सुल्तान अहमद की ग़ज़लें
ग़ज़ल विधा ऐसी विधा है जो आज भी लोगों में बहुत लोकप्रिय हैं. ग़ज़लों का आरंभ अरबी साहित्य की काव्य विधा के रूप में हुआ। अरबी से होते हुए यह फ़ारसी, उर्दू के बरास्ते हिन्दी में आयी। आरम्भ में इस विधा का केन्द्रीय तत्त्व प्रेम था। आगे चल कर राजनीति और जनजीवन से जुड़े मुद्दे ग़ज़लों का विषय बने। दुष्यन्त कुमार ने हिन्दी ग़ज़ल को वह लोकप्रियता प्रदान की जो उसे अन्य विधाओं से अलहदा बनाती है. आज भी इस ग़ज़ल विधा में बेहतर लेखन हो रहा है। ऐसा ही एक नाम है सुल्तान अहमद का। सुल्तान अहमद का हाल ही में एक नया ग़ज़ल संग्रह आया है 'नदी हाशिये पर'। आज पहली बार पर प्रस्तुत है सुलतान अहमद के इस ग़ज़ल संग्रह से कुछ ग़ज़लें। 
       
सुल्तान अहमद की ग़ज़लें
1
मेरा सर झुका तो हटे
 सभी कि वो सर न हो, कोई सूल  हो,
वो ख़ुदा  कहीं न   मिला  जिसे  मेरी बंदगी  ये क़बूल  हो।
मैं खड़ा हुआ तो बिठा
दिया, मेरा हाथ उठा तो गिरा  दिया,
मेरे लब खुले  तो वो हँस पड़े,  मेरी बात  जैसे  फ़िज़ूल
हो।
ये जो शह्र है, वो शरीफ़ है,  कोई इसमें आके लुटा ही  क्यों,
दिया मुंसिफ़ों ने  वो फ़ैसला  कि उसी  की
जैसे  ये भूल हो।
वो न  ख़्वाब देखे  बहार के, वो ख़िज़ाँ  जिगर में है ख़ार के,
उसे नागवार  लगे बहुत  किसी की  नज़र में  जो फूल  हो।
मुझे ये तड़प कि
बताये कुछ मेरी शक्ल में हैं जो  ख़ामियाँ,
वो बताये भी तो
बताये क्या कि जब आइने पे ही धूल हो।
2                             
              मैं   किसी 
बीज-सा   मिट्टी 
में  दबा  करता  हूँ।
              सिर्फ़  इतने  से  कि
तन्हाई का दोज़ख़ है क़बूल,
              जिससे दिल मिलता है उससे ही मिला करता हूँ ।
              आस्माँ  उससे   लरज़ता   है  ये 
मालूम  न  था,
              मैं  जो  गोशे 
में  भी  परवाज़ 
किया  करता  हूँ ।
              मुझको  सूरज  की तपिश कैसे मिटा सकती है ?
              एक  क़तरा  हूँ 
मैं  दरिया  में   बहा   करता 
हूँ ।
              सोचकर  मुझको  सुनाना 
जो  सुनाना  दुखदर्द,
              अपने  दुखदर्द   पे  अक्सर 
मैं  हँसा  करता 
हूँ ।
                          3
ये माना बहुत हम ज़रूरी नहीं,
 करें   इसपे 
मातम  ज़रूरी  नहीं।
  हवाएँ  चलें  आपके 
हुक्म   पर,
  मुसल्सल  ये मौसम ज़रूरी नहीं।
  कहीं रुख़ ज़मीं ये बदल ही न दे,
  उठाती   रहे   ग़म   ज़रूरी  नहीं।
  झरेगी  कभी  आग  भी
आँख से,
  हमेशा   रहे   नम 
ज़रूरी   नहीं।
  दुखों को दिखाओ मगर देख लो,
   यही  राग  हर  दम
ज़रूरी नहीं।
                                4
इस जहाँ में  हक़ मुकम्मल हमने कब हासिल किया ?
शोर उट्ठा, उसका इक हिस्सा भी जब हासिल किया।
तुमने  चलती  रेल  से   बाहर   जो   फेंकी   रोटियाँ,
हमने कितनी ज़हमतों
से उनको अब हासिल किया।
क्यों  भला  होते  पशेमाँ  जबकि  वो
 थे  कामयाब,
ज़िंदगी  को  छोड़कर  सामान  सब  हासिल  किया।
रास्ते   का   बनके   रोड़ा   आ   रही  थी  बार-बार,
आत्मा  जब  मर  गयी,  ये ताज तब हासिल किया।
अपनी   वीरानी   पे   वाइज़   ख़ुद   बहुत   हैरान  है,
दूर  जाकर  आदमी  से,   जिसने  रब हासिल किया।
 5
            अपनी  साँसों 
में  चाहे  कमी कर गये,
              फिर भी  सहरा  में ज़िंदा नदी कर गये।
              जिसको देखो उसी की नज़र फिर गयी,
              बात  शायद  कोई  हम
नयी कर गये।
              आपकी  बेरुख़ी  का 
गिला क्या  करें,
              ख़ुद से हम इस क़दर बेरुख़ी कर गये।
              एक  ही  वैसे 
पायी,  उसी  में  मगर,
              हम  मुकम्मल  कई  ज़िंदगी कर गये।
              उगके  देगा ये  सूरज 
गवाही  ज़रूर,
              किस  अँधेरे में  हम 
रौशनी कर गये।
रात है अमावस की और बन घना भी है,
 हर क़दम पे मुँह बाये इक-न-इक  बला
भी है।
 कैसी   जगमगाहट 
है  इस  तिलिस्मख़ाने 
में,
 जितना  जो  नज़र आये उतना लापता भी है।
 आज  भी  तो 
ख़ंजर हैं  हादसों के  हाथों में,
  कोई  कैसे  बतलाये 
जो  यहाँ  हुआ  भी
है।
   वो  कहीं  दिखे 
उनको,  उसपे  संग बरसायें,
    फिर जहाँ को समझायें,  इश्क़ ये ख़ुदा भी है।
    मंदिरों में जा-जाकर,  मस्जिदों  में जा-जाकर,
    बैर  के  सिवा 
तुमको और कुछ मिला भी है !
    आज  के  ज़माने 
में  ख़िज्ऱ  क्या 
बतायेंगे,
     दिल  जला के  हाथों 
में लें तो रास्ता भी है।
 7
हमारी राह में इतने बबूल आये हैं,
इसी ख़याल में फूलों को भूल आये हैं।
 तुम्हीं  ने  कौन-सा  उन
 हादसों  पे  ग़ौर
किया,
  तुम्हारे   पाँवों   के   नीचे  भी
 फूल  आये  हैं।
  लगेगी  सख़्त  उन्हें  और  भी  ज़मीं  अब
 तो,
   हसीन  ख़्वाबों   के  झूलों
 पे  झूल  आये
 हैं।
   गुनाह,  जिनको न  हम ख़्वाब में भी कर पाते,
   उन्हें  भी  ख़ौफ़  के    मारे   क़ुबूल  आये  हैं।
   तुम्हीं   बताओ   ये   कैसे    फलेंगे-फूलेंगे ?
    ज़ुबान   पर   ही   तुम्हारे   उसूल  आये   हैं।
    बुलाके   दर   पे  हमें   हो  गये  कहाँ ग़ायब,
 8
हिंदू   न   चाहिए,   न   मुसलमान     चाहिए,
इनमें  कहीं  जो
 गुम  है  वो  इंसान   चाहिए।
पहले  तो  वो  फ़साद  जगाते  हैं,
उसके बाद –
हथियारबंद    उनको    निगहबान  
 चाहिए।
बारूद    बो   रहे
  हैं
  वो
 सारी  ज़मीन  में,
बदले में उनको फिर
भी  गुलिस्तान चाहिए।
कितने  बड़े  सख़ी  हैं,   सख़ावत
के वास्ते,
दुनिया   तमाम   उनको   परेशान   चाहिए।
चलते  हैं  रहबरों  के
 इशारों  पे  रात-दिन,
ऊपर  से  उनको
 राह  भी आसान चाहिए।
होठों पे कोई तल्ख़
हक़ीक़त तो लाके देख,
दरिया  में  अपने
 गर तुझे  तूफ़ान चाहिए।
माना  कि तुम शरीक सियासत में हो मगर,
थोड़ा-बहुत  तो  उसमें  भी  ईमान चाहिए।
  9
चुभा  था 
काँटा,   कसक  रहा है,
ये  फूल 
फिर  भी  महक 
रहा  है।
अभी  से 
कैसे  वो  थक  रहा
  है,
निशाना  जिसका   फ़लक
रहा है।
गिरायी  जिस 
आस्माँ ने बिजली,
उसी
को फिर क्यों वो तक रहा है ?
कहीं  न हो उसके तुम ही मुजरिम,
जो
सबसे  छुपके  सिसक 
रहा है।
कभी  तो 
उसपर  भी  ग़ौर कीजे,
जुनूँ  में जो 
कुछ वो  बक रहा है।
ज़मीं
  की   परतें   हटाके   देखो,
कहीं   तो   शोला 
भड़क रहा है।
              रास्ता    है    तो
  पा   ही 
जायेंगे।
              जिनको कुचला है आस्माँ ने बहुत,
              आस्माँ    को    हिला 
ही  जायेंगे।
              आँधियों    में   वो   टूट 
ही  जायें,
              हम    घरौंदे    बना    ही    जायेंगे।
              सर  पे  रखकर  अगर
पहाड़ चले,
              क्या  है  जो  लड़खड़ा ही जायेंगे।
              इक  जहाँ  ख़ाक 
में  भी  पा लेंगे,
              गर   हमें   वो   मिटा 
ही  जायेंगे।
              गुम  नहीं  हम,  ज़मीं की तह में हैं,
              जब  भी  उभरेंगे 
छा  ही   जायेंगे।
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आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (25-09-2018) को "जीवित माता-पिता को, मत देना सन्ताप" (चर्चा अंक-3105) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
लाजवाब.........
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