प्रद्युम्न कुमार सिंह की कविताएं
मनुष्य का पर्यावरण के साथ एक ऐसा अभिन्न रिश्ता है
जिससे  अलग उसके अस्तित्व की कल्पना तक
नहीं की जा सकती। कीड़ों मकोड़ों से ले कर पशु पक्षी तक का इस पर्यावरण को
बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण योगदान है। दुर्भाग्यवश विकास क्रम में मनुष्य
जैसे जैसे आगे बढ़ा वैसे वैसे पर्यावरण को हम दूषित करते गए। यही नहीं
अपने सहजीवी पशु पक्षियों को अपने स्वार्थ वश लगातार खत्म करते गए। आज स्थिति
यह है कि अनेक पेड़ पौधे और पशु पक्षी अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर
रहे हैं। एक सजग कवि की नजर अपने पर्यावरण पर भी होती है। प्रद्युम्न कुमार सिंह
ने उन दिनों को याद किया है जब हम  सहजीविता में विश्वास करते थे। आज पहली बार पर
प्रस्तुत है प्रद्युम्न  कुमार सिंह की कविताएँ।
प्रद्युम्न कुमार सिंह की कविताएं
तुलसी की
रत्नावली
सबको कहाँ
नसीब होता है
प्रेम के
लिए 
सब कुछ
समर्पित कर देना
नहीं होता
सभी में 
इतना अधिक
साहस कि
दुत्कार
सकें
देह की गन्ध
मे आशक्त हुए प्रेमी को 
प्रेमिकाएं
तो प्रेमिकाएं
पत्नियां भी
नहीं कर पाती 
अपने प्रिय
को 
कभी भी अपने
से अलग
क्योंकि वे
नहीं सह सकती हैं
अनन्त काल
तक चलने वाली
वियोग की
असीम पीड़ा
जिसकी आँच
में तप कर कुन्दन सा 
निखर उठता
है 
प्रेम के
प्रति उनका उत्सर्ग
जिसकी
दीप्ति से 
दीपित हो
जाता है उसका 
विदग्ध
प्रेमी
ठीक
रत्नावली की तरह
जिसकी फटकार
ने 
परिवर्तित
कर दिया था 
रामबोला को
हमेशा हमेशा के लिए 
तुलसी में
पत्नियां
हमेशा से चाहती रहीं हैं
पति की
प्रतिष्ठा स्थापन
इसीलिए
रत्नावली ने भी
निभाया
पत्नी धर्म
और कभी नही
बनी 
पति की
सिद्धि में बाधक
इस बात को
विस्तार से बताते हैं 
रामदीन
पुजारी 
जो रहते थे
रत्नावली के ही गाँव में
पहली बार
हमने तो सुना था 
इन्हीं
कानों से मामा के गाँव में
उन्हीं के
मुखारविन्दु से
जब उन्होंने
वर्णित किया था 
दामाद जी का
हाल
प्रसंगवश
पूछने पर हो गये थे 
भाव विह्वल 
और साध लिया
था 
कुछ क्षणों
के लिए मौन
आंखों से
उनके झर थे 
मानों
दुर्दिन के मेघ
गहरी पीड़ा
उभर पड़ी थी 
एकवयक उनके
मानस में
गहन टीस थी
रत्ना को ले कर 
उनके भीतर 
झकझोर रही
थी जो उन्हें
जैसे निज
सुता के दुःखों से 
तापित होता
है
एक असहाय
पिता
वैसे ही
व्यथित था उनका भी हृदय
यद्यपि
प्रश्न था बहुत ही छोटा
परन्तु उत्तर
न था थोड़ा
आह भरते हुए
बोले बेटा!
रत्ना के
बारे में अब मैं 
क्या बताऊ
तुम्हे?
बहुत भोली
थी वह
भुला दिया
जिसको जग ने
शापित सा
जीवन 
जीने को
अभिशप्त थी वह बेचारी
पर था मन
में उसके एक सन्तोष
पति के हित
आ सकी वह काम 
आसान नहीं
था जिसे साधना
नहीं बनी
कभी भी विघ्न वह
साधना में
उनके 
गुजार दिया
बस यूँ ही
पति हित
चिन्तन में सारा जीवन 
सहते हुए
असीम दुःखों को 
जिसकी सुध
नहीं लिये 
कभी भी उसके
भगवान तुलसी
तो कैसे कोई
और याद रखता उसको 
भूल गये सभी
एक अबला समझ
कवि को क्या
पड़ी थी गरज
चिन्तक
क्यों देते उस पर ध्यान 
इतिहासकार
तो लिखते हैं वही 
जो दिला सके
उन्हे ख्याति 
बचे थे कुछ
गाँव के बुजरूग लोग
जो सहेजे थे
जेहन में 
बेटी की
चिरन्तन पीड़ा का एहसास
सहा था जिसे
पुत्री ने जीवनपर्यन्त
तपती रही
दोपहर की धूप सी वह
अनुपम
सौन्दर्य की स्वामिनी
पर नहीं
किया लांछित 
पति के व्रत
को
मौन रह
स्वीकार लिया था
विधि के
लेखे को
इसके
अतिरिक्त आखिर वह 
कर भी क्या
सकती थी 
टकराने की
उसमे हिम्मत न थी
पुरूष सत्ता
से
या फिर
बांधे थे समाज के दस्तूर उसे
या फिर
बांधती थी 
उसे
कालिन्दी की धार
या फिर उसके
खुद के वसूल और हालात
इससे ज्यादा
की नहीं दे रहे थे  
उसको इजाजत
जो भी रहा
हो इनमें से 
जो उसे रोक
रखा था उसके पथ पर
परन्तु वह
रत्ना थी रत्नों सी 
चमक थी उसमे
पति के व्रत
को ही शिरोधार्य कर
मानती रही
सधवा रहने को ही 
सदैव अपना
सौभाग्य
रही सदा वह
जंगल में रहते 
लक्ष्मण की
उर्मिला सी 
पति से दूर
उसकी ही
इच्छाओं की शुभेच्छु 
परन्तु आज
भी डरते हैं 
महेवा वासी 
ब्याहने से
राजापुर में अपनी बिटिया 
शायद फिर से
न छोड़ दे 
किसी
रत्नावली को
उम्र भर
तड़पने के लिए 
कोई
तुलसीदास
यद्यपि नहीं
अधिक दूरी 
दोनों के
बीच
यमुना ही है
मात्र है सीमारेखा 
दोनों की 
पर न जाने
क्यों? 
इतने दिनों
के बाद भी
डरे हैं
बेटियों के पिता
नहीं
ब्याहते रत्नावली के गाँव वाले 
अपनी
बेटियों को तुलसी के गाँव 
शायद नागवार
गुज़रे 
कुछ लोगों
को मेरी बात
और बके बहुत
सी गालियां
पर न जाने
क्यों?
आज भी हमें
बरबस 
आकर्षित
करती है
रत्नावली की
स्मृति
जो कराती है
हमें एहसास 
बेटियों के
लिए 
ससुराल से
अधिक मायके होते हैं 
हितकारक
जो रखते हैं
बेटियों को सुरक्षित
उन्हे जब
होती है
सबसे अधिक
आवश्यकता।
प्रतीक्षारत है            
प्रतीक्षारत
है बाजार 
और
प्रतीक्षा में दुकानदार 
दुकानों के
भीतर स्थित 
समान भी गिन
रहा है 
प्रतीक्षा
की घड़ियों का समय।
बेचैन है 
बाज़ार के
संचालक 
एवं बेचैन
है ग्राहक
माथे पर बल
डाल रहीं
उम्मीद की
रेखाएं
कब बाज़ार
लौटेगा फिर से
अपने पूरे
दमखम के साथ
बीमार से
तीमारदार तक
दर्शक से ले
कर श्रोता तक
एंकर से
अभिनेता तक
कार्यकर्ता
से पालिटिशीएन तक
अधिकारी से
कर्मचारी तक
कृषक से
श्रमिक तक
सभी ने देखा
है
अपनी आँखों
से ख़ौफ का 
भयावह मंजर।
कभी न सूनी
रहने वाली 
सड़कों से
देवालयों तक
अजान से ले कर
ईमान तक
हिन्दू से
मुसलमान तक
पारसी से
जैन तक
चर्च से
कब्रिस्तान तक
धर्म गुरुओं
से ले कर 
धर्म के
मानने वालों तक
सभी ने झेला
है संत्रास।
पर बाज़ार
था 
जो बेंच रहा
था 
बाज़ार में 
स्वयं को
कौडियों के मोल
लगा रहा था
उचक्कों का गिरोह 
चतुराई के
साथ रिश्तो में सेंध
सुविधा भोगी
कर रहे थे चिल्ल पों
कुछ लोग लगा
रहे 
बड़े ही
एत्मियान के साथ
देश को
चूना।
कुछ बेइमान
किस्म के बनिया
कर रहे थे
सुरक्षा के साथ 
खिलवाड़
कालाबाजारी
के माहिर लोग
बना रहे थे
भविष्य की योजनाएं
जिसमें उनका
साथ दे रहे थे 
उनके परिजन
सुरक्षा के
नाम पर बाँटे जा रहे थे
कुछ स्लोगन 
और रंग
बिरंगे मुस्के
जिससे बाँधी
जा सकें 
बातूनी
मुस्कें
शान्त पड़े
रहते थे 
सड़कों व
गली के श्वान
थम चुका था
आतताई 
बन्दरों का
शोर
थम गया था
आवारा घूमते 
चौवों का
जत्था
ले रहा था
आखिरी सांसे
गौ सेवा का
व्रत
राशन देने
के नाम पर 
डकारे जा
रहे थे
गरीबों के
हक़
शक्तिविहीन
हो चुके थे 
कैंसर, हृदय एवं आन्त्रशोध 
जैसे अति
जटिल रोग 
सबसे मुफीद
था
समय की
नब्ज़ को पहिचान 
खामोश होना
जिसके लिए
आवश्यक था
समय की
प्रतीक्षा करना
इसीलिए
खामोश रह कर 
सभी कर रहे
थे  
बेसब्री से 
लाक डाउन
खुलने का इंतजार
एक खुशहाल
उम्मीद के साथ।
सपनों की भीड़ में
खुद को रानी
की तरह
समझने वाली
अल्हड लड़की
रोज करती है 
खिड़की के
पार 
दुनिया
देखने का अपराध
प्रत्येक
दिन देखती थी
एक खूबसूरत
बाजार
जिसमें
सजाये जाते थे 
करीने से
तरह तरह के
रंग बिरंगे
फूल 
और इकट्ठी
रहती थी
उनके
खरीददारों की 
कभी न थमने
वाली भीड़
कुछ फूल तो
चढ़ाये जायेंगे 
श्रद्धा से
इबादत घरों में
कुछ गूंथे
जायेंगे मालाओं के 
मनकों की
तरह बेतरतीब
कुछ निहारे
जायेंगे
प्रार्थनाओं
के समय 
भक्ति से
ओतप्रोत
कुछ भरे
होंगे वासनाओं से
इन सभी के
मध्य भी
मुस्कुरायेंगे
फूल
और हर बार
की तरह 
इस बार भी
रौंदी
जायेंगी ईश्वरीय भावनाएं 
और गुम
जायेगी 
एक बार फिर
से
एक अल्हड लड़की
खिड़की से
आती हुई 
धूप की तरह
रानी मे
तब्दील होते
सपनों की
भीड़ में।
हुनरबाजों का हुनर
आज भी
जिन्दा हैं
बंजारों की
उम्मीदें 
कि चलती ही
रहेगी 
मुश्किलों
में भी 
उनकी जिंदगी
की गाड़ी 
फुटपाथों या
सड़कों के किनारे 
जहाँ कहीं
भी 
दिख जाती है
उन्हें 
थोड़ी सी भी
अनुकूल जगह 
वहीं वे
खड़ी कर देते हैं 
अपनी लढी
साथ ही साथ
खड़ा कर लेते हैं 
वहीं अपना
छोटा सा तम्बू
बाँस-बल्ली
के सहारे 
छोड कर
स्त्री और पुरुष का भेद 
बंजारनें
उठा लेती हैं 
भारी बोझीले
हथौडे 
                     
                      
बावजूद इसके
इन श्रमजीवियों को 
देखा जाता
है 
                     
            
हिकारत भरी
निगाहों से 
                     
  
सुविधाभोगी
समाज द्वारा 
और उड़ाया
जाता है 
इनका मज़ाक       
           
फिर भी
बेलौस जिन्दगी 
जीते है ये
बंजारे 
                     
खेल खेल में
ही सीख लेते है 
       
लोहे के
हुनर की 
बारीकियों
को 
           
नंग धड़ंग
उनके बच्चे 
                     
     
मगर अफसोस ! 
कि ग्लोबल
होती जा रही 
दुनिया में 
खतरे में
पड़ता जा रहा है 
बेचारे हुनर
बाजों का अस्तित्व
हे घन!
हे घन! 
तुम क्यों
भिगो देते हो
अनायास ही आ
कर 
अपनी रस भरी
बूंदों से 
आखिर क्यों? 
दिखाना
चाहते हो 
इतनी अधिक
हमदर्दी 
या फिर
दिखाना चाहते हो
उसकी तबाही
का मंजर 
जो अपने
जीवन रस से 
संसार को
सीचने का 
उपक्रम करता
है 
और रात को
सो जाया करता है
भूखे पेट ही 
बिलखते
बच्चो को 
चन्दा मामा
की झूठी 
कहानियों से
सुलाने का 
करता है
प्रयास
या फिर
तुम्हारे नक्कारेपन को 
अपनी नियति
मान 
वह चुप है।
आखिर कब तक!
वह छला जाता
रहेगा 
तुम्हारे
द्वारा
कभी सूखे से, 
तो कभी
अतिवृष्टि के प्रकोप से
कब तक तुम
करवाते रहोगे
उससे अपनी
पूजा
पर तुम याद
रखना 
एक दिन ऐसा
आएगा 
जब कोई
गोपाल बन 
खड़ा हो
जायेगा 
तुम्हारे
विरुद्ध तन कर
और मांगेगा
तुम्हारे 
अब तक के
किये गये 
कार्यों का
हिसाब  
हे घन 
वह दिन
तुम्हारे अस्तित्व का 
अंतिम दिन
होगा 
फिर न कहना
मुझसे 
कि तुमने
हमे चेताया नही
ये जो माँएं हैं 
ये जो माँएं
हैं
उठाये रहती
हैं 
ताउम्र अपनी
झुकी हुई 
पीठ पर
दुनिया का
बोझ
जिससे गौरवान्वित
होता है 
सारा जहान
सूरज की
पहली किरण से पूर्व ही 
यह करती हैं
प्रयास निपट जाये 
अधिक से
अधिक इनका काम
इसीलिए
रात्रि के 
प्रहरों के
बीच उठ कर 
बार बार
देखती है 
तारों से
भरा आकाश 
जिससे जान
सकें वे
समय की अवधि
जब देता है
सुबह की बांग
दड़बे पर
बैठा मुर्गा
लगा लेती
हैं भोर का 
सहज अनुमान
और जुट जाती
हैं कार्यों में
आलस्य
प्रमाद को छोड़
जहाँ से दी
थी 
रात्रि को
विराम
कभी नहीं
थकती हैं
यह बूढी
माँएं
सुबह से
रात्रि तक 
संततियों के
हित में करती रहती हैं 
अनवरत कार्य
जिसकी नहीं
चुकाई जा सकती है कोई कीमत
क्योंकि
अपने दुःखों को आंचल में समेटे हुए 
यह बूढी
माँएं देख कर
हमारी
खुशियों को भूल जाती हैं 
खुद के
अपरमित कष्ट
शायद इसीलिए
हो पाती हैं
जिन्दगी का
बोझ उठाने में इतनी सक्षम।
वे लोग
बारीक चीनी
की कुछ चुटकियां
डिबियों में
ले कर
तलाशते थे
बहुत से लोग
चींटियों के
ठिकाने 
    
प्रात के
स्नान के बाद 
अक्सर बिखेर
देते थे 
खाली पड़ी
जगहों पर 
या फिर छत
की मुण्डेर पर
अन्न के
दाने 
          
जिससे आ कर
चुंग सकें 
कबूतर, गौरैया और बया जैसे पक्षी
बिना किसी
बाधा के
घरों के
बाहर बनवाते थे
पानी के
छोटे हौज
पी सके
जिससे प्यास से आकुल 
निरीह जानवर 
भोजन की
शुरुआत से पूर्व ही
निकाल दिया
जाता था
अपने हिस्से
का एक भाग 
 
जिसे खिला
दिया जाता था
किसी भी
जानवर को
इस प्रकार
निभता रहता था
बिना किसी
बाधा के
प्रकृति और
मानव के बीच
एक अदृश्य
रिश्ता
वे मानते थे
प्रकृति को
अपने जीवन
का अहम भाग
इसीलिए नहीं
तोड़ते थे
सूर्यास्त
के बाद 
पेड़ों से
एक भी पत्ती तक 
                     
     
जिससे रोकी
जा सके
सोये हुए
पेड़ो की नींद में 
पड़ने वाली
खलल को 
                     
                    
जब भी आ
जाते थे 
पक्षियों के
झुंड के झुंड 
उनकी फसलों
पर 
                     
         
तो वे
उन्हें मारते नहीं थे
बल्कि कहते
थे.. 
     
मालिक की
चिरइयाँ 
मालिक के ही
खेत 
             
और खाओ रे
चिरैयों तुम 
भर भर पेट    
अजनबियों से
पूँछ लेते थे 
खुद ही उनका
परिचय 
    
और किसी का
मकान पूछने पर
पहुँचा आते
थे खुद ही जा कर
रात-बिरात
यदि कोई मुसाफिर 
मांगता था रहने
का ठौर
खुशी खुशी
करते थे 
उसका ऐतराम       
                     
ठहरने से
भोजन तक का 
 
सम्भव है!
अभी भी
मौजूद हों
दूर दराज
किसी गाँव या कस्बे में                   
     
उनकी
प्रजाति के कुछ लोग 
                  
काश!
हम कर पाते
ऐसी कोई पहल 
जिससे बन
सकता 
ऐसे लोगों
का कोई संग्रहालय 
                     
              
जिससे जान
पाती  भविष्य की नस्लें 
जो धीरे
भूलती जा रहीं हैं
अपने अतीत
की सुनहरी स्मृतियां
जिनके कारण
पूरे विश्व में
आज भी आदृत
होता है भारत
और सराही
जाती है 
उसके जीने
की कला 
जो आज पहुँच
चुकी है 
विलुप्त
होने की कगार पर
हमेशा के लिए
मैने हमेशा
हमेशा के लिए
बंद कर दिया
है
अर्गलाओं से
उस दरवाजे को
जिसमें से
तुम्हारे आने की
थोड़ी भी
सम्भावनाएं अवशेष थीं
क्योंकि
प्रेम धोखे में 
रहने का नाम
नहीं है
न ही बार
बार 
खुलने बन्द
होने का ही
वह तो इन
सबसे अलग
एक पूत
भावना है
जिसमे बंधे
रह कर 
निर्वहन कर
पाना
नहीं होता
सहज
इतना ही
नहीं 
लम्पटों और
धूर्तों की 
आवाजाही से
बरकरार रहता
है सदैव
प्रेम के
खण्डित होने का खतरा
गुज्जू भाई
वाह गुज्जू
भाई
तुम तो कमाल
करते हो
आफत की इस
घरी में भी
खुद को लाल
कहते हो
लम्पट संग
चल कर चम्पई चाले
बन चुके हो
रम्पत 
क्या सुर्ख
अंदाज है तुम्हारा
क्षण में ही
काम तमाम करते हो
वाह गुज्जू
भाई
तुम तो कमाल
करते हो
घालमेल की
खिचड़ी खा कर
धमाल करते
हो
रिश्वत, बेइमानी और मक्कारी को
बदल देते हो
सहज ही 
गोलमाल की
नवपरिभाषाओं में
उठती हुई
उंगलियों को ही
जड़ से
उखाड़ फेंकते हो
वाह गुज्जू
भाई
तुम तो कमाल
करते हो
विश्व मोहनी
सी चेहरे पर 
मुस्कान ला कर
तालियों की
तीलियों से ही
भुवन को
लहूलुहान कर
बड़ी ही
साफगोई से
पोत देते हो
सच पर फरेब
की कालिमा
वाह गुज्जू
भाई
तुम तो कमाल
करते हो
धनुवा हो या
फिर हो रमुवा
सुनने को
तुम्हारे शब्दों की जुगलबन्दी
बेताब रहते
हैं
और नवाजते
हैं तुम्हे आशीष
तालियों की
गड़गड़ाहटों से
जो बनाये
रखती हैं तुम्हारे भीतर
उत्साह का
संचार
और गूंजती
रहती हैं सदा ही
दिल व दिमाग
के आस और पास।
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स
वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की हैं।)  
सम्पर्क 
मोबाईल – 8858172741





 
 
 
सुन्दर सृजन।
जवाब देंहटाएंअच्छी कविताओं को हर जगह सम्मान मिलता है ~ बहुत-बहुत बधाई और शुभकामनाएं !
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