कुँवर रवीन्द्र की कविताएँ
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| के. रवीन्द्र | 
कुँवर रवीन्द्र न केवल बेहतरीन चित्रकार हैं बल्कि एक संवेदनशील कवि भी हैं। हाल ही में रवीन्द्र का पहला कविता संग्रह 'रंग जो छूट गया है' अनंग प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है। इसकी भूमिका लिखी है युवा आलोचक उमाशंकर सिंह परमार ने। आज हम उमाशंकर की उस भूमिका के साथ ही कुँवर रवीन्द्र की कुछ नयी कविताओं को प्रस्तुत कर रहे हैं।          
चमक उठा है तेरी
लय में दर्द हिन्दोस्ता
उमाशंकर सिंह परमार 
कविता
का सौन्दर्य कवि के निजी रचनात्मक संघर्षों से पृथक नहीं होता है। सैद्धांतिक
और व्यवहारिक दोनो धरातल में अनुभूत संवेदन ही तथ्य बन कर उपस्थित होते हैं। ये
तथ्य जब संवेदक के मनोजगत मे हलचल करते हुए आन्तरिक विक्षोभ के कारण बनते हैं तो
वहीं से अभिव्यक्ति की तमाम प्रक्रियाओं की खोज आरम्भ हो जाती है। कवि
और कलाकार की रचनाप्रक्रिया में अन्तर नहीं होता न ही यथार्थ जन्य संघर्षों द्वारा
उपार्जित 'मैटर" में तात्विक भेद
होता है। बस
फार्मेट बदलता है अभिव्यक्ति के माध्यम बदलते हैं। अभिव्यक्ति
के माध्यम बदल जाने पर भी कंटेंट अक्षत रहता है। लेकिन यह तर्क उन्ही कलाकारों और कवियों में
लागू होता है जो अपनी कला के द्वारा सामाजिक एवं सांस्कृतिक हस्तक्षेप का वैचारिक
सरोकार रखते हैं। जो
व्यक्ति सरोकार से रहित कलात्मक मन्तव्य रखता है वह कविता या कला में सौन्दर्य बोध
नहीं उत्पन्न कर सकता है। सौन्दर्य
कलाकार के संवेगात्मक श्रम का प्रतिफल है। समाजिक जीवन से प्राप्त अनुभव जनपक्षीय
भी हो सकते हैं।
जनविरोधी व सामन्ती भी हो सकतें हैं। कलाकार या कवि लोकविरोधी अनुभूतियों को
लोकधर्मी अनुभूतियो परस्पर पृथक करके वीक्षण करता है वह लोक विरोधी तत्वों से
लोकधर्मी तत्वों को अलग करके प्राप्त 'मैटर' से
जनोपयोगी समाजोपयोगी कंटेंट तैयार करता है। पृथक्करण की इस प्रक्रिया में कवि या
कलाकार जितना श्रम करता है कला का सौन्दर्य उतना ही निखरता है। इस प्रकार कला कलाकार
के रचनात्मक संघर्षों का प्रतिफल है।
यंत्रणाओं के बिम्ब को जीवंत करने के लिए ही रवीन्द्र अपनी अधिकांश कविताओं में
खुद उपस्थित रहते हैं। उनकी कविता वाह्य चरित्र का सृजन नहीं करती बल्कि कवि की
उपस्थिति ही चरित्र की कमी को पूरा कर देती है। वाह्य चरित्र का सृजन यथार्थ का
माध्यम द्वारा भोग है। ऐसे चरित्र में कवि कविता के नेपथ्य में चला जाता है पर
रवीन्द्र के साथ ऐसा नहीं है। वह हर परिवर्तन को खुद भोगते हैं, खुद देखते हैं, खुद चिन्तन करते
हैं, खुद का आत्म मूल्यांकन
करते हैं। इसलिए रवीन्द्र की कविता में सामयिक पीड़ा-बोध समूची मनुष्यता का पीड़ा-बोध
बन जाता है। यह पीड़ा-बोध अलगाव के विभिन्न स्तरों को पार करता हुआ खोये हुए
मनुष्य की अस्मिता बचाए रखने का गहन अन्वेषण बन जाता है। परिवेश की जटिलता व खतरों
को समझने के लिए युग से बेहतर कोई साक्ष्य नहीं है जिस युग में कवि जी रहा है जिस
युग में हम जी रहे हैं उस युग सार्वभौमिक सच अलगाव ही है जिसमें मनुष्य अपनी
आदमियत से लिबास की तरह पृथक कर दिया जाता है। उनकी कविता ‘आदमी’ का कोई बिम्ब
नहीं बनता, इस अलगाव की
व्यंजना कर रही है। आदमी का स्वरूप इतना विकृत कर दिया गया है कि कलात्मक उपागमों
के योग्य नहीं रह गया अर्थात वह असुन्दर हो गया है। वह रंग और रेखाओं के दायरे से
हट चुका है ‘क्योंकि सब कुछ
है आदमी में / बस आदमी में आदमी नहीं है/ शायद इसलिए/ आदमी का कोई बिम्ब नहीं
बनता।’ आदमी में हाथ है, पैर हैं, सर है, बस चेतना नहीं है, वह वस्तु की तरह
अचेतन बन चुका है। यह कविता पूँजीवाद समाज में आम मनुष्य पर छाए घोर दुर्दान्त
संकट की व्यंजना है। रवीन्द्र ने केवल आदमियत की चर्चा भर नहीं की बल्कि आम आदमी
की करुणा, उसके अवसाद और उत्पीड़न को भी संवेदन के धरातल पर अभिव्यक्ति दी है।
अवसाद और उत्पीड़न दो प्रकार का होता है। एक अवसाद उच्च मध्यम वर्गीय कुंठाओं की महानगरीय
जीवन का लक्षण होता है तो दूसरा अवसाद लोक-जीवन पर छाए गहरे खतरों व पूँजीवाद
अलगाव से उत्पन्न होता है। रवीन्द्र प्रतिबद्ध कवि हैं। उनका अवसाद मध्यम वर्गीय नहीं
है। उनकी चिन्ता सीमित व वैयक्तिक नहीं है। बल्कि चिन्ता को उन्होंने जनवादी आधार
दिया है। उसे अलगाव जन्य ही समझना चाहिए। अपनी कई कविताओं में भूमंडलीकरण, विज्ञापनबाजी, बाजार, इत्यादि की चर्चा
करते हैं। समाज के अन्तर्विरोधों से सम्पोषित पांखडों व कानूनी तिकडम की चर्चा भी
करते हैं जिससे उनके आधार का पता चल जाता है। पूँजीवाद व्यक्ति को निहत्था करने के
लिए सत्ता और धर्म को हथियार की तरह प्रयोग करता है। रवीन्द्र की कविताओं का अवसाद
विसंगतियों के बीच घिर चुके आदमी की मानवीयता का सवाल है इस सवाल को बड़ी शिद्दत
के साथ उठाया है। परिवेश की भयावह अवस्थितियां व मनुष्यता पर व्याप्त खतरों के
आलोक में एक संवेदनशील व्यक्ति में त्रासद अवसाद का आभास होना लाजिमी है। इसलिए
रवीन्द्र की कविता में यंत्रणाओं की मात्रा इतनी डह चुकी है कि ‘समूचा शहर विलाप
करता हुआ प्रतीत होता है। भेड के मिमियाने का लोक-बिम्ब विलाप की निर्थकता व
मिसबोध को अभिव्यंजित कर देता है। ‘कभी कभी बेसाख्ता/ मिमियां उठता तल्खियों में/
भेड़ों की तरह यह शहर।’ वाकई में मिमियाना एक गम्भीर अर्थ-बिम्ब का सृजन कर रहा है।
यदि ‘चीखना’ शब्द प्रयुक्त
हुआ होता तो अवसाद की कोटि विनष्ट चेतना की अभिव्यंजना नहीं कर सकती थी रवीन्द्र
अलगाव पूर्ण अवसाद दिखाना चाहते हैं। जिसमें वर्गीय चेतना का नामोनिशान नहीं है।
इस स्थिति की अभिव्यक्ति ‘मिमियाने’ या ‘रिरियाते’ जैसे शब्दों से ही हो सकती है। 
अलगाव का मूल
कारण है अतिरिक्त लाभ की मंशा से श्रम को वस्तु से अलग कर देना। उसे उत्पादन
प्रक्रिया की जड़वत स्थिति में मशीनी कलपुर्जे की तरह स्थापित कर देना। रवीन्द्र पूँजीवाद
के इस चरित्र को बखूबी समझते हैं। उनकी वैचारिक आस्था डायलैक्टिक मटैरियलिज्म पर
है इसलिए वो श्रमिक और किसानों की चर्चा करते समय अपनी कविताओं में श्रम के अलगाव
की बात जरूर करते हैं। जहाँ कहीं श्रम की चर्चा उन्होंने की है वहां अलगाव की प्रत्यक्ष
या परोक्ष भूमिका पर सवाल भी खड़ा करते हैं। यह सच है आज भूमंडलीकरण ने वितरण और
उपभोग के मामले में अमानवीय तबाही खड़ी कर दी है। उत्पादक वर्ग का मुनाफा लगातार
बढ़ रहा है। यह वर्ग शक्तिशाली हो कर सार्वजनिक सम्पत्ति का सबसे बड़ा हिस्सेदार
बन चुका है। राष्ट्रीय उत्पाद में श्रमिक और कामगार वर्ग का हिस्सा लगातार कम होता
जा रहा है। यह स्थिति वर्गीय अन्तराल को बढ़ावा दे रही है पर जिस वर्ग से बदलाव की
उम्मीदें की जा सकती हैं। वह व्यवस्था की मशीन में पुर्जा बनकर अपनी चेतना से पृथक
कर दिया गया है। उसे यह ज्ञान नहीं है कि श्रम का मूल्य बुर्जुवा अपहृत कर रहा है।
श्रम जनित मूल्य से ही वह तमाम पीड़ाओं का निश्चेष्ट भोक्ता बन गया है। रवीन्द्र
की एक कविता देखिए जिसमें श्रम की वस्तुस्थिति का यथार्थवादी बिम्ब उपस्थित है ‘वह श्रम करता है/
खेतों में कारखानों में/ वह नहीं जानता/ श्रम का मूल्य/ श्रम का ग्लोबलाईजेशन। मजदूर
पूँजीवाद के विश्वव्यापी स्वरूप से अपरिचित है। वह नहीं जानता कि मेरा श्रम
व्यवस्था का मूल्य सृजित कर रहा है। वह साम्राज्यवाद के पक्ष में अपना पसीना बहा
रहा है। वह श्रम से पृथक है अपनी चेतना से पृथक है। श्रम और उत्पादन के आर्थिक अन्तर्सम्बन्धों
का राज्य निर्धारण कर सकता है। परन्तु तब जब वो लोकहितकारी हो लेकिन भारतीय
लोकतन्त्र तो उदारीकृत, भूमंडलीकृत और भ्रष्ट नेताओं के आचरण से लम्पटीकृत हो चुका
है। वह कैसे मानवीय हक का समतापूर्ण वितरण कर सकता है। 
कहने का आशय है उदार लोकतन्त्र
पूँजी के हाथ में खिलौना बन जाता है। ऐसे सम्पत्ति वितरण की न्यायसंगत सम्भावनाएं
बेहद कम हैं। यह आम जन भी समझता है और कवि भी समझता है। यही कारण है आज का प्रतिरोध
आवारा पूँजी के साथ-साथ उदार लोकतान्त्रिाक मूल्यों की कटु आलोचना करता है।
रवीन्द्र लोकतन्त्र और पूँजी के इस आन्तरिक गठबन्धन को बखूबी समझते हैं। वह जानते
हैं कि विश्वपूँजीवाद के प्रभाव से राज्य आज उत्पीड़क वर्ग का हथियार हो गया है।
तमाम जनान्दोलनों को अभी हाल में जिस तरह कुचला गया वह राज्य के फासीवादी चरित्र का
प्रमाण है। रवीन्द्र इस वस्तुस्थिति से वाकिफ हैं इसलिए वो लोकतन्त्र को अपने ही
अन्तर्विरोधों में फँस कर मरते देख रहे हैं। यहाँ  मृत्यु शब्द अर्थवान है यह सत्ता की मौत नहीं है
बल्कि आदर्शवादी मूल्यों की मौत है जिसकी मजबूत नींव में लोकतन्त्र का अस्तित्व कायम
रहता है। वह कहते हैं ‘मरते हुए लोकतन्त्र को/ अब खाली हाथ/ और नारों से नहीं
बचाया जा सकता।’ अर्थात नारेबाजी
भाषणबाजी की हकीकत हम समझते हैं। इन जुमलों से कभी राज्य जनपक्षीय नहीं होता। अपनी
नीतियों और लोकपक्षीय निर्णयों से होता है। यहाँ  रवीन्द्र राज्य के प्रति अनास्था तो दिखाते हैं
पर उसे बचाने की चिन्ता भी करते हैं। चिन्ता वाजिब है अगर जुमलों से लोकतन्त्र
बचता होता या चलता होता तो फासीवादी, सामन्तवादी, राजतन्त्र के नरेश
भी कम जुमलेबाज नहीं थे। बचा लेते अपने अस्तित्व को पर नहीं बचा पाए। अस्तु
आवश्कता है जन और अभिजन के बीच सम्पत्ति का बराबर हक देने की, जिसे आज का पूँजीकृत
लोकतन्त्र नहीं कर पा रहा है। निजी पूँजी और बाजारवाद ने राष्ट्रीय स्तर पर जो
विघटन और भयानक मोहभंग का परिकृष्ट उपस्थित किया है वह रवीन्द्र की कविता से ओझल
नहीं है। नये मूल्यों की तलाश में पुराने लोकधर्मी मूल्यों का विघटन जनपक्षधर
कवियों के लिए सर्वदा से चिन्ता का विषय रहा है। केवल व्यक्ति की चेतना नष्ट नहीं
हुई अपितु समूची सृष्टि नष्ट होने की कगार में खड़ी है। इस सृष्टि को वहन करने
वाला व्यक्ति जब अपने अतीत में देखता है तो उसे अजीब सी घुटन होती है। अपनी धसकती जमीन
को अनुभव करना एक लेखक का रचनात्मक विक्षोभ होता है वह तमाम बदलावों के प्रति
अर्थहीन दारुण परिवेश की तीखी पड़ताल करने लगता है। अतीत का यह सम्मोहन पलायन के
तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए यह मूल्यों के संरक्षण का सवाल है। जनचेतना को पृथक
करने वाले कारणों की भयावहता का सवाल है। रवीन्द्र इस प्रश्न से जूझते हैं उनकी कई
कविताओं में मूल्यहीन का सवाल उठाया गया है पूँजीकृत बदलावों के प्रति वैयक्तिक
यन्त्रणा की भंगिमा को प्रदर्शित किया गया है। उनकी एक कविता है जिसमें ‘गांव’ की निर्मितियों
के विखंडन का प्रमाणिक व स्पन्दित बिम्ब उपस्थित है। इस कविता में सम्मोहन की
गहराई को वर्गीय चेतना से जोड़कर देखने की जरूरत है तभी आज के गांवों की
वस्तुस्थिति में संकट का आभास प्राप्त होगा ‘दारू और टीवी पी गयी आदमी को/ आज शोपीस की तरह/
सिर्फ कल्पनाओं में रह गया है मेरा गांव/ या फिर मेरे कमरे में लटके कलैण्डर में’। यहाँ टी.वी.
उपभोक्तावादी विज्ञापनवाद का उदाहरण है। टी.वी. और मीडिया ने बाजार की व्यापकता
में महती भूमिका निर्वहन की है। आदमी बाजार की धुंध में लापता है। जब बाजार घरों
के अन्दर पहुंच जाता है तो गांव भी बाजार की शक्ल अख्तियार कर लेता है। बाजार का
यह प्रभाव आज गांवों में ढहते मूल्यों के आलोक में देखा जा सकता है। बाजार का
विस्तार केवल उत्पादन और वितरण की समस्या नहीं है सत्ता संरक्षण की भी समस्या है।
तमाम राजनैतिक हथकंडे कुचालें इसी बाजार की तह से निकलती हैं। बाजार सत्ता का
मुख्य नियामक है। चुनावों में अवारा पूँजी व उद्योगपतियों की भागीदारी किसी से
छिपी नहीं है। जिसे बाजार तय करता है वही मीडिया दिखाता है। वर्तमान परिदृश्य में
राजनीति के तमाम द्वन्द व संहारपूर्ण घटनाएं, दंगे फसाद सत्ता हथियाने के हथकंडे साबित हुए
हैं। जनता की वर्गीय चेतना अपने सहज मुकाम तक न पहुंच सके इसलिए परस्पर संघर्ष के
जातीय और साम्प्रदायिक आधार खोजे जाते हैं। रवीन्द्र साम्प्रदायिकता की इस
पैंतरेबाजी से परिचित हैं। ‘उनकी शक्ल न तो हिन्दुओं जैसी है/ न मुसलमानों
जैसी है/ ये सर विहीन लोग हैं। 
‘रवीन्द्र की कविता मनुष्य केन्द्रित है इनमें
आया मनुष्य केवल मनुष्य है। जाति और धर्म के ऊपरी वर्गों में विभक्त आदमी इन
कविताओं में कहीं नहीं आया है। ये कविताएं सच्चे ‘सेक्युलर’ मनुष्य का पक्ष
रखती हैं। धार्मिकतावाद, जातिवाद, भाग्यवाद, पलायनवाद समस्त प्रतिगामी अवधारणाओं का खंडन
रवीन्द्र की कविताओं में उपस्थित है। इसलिए शक्लों की पहचान वो अन्धड़ भावनाओं व
आस्थाओं की बजाय ‘सरविहीन’ लोग कह कर करते
हैं। ऐसे लोग आस्थावादी न हो कर केवल और केवल हत्यारे होते हैं। हत्यारों को
हिन्दू या मुस्लिम कहना गलत है। ये व्यवस्था द्वारा निर्मित किए गये जनविरोधी
साजिशों के ठेकेदार हैं। जिनकी ‘आदम विचारों की बन्दूकें/ भावनाओं के कन्धे से/
दागती हैं गोलियां। आदम विचारों का आशय है धार्मिक फासीवादी विचार या साम्प्रदायिक
फासीवाद, धार्मिक आतंकवाद, जो लोगों की
भावनाएं भड़का कर धार्मिक जातीय दंगे कराते हैं। हिन्दुस्तान की आवाम ने ऐसे दंगों
को भुगता है। इन दंगों के पीछे छिपी पूँजीवादी वर्चस्ववाद की मंशा को भी देखा है।
इसलिए कुँअर रवीन्द्र साम्प्रदायिकता के विवेचन में इन दंगों की तह तक चले जाते
हैं। स्वतन्त्रता के बाद व्यक्ति के टूटे हुए सपनों व असमंजस जन्य अनास्था का एक
कारण सत्ता प्रायोजित परस्पर जातीय संघर्ष भी रहा है। इन संघर्षों ने वर्गीय चेतना
को जातीय चेतना में परिवर्तित कर दिया है। ताकि शोषण का घिनौना खेल कायम रहे और
बाजार की सत्ता अक्षुण्ण रहे। रवीन्द्र इस तथ्य से वाकिफ हैं। व्यापक गरीबी, कमरतोड़ मंहगाई, अवमूल्यन, अलगाव, निराशा, हताशा, झूठे वादे, गलत बयान, जातीय और धार्मिक
आधार पर चुनाव इन सबका दंश भोगता हुआ इंसान यदि व्यवस्था के विरुद्ध नहीं खड़ा हो
रहा तो यह उदासीनता की हद है। समस्त नकारात्मक प्रवृत्तियों के विरुद्ध व्यक्ति को
प्रतिरोध दर्ज करना पड़ेगा। कब तक वह मुंह ढक कर सोता रहेगा ‘कब तक करवट लिए/
मुँह ढाँपे पड़े रहेंगे लोग।’ जबकी बदलाव की दस्तकें बार-बार आती हैं अवसर हर
रोज आते हैं पर ये अवसर सामूहिक चेतना में नहीं तब्दील हो पाते। इन अवसरों की
पहचान सोते हुए निश्चिन्त व्यक्ति नहीं कर सकते हैं। इसके लिए जागरण की जरूरत है
मुंह खोल कर बैठने की जरूरत है। ‘आज रात फिर/ दरवाजे पर दस्तक हुई। पर मनुष्य जो
अपनी चेतना से रहित हो चुका है वह दस्तकों को नहीं पहचान रहा है। कुँअर रवीन्द्र
पुनः अलगाव की बात पर आ जाते हैं। इसी चेतना के खो जाने की बात औपनवेशिक शासन के
दौरान माखनलाल चतुर्वेदी ने की थी। ‘वह आदमी हो कर भी आदमी से जा चुका है’। माखन लाल
चतुर्वेदी आदमी को आदमियत से परिचय करा कर औपनवेशिक ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ प्रतिरोध
रच रहे थे। कुंवर रवीन्द्र भी प्रतिरोध रच रहे हैं। बस पक्ष पृथक है। रवीन्द्र का प्रतिरोध
विश्व पूँजी के खिलाफ है। माखनलाल चतुर्वेदी का प्रतिरोध ब्रिटिस सत्ता के खिलाफ
था दोनों सत्ताएं एक जैसी हैं। दोनों का चरित्र  और चेहरा भी एक जैसा है। इसलिए दोनो  के विरुद्ध जनप्रतिरोध भी एक जैसा होगा। कुँअर
रवीन्द्र अपने सामने आने वाली हर चीज को खोखला पाते हैं। उस खोललेपन से जूझते ऊबते
अपने वैचारिक आयामों में सांस लेने लगते हैं। वर्जनाओं की अधिकता, मूल्यों की टूटन
से व्यथित होते हैं और पूँजी द्वारा व्यक्ति को अलग कर देने के खिलाफ मुकम्मल
प्रतिरोध रचते हैं। निश्चित है बदलाव तो होता है लगभग सभी जनपक्षधर इस विश्वास से
लबरेज है। और हो क्यों नहीं जब बदलाव प्रकृति का नियम है तो एक न एक दिन नई सुबह
जरूर होगी। यही स्वप्न चिन्ताग्रस्त मनुष्य को सान्त्वना देते हैं। 
प्रश्न उठता है
कि रवीन्द्र बदलाव के बाद कैसी व्यवस्था की कल्पना करते हैं। वो पूँजीवादी जड़ता
के टूटन के बाद कैसी दुनिया चाहते है। क्या गारंटी है कि वह अभिकल्पित दुनिया
श्रेष्ठ ही हो। कुंवर रवीन्द्र इस विन्दु पर आ कर कामरेड अजय सिंह की कविताओं के
प्रतिपाद्य सन्निकट पहुंच जाते हैं। अजय सिंह का कविता संग्रह ‘राष्ट्रपति भवन
में सूअर’ 2015 का सर्वाधिक
चर्चित कविता संग्रह है। इस संग्रह में व्यापक बदलावों का खाका खींचा गया है। यह
खाका साम्यवादी समाज का खाका है जिसमें शोषण, पूँजी, हिंसा से रहित समतापूर्ण समाज की जोरदार
गुजारिश है। रवीन्द्र भी अपनी कई कविताओं में इसी दुनिया की कल्पना करते हैं। जहाँ
व्यक्तित्व अपने मौलिक व्यक्ति से पृथक न हो, पीड़ा न हो, दुख न हो, शोषण न हो,
हिंसा न हो, आपसी प्रेम हो विश्वास हो और मानवता हो। ‘होगी न नयी सुबह? / जब आदमियत नंगी
नहीं होगी/ नहीं सजेंगी हथियारों की मंडियां/ नहीं खोदी जाएंगीं नई कब्रें’। अर्थात हत्या
और दंगों से रहित युद्ध से रहित समाज होगा जहाँ परस्पर वर्गीय और जातीय द्वन्द
नहीं होंगे। ऐसा समाज तभी सम्भव है जब निजी सम्पत्ति का राष्ट्रीयकरण हो जाए, सब कुछ सार्वजनिक
हो, निज का कुछ भी न
रहे। परस्पर शोषण न हो धन व लाभ को लेकर कोई झगड़ा न हो। निश्चित है रवीन्द्र की
दुनिया तमाम द्वन्दों से रहित दुनिया है। जिसमें मनुष्यता के खतरे खत्म हो सकते हैं। मनुष्य अपनी
चेतना से मिल कर व्यक्तित्व की पूर्णता को प्राप्त कर सकता है। यह खूबसूरत दुनिया
होगी एक ऐसी दुनिया होगी जहाँ  हर व्यक्ति
पूर्णता के स्वप्न देखेगा। आपसी प्रेम और सौहाद्र से भरे पूरे समाज की कल्पना
रवीन्द्र की कविताओं को मनुष्यता का व्यापक गान बना देती है। 
कुँअर रवीन्द्र की
कविताएं हिन्दुस्तानी आवाम की मनोव्यथा की कथा है। विश्वपूँजी द्वारा बड़ी तेजी से
किए गए परिवर्तनों के दायरे में सिमटी चेतना का आत्मसंघर्ष है। संकटों और खतरों की
सीमान्त भूमि पर खड़ा अकेला मनुष्य जब अपनी चेतना से रहित हो जाता है तो वह
सामूहिक चेतना का निर्माण नहीं कर पाता है। लगातार जातीय संघर्षों का परिदृश्य
अस्तित्व पर भी प्रश्न चिन्ह लगा देता है विश्रृंखलित जीवन अस्थिर भटकाव का शिकार
होता है। ऐसे हर व्यक्ति के समक्ष अपनी गुमशुदा मनुष्यता का सवाल खड़ा होता है। वह
सवालों के समुचित जवाब की तलाश में पुनर्मानवीयकरण का प्रयास करता है। इसी प्रयास में
उसे व्यापक बदलावों का रास्ता दिखाई देता है। वह संघर्ष करता है, थकता है, विश्राम करता है
पर अपनी चेतना की पुनप्र्राप्ति करता है। यह संकट केवल व्यक्ति का संकट नहीं है।
विश्वपूँजीवाद ने समूची मानवता के समक्ष यह संकट खड़ा कर दिया है। रवीन्द्र की
कविताओं में अनुभव जमीन हिन्दुस्तान की है अतः संकटों की भयावहता भी हिन्दुस्तानी
है। इन कविताओं में हिन्दुस्तान का आम जन साकार हो गया है। समूचा लोक अपनी सामयिक
वस्तुस्थिति के साथ रवीन्द्र की कविताओं में उतर आया है। मुझे इस प्रसंग में
रघुपति सहाय फिराक का एक शेर याद आ रहा है कि 
‘मगर कहो न मिला
तेरा सोजो साजें वतन, 
चमक उठा है तेरी
लय में दर्द हिन्दोस्तां।
कुँवर रवीन्द्र की कविताएँ 
1..
मेरे पास
ढेर सारे प्रेम पत्र हैं
ढेर सारे प्रेम पत्र हैं
किसी और के
किसी और के लिए लिखे गए
वह अंतिम पत्र भी
जो किसी और के बाद
किसी अन्य को लिखे जाने के
ठीक पहले का था
शब्दों में फर्क सिर्फ नाम का है
किसी और के बाद, किसी अन्य को
लिखे गए पत्र में
2..
मैं अँधेरे से
नहीं डरता 
अन्धेरा मुझ से डरता है
मैं उजाला अपने हाथ में ले कर चलता हूँ
तुम बोते रहो अँधेरे के बीज
रोज़ दर रोज़
मैं उजाले की बाड बना कर
अन्धेरा घुसने नहीं दूंगा
उसी तरह
जैसे एक किसान
अपने गन्ने के खेत को
सूअरों से बचाता है
मैं बचाऊंगा
अँधेरे से उजाले को
अन्धेरा मुझ से डरता है
मैं उजाला अपने हाथ में ले कर चलता हूँ
तुम बोते रहो अँधेरे के बीज
रोज़ दर रोज़
मैं उजाले की बाड बना कर
अन्धेरा घुसने नहीं दूंगा
उसी तरह
जैसे एक किसान
अपने गन्ने के खेत को
सूअरों से बचाता है
मैं बचाऊंगा
अँधेरे से उजाले को
3...
मैंने जब भी 
फ़क्क सफ़ेद कागज़ पर लिखा
प्रेम!
कागज़ धूसर हो गया
लिखा, दुःख
कागज़ हरिया गया
फ़क्क सफ़ेद कागज़ पर लिखा
प्रेम!
कागज़ धूसर हो गया
लिखा, दुःख
कागज़ हरिया गया
4..
एक दिन जब तुम
सुबह
सो कर उठोगे
तो देखना
तुम्हारे पैरों तले न ज़मीन होगी
न सर पर आसमान
पानी पीने के लिए नदियां भी नहीं होंगी
जब तुम सो कर उठोगे
तो देखोगे कि तुम्हारा गाँव
स्मार्ट सिटी बन चुका है
बुलेट ट्रेन
तुम्हारे गाँव के बीच से गुज़र रही है
जब तुम सो कर उठोगे
तो खुद को स्मार्ट सिटी के
किसी फुटपाथ पर
भीख मांगते हुए पाओगे
तब समझ लेना
देश का विकास हो चुका है
और तुम एक विकसित देश के
सभ्य व सम्माननीय नागरिक हो....
सो कर उठोगे
तो देखना
तुम्हारे पैरों तले न ज़मीन होगी
न सर पर आसमान
पानी पीने के लिए नदियां भी नहीं होंगी
जब तुम सो कर उठोगे
तो देखोगे कि तुम्हारा गाँव
स्मार्ट सिटी बन चुका है
बुलेट ट्रेन
तुम्हारे गाँव के बीच से गुज़र रही है
जब तुम सो कर उठोगे
तो खुद को स्मार्ट सिटी के
किसी फुटपाथ पर
भीख मांगते हुए पाओगे
तब समझ लेना
देश का विकास हो चुका है
और तुम एक विकसित देश के
सभ्य व सम्माननीय नागरिक हो....
5...
जिस देश की
जवानी
नाच गाने और मुजरे में व्यस्त हो
स्खलित हो रही हो कोठों में
जिस देश की
नदियां,पहाड़ और ज़मीन
यहां तक कि
आसमान भी बिक चुका हो
अन्न उपजा कर भी
किसान मर रहे हों भूख से
और निज़ाम हो मूर्ख
तब उस देश के
आम आदमी के लिए
क्या बचता है
सिर्फ कोई एक विकल्प ?
हाँ !
बचता है सिर्फ विकल्प
छीन ले वह बांसुरी
और मेघ बन बरस पड़े
रोम पर
नाच गाने और मुजरे में व्यस्त हो
स्खलित हो रही हो कोठों में
जिस देश की
नदियां,पहाड़ और ज़मीन
यहां तक कि
आसमान भी बिक चुका हो
अन्न उपजा कर भी
किसान मर रहे हों भूख से
और निज़ाम हो मूर्ख
तब उस देश के
आम आदमी के लिए
क्या बचता है
सिर्फ कोई एक विकल्प ?
हाँ !
बचता है सिर्फ विकल्प
छीन ले वह बांसुरी
और मेघ बन बरस पड़े
रोम पर
सम्पर्क - 
ई-मेल - kunwar.ravindra@gmail.com

 
 
 
मेरे पास
जवाब देंहटाएंढेर सारे प्रेम पत्र हैं.............
यह कविता प्रेम कविता है या निर्गुण या दोनों ही ये कहान कठिन है। दुनियाँ एक मुसाफिरखाना है कि तरह।
ये कविताएं ही नहीं ...शब्दों का जीवंत चित्रांकन हैं........
जवाब देंहटाएंयुवा आलोचक उमाशंकर सिंह परमार की कवि-चित्रकार के. रविन्द्र की भूमिका के बहाने एक गहन-गंभीर संतुलित समीक्षा प्रस्तुत की है। कुंअर रवींद्र की कविता-रचना के पीछे उनकी गहरी जनवादी दृष्टि और उनका आदिम-लगाव है जो कविता में साहित्य के सामाजिक दायित्त्व का पूरी निष्ठा और सहजता से निर्वहन करते हैं | सृजन का पहला और अंतिम लक्ष्य मनुष्यता की ही तलाश है ताकि आदमी में आदमीयत बनी रहे। कवि के इसी जुनून के कारण सृजन की सार्थकता और सोद्देश्यता बनी रहती है जिसका गहरा प्रभाव जनमानस पर पड़ता है और वह लोगों को जीने की वजह देती है। कवि और समीक्षक दोनों बधाई के पात्र हैं।
जवाब देंहटाएंउमाशंकर परमार कविता- समीक्षा में कविता के विभिन्न प्रतिमानों की कसौटी पर कविता की समीक्षा के साथ साथ समाज में पूंजी के प्रभाव और वैश्विक पूंजी के खतरे को भी साथ -साथ लेते चलते हैं और विश्लेषित करते हैं जो कविता के संदर्भ में समीक्षा को ज्यादा पठनीय बनाता है।
जवाब देंहटाएंआभार /धन्यवाद भाई सुशील कुमार जी , परमार , संतोष भाई इस मान और स्थान देने के लिए
जवाब देंहटाएंरवीन्द्र केवल कविता लिखते ही नहीं हैं कविता की समझ भी रखते हैं । मैं तो उस दिन का इंतजार कर रहा हूं जब वो कविता पर अपनी बात रखेगें ।
जवाब देंहटाएंBahut achchha aalekh...
जवाब देंहटाएंUma Bhai ne sookshmta se pakda hai. Ve khud sankochvash nhi maante par hm Sangrha padhkar Bhai Ravindra ji ki zaroori kavi maan chuke hain. Bahut bahut badhai va Shubhkaamnayen !!Aabhaar Pahleebaar!!
- Kamal Jeet Choudhary