उपेन्द्र नाथ अश्क की कहानी 'चारा काटने की मशीन'

 

उपेन्द्र नाथ अश्क 



भारत का विभाजन बीसवीं सदी की त्रासद घटनाओं में से एक मानी जाती है। यह विभाजन तमाम लोगों के लिए विस्थापन ले कर आया। यह विभाजन उस धार्मिक उन्माद की कहानी है जिसने लोगों को हिंसक जानवर में तब्दील कर दिया था। जान माल की बेहिसाब क्षति तो हुई ही, महिलाओं के साथ व्यभिचार की अनगिनत घटनाएं हुईं। इस घटना को इतिहासकारों ने अपनी तरह से दर्ज किया। लेकिन रचनाकारों ने भी इसे अपने उस अनुभव की लेखनी से दर्ज किया जिसका इतिहास में कहीं उल्लेख तलक नहीं मिलता। अगस्त में हमने विभाजन पर दो कहानियों को प्रस्तुत किया था :सआदत हसन मंटो की कहानी 'टोबा टेक सिंह' और भीष्म साहनी की कहानी 'अमृतसर आ गया है'। हमारी योजना है कि विभाजन से जुड़ी उन कहानियों को पहली बार पर सिलसिलेवार प्रस्तुत किया जाए। अगर आपके पास भी विभाजन की त्रासदी से जुड़ी कोई कहानी हो तो हमें प्रकाशन के लिए भेजिए। इस क्रम में आज हम पहली बार पर प्रस्तुत कर रहे हैं उपेन्द्र नाथ अश्क की कहानी 'चारा काटने की मशीन'।



'चारा काटने की मशीन'


उपेन्द्र नाथ अश्क 



रेल की लाइनों के पार, इस्लामाबाद की नई आबादी के मुसलमान जब सामान का मोह छोड़, जान का मोह ले कर भागने लगे तो हमारे पड़ोसी लहना सिंह की पत्नी चेती।


''तुम हाथ पर हाथ धरे नामर्दों की भांति बैठे रहोगे,'' सरदारनी ने कहा,''और लोग एक से एक बढ़िया घर पर कब्ज़ा कर लेंगे।''


सरदार लहना सिंह और चाहे जो सुन लें, परन्तु औरत जात के मुंह से 'नामर्द' सुनना उन्हें कभी गवारा न था। इसलिए उन्होंने अपनी ढीली पगड़ी को उतार कर फिर से जूड़े पर लपेटा; धरती पर लटकती हुई तहमद का किनारा कमर में खोंसा; कृपाण को म्यान से निकाल कर उसकी धार का निरीक्षण कर के उसे फिर म्यान में रखा और फिर इस्लामाबाद के किसी बढ़िया 'नए' मकान पर अधिकार जमाने के विचार से चल पड़े।


वे अहाते ही में थे कि सरदारनी ने दौड़ कर एक बड़ा-सा ताला उनके हाथ में दे दिया. ''मकान मिल गया तो उस पर अपना कब्जा कैसे जमाओगे?''


सरदार लहना सिंह ने एक हाथ में ताला लिया, दूसरा कृपाण पर रखा और लाइनें पार कर इस्लामाबाद की ओर बढ़े।


खालसा कालेज रोड, अमृतसर पर, पुतली घर के समीप ही हमारी कोठी थी। उसके बराबर एक खुला अहाता था। वहीं सरदार लहना सिंह चारा काटने की मशीनें बेचते थे। अहाते के कोने में दो-तीन अंधेरी-सीली कोठरियां थीं।


मकान की किल्लत के कारण सरदार साहब वहीं रहते थे। यद्यपि काम उन्होंने डेढ़-दो हज़ार रुपये से आरम्भ किया था, पर लड़ाई के दिनों में (किसानों के पास रुपये का बाहुल्य होने से) उनका काम ख़ूब चमका। रुपया आया तो सामान भी आया और सुख-सुविधा की आकांक्षा भी जगी। यद्यपि प्रारम्भ में उस अहाते और उन कोठरियों को पा कर पति-पत्नी बड़े प्रसन्न हुए थे, परन्तु अब उनकी पत्नी, जो 'सरदारनी' कहलाने लगी थी, उन कोठरियों तथा उनकी सील और अंधेरे को अतीव उपेक्षा से देखने लगी थी। ग्राहकों को मशीनों की फुर्ती दिखाने के लिए दिन-भर उसमें चारा कटता रहता था। अहाते-भर में मशीनों की कतारें लगी थीं जो भावना-रहित हो अपने तीखे छूरों से चारे के पूले काटती रहती थीं। सरदारनी के कानों में उनकी कर्कश ध्वनि हथौड़ों की अनवरत चोटों-सी लगती थीं। जहां-तहां पड़े हुए चरी के पूले और चारे के ढेर अब उसकी आंखों को अखरने लगे। सरदार लहना सिंह तो यद्यपि उनकी पगड़ी और तहमद रेशमी हो गयी थी और उनके गले में लकीरदार गबरुन की कमीज का स्थान घुटनों तक लम्बी बोस्की की कमीज ने ले लिया था, वही पुराने लहना सिंह थे। उन्हें न कोठरियों की तंगी अखरती थी, न तारीकी, न मशीनों की कर्कशता, न चारे के ढेरों की निरीहता, बल्कि वे तो इस सारे वातावरण में बड़े मस्त रहते थे। वे उन सरदारों में से हैं जिनके सम्बन्ध में एक सिख लेखक ने लिखा है कि जिधर से पलट कर देख लो, सिख दिखाई देंगे।


कुछ पतले-दुबले हों, यह बात नहीं। अच्छे-खासे हृष्ट-पुष्ट आदमी थे और उनकी मर्दुमी के परिणामस्वरूप पांच बच्चे जोंकों की तरह सरदारनी से चिपटे रहते थे। परन्तु यह सरदारनी का ढंग था। उसे यदि सरदार लहना सिंह से कोई काम कराना होता, जिसमें कुछ बुद्धि की आवश्यकता हो तो वह उन्हें 'बुद्धू' कह कर उकसाती और यदि ऐसा काम कराना होता, जिसमें कुछ बहादुरी की जरूरत हो तो उन्हें नामर्द का ताना देती। उसका ढंग था तो खासा अशिष्ट पर रुपया आने और अच्छे कपड़े पहनने ही से तो अशिष्ट आदमी शिष्ट नहीं हो जाता। फिर सरदारनी को नए धन का भान चाहे हो, शिष्टता का भान कभी न था।





सरदार लहना सिंह इस्लामाबाद पहुंचे तो वहां मार-धाड़ मची हुई थी। उनकी चारा काटने की मशीनें जिस प्रकार भावना-रहित हो कर चरी के निरीह पूले काटती थीं, कुछ उसी प्रकार उन दिनों एक धर्म के अनुयायी दूसरे धर्म के अनुयायियों को काट रहे थे। सरदार लहना सिंह ने अपनी चमचमाती हुई कृपाण निकाली कि यदि किसी मुसलमान से मुठभेड़ हो जाए तो तत्काल उसे अपनी मर्दुमी का प्रमाण दे दें। परन्तु इस ओर जीवित मुसलमान का निशान तक न था। हां, गलियों में रक्तपात के चिह्न अवश्य थे। और दूर लूट-मार की आवाज़ें भी आ रही थीं।


तभी, जब वे सतर्कता से बढ़े जा रहे थे, उनको अपने मित्र गुरदयाल सिंह मकान का ताला तोड़ते दिखाई दिये।


सरदार लहना सिंह ने रुक कर प्रश्नसूचक दृष्टि से उनकी ओर देखा।


''मैं तो इस मकान पर कब्ज़ा कर रहा हूं।'' सरदार गुरदयाल सिंह ने एक उचटती हुई दृष्टि अपने मित्र पर डाली और निरन्तर अपने काम में लगे रहे।


तब सरदार लहना सिंह ने ढीली होती हुई पगड़ी का सिरा निकाल कर पेच कसा और अपने मित्र के नए मकान की ओर देखा। उसे देख कर उन्हें अपने लिए मकान देखने की याद आयी और वे तत्काल बढ़े। दो-एक मकान छोड़ कर उन्हें सरदार गुरदयाल सिंह की अपेक्षा कहीं बड़ा और सुन्दर मकान दिखाई दिया, जिस पर ताला लगा था। आव देखा न ताव, उन्होंने गली में से एक बड़ी-सी ईंट उठायी और दो-चार चोटों ही में ताला तोड़ डाला।


वह मकान यद्यपि बहुत बड़ा न था, परन्तु उनकी उन कोठरियों की तुलना में तो स्वर्ग से कम न था, कदाचित किसी शौक़ीन क्लर्क का मकान था, क्योंकि एक छोटा-सा रेडियो भी वहां था और ग्रामोफ़ोन भी। गहने-कपड़े न थे और ट्रंक खुले पड़े थे। मकान वाला शायद मार-धाड़ से पहले शरणार्थी कैम्प या पाकिस्तान भाग गया था। जो सामान वह आसानी से साथ ले जा सकता था, ले गया था। फिर भी ज़रूरत का काफ़ी सामान घर में पड़ा था। यह सब देख कर सरदार लहना सिंह ने उल्टी कलाई मुंह पर रखी और ज़ोर से बकरा बुलाया। फिर तहमद की कोर को दोनों ओर से कमर में खोंसा और सामान का निरीक्षण करने लगे।


जितनी काम की चीज़ें थीं, वे सब चुन कर उन्होंने एक ओर रखीं, अनावश्यक उठा कर बाहर फेंकी, वही बड़ा ताला, जो वे घर से लाये थे, मकान में लगाया। गुरदयाल सिंह को बुला कर समझाया कि उनके मकान का ख़्याल रखें और स्वयं अपना सामान लाने चले कि मकान पूर्ण रूप से उनका हो जाए।


जब वे अपने घर पहुंचे तो उन्हें खयाल आया कि सामान ले जाएंगे कैसे? इस भगदड़ में तांगा-इक्का कहां? तब अहाते से साइकिल ले कर वे अपने पुराने मित्र रामधन ग्वाले के यहां पहुंचे जिसकी बैलगाड़ी पर (ट्रकों पर लाने-ले आने से पहले) वे अपनी चारा काटने की मशीनें लादा करते थे। मिन्नत-समाजत कर, दोहरी मंजदूरी का लालच देने के बाद वे उसे ले आए।


जब सारा सामान गाड़ी में लद गया और वे चलने को तैयार हुए तो सरदारनी ने साथ चलने का अनुरोध किया। तब उन्होंने उस नेकबख्त को समझाया कि वहां के दूसरे सरदार अपनी सिंहनियों को बुला लेंगे तो वे भी ले जाएंगे। ‘वे लाख सिंहनियां सही...’, सरदार लहना सिंह ने अपनी पत्नी को समझाया, ‘पर हैं तो औरतें ही और दंगे-फिसाद में औरतों ही को अधिक सहना पड़ा है।’ फिर उन्होंने समझाया कि अहाते का भी तो ख़्याल रखना चाहिए। शरणार्थी धड़ाधड़ आ रहे हैं, कौन जाने यहां घर खुला देख कर जम जाएं।


सरदारनी मान गई, परन्तु जब सरदार लहना सिंह चलने लगे तो उसने सुझाया कि वे सामान के साथ चारा काटने की एक मशीन ले जाकर अवश्य अपने नए घर में स्थापित कर दें, ताकि उनकी मिलकियत में किसी प्रकार का सन्देह न रहे और सभी को पता चल जाए कि यह मकान चारा काटने की मशीनों वाले सरदार लहना सिंह का है। सरदारनी का यह प्रस्ताव सरदार जी को बहुत अच्छा लगा।





यद्यपि बैलगाड़ी में और स्थान न था, परन्तु सामान पर सबसे ऊपर चारा काटने की एक मशीन किसी-न-किसी प्रकार रखी गयी। गिर न जाए, इसलिए रस्सों से उसे कस कर बांधा गया और सरदार लहना सिंह अपने नए घर पहुंचे। गली ही में उन्होंने देखा कि सरदार गुरदयाल सिंह की सिंहनी और बच्चे तो नए मकान में पहुंच भी गये हैं। तब उन्हें लगा कि उनसे भारी ग़लती हो गयी है। उन्हें भी अपनी सिंहनी को तत्काल ले आना चाहिए। यदि पतला-दुबला गुरदयाल अपनी सिंहनी को ला सकता है तो वे क्यों नहीं ला सकते।


यह सोचना था कि सारे सामान को उसी प्रकार डयोढ़ी में रख वही बड़ा-सा ताला लगा, उन्होंने गुरदयाल सिंह से कहा कि भाई जरा ख़्याल रखना, मैं भी अपनी सिंहनी को ले आऊं, संगत हो जाएगी।


और उसी बैलगाड़ी पर सरदार लहना सिंह उल्टे पांव लौटे। घर पहुंच कर उन्होंने अपनी सरदारनी को बच्चों के साथ तत्काल तैयार होने के लिए कहा।


परन्तु एक-डेढ़ घंटे के बाद जब अपने बीवी-बच्चों सहित सरदार लहना सिंह इस्लामाबाद पहुंचे तो उनके नए मकान का ताला टूटा पड़ा था। डयोढ़ी से उनका सारा सामान ग़ायब था। केवल चारा काटने की मशीन अपने पहरे पर मुस्तैदी से जमी हुई थी। घबरा कर उन्होंने गुरदयाल सिंह को आवाज़ दी, परन्तु उनके मकान में कोई और सरदार विराजमान थे। उनसे पता चला कि गुरदयाल सिंह दूसरी गली के एक और अच्छे मकान में चले गये हैं। तब सरदार लहना सिंह कृपाण निकाल कर अपने मकान की ओर बढ़े कि देखें चोर और क्या-क्या ले गये हैं।


डयोढ़ी में उनके प्रवेश करते ही दो लम्बे-तड़गे सिखों ने उनका रास्ता रोक लिया। बैलगाड़ी पर सवार उनके बीवी-बच्चों की ओर संकेत करते हुए उन्होंने कहा कि यह मकान शरणार्थियों के लिए नहीं। इसमें थानेदार बलवन्त सिंह रहते हैं। थानेदार का नाम सुनकर लहना सिंह की कृपाण म्यान में चली गयी और पगड़ी कुछ और ढीली हो गयी।


''हुजूर, इस मकान पर तो मेरा ताला पड़ा था। मेरा सारा सामान...।''


''चलो-चलो बाहर निकलो। अदालत में जा कर दावा करो। दूसरे के सामान को अपना बताते हो।''


और उन्होंने सरदार लहना सिंह को डयोढ़ी से ढकेल दिया। तभी लहना सिंह की दृष्टि चारा काटने की मशीन पर गयी और उन्होंने कहा, ''देखिए, यह मेरी चारा काटने की मशीन है। किसी से पूछ लीजिए, मुझे यहां सभी जानते हैं।''


परन्तु शोर सुन कर अपने 'नए' मकानों से जो सरदार या लाला बाहर निकले उनमें एक भी परिचित आकृति लहना सिंह को न दिखाई दी।


''यों क्यों नहीं कहते कि चारा काटने की मशीन चाहिए।'' उन्हें धकेलने वाले एक सिख ने कहा और वह अपने साथी से बोला, ''सुट्ट ओ करतार सिंहा, मशीन नूं बाहर। ग़रीब शरणार्थी हण। असां इह मशीन साली की करनी ए।''


और दोनों ने मशीन बाहर फेंक दी।


दो-ढाई घंटे के असफल वाबेले के बाद जब सरदार लहना सिंह, रात आ गयी जान कर, वापस अपने अहाते को चले तो उनके बीवी-बच्चे पैदल जा रहे थे और बैलगाड़ी पर केवल चारा काटने की मशीन लदी हुई थी।



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)



टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

हर्षिता त्रिपाठी की कविताएं