प्रियदर्शन मालवीय की कविताएँ
कविता अपने समय का प्रति आख्यान रचती
है। वह उस सत्य का पक्ष लेती है जो हर जगह प्रायः एकाकी ही होता और दिखता है।
इस क्रम में कविता मनुष्यता का पक्ष लेती है और उन धार्मिक रूढ़ियों के खिलाफ आवाज़ उठाती है जो
प्रायः मनुष्यता के दायरे को संकीर्ण करते
रहते हैं। धर्म का वितान वहीं पर संकुचित हो जाता है जब दूसरा धर्म उसके सम्मुख होता है। हर धर्म अपनी महानता की डफली खुद ही पीटने लगता है
और यही वह जगह होती है जहाँ वह बौना दिखने लगता है। प्रियदर्शन मालवीय अपनी कविता 'कावड़िए' में उस निर्ममता को बेबाकी से उद्घाटित करते हैं जो
धार्मिक रीति रिवाजों के क्रम में घटित होती है। प्रियदर्शन जी मूलतः कहानीकार
हैं लेकिन उन्होंने कई उम्दा कविताएँ भी लिखी हैं। आज पहली बार पर प्रस्तुत है प्रियदर्शन मालवीय
की कविताएँ।
प्रियदर्शन मालवीय की कविताएँ
कांवड़िये
सावन का
महीना
आकाश में ना
छाए 
काले कजरारे
बादल
तड़कती तेज
धूप में 
पिघल रहा था 
बूढ़े किसान
का सपना।
वहां कस्बों
में 
दुकानदार
परेशान
व्यापार
चौपट हो गया है भूमंडलीय  अर्थव्यवस्था में।
और, 
ठीक ऐसे ही
समय 
चारों ओर छा
गए 
ये मरदूदे
कांवड़िए।
पिंडारियों  के अत्याधुनिक संस्करणों ने धावा
बोल दिया है गांव और कस्बों में।
वैसे तो यह कहलाते हैं 'भोले' मगर हैं राम के पूरे 
ये भी क्या
करें?
 जब से राम मंदिर टूटा है
यह बेचारे
बेरोजगार हो गए 
और 
राम से
किनारा कर शिव भक्त हो गए 
भगवान वही
जो लाभ पहुंचाए। 
मंदिर था तो
दो 4 महीने में 
हो जाती थी
जमघट 
अब तो पूरा
साल का साल 
यूं ही 
बेकारी में
जाता है कट
इसीलिए
अब सावन के
महीने का इंतजार 
कावड़ियों
को ज्यादा रहता है किसान को कम।
अब तो यहाँ है
न पग पग
रोटी मिली, न डग डग नीर
ना मालव
मिला ना बात गंभीर।
ना कालीदास
मिला, ना उसका स्निग्धगंभीरघोष
ना आम्र कूट
मिला ना चमेली के वन
ना जम्बू
कुंज मिला ना ललनाओं की भोली चितवन।
ना
बाज-बहादुर मिला ना उसके गीत
ना रूपमती
मिली ना उसकी प्रीत।
ना
मुक्तिबोध मिला ना उसकी अंधेरी काली रात
महाकाल के
नगाड़े में दब गई उसकी तीखी पैनी गहरी बात।
अब तो यहाँ
है पेप्सी और पेप्सी की धार
बड़े बड़े
कंबाइन और आदमी बेकार।
भद्दे भोंडे
गीत और गुरदास मान
काले धन में
डूबती काली मिट्टी की शान।
मुक्तिबोध
की बात कहीं गहरे नीचे उतर गई
कहीं आग लग
गई, कहीं गोली चल गई।
मैं सपने बोता हूँ
मैं सूखी
बंजर जमीन में,
अपने सपने
बोता हूँ,
सस्य
श्यामला नहीं,
सूखी बंजर
जमीन में
अपने सपने
बोता हूँ।
अपमान, तिरस्कार और हिकारत के
दंश को
लगातार झेलता हूँ,
मैं सूखी
बंजर जमीन में अपने सपने बोता हूँ।
ये रेतीले
पहाड़, ये झाड़-झंखाड़,
ये बियाबान
जंगल
ये बेतरतीब
जिंदगियां,
मैं इन्ही
में
अपनी राह
खोजता हूँ
मैं सूखी
बंजर जमीन में 
अपने सपने
बोता हूँ।
ये उदासियाँ, ये तनहाइयाँ,
ये
मजलूमितयत,
ये तिल तिल
मरती जिन्दगी,
मैं इन्हीं
में,
जीवन की ताब
खोजता हूँ
मैं सूखी
बंजर जमीन में
अपने सपने
बोता हूँ।
बिटिया की पाती
 बिटिया की आई है पाती
 बाबा के नाम
 लिखा है-
 बाबा मैं ठीक हूं
 ससुर जी भले हैं, बहुत चाहते हैं।
बहिना की आई
है पाती
भैया के नाम
लिखा है-
भैया मैं
ठीक हूँ
देवर जी भले
हैं, बहुत चाहते हैं।
दीदी की आई
है पाती
बहिना के
नाम
लिखा है-
बहिना मैं
ठीक हूँ
ननद जी भली
हैं, बहुत चाहती हैं।
बिटिया की
आई है पाती
माई के नाम
कुछ भी नहीं
लिखा है
सिर्फ दो
आंसू टपका दिए हैं
पूरी पाती
में
बिटिया
जानती है कि मां से सच कब छुपा है?
वर्षा सप्तवर्णी
कल की
मूसलाधार बारिश में 
एक पेड़ और
ढह गया 
पेड़ को
ढहना ही था
बेचारे
बूढ़े पेड़ को 
नए मौसम की
हवा 
रास नहीं
आई। 
खेद यह नहीं
है 
कि 
एक पुराना
पेड़ ढह गया 
खेद
यह है कि 
हमने नई पौध
नहीं लगाई 
जो नए मौसम
की हवा पा कर इठलाती है
खिलखिलाती
है
 झूम झूम जाती है।
बुनना
बुनती है,
माँ,
सुबह से शाम
तक
दोपहर से
रात तक
बुनती है,
माँ
स्वेटर।
खाना पका
रही है,
बुन रही है
धूप सेंक
रही है,
बुन रही है,
बच्चों को
पढ़ा रही है,
बुन रही है।
मैंने पूछा,
माँ क्यों
दिन भर यूँ
आंखे फोड़ती रहती हो,
जब कि एक से
एक 
स्वेटर मिल
जाते हैं,
बाजार में-
अच्छे और
सस्ते।
माँ ने कहा,
एक से एक
कविताएं लिखी जा चुकी हैँ
अच्छी और
महान।
फिर क्यों 
तुम आंखे
फोड़ते रहते हो
कागज़ में
गोचते रहते हो
लिखते, मिटाते रहते हो 
कविता।
मेरा बुनना,
एक खत्म
होती विधा को
बचाये रखने
की ज़िद है
जैसे कि
तुम्हारा लिखना
कविता।
सम्पर्क
मो –
9412899449



 
 
 
बहुत सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंnice
जवाब देंहटाएंलाजवाब सृजन।
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