ध्रुव हर्ष की कविताएं
|  | 
| ध्रुव हर्ष | 
ध्रुव हर्ष मूलतः एक कवि हैं और आजकल मुबई में रहते हुए कुछ बेहतरीन लघु फ़िल्में बना रहे हैं. ध्रुव की कविताएँ आप पहले भी ब्लॉग पर पढ़ चुके हैं. उनके कविताओं का विषय मूलतः प्रेम है जो आज की इन कविताओं में भी देखी जा सकती है. प्रेम जिसकी वजह से दुनिया आज भी इतनी खूबसूरत दिखती है. प्रेम जो तमाम प्रतिबंधों के बावजूद उन फूलों की तरह खिलता रहता है जो दुनिया को रंगीन और जीवन्त बनाए हुए है. एक अरसे बाद आज पहली बार हम पढ़ते हैं युवा कवि और फ़िल्म निर्देशक ध्रुव हर्ष की कविताएँ.   
ध्रुव हर्ष की कविताएं     
(1)
गोल चश्मा क्यों लगाते हो...?
ताकि मैं थोड़ा सा गांधी की तरह दुनिया देख सकूँ!
क्या इसे लगाने से कुछ अलग दिखती है!
हाँ...अंतर नहीं दिखता 
मुझमें  और तुममें;
बस इतना काफी नही है,
आज हिन्दुओं और मुसालमानों के हिन्दुस्तान में!
बस इतना काफी नही है,
आज हिन्दुओं और मुसालमानों के हिन्दुस्तान में!
(2)
वो 
कहती तो थी,
कि तुम भी न
तुमसे तो कोई भी;
…ख़ैर छोड़ो!
ये इश्क़ और इल्हाम की बातें
ग़ालिब और ख़लील जिबरान की बातें
ये बस बातें हैं
उन अर्श के तारों की
या महज़ नाज़िल तसब्बुर
अफ़सानानिगारों की,
जहाँ बस दर्द है
तब्दील चीख़ों में उदासी की
और इक जाम आख़िरी
तेरे उलझनों के दुनिया की
जो सबब होगी
इक दिन में रे ख़ामोश ज़ुबान की
जब मैं तुझे
देखे बग़ैर चल दूँगा..!
ये इश्क़ और इल्हाम की बातें
ग़ालिब और ख़लील जिबरान की बातें
ये बस बातें हैं
उन अर्श के तारों की
या महज़ नाज़िल तसब्बुर
अफ़सानानिगारों की,
जहाँ बस दर्द है
तब्दील चीख़ों में उदासी की
और इक जाम आख़िरी
तेरे उलझनों के दुनिया की
जो सबब होगी
इक दिन में रे ख़ामोश ज़ुबान की
जब मैं तुझे
देखे बग़ैर चल दूँगा..!
(3)
विशाल जी के लिए...
...न्यूड बैठ
कर 
उसने सीने पर 
अपनी ऊँगलियों से 
कुछ लिखा था,
वो आखिरी बार
जब हम इस तरह से मिले थे
खैर कहा तो करती थी
कि 'खय्याम' को पढ़ रही हूँ...
बीते दिनों बाद
आज मैं उन रूबाइयों को
बेआबरू कर रहा हूँ
क्या पता
वो सीने पर लिखे कैफिये
अपनी जुबां ढूंढ ले!
वो आखिरी बार
जब हम इस तरह से मिले थे
खैर कहा तो करती थी
कि 'खय्याम' को पढ़ रही हूँ...
बीते दिनों बाद
आज मैं उन रूबाइयों को
बेआबरू कर रहा हूँ
क्या पता
वो सीने पर लिखे कैफिये
अपनी जुबां ढूंढ ले!
(4)
...री मैडम के लिए 
कुछ कहने की कोशिश में 
वो सब कुछ, जो खो देने का डर है
जो भी हो बड़ा दिलकश है,
कुछ आपकी आँखों में 
जो मेरी लाख गुस्ताखियों को
कम से कम एक क्षण
बिन नज़र हटे ताकने की
इजाज़त तो देती हैं…!
जो मेरी लाख गुस्ताखियों को
कम से कम एक क्षण
बिन नज़र हटे ताकने की
इजाज़त तो देती हैं…!
(5)
वो शोख़ अदा
और लचक तेरे जिस्म की
है भी कि महज़ ख़्वाब था
शर्द रातों का
शब हुई तो 
छोड़ गई तन्हा
नाख़ूनों के खरोंचे दे के…!
छोड़ गई तन्हा
नाख़ूनों के खरोंचे दे के…!
(6)
...री मैडम के लिए
मैं तुमसे 
नफरत करती हूँ 
वजह नहीं जानती
फिर भी,
मोहब्बत नहीं कर पाई
शायद इसलिए…!
मोहब्बत नहीं कर पाई
शायद इसलिए…!
(7)
…आँखें 
जब सर्द होंगी।
रातें जब शुष्क
होंगी 
और होंठ तुम्हारे
प्यासे और सुर्ख़
होंगे
याद करना
अपनी साँसों के में स्पंदन में
मेरे आबशारों के गीत
‘क़ुरान’ की मुक़द्दस आयतों 
और ‘गीता’ में कृष्ण के अल्फ़ाज़ों के गीत
मीरा में कृष्ण
की मोहब्बत 
और क्राइस्ट में ‘मेरी
मगदलिंन’ के एहसासों के गीत।
जो मैंने 
बादलों और तेरे
काजलों पर लिखे
थे;
कमर की सलवटों
रूह की सिसकियों
पर 
और तुम्हारे गले को चूम रही यूथोपियाई मोतियों
के गीत।
बालों के उन जूड़ों पर, 
जिन्हें मैं अपनी
उँगलियों से सँवार
दिया करता था
जब तुम मेरे
स्पर्श से बेसुध
हो
कर 
अपनी चेतना मुझमें
खो देती।
तब याद है तुम्हें; 
कैसे मैं अक्सर
तुम्हारे कमर में हाथ डाल कर
साड़ी की गाँठे
बाँध दिया करता
था
और एक पल के लिये तुम कितनी ‘मैं’ हो जाती 
जब तुम्हारी आत्मा मुझमें
गिरफ़्त होती।
उन सबको याद करना बिना आँसू
बहाए
अपने हृदय पर हाथ रख कर
क्योंकि मैं तुम्हें
बस
पानी की सतहों
पर लिखी हुई 
एक काफिराना  
यादें ही दे सकता था…
(8)
मौत
सच नहीं
एक ख़्वाब था
इस दुनिया का 
 
जहाँ 
तेरे हाथों में 
मेरी एक झूठी तस्वीर है।
(9)
‘री’ मैडम
के लिए
रातरानी से कह दो 
वो महका न करे 
अब वो नही रहती वहाँ;
कुछ है, तो
बस 
उसकी बेचैन करती यादें,
और सफ़ेद बालों की पुरकशिश
जो खींचतीं थी मुझे
उसकी कहकशाँ नज़रो में
और मैं बस उसे देखता रहता…
खो गयी है, 
कहीं बेबस उलफतों में
पहली धड़कन बन
और उसकी महक आज भी मेरी
आँखों में।
(10)
लोग कहते हैं 
शेली, बॉयरन पर मत लिखो
तो क्या लिखूँ!
संगीन जुर्मों की दास्तानें 
या वसीयत का 
वो झूठा सच
जिनसे मरने के बाद अँगूठा लगवा कर
मुंसिफ़ों और वकीलों ने
भगेलू की ज़मीन किसी मिश्रा को लिखवा दी।
वो झूठा सच
जिनसे मरने के बाद अँगूठा लगवा कर
मुंसिफ़ों और वकीलों ने
भगेलू की ज़मीन किसी मिश्रा को लिखवा दी।
या मज़लूमो और बच्चों की चीख़ें 
जिन्हें मंदिरों और मस्जिदों में रेप कर क़त्ल कर दिया गया
या उन पत्थरों और आयतों पर 
जो मुक़द्दस हो कर भी 
घिनौने आस्थाओं को जन्म देती हैं 
क्या लिखूँ!
इंसानों की बात 
या हिंदुस्तान में 
हिंदू और मुसलमानों की, 
या मैं हिंदू हूँ तो तरफ़दारी में 
अपने धर्म की बात?
या उन देवताओं का सच 
जिन्हें कल की सियासत ने 
झूठे इंक़लाबी तेवर में धनुष-बाण थमा दिए!
या अपने मुल्क़ की सच्ची तस्वीर 
जो बेबस बुढ़िया के फटे आँचल में 
जली रोटी की तरह है 
जिसे हम 
भारत माता कहते हैं
जो कल भूख से मर जाएगी…उसकी जय!
सम्पर्क 
मोबाईल : 09769482206
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.) 



 
 
 
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें