कालीचरण सिंह राजपूत की गज़लें
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| कालीचरण सिंह राजपूत | 
परिचय  
कालीचरण
सिंह राजपूत
पिता
का नाम - श्री सुन्दर लाल सिंह 
जन्मतिथि---14-07-1978  
शैक्षिक योग्यता - बी. एस-सी., बी. एड. 
सम्प्रति उत्तर प्रदेश बेसिक शिक्षा
परिषद में सहायक अध्यापक  
विकीपीडिया का सहारा ले कर कहें तो मूलतः अरबी भाषा के ग़ज़ल शब्द का अर्थ भले ही 'औरतों से या औरतों के बारे में बातें करना' होता हो लेकिन समय के साथ कथ्य की दृष्टि से ये लगातार बदलती चली गई। फ़ारसी से उर्दू में आने पर भी ग़ज़ल का शिल्पगत रूप तो ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया गया लेकिन कथ्य पूरी तरह भारतीय हो गया। उत्तर भारत की आम अवधारणा के विपरीत हिन्दुस्तानी ग़ज़लों का जन्म बहमनी 
सल्तनत के समय दक्कन में हुआ जहाँ गीतों से प्रभावित ग़ज़लें लिखी गयीं। 
भाषा का नाम रेख़्ता (गिरा-पड़ा) पड़ा। वली दकनी, सिराज दाउद आदि इसी प्रथा
 के शायर थे जिन्होंने एक तरह से अमीर ख़ुसरो (१३१० इस्वी) की परंपरा को 
आगे बढ़ाया। दक्किनी उर्दू के ग़ज़लकारों ने अरबी फारसी के बदले भारतीय 
प्रतीकों, काव्य रूढ़ियों, एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को लेकर रचना की। ग़ज़ल जब उत्तर भारत में आयी तो पुनः उसपर फारसी का प्रभाव बढ़ने लगा। ग़ालिब जैसे उर्दू के श्रेष्ठ ग़ज़लकार भी फारसी ग़ज़लों को ही महत्वपूर्ण मानते 
रहे और उर्दू ग़जल को फारसी के अनुरूप बनाने की कोशिश करते रहे। बाद में 
दाउद के दौर में फारसी का प्रभाव कुछ कम हुआ। इकबाल की आरंभिक ग़ज़लें इसी प्रकार की है। सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला, शमशेर बहादुर सिंह, जानकी वल्लभ शास्त्री, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना एवं दुष्यंत कुमार जैसे हिन्दी के अनेक रचनाकारों ने इस विधा को अपनाया और पाठकों का अपार स्नेह प्राप्त किया। दुष्यन्त कुमार ने तो आम आदमी की बातों को अपनी ग़ज़लों में इस तरह प्रस्तुत कर दिया जिससे वे जन-जन की जुबान पर चढ़ गयीं।  कालीचरण सिंह राजपूत ने ग़ज़ल की इस समृद्ध परम्परा को आगे बढाने का प्रयास किया है। कथ्य के नवीनता की रवानगी कालीचरण के यहाँ भी स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। शिल्पगत रूप के साथ न्याय करते हुए कालीचरण ने अपनी बाते यहाँ पर खूबसूरती के साथ रखीं हैं। आज पहली बार पर प्रस्तुत है कालीचरण सिंह राजपूत की गज़लें।  
कालीचरण सिंह राजपूत की गज़लें  
1
इस
शहर-ए-नामुराद से रिश्ता नहीं रहा। 
जब तूने कह
दिया कि तू मेरा नहीं रहा। 
अच्छा किया
जो दिल को मेरे तोड़ कर गए, 
एहसान है
तुम्हारा मैं तुम सा नहीं रहा। 
देखा! तेरे
बग़ैर भी हमने गुज़ार ली, 
माना कि
तेरा साथ में साया नहीं रहा। 
अश्कों के
साथ मेरे गिरे वो भी टूट कर, 
अब आसमां पे
कोई सितारा नहीं रहा। 
होते ही
ज़र्द आँधियों के साथ उड़ चले, 
पत्तों पे
इख़्तियार शज़र का नहीं रहा। 
दरिया बहा
है अपने किनारों को तोड़ कर, 
वुसअत की
आरज़ू में वो गहरा नहीं रहा। 
हमने
चराग-ए-इल्म जलाया तो था मगर, 
फिर क्या
हुआ कि साथ उजाला नहीं रहा।
तू अपनी
तिश्नगी के लिए और जा कहीं, 
सागर से मिल
गया है वो दरिया नहीं रहा। 
घुलने लगी
हैं तल्खियां गीत और नज़्म में,
ग़ज़लों में
ज़िक्र-ए-हुस्न-ए-सरापा नहीं रहा। 
वुसअत----फैलाव 
2
धुवें और
गर्द से आगे ज़रा बढ़ कर नहीं देखा। 
यक़ीनन तूने
मेरे गांव का मंज़र नहीं देखा। 
पलट कर लौट आते पास इसका था यकीं मुझको, 
चलो अच्छा
हुआ तुमने मुझे मुड़ कर नहीं देखा। 
मिला जो भी
मुहब्बत से,
मिला हूं
खुशदिली से मैं, 
के उसके हाथ
में है फूल या पत्थर,नहीं देखा। 
नहीं ताबीर
उसकी इस जहां में जानता हूं मैं,
वो नाज़ुक
ख़्वाब है मेरा उसे छू कर नहीं देखा। 
हमारे ज़ख़्म
में शामिल उसी की साज़िशें निकलीं, 
के जिसके
हाथ में हमने कभी खंज़र नहीं देखा। 
ख़यालों की
बुलंदी से गए हैं आसमां तक हम, 
क़दम रक्खे
ज़मीं पर बे-सबब उड़ कर नहीं देखा। 
करम उस पर
खुदा करना कि जब दौर-ए-ख़िज़ाँ आए, 
पला वो
मौसम-ए-गुल में अभी पतझर नहीं देखा।
3.
उसको छू कर
जो चली आई हवा आवारा। 
दिल के
गुलशन में अजब शोर हुआ आवारा। 
क्या बताऊं
कि मैं दीवाना हुआ जाता हूँ, 
प्यार से छू
के मुझे उसने कहा आवारा। 
तुझसे बिछड़ा
तो मैं खुद से ही बिछड़ जाऊंगा, 
फिर यही
होगा मेरा नाम पता आवारा। 
हर्फ़-दर-हर्फ़
सभी लोग पढ़ेंगे मुझको, 
तेरी गलियों
में फिरूं ख़त सा खुला आवारा। 
बारहा तोड़
ही देता है मेरा दिल ये जहां, 
जाऊं लेकर
मैं कहां अपनी वफ़ा आवारा। 
छोड़ आये हैं
किसे गांव की उन गलियों में, 
कौन देता है
हमें अब भी सदा आवारा।
4.
आये वो मेरी
बज़्म में आकर चले गए। 
रस्मन वो
साथ मेरा निभा कर चले गए। 
सीने से वो
लगाएंगे मुद्दत से आस थी, 
आये वो
मुझसे हाथ मिला कर चले गए। 
दिल में
छुपाये दर्द को बैठे रहे हैं हम, 
वो दास्तान
अपनी सुना कर चले गए। 
वो दोस्त ही
नहीं थे जो छोटी सी बात पर,
औक़ात अपनी
मुझको दिखा कर चले गए, 
जब हादसा
हुआ तो चले आये हुक्मरां, 
आने की रस्म
है सो अदा-कर चले गए। 
बस्ती के
लोग आ के यही पूछने लगे, 
वो कौन थे
जो घर को जला कर चले गए। 
मैदान-ए-जंग
में थे मेरे साथ-साथ जो, 
दस्तार अपने
सर से गिरा कर चले गए। 
ग़ालिब फ़राज़
मीर-ओ-ज़फर दाग़ और फ़िराक़, 
क्या
शेर-ओ-शायरी है बताकर चले गए।
दस्तार---पगड़ी
5.
बनाओ मत
खुदा उसको उसे इंसान रहने दो। 
समुन्दर से
जुदा क़तरे की हर पहचान रहने दो। 
समझनी ही
नहीं मुझको ये मज़हब ज़ात की बातें, 
बनो तुम शौक
से वाइज़ मुझे नादान रहने दो। 
हर इक रस्ते
की मंज़िल हो ज़रूरी तो नहीं यारो, 
कि कुछ
रस्ते तुम अपनी ज़ीस्त के अनजान रहने दो। 
कभी दिल
आश्ना थे हम भरम इतना रहे बाक़ी, 
अभी होठों
पे तुम अपने ज़रा मुस्कान रहने दो। 
लगी जब आग
घर में तो कहा मुझसे बुज़ुर्गों ने, 
उठा लो हाथ
में गीता सभी सामान रहने दो। 
क़सम खा कर ज़रूरी तो नहीं वो सच ही बोलेगा, 
तो फिर गीता
कुर'आं अल्लाह और भगवान रहने दो। 
सम्पर्क-
सुभाष नगर,  नरैनी 
जनपद--बांदा 
उत्तर
प्रदेश
मोबाईल - 9721903281  


 
 
 
गजल की बारे में बहु अच्छी जानकारी के साथ कालीचरण सिंह राजपूत जी की सुन्दर गजल प्रस्तुति हेतु आभार!
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 17-12-2015 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2193 में दिया जाएगा
जवाब देंहटाएंआभार
बहुत बढ़िया
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