निर्मला तोंदी की कविताएँ।
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| निर्मला तोंदी | 
निर्मला तोंदी का दूसरा कविता संग्रह 'सड़क मोड घर और मैं' हाल ही में वाणी
प्रकाशन नयी दिल्ली से प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह में निर्मला के कवि का विकास
स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है। आज पहली बार पर हम प्रस्तुत कर रहे हैं निर्मला के
इसी संग्रह से कुछ चुनिन्दा कविताएँ। कविताओं के साथ राजेश जोशी द्वारा लिखा गया
फ्लैप मैटर पर यहाँ पर दिया जा रहा है। तो आइए आज पढ़ते हैं निर्मला तोंदी की
कविताएँ। 
“इस समय जब हिन्दी कविता में आत्मालोचना का स्वर लगभग विलुप्त सा हो गया है, निर्मला तोदी की
कविताओं में इस स्वर का सुनना उम्मीद जगाता है। वो जितना अपने से बाहर की
स्थितियों का विश्लेषण करते हुए सवाल उठाती हैं उतना ही अपने स्व का भी विश्लेषण
करती हैं। यह कविता जानती है कि वह अपनी कमजोरी को अपने बड़प्पन में छिपा रही है, उसमें इसे
स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं है। वह ज़रूरी जगह पर भी चुप रह जाने का जानती है
और इसलिए अपनी इस चुप्पी पर सवाल भी करती है। निर्मला की कविता यह सवाल करती है कि
जब घर में ही चुप हूँ तो परिवार, पड़ोस, समाज और देश के
लिए कुछ भी कैसे कहूँ? निर्मला तोदी की कविताएँ भाषा को बरतने में न
केवल मितव्ययी है बल्कि अपनी आवाज़ के तापक्रम को भी वह एक संयत तापक्रम पर ही
बनाये रखती हैं। उसमें अतिरिक्त मुखरता या अतिशयोक्तियाँ नहीं हैं, शायद इसलिए इन
कविताओं की आवाज़ हमें ज्यादा भरोसेमन्द लगती है। 
इन कविताओं में अपनी परंपराओं की धीमी गूंज को सुना जा सकता है। उसमें नाते-रिश्तों
में आ रहे बदलाव की पीड़ा भी है और उनकी अनेक स्मृतियाँ भी। उसमें ज़रूरत के समय काम
आने वाले घरेलू नुस्खों की भी यादें बसी हुई हें। ये कविताएँ दो अलग-अलग
स्थानीयताओं के बीच न केवल एक दूसरे को याद करती हैं बल्कि दोनों के बीच पुल बनाने
का भी काम करती हैं।
इन कविताओं की शांत दिखती सतह के नीचे एक गहरी बेचैनी हैं। ये कविताएँ जो रात
भर सोने नहीं देतीं, कभी ये अधूरी सी लगती हैं और बार-बार अपने को
पूरा करने के लिए परेशान करती हैं। कभी-कभी ये जादू की तरह दिमाग पर छा जाती हैं।
और कभी एक टिकिट पर लिखी कविता पर पूरी पृथ्वी घूमने लगती है।
निर्मला तोदी का यह दूसरा संग्रह उनके पहले संग्रह से आगे की यात्रा की ओर
संकेत करता है।”
-राजेश जोशी
निर्मला तोदी की कविताएँ
रात भर घूमी हूँ मैं
धूप की एक तिरछी सी लकीर
पर्दों के बीच से झांक कर
जगा गई
पर्दा सरका कर देखा
कुछ भी नहीं बदला
वही आसमान है रोज वाला
वही पेड़ पंछी
वहीं पर
मैं न जाने कौन सी यात्रा से लौटी हूँ
नयी-नयी रंग-बिरंगी पृथ्वी की यात्रा
हरे-हरे आसमान की यात्रा
चाँद से बातें कर आई हूँ
सूरज से खेल कर
हरे-हरे तोते उड़ रहे थे वहाँ
समुद्र के पास गाई थी पानी पीने 
उसने नदी का मीठा पानी पिलाया मुझे
जामुन के पेड़ से जामुन तोड़ कर 
खिलाये थे बतखों को
सब याद है मुझे
रात भर घूमी हूँ मैं
वे सब वहीं हैं
मैं यहाँ इस कमरे में
यह सुबह रोज वाली
वही आसमान रोज वाला 
मेरे विशेषण
मैं चुप रही 
जब उसने मेरे सामने सवाल जवाब किए 
अपनी उदारता का नाम दे कर 
मैं चुप रही 
उस समय जब मुझे बोलना चाहिए था 
बदलते जमाने को देख कर 
मैं वहाँ नहीं गयी 
जहाँ मुझे जाना था 
उसी में अपनी अक्लमंदी समझ कर 
उसके कटु-वचनों को सुन कर 
मैं चुप रही 
अपनी सहनशीलता पर अभिमान कर 
मैंने अपनी जुबान खोली 
शब्दों को तोल-मोल कर दो शब्द कह भी डाले 
अपनी व्यवहारिकता पर संतुष्ट हो कर 
मैंने उसे माफ किया 
और चारा भी क्या था 
मैंने अपनी कमजोरी को बड़प्पन का नाम दिया 
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मैं चुप रही 
अपनी कमजोरियों को मैंने 
समझदारी, उदारता, सहिष्णुता, बड़प्पन  
व्यवहारिकता अक्लमंदी 
समय के साथ चलना आदि आदि 
कई विशेषणों से नवाजा 
अब आप ही बताइए 
जब मैं घर में चुप हूँ 
तो...
परिवार पड़ोस समाज देश के लिए 
कुछ भी कैसे कहूँ?
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मैं चुप रही
ढेरों बचे शब्द कुलबुलाते हैं भीतर 
मैं उन्हें उड़ा देना चाहती हूँ पक्षी बना कर 
ऐसा भी कर नहीं पाती 
वे कुलबुलाते हैं भीतर 
मैं उन्हें नींद की गोलियां खिला देती हूँ 
और मैं भी सो जाती हूँ 
एक ऐसी गहरी नींद में 
जहाँ सपने नहीं होते 
साँप-सपोले
मेरे सवाल
उन्हें साँप सपोले लगेंगे
उनमे विष नहीं
वे तो दाना दुनाका चुगते हैं
उनके जवाब 
जहर उगलेंगे 
मालूम है मुझे
तो ऐसा करते हैं
सवालों को उनके घोसले में रहने दें
जवाबों को उनकी बाम्बी में
मेरा तकिया
मेरा तकिया 
रात को सुलाता है 
सुबह वही जगाता भी है 
मैं उससे कह देती हूँ थपथपा कर 
कल सुबह पाँच बजे 
ठीक तो ...
वो जवाब नहीं देता 
पर पाँच बजे अपनी मूक अलार्म बजा जरूर देता है 
मेरे कामों की लिस्ट 
अपने लिहाफ में रखता है 
सुबह उठते ही थमा देता है 
सबसे बड़ी बात 
सबसे बड़ा काम 
जो काम मेरे दिमाग से उड़नछू हो गए है 
जरूरी हो तो भी 
वे उड़नछू हो ही जाते हैं 
और दिमाग भी झुँझला कर कह देता है 
मुझसे नहीं संभलता 
कितना संभालू मैं 
मेरा मित्र 
मेरा तकिया 
उन्हें मेरे सिरहाने रख देता है 
याद दिलाता है मेरी कुंडी खटखटा कर 
पूछती हूँ उससे सुबह-सुबह 
तुम्हें अच्छी नींद आई तकिये भाई?
अच्छा यह तो बताओ 
तुम्हें कौन जगाता है 
ठीक समय पर?
वह जवाब नहीं देता 
गुदगुदाता है गोल- गोल घूमघूम कर
उनके जाने के बाद
उनके जाने के बाद
बहुत सी जगह खाली हो गई
जो जगह उनकी थी
उसके अतिरिक्त 
इधर-उधर पड़ी थी
उनकी बहुत सी जगह
दिखलाई पड़ी
उनके जाने के बाद
सन्नाटों में भी कुछ आवाजें थी
जो कम हो गई
सन्नाटों की आवाजें बढ़ गई
उनके जाने के बाद
उनका न बोलना अब समझ में आता है
उनका बोला हुआ भी
अब समझ में आता है
सुबह की सबसे पहली नल की आवाज़
शाम के कूकर की पहली सीटी
अब चुप है
वो किस किस आवाज़ में थी
यह भी मालूम हुआ
उनके जाने के बाद
रसोई से
उनका पानी का लोटा गुम है
तनी पर सूखते कपड़ों में
सफ़ेद रंग कम है
लगातार हाथ में घूमती माला
बैठी है चुपचाप
सब चीज़ें कहाँ थी
मालूम हुई उनके जाने के बाद
वो खाली जगह भर जाएगी 
खाली हुआ समय भी भर जाएगा
समय के साथ
वो पूजा की घंटी में थी
तुलसी के साथ भोग की थाली में थी
अनुशासन में थी
आश्वासन में थी
मंजूरी में थी
नामंजूरी में थी
तौर-तरीकों नियमों में थी
आज्ञा में थी
अंदर पनपती उन आज्ञाओं की अवज्ञाओं में थी
बड़े-बड़े फैसलों 
छोटी-छोटी बातों में थी
वो अपने कमरे में रहती थी
वो हर जगह थी
यह सब मालूम हुआ 
उनके जाने के बाद
उनका खाली कमरा 
उनके नाम से ही रहेगा कुछ समय तक
फिर एक नए नाम के साथ रहेगा
उसी जगह 
क्या इस पन्ने को जला दूँ
सफ़ेद फ्रॉक
लाल बटन 
लाल बेल्ट 
दो चोटी उसमे लाल रीबन
पॉकेट, पॉकेट में चमचमाती मेरी कलम
मैं, मेरी कक्षा में
कक्षा में सभी लड़कियां 
मेरे पैर में मोजा जूता नहीं 
सफ़ेद मोजे काले जूते बिना 
ऐसे ही चली आई 
यही 
ठीक यही तो सपना देखती थी मैं 
अपने कॉलेज के दिनों में 
कितनी-कितनी बार 
देखा है इस तरह यह सपना 
शर्म से नहाई हुई 
करेंट का झटका लगा हो जैसे 
अपने को पूरी की पूरी चादर में लपेटती हुई 
ऊठ बैठती थी
इसका जवाब किसी फ्रायड के पास नहीं मिला 
लाईब्रेरी छान मारी थी मैंने
आज इतने सालों बाद
फिर सोच रही हूँ उस बारे में 
कभी किसी से शेयर भी नहीं किया 
कौन था जिससे शेयर करती 
घर की लाड़ली बेटी थी 
समय पर ठीक से तैयार हो कर स्कूल जाती थी 
अपनी दोनों छोटी बहनों को भी तैयार करके साथ ले जाती थी 
फिर भी ये सपना 
अब सोचती हूँ 
क्या अंदर कोई असुरक्षा की भावना दबी थी 
क्या अब भी है वो अंदर 
बचपन का बीज 
अब वो सपना नहीं आता 
फिर भी 
अभी बड़ी दीदी ने कहा 
उसे लिख कर जला दो 
निकाल फेंको अपने जीवन से 
खत्म कर दो 
क्या इसी पन्ने को जला दूँ 
प्रिय पाठक 
इसे आप सब तक पहुंचा रही हूँ 
आप अपनी राय दें 
जरूर दें ... 
जरूर 
इस तरह
सिद्धार्थ ने
सड़क पर अर्थी देख कर
घर छोड़ दिया
मैंने देखा है उन्हें
प्राण छूटने के बाद
घर छोड़ते हुए
मुझे पता नहीं था
बॉडी कैसे जाएगी
क्या स्ट्रेचर आएगा?
चादर जिस पर सोयी थी वो
बिस्तर की सफ़ेद चादर
चार लोगों ने उसे चार कोनो से पकड़ा
हर कहो जी... हर कहो... कहते हुए ले गए
शरीर कष्टों से बाहर था इसलिए
शरीर से वो बाहर थी इसलिए
इस तरह... चली गई
अब मैं हूँ इस घर की मालकिन
तिनका-तिनका जोड़ कर बनाए घर से
घर की मालकिन चली जाती है
इस तरह...
उसे फूलों से सजाया भी जाता है
घर के बाहर
उनके साथ जाता है 
सिर्फ एक तुलसी का बिरवा
इस तरह मैं
मैं उसे नहीं देख पाती
उसके बनाए पेड़, फूल, तितली, भँवर देख लेती हूँ 
इन्द्रधनुष भी 
मैं उससे बातें कर लेती हूँ 
घंटों ढेर सारी 
डाल पर बैठी चिड़िया हुंकारा भी भर देती है 
मैं उसे नहीं पा सकती 
एक नन्हा सा खरगोश 
एक सफ़ेद कबूतरों के जोड़े के पास चली जाती हूँ 
मैं उसे नहीं छू सकती 
धरती पर बिछी मुलायम घास 
उस पर बखरी ओस की बूंदों को छू लेती हूँ 
इस तरह मैं 
उसे देख लेती हूँ 
छू लेती हूँ 
पा लेती हूँ 
और पूर्ण हो जाती हूँ 
एक पल में
फूल
पीले-पीले सूरजमुखी
उगता लाल सूरज
एक दूसरे पर मोहित हैं
सूरजमुखी खिलते जा रहे हैं
चम-चम चमकते जा रहे हैं
सूरज फूल होता जा रहा है
उन्हें देख कर अमलतास सूरजमुखी हो रहे हैं
अमलतास पर चढ़ रहा है 
प्रेम का रंग
वे खिल रहे हैं
झर रहे हैं
धरती को फूलों ने बचा रखा है 
पूरा संसार
छोटी सी गौरैया
छोटा सा तिनका लिए आई
एक नया पूरा संसार बसेगा 
इस कमरे में 
जीवन के लिए
यह सही है 
चार दीवारों से घर नहीं बनता 
लेकिन
चार दीवार बिना पूरी पृथ्वी पर 
एक भी घर नहीं मिलता 
एक छत के लिए 
झुक जाती है कमर 
स्वप्निल हवा बहती है चार दीवारों के भीतर 
छत बिना 
आसमान पर टिमटिमाते तारे 
खो जाते हैं 
आसमान में ही सारे के सारे 
तिनका-तिनका जोड़ 
नन्ही सी गौरैया बनाती है घोसला अपना 
चार दीवारों के किसी जोड़ पर 
उड़ते पक्षी भी 
कहीं न कहीं बना लेते हैं अपना घर 
चार दीवार और एक छत से घर हो न हो 
एक ठोर हो जाता है 
जीवन के लिए
यही है हरा-भरा संसार
एक हरी मिर्च 
एक टुकड़ा प्याज़ 
एक चुटकी नमक 
और हाथों की महक लिए 
खनकती दो मोटी-मोटी रोटी 
यही है 
हरा-भरा संसार 
बारिश का इंतज़ार
इंतज़ार 
बारिश की बूंदों का करती हूँ 
बादल हैं कि नहीं 
देखती भी नहीं 
मन की बात
उनके पास आकाश है 
आकाश के तारे हैं उनके शब्द 
उन्हीं से कर रहे हैं बाते चुपचाप 
तारे पहूँचा रहे हैं 
एक दूसरे के मन की बात 
उनके पास
अच्छी लगी
पहला काव्य-संग्रह 
उतना ही प्रिय होता है 
जितना कि पहला प्यार 
पहला बच्चा 
पहला...
सब कुछ 
सभी से प्रशंसा मिली 
मुझे अच्छा लगाना ही था 
अच्छा लगा 
सबसे अच्छा लगा 
जब मेरी पोती 
उसे अपने स्कूल बैग में ले कर चली 
अपने दोस्तों को अपनी अध्यापिका को दिखाने 
स्कूल बैग पीठ पर टांगें 
आज उसकी चाल बदली-बदली थी 
उसकी यह अदा 
मुझे सबसे ज्यादा अच्छी लगी
मैं झूठ नहीं बोलती
मैं झूठ नहीं बोलती 
बचपन से 
मुझे सच बोलने का पाठ पढाया गया है 
इसलिए मैं झूठ नहीं बोलती 
यह सच नहीं है 
मैं डर जाती हूँ 
जानती हूँ मेरी जबान सच बोल भी दे 
मेरा चेहरा झूठ नहीं बोल पाता
मैंने सीख लिया है 
अपने आप से झूठ बोलना 
इसमे पकड़े जाने का डर नहीं 
हाँ! आईना सब जानता है 
हँसता है मुझ पर 
मैं उससे कभी डर जाती हूँ 
कभी नहीं डरती 
सुबह
सबकी अपनी-अपनी सुबह 
एक सुबह तीन बजे हो जाती है 
सूरज सोया रात और रात जगी होती है 
साहबज़ादों की सुबह बारह बजे होती है 
रात-पाली वालों की ड्यूटी ही 
उनकी सुबह होती है 
किसी की सुबह गरम प्याली चाय के साथ 
कहीं हर-हर गंगे के साथ 
ठंडे-ठंडे पानी में नहाना चाहिए के साथ 
एक ही जगह 
एक सुबह झाड़ू-फटके लगा रही है 
एक सुबह उबटन मल रही है 
एक सुबह बोझा ढो रही है 
एक सुबह जिम जा रही है 
एक सुबह के हाथ में हौरलिक्स का प्याला है 
एक सुबह के पास जूठी चाय की प्यालियाँ 
उनकी सुबह कबूतरों के साथ 
एक सुबह दाना डाला नहीं 
तकते-तकते कबूतर उड़ गए 
सुबह हुई नहीं 
सबकी अपनी-अपनी सुबह 
एकांत में
एकांत में 
यादों का एक जंगल होता है
एक पंचायत होती है
सही गलत का फैसला होता है
वहाँ शांत नीला आकाश खड़ा होता है
वर्तमान धुंधला
भूत और भविष्य एकदम साफ और चमकीला
बंद कमरे में
एक चिड़िया की फड़फड़ाहट सुनाई देती है
उसके साथ बावरी उड़ाने
वहीं एक जलस्रोत फूटता है
बहती है एक नदी प्यारी सी
एक नाव सूखे रेत पर जा कर टिक जाती है
टिमटिमाती लालटेन जलती है बहुत दूर
पानी की गंध टकराती है मस्तिष्क से
शांत नीला आकाश सामने खड़ा होता है 
आवाजें
घर के अंदर
आवाजें बना लेती हैं अपनी जगहें
हर छोटे बड़े कोने में
बैठ जाती है कुर्सी और पलंग पर
टंग जाती है पर्दों संग
घुल जाती है हवाओं में
जब घर में कोई नहीं होता
वे ज़ोर-ज़ोर से बातें करने लगती है
फैल जाती है पूरे घर में
लेकिन जब बहुत समय के लिए
और आवाजें आ कर नहीं जुड़ती उनसे
वे अपने आप को बचा नहीं पाती
खत्म हो जाती हैं
फिर भूतों का कलरव 
सन्नाटों के सरगम के साथ
गूँजने लगता है
पूरे घर में
सभी दिशाओं में 
जननी
जब एक जननी जन्म दे रही होती है
वहाँ सृष्टि निर्माता खड़ा होता है
खुश होता है
कृतज्ञ होता है
होता है अचंभित
उर्वरता को देख
वही समय 
सृष्टि के सृजन का समय होता है
जब वह दूध पिला रही होती है
पूरी पृथ्वी को सींच रही होती है
उसके घोसले में
उसके नर्म गर्म पंखों से
झाँकता है पूरा जीवन
जननी संभालती है पूरा ब्रह्माण्ड
सूर्य की गर्मी और
घास की नर्मी के साथ
जैसे धरती पोसती है जड़ों को
उसकी गोद में ही पलती है पूरी कायनात 
कुली
आजकल स्टेशन पर कुली कम दिखते हैं
छोटी बड़ी पेटियों में चक्के जो लग गए हैं
कुलियों को भी वही चक्के लग गए हैं
वे किसी दूसरे स्टेशन पर चले गए हैं 
सम्पर्क 
ई-मेल : nirmalatodi10@gmail.com
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)  



 
 
 
अच्छी और प्यारी कविताये । उनकी सम्वेदना आकर्षित करती है। निर्मला जी को बधाई
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