पूनम शुक्ला
नाम - पूनम शुक्ला
जन्म - 26 जून 1972, बलिया , उत्तर प्रदेश
शिक्षा - बी ० एस ० सी० आनर्स ( जीव विज्ञान ), एम ० एस ० सी ० - कम्प्यूटर साइन्स ,एम० सी ० ए०। चार वर्षों तक विभिन्न विद्यालयों में कम्प्यूटर शिक्षा प्रदान की ,अब कविता,गीत ,ग़ज़ल,लेख ,संस्मरण,लघुकथा लेखन मे संलग्न।
कविता संग्रह " सूरज के बीज " अनुभव प्रकाशन , गाजियाबाद द्वारा प्रकाशित।
"सुनो समय जो कहता है" ३४ कवियों का संकलन में रचनाएँ - आरोही प्रकाशन
दैनिक जागरण,जनसत्ता दिल्ली, सनद,सिताब दियरा,पुरवाई,फर्गुदिया,बीईंग पोएट ईपत्रिका ,साहित्य रागिनी,विश्व गाथा,आधुनिक साहित्य,,जन-जन जागरण भोपाल,शब्द प्रवाह,जनसंदेश टाइम्स,नेशनल दुनिया,जनज्वार,सारा सच,लोकसत्य,सर्वप्रथम ,गुड़गाँव मेल,बिंदिया में रचनाएँ प्रकाशित।
'सृजन स्वतन्त्र है' क्योंकि यह स्वतन्त्रता बनाए रखने का दायित्व अभी तक रचनाकारों ने भलीभांति निभाया है. यही वजह है कि हर जमाने में साहित्य ने 'प्रतिरोध का संसार' रचने में कोई कोताही नहीं बरती है. शुक्र है कि हमारी नयी पीढ़ी भी अपने इस दायित्व के प्रति पूरी तरह सजग है. इसी सजगता की पृष्ठभूमि में हमारी आज की कवियित्री पूनम शुक्ला इसलिए लिखती हैं कि 'उग आए सबमें पंख'. कुछ इसी भावबोध वाली पूनम की कविताएँ आज आप सबके लिए. तो आईए पढ़ते हैं ये कविताएँ.
लिखो कि उग आएँ सबमें पंख
लिखीं
कथाएँ कितनी ही
राजनीति पर......
नहीं हुआ परिवर्तन
गढ़ीं
कविताएँ कितनी ही
राजनीति पर......
नहीं हुआ परिवर्तन
फिल्में बनीं
हिंसक दृश्य बनें
खून बहा
निर्देशक रोया, चिल्लाया पर.....
नहीं हुआ परिवर्तन
अब रहने भी दो
हिंसा,खून खराबा,
राजनीति की
गंदी घिनौनी कथाएँ
अब रहने भी दो
बलात्कार,
बमों गोलियों,
गंदी जुबान और
गालियों के दृश्य
लिखो की बहने लगे
ठंढ़ी बयार
लिखो कि नाचने लगे
ये संसार
लिखो कि ये आसमान
खिलखिलाए
लिखो कि ये धरती
लहलहाए
लिखो कि बिखर जाएँ
सातों रंग
लिखो कि उग आएँ
सबमें पंख
परिवर्तन होगा
ये परिवर्तन की जिद्द
एक तारा है
ऐसा वैसा नहीं
ध्रुव तारा है
अडिग, रोशनी से भरपूर
गीत गाता हुआ।
पर इस बार गीत
ऊपर नहीं जाएँगे
इस बार आँसू
नीचे नहीं आएँगे
ये परिवर्तन का तारा है
टिमटिमाएगा
गीत गाएगा
और स्वर्ग नहीं
धरती सुनेगी।
2. सृजन स्वतंत्र है
रोको मुझे
मुझमें अनुभूतियों की श्रृंखला
है बढ़ती चली जाती
रोको मुझे
नृत्य करते हैं मेरे सामने
विभिन्न रंग
रोको मुझे
सैकड़ों तारे टिमटिमाते हैं
मेरे साथ
रोको मुझे
सूरज भेज ही देता है
अपनी तपिश
रोको मुझे
बंद हैं अनगिनत बीज
मेरी मुट्ठी में
रोको मुझे
मिट्टी खोज ही लेती है
नए बीजों की गंध
रोको मुझे
बादल तो बरसेंगे ही
मेरी बाँहों में
रोको मुझे
सृजन तो स्वयं ही
कुलबुला रहा है
सृजन स्वतंत्र है।
3. आओ हँसें थोड़ा
आओ हँसें थोड़ा
कि छाई है वीरानी
फैली है खामोशी
उदास, अतृप्त भीड़ में
गूँजे नहीं हैं
हँसी के कहकहे।
आओ हँसें थोड़ा
कि आँखों की रोशनी
पड़ गई है धूमिल
चढ़ गई है परत
साँझ के धूल की
ये नयन भी तो
थोड़ा हँसें,चमकें।
आओ हँसें थोड़ा
कि थम गया है
शिराओं का स्पंदन
ठंडा हो गति
भूल गया है रक्त
क्यों न चौंका दें
इन खामोशियों को
कि ये बदन,चमन
ये गगन महके।
4.कामकाजी महिला (वर्किंग लेडी)
एलार्म की घंटी बजते ही
झट से उठ जाना
सारी तैयारी कर
कैब में बैठ जाना
पहुँचना दफ्तर
सुबह से शाम तक
साहब की ड्यूटी बजाना
रात तक घर वापस
थोड़ा खाना फिर सो जाना
कट ही जाते हैं
ये छ: दिन छनछनाते
दौड़ते भागते
पर सनडे?
कल ही मिली थी
कहती थी
वन डे ही तो मिलता है
सनडे
पर वह भी जब आता है
चक्कर दे जाता है,
सुबह से शाम तक का चक्कर
चक्कर कुछ अलग नाश्ते का
साथ राजू के पास्ते का
बच्चों का, उनके कपड़ों का
सफाई का, घर आई ताई का
सास की दवाई का
पति की रुबाई का
हफ्ते की खरीददारी का
हरी - भरी तरकारी का
रात तक थक कर चकनाचूर
कल मनडे है
आफिस भी जाना है जरूर
उफ ये सनडे
क्यों आता है?
पता -
50 डी, अपना इन्कलेव,
रेलवे रोड, गुड़गाँव - 122001
मोबाइल - 09818423425
ई मेल आइ-डी: poonamashukla60@gmail.com



 
 
 
इनमें आये विचार तो अच्छे हैं, लेकिन कविता के स्तर पर ये अभी कमजोर हैं | इनमें अभी बहुत काम किया जाना बाकी है | मुझे लगता है कि आपको अपने समकालीनों को और अधिक पढ़ना चाहिए | यह देखने-समझने के लिए कि आधुनिक कविता कैसे अपना आकार ग्रहण करती है | उम्मीद है आप अन्यथा नहीं लेंगी | शुभकामनाएं |
जवाब देंहटाएंराधेश्याम प्रसाद .. लखनऊ
Sudhir Singh
जवाब देंहटाएं"सृजन स्वतंत्र है" कविता ठीक लगी
Ram Pyare Rai
जवाब देंहटाएंBahut sunder
लिखो की उग आये सब में पंख ''बेहतरीन कविता है लेखन सृजनात्मक ही होना चाहिए
जवाब देंहटाएंआपको ढेरों शुभकामनाएँ ! अपनी सादगी के साथ ये कविताएँ अपनी दिशा को पा लेगीं ... बहरहाल अच्छी कविताएँ .
जवाब देंहटाएंसंतोष जी बहुत अच्छी प्रस्तुति हेतु बधाई !
अच्छी कविताएँ . बधाई
जवाब देंहटाएं-नित्यानंद गायेन