देवेन्द्र आर्य की कविताएँ
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| देवेन्द्र आर्य | 
देवेन्द्र आर्य की कविताएँ 
प्रेम और पुस्तक
सरल सघन भाषा सा होता है प्रेम
चुप-चुप
बजता हुआ 
गहराइयों
में उतरता सहृदय पाठ सा 
परिमार्जित
करता अर्थ-संवेदन को 
मगजपच्ची
करती 
वर्जित
प्रदेशों से टकराती 
पर्त-पर्त
 अपरचित गन्ध-द्वार खोलती  
डूबती
डुबाती कोई पुस्तक सुख देती है प्रेम का 
घुलता
रहता है कुछ गहरे सुलगता 
समय
टेलीफोन की घंटी सा बजता रह जाता है 
अक्सर
हम प्रेम करते होते भी 
प्रेम
नहीं करते 
जैसे
पढ़ते हुए भी कुछ नहीं पढ़ते 
न
कुछ भरा न खाली हुआ 
न
जुड़ा न घटा 
कर्ता
कर्म में बदलता है 
और
कर्म अनुभव में 
प्रेम
करते हुए 
और
पढ़ते हुए कोई अच्छी से पुस्तक 
हम
बूँद से पोखर नदी सागर बादल 
फिर
नमी बन जाते हैं 
अर्जुन
की आँख से 
मछली
की आँख का ओझल न होना प्रेम है 
भाषा
शब्द के 
और
प्रेम शरीर के बाहर आसवित हो जाता है 
पसीने
से पगार तक ले जाता है प्रेम 
ऐसे
में तब 
अपनी
शर्तों पर जुड़ते हैं दुनिया से हम।
मैं और मिट्टी  
पैदा
होने के लिए 
चला
गया गर्भ में 
उगने
के लिए उतर गया अतल अँधेरे में
रूप-बंध
तोड़े स्वरुप के लिए 
ताज़गी
के लिए बासी पड़ा 
ऊर्ध्व
से अधो की यात्रा 
क्षरित
हुआ तब सिंचित 
फैला
मैं ज़मीन के भीतर 
तार-तार
बंटा तन कर खड़ा होने के लिए 
फोड़े
पाताल 
चूसे
रस मिट्टी के 
सरस
बना कृतज्ञ मैं। 
हवा
को साथ ले 
बिखरा
हवा के साथ  
गंध
सा बहा 
पसीने
सा सूखा 
धुप
से की दोस्ती 
छाँव
बिछाई स्वागत में 
अपने
सर्वोत्तम का जलपान 
समाज
के लिए फ़स्ल सा पका मैं 
कटा
भी कुटा भी चिरा-पिसा 
उतरे
लबादे चूल्हे में घुसा 
धुआं
हो गया रिश्तों के लिए 
उम्र
बांटता रहा बच्चों में 
क़र्ज़
था अकेले का बन गया सामूहिक 
निर्जीव
से सजीव की यात्रा थी 
रस-बोध
तृप्ति 
मिट्टी
को स्वाद 
आस्वाद
पहचान और विशिष्टता दी 
बो
सका खुद को स्मृतियों में मिट्टी के साथ 
मिट्टी
मेरा एहसान मानती है। 
औरत 
मर्द
के चारों तरफ 
लिपटी
होती है औरत 
दाने
पर भूसी की तरह 
शायद
यह कहना अधिक मुनासिब है 
कि
औरत ट्रैक्टर होती है 
मर्द
ट्राली 
बोझ
भले मर्द की पीठ पर हो 
ढ़ोती
उसे औरत ही है।  
मौसम
रिश्तों
के भी अलग 
अलग
मौसम होते हैं 
पानी
पड़ने पर लीची मीठी हो जाती है 
और
खरबूजा फीका।  
कबाड़ 
टांड
ताखों दुछत्तियों 
पर्दों
का समुच्चय कहलाता है घर 
सीली
मचिसें घुने अनाज टूटे स्टोव 
करछुल
धार मुड़े हँसुए  
देवी
देवताओं के पुराने कैलेण्डर 
मख्खी
मच्छर छिपकली दीमकों का अभ्यारण्य 
यानी
एक गृहस्थ का घर 
रिश्तों
को सिकोड़ कर बनाये जाते हैं स्थान जहाँ 
चीजों
के लिए 
डबलबेड
के नीचे 
झाड़ू
घूमाने की भी जगह नहीं होती 
आज
के काम आता नहीं कोई भी कल 
कोई
पुराना अनुभव 
इतिहास
की सूखी गोबर से घर नहीं लीपे जाते 
शिव
छिपाने के किस काम आते हैं 
ताखे
टांड दुछत्तियां 
मान
लो टूटी कुर्सी का पाया मिल ही जाय 
तो
कहाँ लग पायगा नई डिजाइन के फर्नीचर में 
कुंठा
के शिव देते क्या हैं पुरानी चीजें 
मूल
से अधिक सूद की भरपाई 
जिन
चीजों से हमें 
कल
ही निवृत्त हो जाना चाहिए था 
उनके
संग्रह के लिए बनाई जाती हैं दीवार में जगहें 
जगह-विहीन
होती जा रही पृथ्वी पर 
आबंटित
की जाती है भूमि समाधि  के लिए 
छत
के नीचे डाली जाती है एक और छत 
हम
नहीं फेंकते अपने सूखे आंसू 
चश्में
टूटी चप्पलें चिटके सपने मर्तबान 
सादे
आलू से विचार 
कबड़िये
फेरी लगाते चले जाते हैं 
शहर
के साफ सुथरेपन पर भुनभुनाते 
पढ़े
लिखे संभ्रांत कबाड़ियों नें 
चूल्हे
ठण्डे कर रखे हैं उनके 
घूर
और घर के फर्क को 
पुरानी
सदियों के परदे जितना ढँक पते हैं 
उतना
ही साफ सुथरा नज़र आता है घर 
मेहमानों
को 
हम
टांड पर चूहों की घुड़दौड़ 
नींद
में देखते रहते हैं 
उनके
पेशाब की बदबू के ख़िलाफ़ 
समर्थन
समर्थन
मतलब समर्थन ही नहीं होता 
विरोध
भी होता है 
विरोध-समर्थकों
के बीच हमेशा 
अपने
विरोधियों का समर्थन नहीं कर रहे होते हम 
समर्थन
के नाम पर हमेशा 
समर्थन
का मतलब अपने किसी साथी का 
विरोध
भी हो सकता है 
विरोध
के पीछे की विरोधी राजनीति 
समर्थन
से ज़्यादा ख़तरनाक होती है 
कारण
चाहे कोई खुंदक हो या महज़ देखी-देखा 
हो
सकता है जब हम किसी को कउआ कह रहे हों 
तो
हमारा आशय अपने बगल के किसी कउआ विरोधी को 
कुक्कुर
कहने का हो 
निगाहें
कहीं पर निशाना कहीं पर 
यह
भी कम गणित नहीं जीवन की तरह 
व्यक्ति
का राजनैतिक गुणनफल 
वरना
क्यों हर समर्थन अंततः विरोध हो जाता है 
और
विरोध 
वह
तो पेट का पानी है 
जल्दी
पचता नहीं।
सृजन
सृजन
सृजन के सुख
स्वाद
से जो वंचित हैं 
मैं
उनके दुःख में शरीक हूँ 
कौशल
है पर समय नहीं 
समय
है हो उपकरण नहीं
उपकरण
है पर हक़ नहीं 
रचने
का हक़ छीन लिया गया है जिनसे 
मैं
उनके दुःख में शरीक़ हूँ 
उनके
भी दुःख में शरीक़ हूँ 
जिनका
सृजन क्लोन बनता जा रहा है 
या
कपूत 
समझ
सकता हूँ आंद्रेय सखारोव तुम्हारी पीड़ा को 
रचना
के कपूत होने में धुप हवा पानी 
खेत
कारखाने मंडी किताबें स्कूल मीडिया 
और
संसद भी होती है 
अपने
ही सृजन को छोड देना पड़ता है कभी कभी 
सब
कुछ तोड़ देना पड़ता है सार्थकता के लिए 
युद्ध
की तरह होता है सृजन 
जमीन
में उतरने के पहले दिमाग में लड़ा जाता है 
सृजन
के लिए युद्ध ज़रूरी है 
और
युद्ध के लिए आदमी का बचे रहना 
स्थगित
है जिनका सृजन 
मैं
उनके दुःख में शरीक हूँ। 
सब्जियों का वर्गांतरण 
किसी तयशुदा शाम 
पिता लाते थे
हफ्ते भर की सब्जी 
फटे पतलून के बने
झोले में 
अब आती है पन्नी
के थैले में सब्जी हर रोज़ 
नहीं जाना होगा
साहबगंज 
दो रूपए अधिक क्या
दो रुपए कम 
मोहल्ले मोहल्ले
पसरा पड़ा बाजार 
आसानी से मिले तो
नहीं कोई गम 
न झोला न शाम का
इंतज़ार न मील भर जाना 
हर जगह हर वक़्त
सब्जी ख़बरों की तरह 
हिन्दी ग़ज़लों की
तरह 
पिता थे तो ऊब
जाता था मन एक ही सब्जी खाते पन्द्रहियन 
आज का समय सब्जी
की पाक-कला 
स्वाद-राग का है 
बाज़ार का पोसा, पत्रिकाओं का परोसा 
गावों  की
छानी पर छितराई कुम्हड़बतिया शहर आ के 
पकौड़ी के स्वाद
में बदल जाती है 
सिरका- प्याज
 लिट्टी- चोखा डिश में 
सब्जी सूप में 
मनुष्य की विकास
यात्रा का सब्जियों के साथ 
गहरा सम्बन्ध रहा
है 
देसी का ह्रास
डंकल का विकास 
सब्जी नहीं रही अब
साग-पात, भाजी 
हैं योग प्राणायाम
की तरह आधुनिक 
इंजेक्शन लगी लौकी, मोबिल चिकने बैंगन 
शूगर वालों का
 करेला, डीप फ्रीज़र में रक्खी हरियाली 
सेहत नहीं सम्मान
सूचक हो गयी हैं सब्जियां 
जेब का मानचित्र
भी 
कौन फूँके -छीले
 होरहा 
बिकाऊ हैं हरे चने
दाने, कटहल  के रसगर कोए 
ठेले पर उबले-छिले
 सिंघाड़े 
पैक किया तला-भुना
पालक पनीर 
पोदीना चटनी का
पाउडर 
कढ़ी का एसेन्स, दो बूँद में कढ़ाई भर तैयार 
सब्जियां बताती
हैं शहरियों का रहन सहन दिक़्क़तें और हैसियत 
पैदावार नहीं
उत्पाद हैं अब सब्जियां 
कोइरी कुंजड़े बिला गए 
बाऊ साहब उगाते
हैं मूली  लाला जी उखड़ते हैं 
गुप्ता जी ढो के
लाते  हैं बाजार 
और तिवारी जी
बेचते हैं कनौजिया साहब को 
स्वर्ग से निरख
रहे मनु महाराज, मार्क्स  गांधी  आंबेडकर 
एक ही ठेले पर आलू,  प्याज, कद्दू  गोभी,  सहज,न शिमला मिर्च, 
टमाटर 
रंगों की छटा 
पैसा मिले तो कुछ
भी नहीं अटपटा 
सब्जियां खरीदते
खनकती हैं चूड़ियाँ 
पेट्रोल की कीमत
का अंदाज लगती हैं औरतें सब्जी के भाव से 
भूख का आकार
 व्यय का प्रकार  महंगाई भत्ते की धार 
तय करती हैं
सब्जियां 
जब कि इन्हें तय
करना था भूख का मेयार 
प्रति रोटी सब्जी
की मात्रा 
सकल घरेलू पैदावार 
कविता
कौन है भारत भाग्य विधाता
समझ नहीं पता
लेकिन 
फटा सुथन्ना पहने
हरचरना को 
तुलसी की उलरसट्ट
भाषा में लिखीं कवितायेँ 
खैनी तम्बाकू सी
लगती हैं अपनी 
महगूं महरा हो या
बर्बरहा पंडित 
या फिर
ज्ञानोन्मीलित नयनों वाले कुंवर 
कहीं नहीं किसी को
दरकार आलोचक की 
मानस को बांचने
बूझने के लिए 
कविता-दुलार में
बेगानी आँखों सा 
आस्वाद में
किरकिरा उठता है भाष्यकार का होना 
हाँ मगर निराला
मुक्तिबोध को समझना है 
तो कोई एक
रामविलास दूधनाथ वाजपेयी नवल या नामवर 
जरूरी हैं 
कहे और कहने के
मतलब का अंतराल 
और भला कौन बांच
पायेगा 
एक पथ दुइ पाठ तीन
पाठ, तीनों तिराहे सी अलग अलग 
वेद है पुराण है
जन या अभिजन है कविता 
चाहे निराला हों
चाहे हों मुक्तिबोध 
कविता है कविता कम
जीवन का शोध 
कविता में कविता
ही बनती अवरोध 
संभव हो एक साथ
भक्ति ज्ञान और विचार 
ठसम् ठूंस जीवन
सौंदर्य और जीवन का ढिशुम ढिशुम 
सरल सी दुरूहता 
अगर एक कविता में
एक साथ आ पाए 
सांसों का सिमिरन
और साँस की जटिलता 
बोलो उस कविता के
कवि का क्या नाम होगा 
काश ! कवि लिखी जाय ऐसी कोई कविता 
काश ! कभी संभव हो
मुक्त छंद  मानस कंठस्थ 
वाम के विचारों का 
और उसके कवि का हो
नाम देवेन्द्र आर्य  
सायकिल सी तुम
  
कितनी हल्की
 फुल्की काया 
मैंने लादा
 बोझ तुम पर जितना भी मैं लाद  पाया 
तुम कभी थकती न
दीखीं चाहे जितनी भी थकी हों 
तुम छरहरी सायकिल
सी 
चार पैसे की हवा
और एक जरा सा ग्रीस मोबिल 
जब जहाँ रखो उठाओ 
चाहे जैसे आजमाओ 
न कोई नक्शा न
नखरा 
साग सब्जी टांग
 लो झोला 
पांव पैदल साथ
डुगराओ 
या कि झाडो
 सीट  बैठो   मारो पैडिल 
और मस्ती से हवा
से बात कर लो  फुर्र हो लो 
तुम घरेलू सायकिल
सी 
क्या ज़रुरत लोन
मेलों की तुम्हें घर लाने  खातिर 
बंधी तनखाओं में
भी खींची है गिरहस्थी की गाड़ी 
हाँथ जैसे हैंडिल
हों 
पांव पहिये सायकिल
 के 
एक रोटी प्यार के
दो बोल केवल 
न धुआं कोई
प्रदूषण 
राह  जीवन की
रही कितनी भी गड्ढेदार 
दुःख का जाम कितना
भी लगा हो 
कट कटा के बच
बचा के  
रास्ता बन के
निकलती ही रही हो सायकिल सी 
खुद भले लिपटीं
मगर मुझ को बचाया कीच कादो से हमेशा 
गोदने दी कागजों
पर गीत कविता 
बैरियर के नीचे से
झुक के निकलतीं 
रेल को भी रास्ता
देतीं 
तुम छरहरी सायकिल
सी 
श्रम समर्पित
प्यार-धर्मा 
मेरे घर की
विश्वकर्मा 
अन्न-गर्भा दुबली
पतली डेहरी सी 
कोई मौसम कोई मौका 
है किया सम्मान
तुम ने जैसे भी हो ज़िंदगी का 
तुम कि जैसे बसी
घर में हींग  तड़का 
एक अजब सी
ख़ुदपरस्ती 
सायकिल सी
फाकामस्ती 
तुम हो तो लगता है
जैसे अपनी भी हो कोई हस्ती 
तुम कि एक विश्वास
जीवन के सफर का 
अपने पावों पर
भरोसा 
इसलिए तो तुमको जब
भी देखा सोचा 
तुम लगीं एक
सायकिल सी  . 
राग- उदासी 
दुखों की नदी में
तैर कर आया हूँ तुम्हारे 
ठहरूँगा 
उपजाऊ मिट्टी सा
लहलहाउंगा तुम्हारी आत्मा में 
सुख के हिंडोले चढ़
आये होंगे कुछ लोग 
रहे होंगे उनके
पास चमकते सपने 
तुम्हारी आँखों
में आँजने के लिए 
सुनाने के लिए
देह-राग 
मेरे पास है फ़क़त 
एक फीकी सी बूढ़ी
उदास धुन 
मगर इसे सुनना
 तुम मन की भीतरी त्वचा से 
उदासी गले मिलेगी
उदासी से 
मन प्रयाग में
दुःख सरिताओं का संगम 
उदासी का महा
कुम्भ 
कल्पवास करूंगा
तुम्हारे तट  पर मैं 
ठहरूँगा 
जब तक तुम खुद न
सेरवा  दो मुझे 
काल तुझसे होड़ है मेरी 
काल सफल है कि
बजाना जानता है गाल 
आप सफल हैं 
कि भांप लेते हैं
काल की चाल 
काल गाल और चाल को
एक साथ सम्हाल 
आप चर्चा में हैं 
चर्चाओं की कोई
नैतिकता भी हो 
ज़रूरी नहीं 
जैसे धर्म की होती
नहीं कोई ज़ात 
जो ज़ात में है वही
पात  में 
यह आपकी कारीगरी
है और मेरी कुंठा 
कि मैंने लिखी
कविता 
आप ने लिखे जिंगल 
जिस रूई से मैंने
बनाई फसरी 
उसने बनाई बाती 
आप नें बनाया बैनर 
जिस आलू को बीस
रूपये किलो बेचने में मैं 
फेचकुर फेंकने लगा 
अपने उससे साट
 दिए संविधान के पन्ने 
सौंदर्य की दुनिया
में कांख की तरह महक रहे हैं आप 
आप के पसीने का
रंग कैसा है माई -बाप 
आप हैं महान कि
सफल हैं आप 
इसीलिये
सांस्कृतिक भी 
असफलताएँ पनाह खोज
रहीं हैं प्रकृति में 
पैलगी की मुद्रा
में 
प्रकृति जिसका पहला
नाम न्याय और अंतिम नाम प्रवाह है 
बिना अन्याय-अवरोध
के यौवन 
आता जाता सब पर 
अपने कद-काठी
रूप-रंग के दायरे में 
कोई उसे राग बनाता
 है कोई विराग 
कोई जीवन की आग 
कोई फ़ाग की तरह
उडा  देता है 
काल का चुराया यह
मौका ही माया है 
मैंने ठुकराया और
आप ने भुनाया 
अब लिखता रहूँ
जीवन भर --
        काल तुझसे होड़ है मेरी  . 
सम्पर्क-
मोबाईल- 09794840990
ई-मेल - devendrakumar.arya1@gmail.com
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)
मोबाईल- 09794840990
ई-मेल - devendrakumar.arya1@gmail.com
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)


 
 
 
बहुत सुंदर भावों के साथ सुंदर कवितायेँ |
जवाब देंहटाएंप्यास बहुत है घट में लेकिन नीर नही पाया हूँ।
जवाब देंहटाएंदेख के तेरी आभा को,बस दौड़ा-दौड़ा आया हूँ।
रंग बहुत है जीवन में,भेद नही कर पाया हूँ।
तन तो रंग डाला पर,मन रंगने अब आया हूँ।------@अजय कुमार मिश्र "अजयश्री "२०/९/१५
ढेर सारी कविताएं। बढि़या कविताएं। प्रत्येक का अपना विस्तार। बधाई देवेन्द्र आर्य जी को।
जवाब देंहटाएंजीवन -अनुभव के ताप से निकली हुई जेनुइन कवितायेँ . भरत प्रसाद
जवाब देंहटाएं