शिरीष कुमार मौर्य की कविताएँ
शिरीष कुमार मौर्य ने 'आत्मकथा' श्रृंखला में इधर कुछ कविताएँ लिखी हैं। ये कविताएँ इस मामले में उम्दा हैं भले ही कवि ने इस श्रृंखला को आत्मकथा का नाम दिया हो लेकिन यह हमारे समय और समाज की आत्मकथा की तरह हैं। इन कविताओं में आए मजदूर हों या कवि स्वयं, उनकी पीड़ा हमारे समय के उन बहुसंख्यक लोगों की पीड़ा है जिन्हें आज भी अपनी आधारभूत जरूरतों के लिए संघर्ष करना होता है। कवि की पंक्तियां हैं 'अन्त तक सिर्फ़ प्रेम चलता है/ या कोई हताशा।' कोरोना महामारी के इस काल में मजदूरों को जिस तरह के संघर्ष का सामना करना पड़ा वह इन मजदूरों का अपने समय और समाज के प्रति हताशा की ही व्यथा कथा है। आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं शिरीष कुमार मौर्य की कुछ नई कविताएँ।
शिरीष कुमार मौर्य की कविताएं
आत्मकथा - 1
कुएँ में हूक की तरह मैं 
बोलता रहा
बोलता रहा
मेरे भीतर एक कुआँ था 
और बाहर एक कुआँ था
और बाहर एक कुआँ था
लोग सब जा चुके थे
मेरे जीवन में
पुराने वक़्तों के किसी बल्ब का
फिलामेंट जल रहा था
मेरे जीवन में
पुराने वक़्तों के किसी बल्ब का
फिलामेंट जल रहा था
कमरे में 
मेरी ही ख़ाली कुर्सी मुझे सुन रही थी
हूक की तरह
मैं बोल रहा था
मेरी ही ख़ाली कुर्सी मुझे सुन रही थी
हूक की तरह
मैं बोल रहा था
और चाहता था 
जहाँ भी हो न्याय की कुर्सी
सुने
मैंने जो बोला
अपनी ही ख़ाली कुर्सी से
जहाँ भी हो न्याय की कुर्सी
सुने
मैंने जो बोला
अपनी ही ख़ाली कुर्सी से
आत्मकथा - 2
(प्रिय कथाकार सुभाष पंत के लिए)
(प्रिय कथाकार सुभाष पंत के लिए)
फूलों के लिए नहीं 
तितलियाँ
बेचैन हैं नमक के लिए
तितलियाँ
बेचैन हैं नमक के लिए
इन दिनों
किसी फूल पर नहीं 
वे उतरती हैं मूत्रवृत्त के किनारे
और मल की ढेरी पर
वे उतरती हैं मूत्रवृत्त के किनारे
और मल की ढेरी पर
उनकी नाज़ुक वह सूँड़ धँसती है 
मूत्रसिंचिंत मृदा में
मल में
मूत्रसिंचिंत मृदा में
मल में
सब तितलियों के रंगीन पंख देखते हैं 
उनकी कोमल सुन्दरता देखते हैं
उनकी कोमल सुन्दरता देखते हैं
न तितलियों का वीतराग देखता है कोई
न देखता है उनकी बेचैनी
न देखता है उनकी बेचैनी
मैं उस जुगुप्सा और घृणा को भी देखता हूँ 
जिसे अपने नामालूम हृदय में सहेजे
जीते हैं
संसार के ये कोमलतम
सुन्दरतम प्राणी
जिसे अपने नामालूम हृदय में सहेजे
जीते हैं
संसार के ये कोमलतम
सुन्दरतम प्राणी
तितलियों के रंगीन कोमल पंख वे 
प्रेम के प्रतीक हैं
नमक खोजती वह सूँड़ भी
प्रेम की ही प्रतीक है
प्रेम के प्रतीक हैं
नमक खोजती वह सूँड़ भी
प्रेम की ही प्रतीक है
और नमक ?
नमक प्रतीक है जीवन का
नमक प्रतीक है जीवन का
नहीं, 
वह जीवन है स्वयं
वह जीवन है स्वयं
और वे तितलियाँ नहीं 
जगह जगह
सूँड़ धँसा कर जो लिखती हैं आत्मकथाऍं
जगह जगह
सूँड़ धँसा कर जो लिखती हैं आत्मकथाऍं
हम हैं।
आत्मकथा - 3
मैंने उन संदेशों का
इंतज़ार किया
जो मेरे नाम कभी लिखे ही
नहीं गए
उन लोगों को चाहा कि आएँ मुझ तक
जिनमें ख़ुद तक पहुँचने की भी
कोई इच्छा नहीं बची थी
जो आईना तक नहीं देखते थे
मेरा मुख कैसे देखते?
विराट एक जमावड़ा था
रास्तों पर
हर गाड़ी अपनी जगह थमी हुई थी
वर्षों से
सब कुछ छोड़ कर मैं आया
महादेवी!
मीरा कुटीर तक
तुम्हारी मेज़ पर लिखा था
महादेवी की टेबिल
वहीं थी
महादेवी के लेखन कार्य की चौकी
पानी गर्म करने का
एक पुराना उपकरण महादेवी के नाम का
एक तौलिया स्टैंड भी तुम्हारा
सब चौंकते थे
देखते थे
बहुत भीड़ थी कविता में
कहीं तो मिल जाती
महादेवी की संतति
वेदना उमड़ती थी
उठती थी हूक
सब खोजते थे कवयित्री
महादेवी जैसी
क्या उस माँ का
मुझ कवि जैसा
बेटा न हो सकता था?
कि रहता एक लगभग संसार में
लिखता लगभग कविताएँ
और खो जाता देवीधार
के जंगल में कहीं
सदा के लिए
सदा के लिए
आत्मकथा – 4
मेरी सब
पुकारें खो गईं 
पूस की सर्द
हवाओं में 
वे कुछ दूर भी
नहीं चल पायीं 
कुहरे में उनकी
छाया 
कभी कभी दिखाई
पड़ती हैं 
सुनाई कुछ भी
नहीं पड़ता 
मैं नहीं कहता 
कि लोग बहुत
क्रूर हैं या वक़्त ही बुरा है 
बाहर पुकारते
पुकारते 
अपने भीतर ही
पुकारना मैं भूल गया था
मुझे अपनी 
आवाज़ नहीं आयी
थी
महीनों से 
आज सुनता हूँ
ख़ुद को 
बहुत गहराई में
मेरी बुनियाद
के आसपास 
उन चींटियों के
चलने की आवाज़
आती है 
जो रोज़ थोड़ा
थोड़ा सा 
मुझको 
मुझमें से लाती
रहती हैं 
बाहर 
और मैं रोज़
थोड़ा थोड़ा
गिरता रहता हूँ 
अन्दर 
जब कि 
मेरे अंदर नहीं
मुझसे बाहर जो
चींटियों की लायी
थोड़ी थोड़ी
कथाएँ हैं 
उन्हीं में 
थोड़ा थोड़ा
आत्म है मेरा 
बाहर तो मैं
निपट सार्वजनिक 
रहता हूँ 
और चाहता हूँ 
कि सदैव
प्रश्नांकित रहे मेरी कविता 
जो दरअसल 
इकलौता
नागरिकता होगी मेरी 
जान से प्यारे 
मेरे देश में 
अपनी बुनियाद
में पूरा गिर जाने से पहले 
गिर जाने के
बाद 
जब चींटियाँ
ढोएँगी उसे 
तब किसी 
प्रमाण की
आवश्यकता भी 
उसे नहीं होगी
आत्मकथा - 5 
गीत कुछ दूर तक साथ चलते हैं
कुछ और दूर तक कविताएँ 
अंत तक सिर्फ़ प्रेम चलता है 
या कोई हताशा 
कभी कभी कोई मनुष्य भी चलता है 
आपकी ही तरह थका हुआ
उसकी थकान को 
आप चाहें तो प्रेम समझ सकते हैं 
प्रेम में रहना सब चाहते हैं 
हताशा को कहना कोई नहीं चाहता 
मैं हमेशा ढूँढता हूँ एक हताशा 
और मुझे एक आत्मकथा 
मिलती है
आत्मकथा - 6
मैं नित्यप्रति की मूर्खताओं से 
थक गया हूँ 
मैं ऊब गया हूँ नित्यप्रति की 
इच्छाओं से 
नित्य में खंख हो रहे 
पहाड़ के बेटे की इस जीवन कथा में 
आत्म 
सरयू की विशाल और चपल महाशीर की तरह 
चमकता 
और ओझल हो जाता है
ऐसे में 
किसी अनित्य की प्रतीक्षा ही अब 
एक आशा है
जैसे मछुआरे के जाल में एक छेद 
अचानक 
भाग निकलने को
आत्मकथा - 7
कविता
में मर गए 
कुछ
प्रसंग उनकी स्मृति भी
अब
नहीं बच रही है 
बस 
बेहद
ठोस सा एक व्यवधान 
शिल्प
में 
जो
बताता है यहाँ कुछ था 
अब
नहीं है 
एक
पेड़ पर 
थोड़ी
सी अटकी चुपचाप मर गई 
टहनी
की आवाज़ 
कुछ
बाद में आती है 
एक
कुत्ता जो गली में 
रोज़
दीखता था 
अचानक
कहाँ चला जाता है 
कोई
नहीं जानता 
एक
चिड़िया का आखिरी गान
पत्तियों
और
हवा
की सरसराहट में 
बदल
जाता है 
हवा
भी खा जाती है 
पानी
भी पी जाता है 
चीज़ों
को
गुज़रे
बरस खेत में छूटी खुरपी का
कंकाल
भर मिलता है 
जीवन
अपने आख्यान में ही 
अनश्वर
रहता है 
देह
में वह मर जाता है 
बहुत
कुछ जो मर गया 
कभी
वापस नहीं लौटेगा जीवन में 
एक
अरसे से सोचता हूँ 
तेरे
मन में 
कहीं
वो मैं तो नहीं 
इस 
अकेली
कथा में आत्म मरा है 
या
आत्म में ही मर गई है 
समूची
कथा
चौंक
कर देखता 
मैं
हूँ। 
आत्मकथा - 8
मैंने
सोचा था 
हर
जिम्मेदारी को निभा चुकने 
के
बाद
मैं
निकलूँगा और पटरियों के 
साथ
साथ 
पैदल
चला जाऊँगा उधर
जिधर
कभी दादी का 
घर
था
अब
वो उनके बेटों का घर है 
पटरियों
के साथ साथ 
चलते
चले जाने 
और
थकने पर वहीं सो रहने की 
नाज़ुक
यह कला 
राग
जोग में विलम्बित एक 
ख़याल
की तरह है 
मैं
पटरियों के साथ चला जाऊँगा 
सोचा
था
जिसमें
पटरियों पर मर जाऊँगा 
यह
एक
दुःस्वप्न की तरह चला 
आया
है 
और
अब 
मेरे
कलेवे की रोटियाँ 
पटरियों
के बीच 
पत्थरों
पर साबुत 
पड़ी
हैं 
जिस
सभ्यता में रहता हूँ 
उसमें
न
मनुष्य की ज़रूरत है 
जो
पटरियों के सहारे 
घर
जा रहा हो
न
बासी रोटी की जिसे वह 
खा
रहा हो
मेरा
देश अब घर नहीं जाता है 
कुछ
भी खाता हो
रोटियाँ
नहीं खाता है 
मैं
खाता हूँ झिड़कियाँ 
इन
दिनों 
घर
जाते हुए पटरियों पर 
कुचल
कर मर गई 
मेरी
स्मृति 
इतिहास
में नहीं मिथक में रहेगी
वहाँ
दादी
का चूल्हा जलता होगा
सिंकती
और फूलती होगी 
मेरे
हिस्से की रोटी 
ज़िंदगी
के 
सभी
ज़रूरी 
दाग़
और धब्बों से भरी 
आत्मकथा - 9
गोद
में 
कंधे
पर 
ठेले
पर
बच्चों
को लादे
यह
देश घर आ रहा है 
बैलगाड़ी
में 
जुए
के नीचे एक आदमी ने
अपना
कंधा रख दिया है 
बैलगाड़ी
पर 
उसकी
गर्भवती पत्नी और
एक
बच्चा है 
एक
माँ 
थक
जाने के कारण 
चौपाये
की तरह चल रही है 
उसकी
पीठ पर दो बच्चे हैं 
एक
बेटी रोती हुई जा रही थी
थकान
पीड़ा
और
भूख से 
अब
मर गई है 
समूचा
एक वक़्त कराहते हुए 
घर
आ रहा है 
एक
देश 
अपने
नागरिकों के 
हृदय
का 
रहवासी
होता है 
कोई
पूछे 
उस
हृदय में पीड़ा और पछतावे 
के
बाद 
अब
कितनी जगह 
बच
रही है 
इस
विदारक दृश्य में 
एक
कवि 
अपने
देश का हाथ थामे
अपने
घर 
आना
चाहता है 
उसकी
गठरी में 
गौरव
गाथाएँ नहीं 
समूची
उम्र की 
एक
पीड़ा है विकट
और
हर तरफ़ पैदल चल रहे 
देश
की 
एक
विकलता 
समूची 
आत्मकथा - 10
वे
किसी बदलाव के लिए 
सड़क
पर नहीं हैं
उनकी
यात्रा घर जाने की है 
जबकि
उनमें
से कुछ के तो परिवार 
उन्हें
घर में घुसने भी नहीं देंगे 
इस
यात्रा के तुरत बाद
वे
महामारी के मारे जन
कुछ
दिन 
सिवानों
पर रहेंगे 
गाँव
के लिए उनकी शुभेच्छाएँ
दरअसल
किसी
पछतावे की तरह होंगी
यह
क्रांति नहीं है लकड़बग्घो 
बंद
करो हँसना 
यह
बहुत बड़ी एक 
विवशता
है 
एक
ऐतिहासिक पीड़ा 
तुम
उनकी
यात्रा में शामिल नहीं हो
तुम
जहाँ शामिल हो
वहाँ
से हर रात 
इन
सिवानों तक भयानक 
एक 
आवाज़
आती है 
सियारों
के रोने की 
और
मेरी नींद में एक आदमी 
धीरे
से 
सड़क
पर ही निढाल हो 
गिर
जाता है।
आत्मकथा - 11
चलिए
मैं
कहीं नहीं जाऊँगा
रहूँगा
जैसे
किंवदंतियाँ रहती हैं 
जीवन
में 
और
उसे दूर से देख कर
ख़ुश
होने वालों के 
मन
में 
गाँव
में 
मकई
के दूधिया दानों पर चोंच 
मार
रहे सुग्गे 
मुझ
तक ले आएँगे 
घर
का सुवास 
मैं
उदास 
बैठा
रहूँगा किसी और प्रदेश की
देहरी
पर 
किसी
और शहर की चौखट में 
मेरा
सिर लग जाएगा 
तो
कराहने की 
आवाज़
तक न आएगी 
कभी
नहीं पूछूँगा 
कौन
सी सड़क किधर जाती है? 
मेरे
होने की परिभाषा में गाँव 
आप
हटा भी देंगे
देश
मगर कैसे हटाएँगे 
मेरे
श्वास 
जब
नहीं अटाएँगे छाती में 
तब
भी 
मैं
कहीं नहीं जाऊँगा 
जहाँ
जाना था 
वह
गाँव समझ जाएगा 
दूर
धूल और धूप से भरी
किसी
राह पर
फंदा
लगा कर
पकड़
लिया गया है 
उसका
सबसे ऊँचा उड़ने वाला
गरूड़
आरूढ़
उसके
काट लिए गए डैनों पर 
उड़ती
हैं 
और
भी हत्यारी इच्छाएँ
बच्चे
हैलीकॉप्टर
समझते हैं उन्हें 
आत्मकथा – 12
प्रेम
के बहुत सारे उल्लेख 
जीवन
में उसकी सघनता को कम 
कर
देते हैं 
दयावान
नदियों के प्रवाह की क्षिप्रता भी 
दरअसल
नष्ट
ही करती है किनारों को 
मैं
अकेले बैठा 
देखता
हूँ अमावस की रात्रि का आकाश
मेरे
स्वप्न 
जहाँ
झिलमिलाते रहे 
आज
वहाँ चमगादड़ें तक नहीं 
जिसे
सघन होना था संसार में 
वह
छीज गया
जिसे
किनारा होना था 
वह
कगार है मन की
अब
वहाँ से गिर जाने का 
भय
होता है 
तिस
पर इन दिनों 
कोई
महामारी फैली है 
जो
मनुष्य को मनुष्य से मिलने नहीं 
दे
रही 
क्या
सचमुच ही
इससे
पहले मिला करते थे 
मनुष्य
से मनुष्य 
इस
देश में? 
आत्मकथा – 13
ढाई
सहस्त्र वर्ष पूर्व
उपनिषदीय
पुरखों ने सुलझा लिया था भेद
संसार
का 
पर
बहुत सारा बाक़ी रह गया 
मोह
को ले कर 
वाजश्रवस
उद्दालक और नचिकेता के बहाने हुए
सब
विमर्श 
धरे
रह गए 
संतानों
के ललाट पिता के चुम्बनों से भरे
और
भी उन्नत हुए 
मृत्यु
के पश्चात 
आत्मा
की स्थिति को ले कर यम के सब निष्कर्ष 
अमूर्त
और व्यर्थ ही रहे सदा 
उनसे
अधिक स्पष्ट तो 
पक्षियों
के मद्धम संदेश होते हैं जो एकाकी मरते हुए
वे
अपने सुदूर साथी को देते हैं 
और
संसार ईशकल्पितः 
यह
किसी
मजूर की पोटली से गिरा हुआ
सामान
है इन दिनों 
इसे
अब व्याख्या की नहीं 
पुकार
कर वापस किए जाने की 
ज़रूरत
है सम्पर्क-
मोबाईल - 09456142405










 
 
 
यह व्यक्ति से समष्टि तक विस्तार लेती कविताएँ हैं। आपने सही कहा संतोष भैया यह सिर्फ कवि की आत्मकथा नही है बल्कि पूरे समाज की आत्मकथा है।
जवाब देंहटाएंसर को पढ़ने के बाद मैं एक अजीब उदासी से भर जाता हूँ। यही उदासी मुझे तब मिलती है जब मैं देर तक पहाड़ निहारता हूँ या फिर नदी किनारे बैठता हूँ। कमाल की बात यह है कि यह उदासी मन को स्थिर करती है। रूक कर चीजो को देखने का सम्बल देती है। ज्यादा करुणा भरती है भीतरी पटल पर । एक पंक्ति में कहूँ तो असीम ऊर्जा का स्रोत बन जाती है।
लाजवाब लेखन
जवाब देंहटाएंजबरदस्त कविताएं।
जवाब देंहटाएंआत्मकथ्य में जैसे सबका आख्यान आ गया है।
खासकर पैदल ही "घर" जाने के लिए निकले लोगों का।
शिरिष कुमार मौर्य को बहुत बधाईयाँ, इन विशिष्ट कविताओं के लिए!
क्या सचमुच हीइससे पहले मिला करते थे मनुष्य से मनुष्य,इस देश में ?सचमुच यह समय की आत्मकथा भी है
जवाब देंहटाएंआत्म की तलाश में व्याकुल,आकुल अभिशप्त
जवाब देंहटाएंहताशा की नियतिवादी दारुण कवितायें,समय की
सर्जरी करती ही।
बेहद नजदीकी स्वयं को खोज कर पढ़ने में अच्छी लगी सारी कविताएं।।
जवाब देंहटाएं