प्रियंका यादव की कविताएं

  

प्रियंका यादव



जद्दोजहद यानी संघर्ष किसी के भी जीवन में हो, अपना एक खास मायने रखता है। यह हमें बहुत कुछ सिखाता और बताता है। इन दिनों में ही हम अपनों की परख कर पाते हैं। लेकिन जब जद्दोजहद का अंतहीन सिलसिला हो, तब यह बात अलग हो जाती है। दुर्भाग्यवश आज भी हमारे समाज में रंग, नस्ल, लिंग आदि ऐसे कारक हैं जिनके आधार पर भेदभाव किया जाता है। पीड़ित पक्ष का उत्पीड़न खत्म होने का नाम ही नहीं लेता। लेकिन बात जब स्त्रियों की हो, तब इस उत्पीड़न के मायने कुछ और भी तीखे हो जाते हैं। पितृसत्तात्मक समाज का ढांचा ही कुछ इस तरह का निर्मित किया गया है कि स्त्रियां हर मोर्चे पर दोहरा संघर्ष करते नजर आती हैं। कवियों की जो नई पीढ़ी है उसमें अच्छी खासी तादाद स्त्रियों की है जो इस उत्पीड़न को अपने तेवर के साथ न केवल दर्ज कराती हैं बल्कि उसके माध्यम से अपना सशक्त विरोध भी व्यक्त करती हैं। 'वाचन पुनर्वाचन' कॉलम के अन्तर्गत इस माह जिस कवयित्री को रेखांकित किया गया है वह वह हैं छत्तीसगढ़ की प्रियंका यादव। प्रियंका की कविताएं देखन में भले ही छोटी हों, घाव गम्भीर करती हैं। नासिर अहमद सिकन्दर ने उचित ही लिखा है कि प्रियंका की कविताएं निज पारिवारिक-सामाजिक संदर्भो से उपजी स्त्री-संवेदना की मुखर कविताएं हैं। इस बात में कोई सन्देह नहीं कि प्रियंका एक सशक्त कवयित्री हैं।

'वाचन पुनर्वाचन' शृंखला की पांचवी कड़ी में नासिर अहमद सिकन्दर ने छत्तीसगढ़ की कवयित्री प्रियंका यादव की कविताओं को रेखांकित किया है। इस कड़ी में हम प्रज्वल चतुर्वेदी,  पूजा कुमारी, सबिता एकांशी और केतन यादव की कविताएं पहले ही प्रस्तुत कर चुके हैं। 'वाचन पुनर्वाचन' शृंखला के संयोजक हैं प्रदीप्त प्रीत। कवि बसन्त त्रिपाठी की इस शृंखला को प्रस्तुत करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका है। कवि नासिर अहमद सिकन्दर ने इन कवियों को रेखांकित करने का गुरुत्तर दायित्व संभाल रखा है। तो आइए इस कड़ी में पहली बार पर हम पढ़ते हैं प्रियंका यादव की कविताओं पर नासिर अहमद सिकन्दर की टिप्पणी और कवि प्रियंका यादव की कविताएं। 



प्रियंका यादव की कविताएं : पारिवारिक-सामाजिक चिंता के भीतर स्त्री-संवेदना का मुखरित स्वर


नासिर अहमद सिकन्दर 

           

पहली बार के 'वाचन पुनर्वाचन' स्तम्भ के अंतर्गत अभी तक मैंने इलाहाबाद के युवतम कवियों की कविताओं पर अपनी टिप्पणी की। स्तम्भ के आगामी अंक में छत्तीसगढ़ के कुछ युवतम कवियों को प्रस्तुत किया जाएगा। आज की कड़ी में प्रियंका यादव की कविताएं और उन पर टिप्पणी प्रस्तुत है। 


पिछले फरवरी माह में शासकीय विश्वनाथ यादव तामस्कर स्नातकोत्तर स्वशासी महाविद्यालय दुर्ग के हिंदी विभाग द्वारा कविता की कार्यशाला का आयोजन किया गया था, जहां मैंने विभिन्न महाविद्यालयों से शामिल हुए लगभग 30 प्रतिभागियों की कविताओं पर अपनी टिप्पणी की थीं। टिप्पणी के साथ ही मैंने उनके समक्ष समकालीन हिंदी कविता की संरचना पर व्याख्यान भी दिया था। इस कार्यशाला में आयोजक की भूमिका में हिंदी विभाग के विभागाध्यक्ष अभिषेक सुराना, कविता एवं कहानी के प्रसिद्ध आलोचक जयप्रकाश और सहा. प्रा. रजनीश उमरे शामिल थे। टिप्पणियों एवं व्याख्यान में गुरबीर सिंह भाटिया, सियाराम शर्मा, शरद कोकास, विद्या गुप्ता तथा पीयूष शामिल थे। इस कार्यशाला में शामिल चार-पांच कवियों की कविताओं में कथ्य और काव्य कला इतनी मुकम्मल थी कि उन कवियों से, मैंने दस-दस कविताएं ले लीं। यह संयोग था कि इस काव्य कार्यशाला के अगले दिन ही इस स्तम्भ की पहली कड़ी इलाहाबाद के कवि प्रज्जवल चतुर्वेदी की कविताओं पर प्रकाशित हुई थी।


प्रियंका यादव उस कार्यशाला में कुछ ऐसी कविताएं ले कर उपस्थित हुईं कि अन्य प्रतिभागियों को सुन कर लगा कि प्रियंका की कविताएं श्रेष्ठ हैं। प्रियंका की कविताएं निज पारिवारिक-सामाजिक संदर्भो से उपजी स्त्री-संवेदना की ऐसी मुखर कविताएं हैं, जहां वे स्त्री के स्वप्न के टूटने, स्त्री के सामाजिक बंधनों, स्त्री की आजादी की परिकल्पना, स्त्री की अपनी सामाजिक भूमिका को लेकर छटपटाहट, स्त्री मुक्ति का संघर्ष, स्त्री-पुरूष की समानता, जैसी कई-कई स्थितियों को सहज रूप में दर्ज करती हैं।


प्रियंका की कविता ‘डायरी’, ‘बिना हथियार हत्याकांड’, ‘दहलीज’,  ‘औरत’, ‘बहरापन’, चिट्ठी’, ‘संस्कार’, जैसी कविताएं इन्हीं भावात्मक मूल्यों की कविताएं हैं। अपनी प्रेम भावनाओं की छटपटाहट वे ‘डायरी’ कविता में व्यक्त करती हैं-


“कितने ही पन्ने

टुकड़े-टुकड़े कर 

अलग कर दिए 

डायरी से


वे सारे 

मेरी छटपटाहट के गवाह थे”

          

(डायरी)


‘बिना हथियार हत्याकांड’ शीर्षक कविता तो स्त्री की परवरिश से शुरू हुई, उसके व्यक्तित्व के सामाजिक संदर्भों में लिखी गई है। ये कविता स्त्री की बचपन की मासूमियत, उसकी हंसी, सुकून, नींद, मन, आंखों का पानी, ये सब बिना किसी हथियार के पितृसत्ता द्वारा स्त्री की सामाजिक भूमिका में उसके स्वत्व एवं स्वाभिमान को समाप्त करने की कोशिशों को उजागर करती हुई श्रेष्ठ कविता है, जिसमें कवयित्री उल्लेखित करती है कि -


“इस तरह

बिना किसी हथियार के

सब ने मिल कर

थोड़ा-थोड़ा कर के

सबने उसकी हत्या की।”

          

(बिना हथियार हत्याकांड)


समकालीन हिंदी कविता के स्वर में स्त्री मुक्ति और अस्तित्व को लेकर अनगिन कविताएं लिखी गई हैं। प्रियंका की ‘दहलीज’ शीर्षक कविता नए बिंबों में व्यक्त हुई ऐसी कविता है जहां स्त्री की सारी इच्छाएं और सारी आकांक्षाएँ रसोई के भीतर ‘कूकर की सीटी’ बजने के बिंब पर खत्म होती है। यह हिंदी की समकालीन कविता के भीतर स्त्री विषयक कविताओं का एक नया बिंब है। इसी तरह ‘चिट्ठी’ शीर्षक कविता में स्त्री को एक ‘चिट्ठी’ के रूप में बिंबित करना तथा उसके ‘‘सुख-दुख, प्रेम-वेदना, आशा-निराशा’’ को बिंबों के माध्यम से प्रदर्शित करना समकालीन कविता के नये परिप्रेक्ष्य को ही उद्घाटित करता है। 


‘संस्कार’ शीर्षक कविता में भी यही बिंबधर्मिता की कला ‘नाव और लड़की’ को समान रूप में देखती है। यहां ‘नाव’ नदी के लहरों के संस्कार में डूबती है तो ‘लड़की’ सामाजिक-पारिवारिक संस्कार में अपना अस्तित्व खोती है।


प्रियंका यादव छोटी कविताओं की तथा सहज शिल्प की कवयित्री हैं। यहां प्रस्तुत उनकी कविताओं में से सबसे छोटी कविता ‘औरत’ शीर्षक से है। उनकी यह छोटी कविता जो अपने शिल्प में ‘शीर्षक’ से ही कथ्य को संप्रेषित करना प्रारंभ करती है। अर्थात यदि पाठक ने ‘काव्य-शीर्षक’ को केन्द्र में नहीं रखा तो वह कविता के कथ्य की संप्रेषणीयता से वंचित हो जाएगा। इन स्त्री विषयक छोटी कविताओं में समकालीन कवियों की वह कला भी शामिल है जहां वाक्यों की कला के माध्यम से, उसी वाक्य को दोहराकर तथा बिंब बना कर कथ्य को संप्रेषित किया जाता है। जैसे केदार नाथ सिंह की ‘हाथ’ शीर्षक कविता, रघुवीर सहाय की ‘पढ़िए गीता’, उदय प्रकाश की ‘मरना’, देवी प्रसाद मिश्र की ‘प्रार्थना के शिल्प में नहीं’ तथा कुमार अंबुज की ‘गुफा’ नामक कविता।


प्रियंका की कविता ‘जद्दोजहद जारी है’, विगत दस वर्षों की राजनीतिक व्यवस्था से संघर्ष की कविता भी है। उनकी यह कविता स्त्री-संवेदना की कविताओं से इतर ऐसी कविता भी है जो उन्हें कविता के भीतर राजनैतिक संस्कारों के साथ विचारों के आकलन में विद्रोही होना भी सिखलाती है। यह समकालीन कविता के कथ्य और उसकी पक्षधरता-प्रतिबद्धता का भी प्रमाण है। ‘नमक स्वास्थ्यानुसार’ कविता भी इसी पृष्ठभूमि की कविता है-


“सामने बलशाली है

खैर


जद्दोजहद जारी है”          

(जद्दोजहद जारी है)



“राजनीति में सच उतना होता है

जितना नमक में आयोडीन”       

(नमक स्वास्थ्यानुसार)


कुल मिला कर यह कहा जा सकता है कि प्रियंका यादव यदि नियमित रूप से रचनाशील रहीं तो छत्तीसगढ़ की हिंदी कविता की युवतम पीढ़ी में एक महत्वपूर्ण कवि के रूप में अपनी पहचान बनाएंगी एवं समकालीन काव्य परिदृश्य में जानी जाएंगीं। 


नासिर अहमद सिकन्दर 

सम्पर्क 

नासिर अहमद सिकंदर

मोगरा 76, ‘बी’ ब्लाक, तालपुरी

भिलाईनगर, जिला-दुर्ग छ.ग.

490006

मो.नं. 98274-89585






प्रियंका यादव की कविताएं



जद्दोजहद जारी है


लड़ी जा रही लड़ाई अंतहीन

जकड़े हैं हम

नाउम्मीदी, नफरत, कुंठा, भ्रम में…..


समय कम है

सांसे फूली हुई


जिंदा रहने की लिए 

सीमा छूने की जद्दोजहद जारी है ...


उस रेखा को छूने भर से 

उम्मीद, प्रेम, सरलता …

फिर से जीवंत हो उठेंगे


पर लग रहा है

जैसे इस पारी में 

सामने बलशाली है 


खैर

जद्दोजहद जारी है।



डायरी


कितने ही पन्ने 

टुकड़े-टुकड़े कर 

अलग कर दिए 

डायरी से


वे सारे 

मेरी छटपटाहट के गवाह थे 


जिसके निशान 

मौजूद हैं 

आज भी कहीं…



बिना हथियार हत्याकांड


किसी ने बचपन लिया

तो किसी ने मासूमियत

हंसी ली किसी ने

तो किसी ने विद्रोही आवाज

किसी ने सुकून 

तो किसी ने नींद

किसी ने मन 

तो किसी ने विचार

और अंत में

उसके आंखों का पानी 


इस तरह

बिना किसी हथियार के 

सबने मिल कर 

थोड़ा-थोड़ा कर के

उसकी हत्या की।





दहलीज


भावनाओं की दहलीज पार कर

विचारों में डूबी

स्त्री

सोचती है उड़ने की 

बादलों को पंखों में समेटने की 

जल तरंगों को डिब्बियां में भरने की

समंदर उलीचने की

तभी

कुकर की सीटी बजती है 

और बादल, डिब्बियां, समंदर सब हाथ से छूट जाते है।



औरत


कुछ चीजों को

इस तरह

रखा जाता है

जैसे वह फेंकी गई हो 

और 

कुछ चीजों को

इस तरह फेंका जाता है 

लगे कि 

वह रखी गई हो





बहरापन


मेरी कविता तुम चुप मत रहना

जैसे चुप रहते हैं चूल्हे पर खाली बर्तन 

जैसे चुप रहते हैं शमशान में लोग

जैसे चुप रहते हैं आज कल हम तुम

जैसे चुप रहते हैं नदी किनारे टूटी नाव


मेरी कविता तुम शोर मचाना

जैसे स्कूल से आ कर बच्चा शोर मचाता है।

जैसे प्रलय से पहले पंछी चीह चिहाते हैं।

जैसे तेज हवा में खिड़की दरवाज़े शोर मचाती है।

जैसे समर में शंख नाद शोर मचाता है 

कि हृदय कांप उठता है

मेरी कविता तुम वैसा ही शोर मचाना 

ये समय भयानक बहरेपन का समय है।



नमक स्वास्थ्यानुसार


राजनीति में 

सच उतना होता है 

जितना नमक में आयोडीन  

और झूठ समंदर में नमक इतना 

सच और झूठ के इस घोल को 

सरकार कहते है। 

ये उल्टी–दस्त से पस्त लोगों में 

नमक की कमी को और बढ़ाती है


इसलिए 

जनता को मालूम होना चाहिए कि

ये इश्क का नमक नहीं

राजनीति का नमक है

इसका उपयोग स्वास्थ्यानुसार करें। 



चिट्ठी


स्त्री

एक चिट्ठी है

नाम -पता हर कोई पढ़ सकता है

लेकिन भीतर के

सुख-दुख, प्रेम-वेदना, आशा-निराशा

वही पढ़ता है

जिसके सामने वह खुलती है।






संस्कार


नाव और लड़की 

दोनों एक समान हैं 

अपने ही घर के तहखाने में दफन।


एक नदी की लहरों में डूब गई 

लहर नदी के संस्कार थे 

एक संस्कार की लहरों में डूब गई।

बंधन घर के अपार थे।



विजय पताका


देश, धर्म, संस्कृति, समुदाय 

या कि जातीय बैर हो

वे नरसंहार करते रहते हैं 

और अपनी जीत को तब तक छूछा समझते हैं 

जब तक विजय पताका 

नारी जननांगो में घुस कर नहीं फहरा लेते।



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)



सम्पर्क 


प्रियंका यादव

शोधार्थी एवं अतिथि व्याख्याता

शास. वि.या. ता. स्ना. स्व.महाविद्यालय

दुर्ग (छत्तीसगढ़)



पता – 

एकता चौक के पास, 

कैलाश नगर, भिलाई (छत्तीसगढ़)


फोन नं –7389671089


टिप्पणियाँ

  1. ललन चतुर्वेदी10 जून 2024 को 4:43 pm बजे

    अच्छी कवितायें हैं। नपे-तुले शब्दों में बहुत कुछ कहती हुई।

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'