हरबंस मुखिया की नज्में
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| हरबंस मुखिया | 
कम लोग ही इस बात को जानते होंगे कि हरबंस मुखिया न केवल जाने-माने इतिहासकार हैं बल्कि एक बेहतर कवि भी हैं। पिछले दिनों जब दूधनाथ सिंह ने हरबंस जी को 'पहली बार' पर प्रकाशित उनकी बेहतरीन कविताओं के लिए बधाई दी तो न केवल हरबंस जी का बल्कि हमारा भी उत्साहवर्द्धन हुआ। कविता के लिए इतिहास बोध बहुत जरुरी होता है। और अगर कवि खुद ही एक जाने-माने इतिहासकार हों तो फिर क्या कहने। पहली बार पर आप पहले भी हरबंस जी की कविताएँ पढ़ चुके हैं। एक बार फिर हमारे आग्रह को स्वीकार कर हरबंस जी ने अपनी कविताएँ हमें भेजीं जो आपके लिए यहाँ प्रस्तुत हैं।
हरबंस मुखिया की कविताएँ
शायद तुम लौट आओ
इस ख़याल से कि 
शायद तुम लौट आओ 
मैं ने अपनी साँसों को 
हथेलियों में समेट लिया 
कि कुछ लम्हे और जी सकूं 
तुम्हें देख लेने को 
सूरज को 
आसमान की सतह पर बाँध दिया 
कि वक्त वहीँ थम जाए 
तुम्हारे आ जाने तक 
मुझे मालूम था 
कि किसी ख़ाब की तरह 
तुम लौट कर नहीं आओगे 
पर मेरी आँखों में 
रात भर
इन्तज़ार की लौ टिमटिमाती रही 
जिसे उम्मीद ने बुझने न दिया  
उम्मीद 
जो वक्त से बड़ी होती है 
तुम नहीं आए 
इसका मुझे 
कोई शिकवा, कोई शिकायत, कोई गिला नहीं 
कि मैं ने अब 
तुम
उस शाम
तुम्हारी आँखों में जलती 
हवस की लौ 
मुझे वक्त की शाहराह पर 
बहुत दूर ले आई 
जहाँ तुमने 
ममनूअ फल खा कर 
ख़ुदा की हुक्म उदूली की थी 
उस अज़ीम गुनाह में था 
तुम्हारे अपने वजूद का अहसास 
और था 
उस लौ से दमकते बदन में 
मेरे इंसान होने का 
अक्स 
ला-उन्वान 
मेरा वजूद 
वक्त की भूलभूलैय्यां है 
जिस के हर मोड़ पर  
कई और रास्ते फूट निकलते हैं 
मेरा वजूद 
तारीख़ की पहचान है
जिसके तय शुदा रस्तों पर 
ख़ुद कायनात सर झुकाए 
बन्धक की तरह चली आती है 
मेरा वजूद 
किसी सती का दिया श्राप है 
जिससे मुक्ति देना 
तन्हाई 
एक उम्र की आशनाई के बाद 
कल तुम्हारी अजनबी निगाहें 
मुझे माज़ी के उस मोड़ पर ले आईं 
जहाँ हर सुबह 
सूरज की किरनें 
सफ़ेद तन्हाई को सुर्ख रंग देतीं 
हर दोपहर की धूप 
तुम्हारे प्यार की छांव में 
कहीं खो जाती 
हर शाम 
तुम्हारी आँखों की लौ से 
दिये जलते 
आज मैं 
फिर उस सर्द तन्हाई के साये में 
ज़िंदगी के हाशिये पर 
जिला वतन खड़ा 
सोचता हूँ 
कि ख़ुद को मैं 
कितना कम जान पाया 
ला-उन्वान 
वह अनगिनत ख़त 
जो कितनी ही ज़िंदगियों में 
मैं ने तुम्हें लिखे थे 
और तुमने हर एक ख़त 
मुस्कुराते, हँसते, रोते 
कई कई बार पढ़ा 
और उठा कर रख दिया 
एक बार और पढने को 
जैसे ये ख़त ही तुम्हारा और मेरा सब कुछ हो 
इन ख़तों में हम ने कई रंग ढाले 
सफ़ेद पाकीज़गी, सब्ज ताज़गी 
सुर्ख तमाज़त और नीली गहराई 
तुम और मैं हर रंग मेँ डूब कर, तैर कर 
लड़खड़ाते और संभलते रहे
कई हसीं ख़ाब बुने, कई तोड़े  
फिर एक दिन अचानक 
तूफ़ान के एक झोंके से 
पानी के वह तमाम रंग 
जिनमें हम इतरा कर डूबते और तैरते थे 
आग के रंग में ढल गए 
जिसमें मेरे वो सारे ख़त 
जल कर राख हो गए 
और तुम्हारी आँखों में तैरते आँसुओं के परदे में 
मैं ने एक दबी हुई मुस्कान की 
मुहाजिर 
जिस रोज़  
मुबारक अली
अपने बाप के पीछे-पीछे 
राजस्थान में टौंक की गलियां पार करते 
कराची की ट्रेन में बैठे 
उस ऱोज बहुत बारिश हुई थी 
वह सारी बारिश 
मुबारक अली 
अपने छोटे-छोटे हाथों में 
समेट कर अपने साथ ले गए 
उन्हें लगा जैसे 
कहीं और की बारिश का पानी 
इतना मीठा न होगा 
अरसा गुजरा 
मुबारक अली का घर फूला फला 
वह ख़ुद बाप बने 
लेकिन पानी अभी भी वही पीते 
जो अपने हाथों में समेट लाये थे 
फिर एक दिन 
वह पानी खत्म होने को आया 
तो मुबारक अली वापस टौंक लौटे 
पर इस बार 
वहाँ की गलियों में उन्हें 
कड़ी धूप मिली
धूप और सूखा 
इस बार टौंक में 
बारिश नहीं हुई थी 
(मुबारक अली पाकिस्तान के सुप्रसिद्ध इतिहासकार हैं जो निरन्तर साम्प्रदायिकता
को चुनौती देते रहे. यह नज्म उनकी आत्म कथा से प्रेरित.)
संपर्क- 
हरबंस मुखिया 
बी-86, सनसिटी, सेक्टर-54, 
गुडगाँव, 122011,
(हरियाणा),
(हरियाणा),
मोबाईल- 09899133174
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं।) 



 
 
 
दिल की गहराइयों से उफनती नदी सी निकली कवितायेँ
जवाब देंहटाएंइतिहास के वर्क़ दर वर्क़ निहां रहस्यों को खोलती सी कवितायेँ
जवाब देंहटाएंएक इतिहासकार की कवितायें अच्छी लगी.मुखिया जी दिल से कवि है.
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