अमरेन्द्र कुमार शर्मा की 'मेरे प्यारे देश' श्रृंखला की ग्यारह कविताएँ।
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| अमरेन्द्र कुमार शर्मा | 
कविता कल्पना की उड़ान होते हुए भी बहुत कुछ कवि की आपबीती भी होती है। एक समय के बाद कवि और कविता जब एकमेक हो जाते हैं तब कविता जैसे दार्शनिक अंदाज़ में बदल जाती है। इस दार्शनिकता में ढेर सारे सवाल होते हैं। इस दार्शनिकता में अनेक तरह की स्वाभाविक चिन्ताएँ होती हैं। आम तौर पर 'देश' शब्द का प्रयोग जब हम करते हैं, वह एक संकुचित दायरे में होता है। लेकिन कवि की चिन्ता, कवि की दार्शनिकता उसे वह विराट स्वरूप प्रदान करती है जिसमें 'देश' मनुष्य ही नहीं, मनुष्य के जीवन से जुड़ जाता है। तभी तो वह देश के प्रति चिन्तित होता है या फिर देश के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने के लिए तैयार रहता है। आज जब 'देश' शब्द के मायने को संकुचित करने के प्रयास चल रहे हैं ऐसे में अमरेन्द्र कुमार शर्मा की कविताएँ हमें आश्वस्त करती हैं कि 'देश' को संकुचित करने के सारे प्रयास विफल होंगे और अपने वास्तविक मायने के साथ यह शब्द फिर से अपनी गरिमा प्राप्त कर सकेगा। अमरेन्द्र जितना उम्दा गद्य लिखते हैं उतनी ही उम्दा कविताएँ भी लिखते हैं। आज पहली बार पर प्रस्तुत है अमरेन्द्र कुमार शर्मा की 'मेरे प्यारे देश' श्रृंखला की ग्यारह कविताएँ।
मेरे प्यारे देश श्रृखंला की ग्यारह कविताएँ
अमरेन्द्र कुमार शर्मा 
शब्द की कराह
मुझमें हजारों उजले शब्द की कराहें रहती है ।
धकेल देता हूँ जिन्हें अंधियारी गुफा में जबरन,
उजले शब्दों के बिलकुल पास,
संभावित हत्यारों का पहरा बहुत है सख्त,
जारी है, उजले शब्दों के आखेट का संगठित अभियान।
उजले शब्दों की कराहों को अनसुना कर ,
लिखता हूँ ,
नए मुहावरे में एक अँधेरा शब्द ,
और अब, हत्यारे खुश हैं ,
आखेट स्थगित ,
यह हत्यारों के खिलने-खिलखिलाने का समय है।
फ़िलवक्त,
कराहों से भरे उजले शब्दों का, 
गुनहगार हूँ मैं।
यह, उजले शब्दों के कारावास का समय है
मेरे प्यारे देश।
बीज का भय
बीज का भय,
पश्चिम के खेतों से पसरता हुआ 
फैल गया था, जो
गंगा-यमुना के कछारों में,
जिसे
लुटियन के टीले पर 
प्रसंस्कृत किया गया था।
उसे अब भारत के ठीक बीचोबीच 
रोपे जाने की पूरी तैयारी है।
और हम कतारबद्ध खड़े हैं 
सबसे पहले उसे
सींचने की आपाधापी में।
बीज के भय में कहाँ हो तुम बुद्ध?
मेरे प्यारे देश।
चुप्पी
तुम तक आने की चुप्पी से भरी राह 
रौशनी में भी कितनी अंधेरी है।
मेरे प्यारे देश।
मेरे प्यारे देश
फ़िलवक्त, 
एक लंबी चीख के साथ 
हो जाना, कहला जाना 
पागल
या, 
निचाट ठंडे शव में बदलते हुए 
शांति से भर जाना 
बीच का कोई रास्ता नहीं है।
बहुत
सीमित होता जा रहा विकल्प 
मेरे प्यारे देश।
मृत्यु के हौसले का टूटना
गुनगुनाती
हुई फागुन की यह रात,
तुम्हारी देह के सिरहाने 
आहिस्ते से बैठ जाती है रोज। 
तुम्हारे माथे पर ,
टांक आता हूँ चाँद।
आषाढ़
की बारिश से भरी अंधेरी रात में,
जब मिलेंगे हम-तुम 
गुनगुनाएंगे चाँद-रात,
देखेंगे हम-तुम मृत्यु के हौसले का टूटना।
मेरे प्यारे देश।
अमानत
वो जो अंजुरी भर उस दिन 
टहटह टेसू तोड़ लाया था 
और बिखेर दिए था माथे पर मैंने 
उस दिन, पूरनमासी के बाद चाँद 
अपना एक कतरा तुम्हारे दुपट्टे
में भूल आया था। 
चाँद तुम्हारी अमानत है
मेरे प्यारे देश।
दुःख लीला
दुःख की असंख्य लीलाएँ हैं।
हमारे समय के माथे पर,
लीलाओं का अखंड गान है।
मेरे प्यारे देश।
मृत्यु-शोक
तुम्हारा प्यार, 
मेरी, मृत्यु शोक में बैठी सभा को 
कर देगी रौशन, 
तुम देखना,
और भींग जाऊँगा मैं कहीं, प्यार में तुम्हारे।
मेरे प्यारे देश।
प्रेम – जिरह
प्रेम,
एक
ज़िरह भी तो है,
रौशन
करती है,
आत्मा
की पलाश काया। 
प्रेम के इस इकहरे समय में
अँधेरा घना है,
मेरे प्यारे देश।
आओ 
तुम्हारी अमावस की रात में 
रोपता हूँ , 
चाँद पूरनमासी 
यह बरकत है तुम्हारी ही।
मेरे प्यारे देश।
भटकना
कुछ नहीं,
बस, रात कहीं खो गई।
दिन, जंगल है,
भटकता हूँ जहाँ उम्रभर।
मेरे प्यारे देश।
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स
वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की हैं।)  
सम्पर्क
हिंदी विभाग,
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय,
वर्धा
मोबाईल
- 9422905755



 
 
 
बेहतरीन प्रस्तुति।
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