निर्मला तोंदी की कविताएँ
कवयित्री निर्मला तोंदी ने चर्चित पत्रिका ‘सदानीरा’ में छपने के लिए अपनी कुछ
कविताएँ भेजीं थीं. वे कविताएँ उस पत्रिका में प्रकाशित भी हुईं लेकिन सम्पादित
रूप में. निर्मला जी को इस पर आपत्ति थी. इसी आपत्ति को ले कर उन्होंने सम्पादक को
पत्र लिखा जिसे आग्नेय जी ने अपनी पत्रिका में यथावत प्रकाशित किया. उन कविताओं को
निर्मला जी ने ‘पहली बार’ के लिए मूल रूप में भेजा है. यहाँ पर हम निर्मला तोंदी
की कविताओं को उनके मूल रूप में प्रकाशित कर रहे हैं.
निर्मला तोंदी की कविताएँ 
चित्रकार
(लस्ट फोर लाइफ पड़ते हुए)
कला में कोई फार्मूला नहीं होता  
यहाँ दो और दो चार हो 
जरूरी नहीं 
इनका सूरज कहीं से भी उगता है 
आकाश में खिलते हैं सूर्यमुखी 
लाल काले नीले पीले 
चाँदनी बैंगनी-बैंगनी 
चित्रकार अपने में डूबता है 
तब प्रकृति उसके पास आती है 
एक खोज ...
एक खालीपन ...
एक खालीपन ...एक पागलपन 
अपने आप को उड़ेल देना रंगों में 
कलाकार कुछ नहीं बोलता 
कला सब कुछ बोलती है 
सामने शरीर होता है 
वह उसकी आत्मा 
उसके मन को आँकता है 
चित्र की हर एक रेखा 
उसके जीवन की कहानी कहती है 
चेहरा छिपा हो तो भी 
चित्र बोलता है 
मैं झूठ नहीं बोलती
मैं झूठ नहीं बोलती 
बचपन से 
मुझे सच बोलने का पाठ पढ़ाया गया है 
इसलिए मैं झूठ नहीं बोलती 
यह सच नहीं है 
मैं डर जाती हूँ 
जानती हूँ मेरी जबान झूठ बोल भी दे 
मेरा चेहरा झूठ नहीं बोल पाता
मैने सीख लिया है 
अपने आप से झूठ बोलना
इसमे पकड़े जाने का डर नहीं 
हाँ! आईना सब जानता है 
हँसता है मुझ पर 
मैं उससे कभी डर जाती हूँ 
कभी नहीं डरती 
कलकत्ते में राजस्थान
माँ खाली समय में 
रूई से दिये में जलाने की बत्ती बनाती थी 
चुटकी में चूल्हे की राख लगा कर 
लंबे-लंबे रुई के तार निकालती थी 
माँ की अंगुली राख़ ले कर 
चरखे की तरह चलती थी 
गुनगुनाहट के साथ 
गले में दर्द होता
था 
माँ एक चुटकी राख़ ले कर 
गले में मसल देती थी 
अब न मेरी माँ है 
न चूल्हा, न राख़ 
मैं अपनी बेटी को 
डाक्टर के पास ले कर जाती हूँ 
राख़ भी नहीं
नौकर को धोबी के यहाँ दौड़ाया जा रहा है
राख़ लाने
खाना नहीं खाते
उन्हें कलकत्ता अच्छा लगता है 
गंगा की चिकनी मिट्टी मिलती है 
हाथ धोने को 
गंगा से मिट्टी आती थी 
कुटाई छनाई होती थी 
हम सब उसी से हाथ धोते थे 
ताऊ जी आने वाले है 
उनके लिए मिट्टी की तैयारी हो रही है 
पूरे शोर शराबे के साथ 
भाग दौड़ मची है 
छोटे भैया कह रहे हैं 
सब पाईप जाम हो जाएगी 
पिछली बार की तरह
सुबह हो रही है
सुबह हो रही है 
चिड़िया जाग रही है 
सबको जगा रही है 
सामने खड़े पेड़ों की पत्तियों से 
ओस टपक रही है 
पेड़ धीरे-धीरे जागते से 
हर एक पत्ती भीगी-भीगी सी 
खिली-खिली खुली-खुली
बिल्डिंगों पर चमक रही है नयी धूप 
गहरी नींद के बाद 
बिल्डिंगे जाग रही हैं  
उजाले को देख 
रात की किताब के पन्ने जाग रहे हैं  
शब्दों ने फैलाये अपने पंख 
सुबह के उजाले के साथ 
पूरे कमरे में फैल गए हैं 
वे चिड़ियों के साथ 
मुझे जगा रहे हैं
आजकल मेरी मुस्कुराहट
आजकल मुझे मुस्कुराने में कष्ट होता है 
लगता है एक तरह का आलस 
जो चेहरे की मांसपेशियों को हिलने नहीं देता 
एक जैसा चेहरा 
दिन-दिन भर 
आँखें भी उसी के जैसी 
किसी से मिल कर भी मिल नहीं पाती 
बातें कर भी लेती हूँ 
बतिया नहीं पाती 
काम सारे ही कर लेती हूँ 
जुड़ नहीं पाती 
घूम भी आती हूँ 
ठहरी हुई एक ही जगह 
हँस भी लेती हूँ 
बस मुस्कुरा नहीं पाती 
बड़ों का साथ
बड़ों का सिर पर हाथ हो
बहुत कुछ संभल जाता है 
अपने आप
बड़ों की खड़ाऊ
संभाल लेती है राज-पाट 
देखा है
उसने मुझे
उपहार में
हवाई जहाज
देने को कहा
मेरे पास दो
पैरों की गाड़ी है
उसने मेरा घर
नहीं, मन देखा है
नन्हा सा बादल
नन्हा सा बादल
थोड़ा आगे निकल
गया
हवाओं संग
वहाँ बरस गया
जहाँ नहीं बरसना
था
पूछती हूँ मैं
ओ पंखो वाली
पिंजरे में हो
तुम्हारा मन
कहाँ है?
सम्पर्क - 
मोबाईल- 09831054444
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)  




 
 
 
सार्थक
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचनाएँ
जवाब देंहटाएंAchchhi kavitain...
जवाब देंहटाएंBadhai !!
Shubhkaamnayen!!
Dhanyavaad !!
- Kamal Jeet Choudhary