एक अनंत सिलसिला है। फाफामऊ की ओर से कर्जन पुल पर एक और अछोर कारवां है, जो शहर में बराबर दाखिल होता जा रहा है। नगर में प्रवेश करने वाले हर पथ पर टैक्सी, बस, रेलगाड़ी, बैलगाड़ी, साइकिल, पैदल, गरज यह कि चारों ओर से लोग आँखों में त्रिवेणी दर्शन के स्वप्न संजोये बढ़ते जा रहे हैं। इंद्रधनुषी रंगों में आधा-तीहा सजा देश का संशय मेले के उत्साह में किलकारियां भरता आ रहा है। मयूरपंखी परिवेश में बनी-ठनी देश की सुंदरता ठिठोली-हंसी करती शहर में प्रवेश कर रही है। तितली के रंगा-रंग पंखों वाली एक फुलवारी, जैसे पवन हिंडोला झूलती मेले में रंग भरने के लिए बराबर गतिमान है। सभी मूर्तिमान गंगास्तवन से लग रहे है।


रिक्शे वाले अपनी कमाई के चक्कर में हैं। मल्लाह अपनी गौं बैठा रहे हैं। तीर्थ पुरोहितों को चांदी है। दुकानदार अपनी घात में हैं। सबके अपने छोटे-छोटे स्वार्थ हैं। वे उन्हें साधने का जुगाड़ बैठा रहे हैं।


स्थानीय और बाहरी तीर्थयात्रियों में स्पष्ट अंतर है। बाहरी स्नानार्थी, विशेषकर महिलाएं भजन-कीर्तन करती जा रही हैं और स्थानीय महिला स्नानार्थियों की वार्ता के विषय सामान्यतः परनिदा प्रपंच है, किसकी बहू की किसने आशनाई चल रही है। किसकी बिटिया के लच्छन अच्छे नहीं हैं। किसके यहां तवे पर क्या सिका है आदि-आदि।





मैं बांध पर खड़ा हूं। बांध के ठीक नीचे बड़े हनुमान जी की विशाल प्रतिमा चित पड़ी हुई है। श्रद्धालु भक्तों का एक तांता लगा हुजा है। ज्वार का मारा जन-समुद्र बांध के नीचे समुद्र - आलोड़न विलोड़न रत हैं। मैं उन प्रणम्य विद्वानों को सविनय साग्रह आमंत्रित करता हूं जो राम और कृष्ण की ऐतिहासिकता पर प्रश्न चिन्ह उठाते हैं। वे आएं और स्वयं इन लोगों के बीच देखें कि उनसे और मुझसे अधिक सार्थक रूप में राम और कृष्ण इन लक्षावधि लोगों में जीवित हैं। इतिहास हैरान है कि कब इनका वृत्त समाप्त हो और वह इनका खाता बन्द करे। लेकिन खाता वह बेचारा क्या बंद करेगा। इनका वृत्त तो कहीं चुकता नहीं और इनके यहाँ इतिहास ने स्वयं अपना उधार खाता खोल रखा है। राम और कृष्ण इतिहास के मुखापेक्षी नहीं हैं। वरन इतिहास उनका मुखापेक्षी है। हम अपने परिचय की परिधि में आज अधिक-से-अधिक हजार-दो-हजार लोगों के बीच लिए जीवन्त स्पन्दित है। वे हजार-हजार साल पहले भी इन लोगों के बीच जीवित थे, आज भी हैं, और हजार-हजार वर्ष बाद भी जीवित रहेंगे। हमारा क्या, जगदीश चंद्र जी के शब्दों में, हमारी मृत्यु के बाद हमें उसी तरह भुला दिया जायेगा जैसे सुबह का अखबार शाम को बेकार हो जाता है। इतिहास हमारा कोई अता-पता नहीं दे पायेगा।



अनेकानेक आश्रमों में भक्तजन प्रवचन सुनने में मगन हैं। अमुक नाम पंडा, तीन लोटे का झंडा' अनेक निशान हवा में फहर रहे हैं। घाट पर  'उसने कहा था' गुलेरी की कहानी की भाँति, हट जा पुत्ता प्यारिये, हट जा जीणे जोगिये, नहीं बरन आओ जजमान एही घाट है। ऐसे आओ अन्न' के समवेत स्वर न केवल पार्टियों से बरन मल्लाहों से भी सुनने को मिलते हैं। बहुधा न सुनने पर यजमान पर अवाजा-तवाजा भी कस दिया जाता है। उस गाजी-गलौज की भाषा को स्थानीय जन मल्लाही कहते हैं। कल्पवासियों की नन्हीं-नन्ही, किन्तु आकर्षक सादी कुटियों की देख कर मन सहज ही वहाँ रम जाता है।


अभी-अभी ध्वनि विस्तारक यंत्र पर किसी बच्चे के खो जाने की खबर उसकी हुलिया के साथ प्रसारित की जा रही है। मेरी मजबूरी यह है कि मैंने जो खोया है उसकी रपट कहाँ करूं? और जो पाया है उसे कहाँ जमा करूं? इधर कंडे की धीमी धीमी आंच में हथपोयी लिट्टर सेंके जा रहे हैं। लिट्टर और आलू का भरता, जिस किसी ने इसे कभी चखा हो उसके मुंह में अनायास ही पानी आ जायेगा।


तीर्थयात्रियों की करुणा को खटखटाने के लिए भिखारियों ने नकली दयनीयता की दुकान लगा रखी है। इनकी अपनी अलग दुकानदारी है।


पड़ोस में सम्राट अशोक द्वारा निर्मित दुर्ग, जिसे कालांतर में अकबर ने पूरा कराया, एक जीता-जागता इतिहास अपने सीने में संजोये धड़क रहा है। इसी किले में अक्षयवट है, प्रलय काल में जनार्णव की स्थिति में जब केवल मार्कण्डेय मुनि बच रहे थे, भगवान ने बालमुकुंद का रूप धारण कर इसी अक्षयवट के एक पत्ते पर पांव का अंगूठा चूसते हुए महामुनि को दर्शन दिया था। इसी दुर्ग में अशोक की वह लाट है. जो संसार को सत्य, अहिसा और प्रेम का सन्देश दे रही है। यहाँ सम्राट हर्ष भी सब कुछ दे कर भिक्षु हो जाता था और बहन राजश्री के समक्ष याचक के रुप में प्रस्तुत होता था। कहा जाता है कि रीवा नरेश महाराज व्यंकट रमण सिंह जी ने इस किले पर अधिकार करने की योजना बना ली थी, ताकि यहीं से फिरंगियों के विरुद्ध विद्रोह का संचालन किया जा सके। वह योजना किसी अपरिहार्य विवशतावश पड़ी रह गयी थी।





गंगा के उस पार एक ओर झूँसी और दूसरी ओर यमुना की तरफ थोड़ा हट कर अरैल है। झूँसी चंद्रमा के पौत्र पुरूरवा और देवप्रिया उर्वशी की प्रणय लीला-भूमि प्रतिष्ठानपुर है। इसी झूँसी ने भारत को बीरबल जैसा जिन्दादिल व्यक्तित्व प्रदान किया है। यही भागवती कथा के अमर गायक श्रद्धेय प्रभुदत ब्रह्मचारी जी का आश्रम है। अरैल की ओर संत सच्चा बाबा का सच्चा आश्रम है। देश के कोने-कोने से आने वाले अध्यात्म पिपासुओं की तृषा को यह आश्रय तृप्ति देता है।


यह संगम है। भक्त जनों के स्वप्न का संगम। यहां शांतनु प्रिया गंगा की धावलिमा को सूर्यसुता यमुना की नीलिमा निवेदित होती है। इस त्रिवेणी में सरस्वती गुप्त हो गयी है। स्वयं के संपूर्ण अस्तित्व के पूर्ण विसर्जन का एक अपूर्व उदाहरण! यह मात्र संयोग नहीं है कि यहां साहित्य की त्रिवेणी भी प्रवह‌मान है। महादेवी और पंत की गंगा-यमुना में निराला गुप्त हो गये हैं। छायावादी वृहत्रयी में वसंत पंचमी को प्रादुर्भूत निराला बाणभट्ट की भांति सरस्वती के पुरुषावतार ही तो हैं।


लगता ही नहीं, यह वही गंगा है, जिसे गोमुख गंगोत्री में क्रमशः पलना में, विकइयाँ चलते, अरबरा कर गोड़ी काढ़ते देखा था। वरणावत् की परिक्रमा कर, जो अभी-अभी कल उत्तर काशी से टिहरी गढ़वाल तक बालों में फेनदार लहरों के उजले स्कार्फ बाँधे, एक नन्हीं बिटिया की तरह हाथों की उंगली थामे थिरकती हुई डोल रही थी किनारे से लहराती गंगा के ऊपर पुल की छवि देखते बनती है, डॉ० जगदीश गुप्त के शब्दों में कहा जाये तो 'मुक्त कुंतला गंगा की वेणी पर पुल सिदूरी कंधे की तरह कसा हुआ है। विश्वास नहीं होता कि यह वही गंगा है, जो जुलाई के महीने में पाटलीपुत्र में सैलाब की मारी थी। गंगा में बरसाती मटमैला जल धूप में सुनहला हो गया था। स्टीमर से उठती ऊँची-ऊँची लहरों पर लहराता बतलाता काला 'धुओं' लगता था किसी स्वर्णिम वैहयष्टि की मांसल नायिका की पीठ पर घुंघराले कुंतल लहरा रहे हैं।'


स्नान के मुख्यतः चार पर्व है। मकर संक्रांति खिचड़ी, यही वह तिथि है। जिसके लिए भीष्म प्रतीक्षातुर थे। क्योंकि इसी तिथि से सूर्य को उत्तरायण होना था अमावस्या, वसंत पंचमी हिन्दी काव्य-मन्वंतर के मनु निराला की वर्षगांठ और पूर्णिमा।





गंगा में गोता लेने वालों का यह एक अंतहीन सिप्त्तसिला है। गाँठ जोड़ कर पूजन को प्रस्तुत यह नवविवाहित जोड़ा है। किसी की मन्नत पूरी हो गयी है। वह गंगा को चूनरी और निशान पताका भेंट करने आया है। आपसे मिलिए बछिया की पूंछ पकड़े गऊदान को प्रस्तुत हैं। इसी बछिया की पूंछ पकड़ कर बैतरणी पार कर लेने की आपने अग्रिम व्यवस्था कर ली है। कोई संगम क्षेत्र में क्षौर कर्म करवा रहा है अमुक भाई ने यहाँ गोभी न खाने का संकल्प किया है। गोभी आपको बहुत प्रिय है। इस प्रकार प्रतीक रूप में ही कुछ-न-कुछ यहाँ-त्यागने की रीति है। यह वृद्धा शीत से कांप रही है। यद्यपि कंपित स्वर में गंगास्तोत्र का पाठ भी करती जा रही है। किसी भक्त ने गंगा को दूध निवेदित किया है, गंगा की वर्तुल लहरों पर दूध उतरा आया है। लगता है वत्सला को देवव्रत की सुधि हो आयी है और उसकी छातियों में दूध उतर आया है। यहीं कहीं हारा-थका जयंत किसी लहर को सिरहाने रख कर सो गया है।


ऐसी ही किसी सद्यस्नाता के भीगे हुए वस्त्रों से फूटती अंगों की पारदर्शी छवि को देख कर कदाचित् महाकवि बाणभट्ट ने कहा था. 'अक्षोद सरोबर से सद्यस्नाता महाश्वेता की छवि ऐसी लग रही है मानो श्वेत गंगा में दो हंस शावक चंचु उठाये अग्रसर होने को उद्यत हैं।' लोगों की आँखों में आदिम लालसा के रतनार रेशे तिर आये थे। किसी ने मेरी आँखों में भी वही रेशे उभरते न देखे होंगे, क्या भरोसा है।


सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी भाई परमानंद जी ने अपने संस्मरण में बतलाया है कि अंदमान स्थित सेलुलर जेल में वीर सावरकर से जब उनकी भेंट हुई, तो सावरकर ने सर्वप्रथम उनसे यही प्रश्न पूछा, 'गंगा-स्नान करते हो ?' परमानन्द जी युवा आक्रोश प्रेरित अनास्थावादी थे, उन्हें यह प्रश्न बड़ा अजब लगा, उन्होंने साश्चर्य कहा, 'नहीं तो'। सावरकर जी ने कहा, 'गंगा मात्र नदी नहीं है, देश के कोने-कोने से लोग गंगा में अस्थि विसर्जन के लिए आते हैं। यह क्रम गत हजारों वर्षों से अनवरत चल रहा है। गंगा में एक डुबकी लगाने का अर्थ होता है, अपने देश की हजार-हजार साल पुरानी परम्परा से अपने पुरखों में तादात्म स्थापित करना।' और परमानन्द जी ने जेल से छूटने के बाद, जो सबसे पहला काम किया, वह था गंगा में डुबकी लगाना।


यों गंगा को अनेक बार अनेक मुद्राओं में गोमुख से गंगासागर तक देखा है। लेकिन इतनी बड़ी संख्या में भक्तों से घिरी गंगा को पहली बार देखा। नाना प्रकार के लोगों से नाना प्रकार पूजिता गंगा-दर्शन का एक ऐसा अनुभव, एक अनूठी अनुभूति, एक ऐसी प्रतीति जो अनिर्वचनीय हो गयी है।





दिगंबर नागा साधुओं की शोभा यात्रा अपनी पूरी सजधज के साथ निकलती है। विकारहीन इन नागाओं का समाज भिन्न-भिन्न प्रकार के आवरणों को एक चुनौती देता-सा लगता है, स्नानाथियों के चेहरों पर पिछली कुंभ दुर्घटना के त्रासद आतंक की आहट स्पष्टतः परिलक्षित होती है। उनके बाद फिर निरंजनी निर्मल अखाड़े के संतों की शोभा यात्रा देखते बनती है। उनका रणसिंगा बजता है, दिशा-दिशा जैसे एक रोर में मरोर उठती है। हाथी पर अखाड़े के महंत सोने-चांदी के हौदे में विराजमान हैं। उन पर छाया देता छत्र सूर्य की किरणों से चमचमा रहा है। दो भृत्य चंवर डुला रहे हैं। इस दूसरे अखाड़े में बड़े महंत की सवारी स्वर्णिम पालकी पर निकल रही है। कदाचित यह इनका राजयोग चल रहा है।


यह पश्चिमी अध्यात्म पिपासुओं का दल, भक्त वेदांत जी द्वारा प्रवर्तित 'हरे राम हरे कृष्ण' संप्रदाय में दीक्षित लोगों का दल कीर्तन करता चला आ रहा है। गौर वर्ण, मुंडित सिर, गैरिक वसन किये साधक और गैरिक वसना गौर वर्णा साधुनीः के चेहरों पर कौतूहल उभरता है और उभर कर फैल जाता है।





भिन्न-भिन्न खेमों में नाना प्रकार के प्रवचन चल रहे हैं। विशाल हिन्दू समाज के विभिन्न धार्मिक संप्रदायों के अपने अलग-अलग शिविर हैं। आर्य समाज का अपना एक अलग-थलग स्वर है। 'ख्रिस्ती समाज के लोग भी अपनी नन्ही-नन्हीं पुस्तिकाओं का वितरण एवं धर्म प्रचार कर रहे हैं। परस्पर मतों का खंडन-मंडन भी चल रहा है। विरोध को न केवल सहने बरन आदर देने की उदार परम्परा का यह एक जीता-जागता साक्ष्य है। प्रतिदिन अखबार में नाम छपवाने के लोभी जन स्वयंसेवी संगठनों का बिल्ला लगाये व्यस्त दिखने का अभिनय कर रहे हैं। स्काउट, बालचर संस्था के स्वयं सेवक अपनी अपनी जगह मुस्तैदी से जमे हैं, सरकारी प्रचार-प्रसार के अनेक शिविर भी कार्यरत हैं। आत्म प्रचार के लोभी जनों की चर्चा जब मैं कर रहा हूँ। तो इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि कहीं कोई निष्ठावान स्वयंसेवी दल है ही नहीं, तात्कालिक राजनीति के अखाड़ों के महंतों के अपने अलग-अलग दांव-पेंच भी चल रहे हैं।


रात्रि का उत्तरार्ध, अथर्ववेद संहिता के कुलपति के स्नेहिल उदात्त आह्वान, अमृतपुत्रो? उठो, तिमिर का छत्ता टूट रहा है। प्रकाश-मधु स्रवित होने को है, पान करने के लिए उठो की वत्सल आहट अभी भी वातावरण में है। पर इन कोटि-कोटि जनों को कौन पुकारता है? इन्हें कौन टेरता है? इन्हें कौन जगाता है? शायद ये सोते ही नहीं, वे जो गंगा की एक झलक पाने को बेचैन हैं। उन्हें चैन कहाँ, उन्हें नींद कैसी? और स्नानार्थियों का एक तांता अपनी गंगा की ओर चल पड़ा है।





शिशिर का यह बित्ता भर का दिन, अभी-अभी उगा था, अभी अभी डूब चला। अभी ही तो बह्मवेला में तिमिर-सिंधु के मंथन के परिणाम स्वरुप, कोई धनवंतरि रवि का अमृतघट लिये हुए गंगा के गर्भ से प्राची क्षितिज पर उभरा था. 'तमसोऽमा ज्योतिर्गमय' प्रार्थना की अनुगूंज पूरी तरह अस्त भी नहीं हो पायी थी कि सूर्य तरुण संन्यासी-सा प्रतीची क्षितिज पर रक्त-काषाय छोड़ कर अस्ताचल के श्याम सरोवर में उतर गया। आकाश अपना छिन छिन बदलता रूप-रंग गंगा के दर्पण में निहार रहा था। सृष्टि जननी दिन भर सूर्य का दिया बाले उसके ऊपर आकाश का परवा औंधा कर काजल पार रही थी। पारा गया काजल अभी वह सहेज भी नहीं पायी थी कि एकत्र काजल धरती पर आ गिरा और संसार में अंधेरा उतर आया।


संपूर्ण मेला क्षेत्र एक नये जीवंत नगर की तरह नये जीवन से स्पंदित हो रहा है। दिन का कोलाहल थक कर कहीं सुस्ता रहा है। अपेक्षाकृत शांत वातावरण में भजन और उपदेशों के अमृत-स्वर कान से हो कर मन प्राण में उतरने लगे हैं। यत्र तत्र सैकड़ों हजारों कुमकुमे टिमटिमा रहे हैं। घटाटोप अमावस्या की निविड़ अंधेरी रात में एक दीवाली मुस्कराने लगी है। गंगा के शांत थिर जल में अनेकानेक आलोक-सुतु उभर आये हैं। और यह, जो लगा सो भगा, कुंभ कुंभ कुंभ और यह कुंभ भी बीत चला। आया था मंथर गति से और गया क्षिप्र गति से। कुंभ तो बीत चला, पर रह गयी तो केवल कुंभ की याद की एक महक - व्यतीत होना जिसके स्वभाव में नहीं है। कुंभ गया है आने के लिए, वह फिर आएगा क्योंकि मुझे अपने आग्रह पर भरोसा है। और यह लो वह आ भी गया?



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