गीता पण्डित की कविताएँ
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| गीता पण्डित | 
गौतम का यशोधरा को यूँ सोते छोड़ कर घर से चले जाने वाला प्रसंग मुझे हमेशा से परेशान करता रहा है। गीता पण्डित ऐसी समर्थ कवयित्री हैं जिन्होंने इस मुद्दे को अपनी कविता का विषय बनाया है। शायद इसलिए भी कि एक स्त्री दूसरी स्त्री के मर्म को बेहतर तरीके से जानती-समझती है। बुद्ध आजीवन दुःख से पार पाने के प्रयास करते रहे और उपदेश देते रहे लेकिन 'दुःख' रक्तबीज सा हमेशा जिन्दा सही साबूत हमारे सामने दिखाई पड़ता रहा। इसके पीछे के कारणों की तहकीकात करते हुए गीता पण्डित कहतीं हैं 'बिना कुछ कहे/ ऐसे जाना/ सपनों का खो जाना है/ जो अभिशाप है/ ज़िंदगी के लिये .../ सुनो बुद्ध! / जीवन के लिए संवाद अनिवार्य है। तो आइए आज पढ़ते हैं गीता पण्डित की कुछ नयी कविताएँ जो कुछ इसी तरह के सवालों से टकराने का माद्दा लिए हुए हैं। 
गीता पंडित की कविताएँ  
स्त्री 
मैं स्त्री थी
बाँट दी गई
माँ बहन बेटी पत्नी प्रेमिका में
देवी कह कर
अपमानित किया
देवदासी कह कर
बनाया अपने भोग की वस्तु
वैश्या तुम्हारा दिया नाम है
बलात्कार कर
हत्या की मेरे अस्तित्व की
परित्यक्ता नाम भी
तुम्हारी ही देन.
आह !!!!!
नहीं दे पाये तो बस एक नाम
'सहचरी'
क्या मैंने बहुत ज़्यादा चाहा था? ?
........
अहिल्या 
वहन करनी थीं 
सुरंगों की असंख्य मर्यादाएं 
टोह लेता रहा मन 
विच्छिन्न होता रहा तन 
पर भूगोल तो भूगोल था
इतिहास की चौखट पर 
माथा टेकता रहा वर्तमान 
भविष्य पर टिकी रहीं 
आज के प्रश्न की आँखें 
चौसर बिछीं 
दांव पर लगायी गयीं स्त्रियाँ
न्याय के पास आँखों का टोटा था
चौराहे पर टांग दी गयीं लाशें 
ताकि मरघट का सन्नाटा 
गूँजता रहे देर तक
और श्वास ना ले पाये कोई शब्द 
शब्द जन्मता है तो अर्थ निश्चित है 
अर्थ मिल गया 
तो लाशें हो जायेंगी ज़िंदा
नहीं मंजूर था समय को 
पहना दिए समय ने 
स्त्री को मौन के वस्त्र 
और बना दिया अहिल्या 
आज अहिल्या 
बन गयी है फिर से स्त्री 
समय अवाक है 
........
अथक यात्रा पर 
अनकहे को बाँचता जीवन 
होता है निरन्तर 
अथक यात्रा पर
सहगामी होती हैं आशाएं 
जो श्वासों के रथ में 
काम करती हैं पहियों का 
पहियों का रुक जाना 
श्वासों का दिवंगत हो जाना होता है 
शेष रहे
उम्मीद 
शेष
रहेंगे सपने
......
सुनो बुद्ध! यशोधरा  
तुम्हारे प्रेम में निमग्न 
कब सो गयी 
जान नहीं पायी 
यूँ ही सोता छोड़ 
तुम चले गये 
यकायक 
तुम्हारे जाते ही 
दिवंगत हो गई मेरी नींद 
हाँ !!!!!!! 
कह कर जाते 
तो आँखें देखतीं सपने 
बिना कुछ कहे 
ऐसे जाना 
सपनों का खो जाना है 
जो अभिशाप है 
ज़िंदगी के लिये 
सुनो बुद्ध! 
जीवन के लिए संवाद अनिवार्य है
......
तिलिस्म 
तय सीमाएं
तय ज़मीन 
तय रास्ते
भुला दिया समय
ने 
मुझे कठोरता से
भूल गया इतिहास
फ़ेंक दिया गठरी
में बाँध कर 
तहखानों में
चलती रही अंधी
सुरंगों में सदियों तक
तलाशे नये
रास्ते
नयी ज़मीन
खुद तय कीं
सीमाएं
कहाँ था मंजूर
तुम्हें
मेरे तयशुदा
रास्तों पर मेरा चलना
इसलियें नहीं
चूके चोट करना
मेरे मर्म पर
मेरे अस्तित्त्व
पर
तुम्हारा
तिलिस्म अभी भी कायम है
तुम्हारी सोच
में
लेकिन ज़रूरी
समझती हूँ तुम्हें बताना 
मैं शरीर में
नहीं जीती ..........
योद्धा 
नहीं भाया
उन्हें
तुम्हारा ठुमक कर
चलना
नहीं भाया
उन्हें
मन-पसंद परिवेश में तुम्हारा ढलना
तुम बेखौफ चुनती
रहीं 
आकाश से तारे
वे बेखौफ भरते
गये 
तुम्हारी आँख
में सितारे
अब समय आ गया है
तय करना है
तुम्हें आज 
अभी इस पल
भरते रहें यूँ
ही तुम्हारी आँख में तारे 
या उड़ना है
मुक्त गगन में 
पँछी की तरह
बाहें पसारे
निर्णय करना है
तुम्हें ही 
कोई नहीं दे
सकता 
तुम्हें आदेश
कोई नहीं सहला
सकता 
तुम्हारी देह
उठो 
खडी हो जाओ तन कर 
सीधी करो अपनी
रीढ़ की हड्डी 
बनाओ अपने मन को
योद्धा
क्यूंकि आज
तुम्हें लड़ना है अपनों से
क्यूंकि आज
तुम्हें लड़ना है समाज से
क्यूंकि आज
तुम्हें लड़ना है अपने आप से
क्यूंकि आज ये
समय है एक अंधा समय
जहाँ घर के
भीतर-बाहर 
कभी भी 
कुछ भी घटित हो
सकता है 
तुम्हारे साथ
तैयार रहो 
मुस्तैद रहो|
.......
आओ 
दहकते भभकते 
कुंठित समय की देह पर 
वह लिखती जा रही है गीत 
अपने प्रेम से,
अपने समर्पण से 
आओ हम 
सौ करोड़ मिल कर एक साथ 
उसे रागिनी बना दें 
.........
सम्पर्क-
ई-मेल : gieetika1@gmail.com
मोबाईल - 09810534442 
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं।) 


 
 
 
हर एक कविता नूतन विमर्श के लिए विवश करती है. स्त्री के मन को स्त्री ही ठीक से अभिव्यक्त कर सकती है और फिर गीता पंडित जैसी विदुषी हो तो क्या बात है. इस तरह की शालीन विद्रोहिणी को हार्दिक शुभकामनाये . स्त्री-विमर्श के नाम पर कुछ भी लिखने वाली कवयित्रियों को इन कविताओं से एक दिशा भी मिलेगी
जवाब देंहटाएंआभार सर ...
हटाएंबेहतरीन कविताओं के लिए बधाई गीता जी को ! "सुनो बुद्ध! यशोधरा" बहुत ही मार्मिक कविता है !
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार शैलेन्द्र जी ... कवितायें पसंद करने के लिए ..
हटाएंस्त्री विमर्श को प्रस्तुत करती कवितायेँ मन को छूती हैं , सोचने को विवश करती हैं स्त्री और समाज को सोच का अंतर्द्वंद जो सदियों से चला आ रहा है आखिर कब तक चलता रहेगा ..........बेहतरीन कविताओं के लिए गीता जी को हार्दिक बधाई .
जवाब देंहटाएंह्रदय से आभार वंदना जी
जवाब देंहटाएंबहुत सहज और सम्प्रेषणीय कविताएँ ।स्त्री मन के जरूरी सवालों को अभिव्यक्त करती कविताएँ ।बहुत बधाई गीता जी ।
जवाब देंहटाएंआभार mani mohan mehta जी
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