मीता दास की कविताएँ
|  | 
| मीता दास | 
राष्ट्रवाद के मसले को ले कर गांधीजी
और रवींद्र नाथ टैगोर के विचार बिलकुल अलग-अलग थे। दोनों की अपनी अपनी संकल्पनाएँ
थीं। जालियांवाला बाग़ हत्याकांड मुद्दे पर आक्रोश जताते हुए रवींद्र नाथ ने अपनी
नाईटहुड की उपाधि लौटा दी थी। देशभक्ति कैसे फासीवाद और नाजीवाद का रूप ले लेती है
इसे देखना हो तो मुसोलिनी और हिटलर के इतिहास को देखा-पढ़ा जा सकता है जो अंततः
समूचे विश्व शांति के लिए खतरा बन गया। अभी हाल ही में राष्ट्रीय स्तर पर देशभक्ति
और देशद्रोह को ले कर लम्बी बहसें चलीं और उठापटक हुई। इन दोनों के बीच एक विभाजक
रेखा कहाँ और कैसे खींची जाए यह सवाल आज भी ज्यों का त्यों है। अपने अधिकारों को
ले कर संघर्ष कर रहे लोग कभी भी देश द्रोही नहीं हो सकते। मीता दास अपनी एक कविता
में इस मुद्दे से दो-चार होते हुए कुछ प्रश्न ही खडी करती हैं। मीता ने नवारुण
भट्टाचार्य की कविताओं का बेहतरीन अनुवाद कर अपने को साबित किया है। उनकी कविताओं
पर नवारुण का प्रभाव स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है। तो आइए आज पढ़ते हैं मीता दास
की कुछ नयी कविताएँ।     
मीता दास की कविताएँ 
"फिलिस्तीनी कविता पढ़ते हुए" 
{नवजान दरवीश कहते है -------- फ़ादो, औरों की  तरह नींद
मुझे भी आ ही जाएगी इस गोली
बारी के दरमियान ............}
     
  हाँ, हाँ, हाँ 
     
  रक्त की गंध में भी मुझे नींद आ ही
जाएगी 
     
  चीखते बिलखते बच्चों के खुनी फव्वारों से
नहा कर भी, 
     
  मुझे नींद आ ही जाएगी 
     
  बस दुःख होगा इस बात पर 
     
  कि मेरा देश इस बात पर चुप्पी साधे बैठा
है 
     
  हवाई दौरों के सफ़र में मशरूफ़ 
     
  दूरबीन से हवाई पट्टी को ताकता हुआ
विमान की खुली खिड़की से 
     
  उन्हीं बच्चों की लाशों के ऊपर से हवाई
उड़ान भर कर 
     
  हर वो सरहद पार कर लेगा 
     
  अपनी हदें पहचानने और भुनाने के लिए 
     
  अधमरे, खून से लथपथ बच्चों की लाशों पर से गुजर
जायेगा 
     
  फिर न उफ़ न आह बस एक गंभीर हँसी लपेटे 
     
  बढ़ जायेगा अपने दौरे के अगले पड़ाव की ओर 
     
 ...................
     
  ये चुप्पी तुम्हे महँगी न पड़े 
     
  बच्चे माफ़ नहीं करेंगे कभी तुम्हे 
     
  नींद तुम्हें भी आ ही जाएगी 
     
  राजसी ठाठ-बाट में पर 
     
  रक्त के सूखते धब्बों की गंध 
     
  नहीं दब पायेगी किसी रूम फ्रेशनर से या
न ही 
     
  टेलीविजन पर विज्ञापित किसी डियोड्रेंड
से ही  
हांडी 
सबके सब चांवल गल ही जाते है हांडी
में
नहीं गलती है तो दाल
उबल–उबल कर गिरती है मांड
गरीब की हांडी से
अफ़सोस
मांड पीता और जीता है घर
क्या जवान, बच्चे और बूढ़े 
गलाने चल पड़ते हैं पांव मांड पी,
घरों,
मोहल्लों, होटलों और ढाबों पर
हर कही,
हर किसी की दाल,
ये वही लोग हैं जो
अपनी हांडी में नहीं गलने देते
किसी की भी दाल 
दाल गलाता
वह क्षण भर को सोचता
दाल के स्वाद के बारे में!
सूंघ कर ही वह बता सकता है
पहचान,
रंग गुलाबी, पीली और काली दालों का
पर वह अपनी जीभ हमेशा
काट कर घर की खूँटी पर ही टांग आता
बच्चों ने हमेशा उसकी लटकती जीभ देखी
है
बगैर प्रश्नों के
वे जानते हैं
यह उनके घर का है नजरबट्टू
जैसे बड़े बड़े घरों के दरवाजों में
जीभ की ही आकृति वाला ठुंका होता है
कीमती काले घोड़े की नाल
नजरबट्टू सा
मशाल 
उसने सिगरेट के चार कश खींचे
फिर
अनमने भाव से उसे बुझा दिया
धूँआ भर चूका था उसके सीने में
दिमाग की नस दिपदिपाई
अनमने में
बुझी हुई सिगरेट
सिगरेट के पैकेट में वापस रख दिया
जली हुई सिगरेट और साबुत
सभी संग–संग
सोच रहा था
धुएँ के बारे में
गुबार के बारे में
काश इन धूओं सी लहराती कोई कविता
जल उठे मस्तिष्क के कोष में
सोच ही रहा था कि
सिगरेट हा पैकेट
धू–धू कर जल उठा
अब उसे कविता का कीड़ा नहीं काट रहा था
वह हलके से मुस्कुराया
उसके सिगरेट ने अपना काम कर दिया था,
अनमनेपन में ही उसका सिगरेट
मशाल बन चुका था
देशद्रोही 
किसी को यह बताना 
कि कौन ले गया तुम्हारे हिस्से की रोटी 
पसिया पीते बच्चों की हँसी 
कौन दाग रहा दुनाली 
सीने में जंगल के और 
जंगलियों के?
कौन ठूंस रहा पत्थर-गिट्टी 
योनियों के रास्ते 
कौन हैं  .... कौन 
सब पत्थर!
जो भी हो 
उनके संग 
हो! देश द्रोही। 
नवान्न 
कुछ भूखों के मुंह बढ़े आये 
जैसे वे हों अनेक जरूरी चेहरे 
अनेक जरूरी होने के बावजूद 
अपनी ही जिद पर हैं आज भूखे 
उनकी भूख नितांत साधारण भूख ही हैं 
पर उनकी इस साधारण भूख को ले कर 
चल रहे हैं बड़े-बड़े व्यवसाय 
हाट से संसद तक 
उनकी भूख राशन कार्ड में है जप्त  
मैंने लिखनी चाही 
नवारुण दादा के भूखे मानुषों पर कविता
 .... 
ये कविता तो नहीं!
मैंने चित्रित कर दी शायद  ... 
सिर्फ कागज पर 
पदचिन्ह। 
घरेलू स्त्रियाँ 
ये जानती हैं 
पहचानती हैं 
बुझती हैं, चीन्हती हैं 
बेबसी के मायने 
नहीं ढूंढती फिरती 
उन्हें पता होता है 
जीवन कोई डिक्सनरी का पन्ना
नहीं 
कि पन्ने पलटते ही 
सारे मतलब 
पा जाएँ। 
बंद गली की औरतें 
बंद गलियों की चौखट पर डोलती औरतों को 
पता होता है ---
बंद गलियों के उन झरोखों के बारे में 
जहाँ का रास्ता ---
या तो किसी की मुट्ठी है या 
पिंजरा। 
युगों से खड़ी 
अंधे बंद गलियों की औरतों ने 
राह की खाक भी नहीं छानी 
गली का मुहाना देख अपना दायरा बूझ लेती
हैं 
सड़ती हैं उन्ही गलियों में 
और नहीं आती किसी की मुट्ठी में, जब तलक न बदा हो
दुर्भाग्य। 
विद्रोह 
जितनी भी हो मंशा,
हमें नेस्तनाबूत करने की
करते रहो कारगुजारियां
हमें बंदी बनाने की
हम में है वो दम-खम
हम मिटटी, मटके, घड़े, घास और टीलों पर भी
अपने हिस्से की, जरुरत के माफिक
बेखौफ, निर्भीकता से बना सकती हैं
हमें नेस्तनाबूत करने की
करते रहो कारगुजारियां
हमें बंदी बनाने की
हम में है वो दम-खम
हम मिटटी, मटके, घड़े, घास और टीलों पर भी
अपने हिस्से की, जरुरत के माफिक
बेखौफ, निर्भीकता से बना सकती हैं
आशियाँ 
और
फूट निकल सकती हैं
खुशबू लिए मासूम फूलों के मानिंद
फूट निकल सकती हैं
खुशबू लिए मासूम फूलों के मानिंद
   चाँद 
        शाम से ही उतर आई 
        गगन के गोद में बैठी थी 
        अब तक .......
        चाँद बन कर 
        नोच नहीं पाता मैं 
        उसके चेहरे के दाग 
        भरपूर नज़र डालने से भी डरता 
        कैसा दिखता होगा 
        चेहरा उसका 
        एसिड बम के बाद 
   घड़ी                      
  
       घड़ी
बंद है 
       लगता
है जैसे  कांटे 
       अब
कोई नियम नहीं मान रहे 
       जिद्दी
बच्चे की  तरह 
       कौन
आगे जायेगा 
       यही
है लड़ाई 
       जाओ
जाकर कहो!
       समय
कोई बच्चों का खेल नहीं 
       हर
शताब्दी के अंत में 
       उसे हाजरी देनी ही पड़ती है 
  फसलों के बहाने 
       झुण्ड
के झुण्ड  
      उतर
आते वे 
      रोमश
वक्ष में 
      उन्हें
अंजुरी में भर-भर कर 
      उड़ेलता 
      स्वप्न
बन, आँखों में 
      बच्चों
से मचलने लगते 
      भींचता
उन्हें मुट्ठियों  में 
      कसमसा
कर फूट निकलते 
      अजस्र
--------
      सुनहरे
फसलों से 
      लहलहाने
लगते 
      फुदकने
लगते 
      धवल
कपोत से 
       उड़-उड़
बैठते 
       समय
के डालों पर 
      तब-तब 
      कोई
मेरे सपनों की फसल 
      काट
लेता 
      खेल
खेल में 
      निर्लज्ज, निष्कपट               
तुम ठहरो
तुम ठहरो
दिगंत का
एकांत पथ, अंतहीन
संध्या का चाँद
अभी उगा नहीं
ठहरो तुम
मैं ले आऊँ
एक कंदील
नक्षत्रों की कतार से
और उतर पडूँ
पगडंडियों पर
तुम्हारा छूटता हाथ पकड़।
उपहार 
तुम्हारे
बगैर मांगें ही
मैं दे आया था
एक उपहार
तुम्हे पता भी न चला
प्रत्युष में सूर्य से
आभा ले
तुम्हारे तकिये के पास
उतर आया
वह निःशब्द।
जंगल
       मैं अपने भीतर छोड़ आई 
      एक भरा पूरा जंगल 
      जहाँ - तहां रोड़ा बनते,
वृक्ष 
      विस्तार लिए, कटे ठूंठ 
      सूखे पत्तों का शोर 
      शिकारी की मचान 
      रोबदार शब्दों की चुभन 
      जड़ों का रोना 
      रोम विहीन त्वचा पर, 
      अमर बेल सा नहीं लिपटना,
अब! 
       जंगल हो 
      जंगल ही रह गए 
      मैं कोई वन देवी नहीं 
      हाड़-मांस का टुकड़ा नहीं 
      ह्रदय-पिंड हूँ .......
      सिर्फ साँसें ही नहीं भरती
      हँस भी सकती हूँ 
      नाच भी सकती हूँ,
अब! 
      चीख भी सकती हूँ .....
      गुर्रा भी .............
  नदी जाग चुकी है 
       सलवार-कमीज, जीन्स-टॉप, थ्री-फोर्थ या हैरम पैन्ट 
       कोई बॉब कट, कोई पोनी टेल, कोई बॉय कट,
       कुछ की झूलती लम्बी वेणियाँ 
       बातों-बातों में हिलती वे,
संग हिलती उनकी वेणियाँ 
       हाथों की भंगिमाएं एवं यौवन के शिखर 
       कभी-कभी गर्दन के घुमाव में होती 
       नज़रों की नुकीली धार या कभी 
       मुस्कुराहटों, ठहाकों की बौछार 
       यह दृश्य हर शाम होता 
      "ए टू जेड" टिटोरियल के सामने 
       मोड़ से मुड़ते ही यह दृश्य, अदृश्य हो जाता 
       यह झुण्ड कुलांचे भरती चलती 
       लेकिन कहीं वेणी सी गूँथ जाती 
       एक बाघ घात लगाये है 
       लेकिन झुण्ड अनजान 
       हिरण के झुण्ड से अलग थलग होते ही 
       एक दंगल .......... विजयी हिरण लौटती 
       बाघ की रफ़्तार भेदती ......
       हांफती 
       कठोर परिश्रम .....
       लज्जित बाघ बाघों में जा मिलता 
       क्या हुआ "टारगेट फेल" प्रश्न 
       निरुत्तर सा 
       धूसर चित्रों में एक चित्र उभरता है 
       सुरंग के कपाट पर 
       हांफ रहा है 
       महसूस करता है,
नदी जाग चुकी है 
       ज्वार उफान पर है 
       वह चिंतित है .....किनारे की मजबूती के लिए 
       वरना ढह जायेगा उनका अस्तित्व ही समूचा  
   
टेलिविज़न पर नाचती भूख 
          टेलीविज़न के परदे पर 
         नाचती विपाशा 
         बिजली सी कौंधती मल्लिका 
         टक-टक, टुक-टुक करती
         राखी की अदाओं पर 
         खोया पूरा गाँव 
         इन्ही सबके बीच 
         रात कौन था 
         अरहर की मेंढ़ पर 
         ठीक उनके खेतों के बीच 
         खड़े रहे कुछ पल सांस रोके 
         चहल कदमी की कुछ ने भारी कदमो से 
         देखो! 
         आज सुबह से गायब हैं 
         बारह नाबालिग लड़कियाँ 
         बिजली की जगह
         भूख सी नाचती 
         परदे पर अर्धनग्न युवतियों को देख कर 
         जवान और बूढ़े सहला रहे थे 
         अपनी आँखें 
         और केबल की काली उजली
         बिजली के तारों को देख 
         खुश थे बच्चे 
         टेलिविज़न के परदे पर 
         वो युवती जता रही थी ....... बेखबर सी 
         काले भैंस पर चढ़ कर ........
        "बाबू जी ....जरा धीरे चलो,
         बिजली खड़ी यहाँ .......बिजली खड़ी .............
      "अपने हिस्से के पत्थर" 
    
               दूर कहीं सोता बहता
है ....पर 
     
            बस .... संगीत सुनाई  पड़ता है 
     
            लाचुंग के उस बर्फीली रात में 
     
            लकड़ी के उस कमरे से बाहर .......बह रही थी तिस्ता 
     
            पत्थरों से कभी कदार 
     
            लहू - लूहान हो छिटक जाती दूर .... शांत 
     
            और संगीत की लय ........ पर 
     
            फूलों की वादी छोड़ आती है
     
            सारी की सारी 
     
            धुनें 
     
            जो बन पड़ी थी उस रात के सन्नाटे में मौजों के संग 
     
            खेलती बन में बन पाखी संग 
     
            तोड़ती पत्थर झरनों में 
     
            सर पर घांस के गट्ठर लिए 
     
            वो जो खड़ी है ........
     
            अल्लाहाबाद के पथ पर 
     
            जहाँ वो फोर लेन देख 
     
            घबरा रही है  
     
            सर्र-सर्र .........उड़ते उसके केश 
     
            और आँचल 
     
            ठिकाना नहीं कि 
     
            कुछ होश ही बाकी हो 
     
            कदम-कदम पर काली नागिन सी 
     
            कोलतार बिछी हुई देख 
     
            जल केलि नहीं करती पत्थरों से 
     
            वह तोड़ ही नहीं पाती 
     
            अपने हिस्से का पत्थर 
     
            अगले मोड़ पर वह घास का गट्ठर लिए 
     
            सारा बर्फ पांव में जमाये 
     
            पथरीली अहल्या बन घबरा रही है  
           "स्वाधीन हैं हम"  
          असमय ही टूटे हुए नक्षत्र वे 
          थे ज्वलंत उल्कापिंड,
उनके झर जाने पर 
          निः शब्द रोई थीं माएं 
          चाक हुआ था नरम सीना 
          पर उच्चारित होता रहा 
          स्वाधीन हैं हम | 
          आज सो रहे हैं शांत  
          आग्नेय गिरी, उल्कापिंड वे 
          मातृभूमि के लिए 
          रक्त रंजित कब्रों,
शमशानों में 
          असक्त देह लिए,
मातृभूमि के गर्व  
          पर हम उनकी बदजात संतति 
          देश की हवा, सुरम्य धरती को और 
          स्वाधीनता को लेते हैं बड़े हल्के से 
          लज्जित होते आग्नेय गिरी,
उल्कापिंड 
          चाहते लौट जाएँ,
माँ के गर्भ में  
          स्वाधीनता का अर्थ खोजते 
          हाथ आई एक पताका 
          पताका स्तम्भ में लपेटते,
देखा उसका रंग,
          हे मातृभूमि! 
          तुम अगर इसे साड़ी समझ लपेटो अपनी देह पर 
          मेरी दुखी मातृभूमि 
          तुम्हे जंगल विहीन होने का दुःख नहीं सताएगा 
          और जिन्होंने ली थी शपथ 
          भटक रहे हैं भिखारियों के मानिंद 
          वोट की खातिर इस स्वाधीन देश में 
          छी - छी लज्जा सिर्फ लज्जा 
          आज कौन रोता है तुम्हारे लिए 
          स्वाधीन मातृभूमि  
         
      मृत्यु 
         
          मृत्यु
कौन मरा, कैसे मरा 
         
          नहीं
मालूम 
         
          भूख
हरताल कर नहीं मरे वो 
         
          वे
मरे 
         
          पुलिस
की गोली में 
         
          कुछ
लाठी चार्ज एवं कुछ 
         
          भीड़
की भगदड़ में 
         
          माइक
में गला फाड़ कर
         
          चिल्ला
रहा जनता का प्रतिनिधि 
         
          हिन्दू
को जलाएंगे, मुसलमान को दफनायेंगे 
         
          इस
पर इन्क्वायरी बैठी है 
         
          शरीर
का मुआयना कर रही है 
         
          जान
रही है 
         
          सड़ते, गलते लाशों के कपडे
उतर कर 
         
          हिन्दू
मुसलमान का भेद 
            प्रकृति प्रेम
         
              प्रकृति में
         
              कोई कंटीला तार नहीं 
         
              होता 
         
              ना ही कोई रूकावट 
         
              बस सुन्दर, स्वच्छ, निर्मल 
         
              उपभोग 
         
              जैसे कह रहा हो 
         
              आओ भर लो 
         
              प्रेम लोलुपता सहित 
         
              देखना 
         
              मै खिलूँगा 
         
              तुम्हारे चेहरे पर गुलाब की तरह 
         
              सर पर 
         
              मोंगरे की तरह हंसूंगा 
         
              छाती पर होगी 
         
              सुगंध 
         
              सोन जूही की 
         
              आँखों में होंगे कँवल 
         
              दलदल की तरह खींच लूँगा 
         
              तुम्हे समूचा 
         
              प्रेम लोलुपता सहित 
 सम्पर्क -                 
 
 63 / 4  नेहरू नगर पश्चिम 
भिलाई नगर, छत्तीसगढ़  .... 49 00 20 
मोबाईल -- 08871649748 , 0758776261 ,
09329509050
09329509050
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की हैं.) 




 
 
 
Sabse pahle to Meeta Ji ko haardik badhai va Shubhkaamnayen!!Anuvaadak ke roop mein unhone hamesha prabhavit kiya hai. Aaj unhe kavi roop mein padhkar bhi khushi hui. Yahan Prem , Pratirodh aur Prakriti ka svar hai. Vartnee aur shbd chayan par dhyaan diya ja sakta tha. Isse aage ki kavitayi ki apeksha ke saath ashesh Shubhkaamnayen!! Bhai Santosh Ji Shukriya!!
जवाब देंहटाएं- Kamal Jeet Choudhary
आभार
हटाएंआभार
हटाएंधन्यवाद सर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सर
जवाब देंहटाएंअद्भुत कवितायेँ, मीता जी को बधाई।
जवाब देंहटाएंमीता दी को एक अनुवादक के तौर पर जानती थी मैं। उनके कवि रूप से परिचय पुस्तक मेले में हुआ जब मैत्रेयी दी की उपस्थिति में हम सबने स्त्रियों के लेखन पर चर्चा की और कवितायें पढ़ीं। इसके बाद उन्हें कई बार पढ़ा। मीता दी के पास नवारुण दा के संस्कार हैं, सन्तोष जी की इस बात से मैं भी सहमति रखती हूँ किन्तु जितना उन्हें पढ़ा, पहले भी और पहली बार में भी, मैंने पाया एक अनुभवी स्त्रीमन भी है उनके पास जो चीजों को एक स्त्री के रूप से देखता परखता है कविता में ढालकर सामने रखता है। बहुधा मेरे भीतर की स्त्री इस स्त्रीमन को ध्यान से पढ़ते हुए सहमति जताती है। इन कविताओं में मीता दी की रेंज का बखूबी परिचय मिला। बस कई बार लगा और पढ़ना था अभी कि कविता खत्म हो गई। मीता दी को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं इस उम्मीद के साथ कि जल्द वे और कविताएँ पढ़वाएंगी। मित्र संतोष जी को शुक्रिया प्रिय और मेरे अपने से ब्लॉग पर इन कविताओं की बेहतरीन प्रस्तुति के लिए।
जवाब देंहटाएंआभार और स्नेह अंजू
हटाएंमीता दी को एक अनुवादक के तौर पर जानती थी मैं। उनके कवि रूप से परिचय पुस्तक मेले में हुआ जब मैत्रेयी दी की उपस्थिति में हम सबने स्त्रियों के लेखन पर चर्चा की और कवितायें पढ़ीं। इसके बाद उन्हें कई बार पढ़ा। मीता दी के पास नवारुण दा के संस्कार हैं, सन्तोष जी की इस बात से मैं भी सहमति रखती हूँ किन्तु जितना उन्हें पढ़ा, पहले भी और पहली बार में भी, मैंने पाया एक अनुभवी स्त्रीमन भी है उनके पास जो चीजों को एक स्त्री के रूप से देखता परखता है कविता में ढालकर सामने रखता है। बहुधा मेरे भीतर की स्त्री इस स्त्रीमन को ध्यान से पढ़ते हुए सहमति जताती है। इन कविताओं में मीता दी की रेंज का बखूबी परिचय मिला। बस कई बार लगा और पढ़ना था अभी कि कविता खत्म हो गई। मीता दी को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं इस उम्मीद के साथ कि जल्द वे और कविताएँ पढ़वाएंगी। मित्र संतोष जी को शुक्रिया प्रिय और मेरे अपने से ब्लॉग पर इन कविताओं की बेहतरीन प्रस्तुति के लिए।
जवाब देंहटाएं