मोहन कुमार नागर
जन्म - १ अगस्त १९७२, जिला -
छिंदवाड़ा 
पं. जे. एन. एम. चिकित्सा महाविद्यालय रायपुर से एम. बी.
बी. एस., गाँधी चिकित्सा महाविद्यालय
भोपाल से निश्चेतना विशेषज्ञ की उपाधि 
पहली कविता १९९४ में प्रकाशित एवं प्रसारित ... आकाशवाणी, दूरदर्शन से
१०० से ज्यादा कविताएँ प्रसारित, नाट्य लेखन टेली फिल्म, सीरियल का
लेखन एवं निर्माण /पटकथा लेखन 
सदस्य - द फिल्म रायटर्स एसोसिएशन 
समाचार पत्रों, आकंठ, समय के साखी
आदि प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित
स्वतंत्र लेखन, निश्चेतना विषेशज्ञ {निजी अस्पताल}
हमारा समय कितना त्रासद समय है यह हम तब जान पाते हैं जब जीवन की दुर्गम राहों पर चलने के लिए निकल पड़ते हैं. दुनिया का कोई भी कवि सच्चे मायनों में तभी कवि होने का दावा कर सकता है जब वह अपने समय की त्रासदी और दुर्गमता की शिनाख्त करते हुए अपनी कविताओं में आगे बढ़ता है. एक पत्रिका के लिए जा रहे साक्षात्कार में वरिष्ठ कवि चन्द्रकान्त देवताले कहते हैं – ‘मैं कवि और मनुष्य होने में फर्क नहीं करता. मनुष्य होना क्या हमारा पेशा है. जैसे मनुष्य होना पेशा नही है; वैसे कवि होना पेशा नही है. कवि तो हमेशा पक्ष लेता है.’ मोहन नागर ऐसे ही युवा कवि हैं जिन्होंने साफ़गोई से अपना पक्ष रखा है. इनकी एक कविता है ‘गिद्ध=भोज.’ अन्दर तक हिला देने वाली कविता है यह. इस कविता में एक बच्चा माँ से खाने के लिए वे बासी पूडियां मांगता है जो एक मृत्युभोज में बचने के बाद उसके घर पर आई हैं. लेकिन वे पूड़ियाँ उसके अन्य भाई ने पहले ही खा ली है. बच्चा माँ से कहता है ‘तो बना लो.’ माँ जवाब देती है कविता की ही पंक्तियों में देखिये
‘अपनी इतनी हैसियत कहां बेटा? / वो तो छन्नू के कक्का मरे थे /तो काकी ने बची वाली भेज दी थी /ये आखिरी हेड़ थी ..
नादान बच्चे को लगता है कि पूड़ी किसी के मरने पर ही मिलती है. बच्चा पूड़ी खाने की ललक में अपनी नासमझी में कहता है -''अम्मां अगर तुम मर जाओ तो?’
तब माँ जो जवाब देती है वह हमारे अंतर्मन तक को झिंझोड़ देता है
'' तब भी नहीं मिलेगी बेटा /वरना सच्ची .. /अभी मर जाती ..”
कुछ इसी तरह के अंदाज के कवि मोहन नागर की कविताएँ आप सब के लिए प्रस्तुत हैं.
अब पत्थर लिख रहा हूँ इन दिनों-
फूल लिखा
मुरझा गया 
कांटा लिखा 
चुभ गया 
अब पत्थर लिख रहा हूं इन दिनों .. 
थमाया जा सके जो – 
किसी मजलूम के हाथ ..
जा - तराश ले इसे 
बना ले हथियार .. 
कभी तो गुजरेगा हुक्मरां - तेरी बस्ती
से।
ईश्वर अंर्तध्यान ...
मैं .. 
चिटखती धरती के कानों में ... 
हौले से फुसफुसाया – 
रोटी .... 
और खेतों में बालियाँ चटख पड़ीं!
मैंने सूखे बादलों से कहा – 
पानी .... 
और वो झमाझम बरस पड़े!
मैंने सूखते नालों से कहा –
मछली ... 
और वहां नदी बह निकली!
ईश्वर देता और भी बहुत कुछ ... 
पर निकल गया मुंह से – 
पेड़ ...
अब ईश्वर अंर्तध्यान ...
और आरामशीन पर लदे ठूंठ रो पड़े – 
हरे कच्च आंसू। ........................
गिद्धभोज 
माँ ..
बासी पूड़ी दो ना 
थोड़ी नुक्ती भी 
सेव तो बचे नहीं होंगे अब
''अब कहां बचीं बेटा पूड़ियाँ? 
तीन ही तो थी 
सुबह छोटू खा गया
''तो बना लो ..
''अपनी इतनी हैसियत कहां बेटा? 
वो तो छन्नू के कक्का मरे थे 
तो काकी ने बची वाली भेज दी थी 
ये आखिरी हेड़ थी .. 
''अम्मां अगर तुम मर जाओ तो?
'' तब भी नहीं मिलेगी बेटा 
वरना सच्ची .. 
अभी मर जाती ..
जब से फगुनी के छोरे ने 
नुक्ती, सेव और बासी पूड़ियों का 
सही-सही पता जाना है 
इन दिनों अक्सर घूरता है कनखियों से – 
छन्नू की बूढ़ी काकी को। 
ईश्वर अब भी मंदिरों में हैं 
कल रात तितलियाँ
किताबों से निकल कर 
फूलों की बस्ती की ओर उड़ गर्इं
कल रात 
नन्ही कलियाँ 
सीमेंट की मोटी परत का 
सीना फाड़कर निकल गर्इं
कल रात 
ईश्वर पत्थरों से निकले 
और मंदिर का ताला तोड़ कर 
बाहर निकल गए 
कल रात 
कुछ बच्चे 
पन्नी और बोरियाँ फेंक कर 
स्कूलों की ओर निकल गए 
अब आंख खुली तो देखता हूं ख्वाब था ... 
ख्वाब ही तो था यकीकन!
कि ईश्वर अब भी – 
मंदिरों में हैं 
और कुछ बच्चे रोज की तरह 
पन्नी और बोरी उठा कर 
कचराघरों की ओर जा रहे हैं।
गिली गिली गिली गिली छू  
जब छोटा था गाँव में
अक्सर एक जादूगर आता था 
तरह - तरह के जादू दिखाता था 
उसके आते ही पूरा मुहल्ला उमड़ पड़ता 
और हम उसे घेरकर खड़े हो जाते!
हमारा सबसे फेवरेट जादू था 
चीजों का गायब होना 
वो लाल नीली रौशनी के बीच मंच पर आता था 
अपनी छड़ी घुमाता था 
गिली गिली गिली गिली छू ... 
और चीजें एक एक कर गायब होती जातीं 
किसी की हाथ घड़ी
किसी का रूमाल 
यहां तक कि किसी का बटुआ 
जरा सा हो हल्ला किया नहीं 
कि वो शैतान बच्चों का हाथ तक चिपका देता था 
पेंट या नाक पर 
फिर चुप रहने की ताकीद के साथ 
अगले ही पल छुड़ा देता था
लोग परेशान होते तो वो फिर छड़ी घुमा देता 
गिली गिली गिली गिली छू .. 
और गायब चीजें एक एक कर निकलने लगतीं
रम्मू की घड़ी मोजी के हाथ 
शमशुल का रूमाल छेदी के खींसे 
और बल्ली का बटुआ भुज्जा के पास
अंत में वो बकायदा ऐलान करता 
देख ले .. 
गिन ले भर्इ .. 
हैं ना पूरे बत्तीस रूपये बारह आने .. 
बल्ली के हां में सिर हिलाते ही 
हम देर तक ताली पीटते 
और जादूगर रूपये दो रूपये इनाम समेट कर 
कुछ महीनों के लिये फिर विदा हो जाता!
अब मैं बड़ा हो गया 
पर वो जादू का खेला आज भी जारी है ..
वो जादूगर अब दिल्ली हवेली है 
और आज भी गाहे बेगाहे 
बुध्दू बक्से पर नजर आता है 
इन दिनों वो अब कोर्इ मंत्र नहीं पढ़ता 
ना छड़ी घुमाता है
ना ही मजमा लगाता है 
पर उसके आते ही हम कांप उठते हैं 
कि पता भी चलता 
और हमारे घरों - जेबों से 
जाने क्या क्या गायब हुआ जाता है
अंतर महज इतना 
अब वो कतर्इ ही नहीं पूछता 
''देख ले भर्इ गिन ले .. 
पूरे हैं कि नहीं ? 
हम ठगे से देखते रह जाते हैं 
और हमारी जेबों का गायब सामान 
किसी और जेब से निकला जाता है। 
वे अग्रदूत हैं 
वे मौसम के ताब से बेपरवाह
शान से हरियाते हैं 
फलते - फूलते हैं 
खत्म नहीं होते 
कि मरने से पहले ही 
अपनी जड़ें धांस जाते हैं!
वे संतानें बोते हैं 
अपने प्रतिरूप उगाते हैं 
और अपनों को पानी बांट कर 
अपनों की भीड़ जुटाते हैं 
वे होते हैं और नहीं भी 
और बहुवचन होते भी 
एकद्रश्यवा एकवचन ही नजर आते हैं
वे विस्तार जताते हैं 
और सबसे घनी छाया का भ्रम रचते हैं
उनकी जड़ें दूर - दूर तक फैलती हैं 
कुनबा रचती हैं 
गहरे तक पानी सोखती हैं 
और जद में आने वाले सारे खनिज लील जाती हैं
वे जहां - जहां होते हैं 
वो जमीन उनके बाप की है 
उनकी जद के नीचे कोर्इ पौधा नहीं पनप सकता
वे अग्रदूत हैं – बासी सभ्यता के । 
चकमक हो जाएँ 
तू भी पत्थर
मैं भी पत्थर 
क्यूँ आखिर? 
कब तलक? 
चल मिल आ के 
चकमक हो जाएँ
चाँद , चाँद है रोटी नहीं 
मैं अब रोटी को चाँद
महज़ इसलिए नहीं लिखता 
की बच्चे बहल जायेंगे 
बहल गए 
तो फिर सो जायेंगे
लाजमी हो चला है अब 
कि बच्चों को 
चाँद को चाँद बताया जाए 
और रोटी को रोटी 
और ये भी कि 
वो कोई आसमान में नहीं फलती 
जिस तक पहुँच ना सकें उनके हाथ …
तन ना सकें 
जिसके लिए उनकी मुट्ठियाँ |
वर्तमान साहित्य 
पहला –
सहता है 
भोगता है 
चुप रहता है
दूसरा – 
पहले को देखता है 
सीजता है 
महसूसता है 
और पहले के पक्ष में 
अपने शब्द – शस्त्रास्त्र भांज देता है
तीसरे को अब 
पहले से कोई उज्र नहीं 
ना भय 
वो इन दिनों 
बस इस दूसरे को साध रहा है 
आँखों पर अनपट 
और मुंह पर 
चने की थैली बाँध रहा है
भगवान होना चाहते हैं 
चीतों सा दौड़ना
मछली सा तैरना 
बाज सा उड़ना 
इंसान ये सब करना चाहता था
धुंआ छोड़ती गाड़ियाँ आईं 
तेल बहाते जहाज़ तैरे 
अब पंछियों से टकराते हेलीकॉप्टर
मैं डरा हुआ हूँ इन दिनों –
सुना है कुछ इंसान अब – 
भगवान होना चाहते हैं |
आगाह  
चकमक हूं
इतना भी ना रगड़ 
ऐ हुक्मरां ..
कि तुझे फूंकने को 
छूट ही पड़े 
किसी दिन - चिंगारियाँ । 
बाजारी हुनर  
चूहे चिंदी लिए बाज़ारी
तो उज्र क्यूँ? 
वो हम - आप से तो बेहतर हैं 
और बेचने का हुनर नहीं जानते
संपर्क -  
नागर अस्पताल,
पद्मश्री तिराहा, पचमढ़ी रोड, पिपरिया
जि . होशंगाबाद {म . प्र.} 461775
नागर अस्पताल,
पद्मश्री तिराहा, पचमढ़ी रोड, पिपरिया
जि . होशंगाबाद {म . प्र.} 461775
फो . 09893686175 .  
मेल - 1872mohannn@gmail.com
मेल - 1872mohannn@gmail.com
(इस पोस्ट में प्रयुक्त की गयी पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं।)




 
 
 
कविताई सिखाने वाली कवितायें हैं.. सभी मर्मस्पर्शी और मारक हैं...
जवाब देंहटाएंमैं तो एक विद्यार्थी मात्र हूँ अस्मुरारी जो अभी सीखने के दौर में हूँ प्रयास करुँगा कि आपके आर्शीवचन सार्थक कर सकूँ । आभार
हटाएंमार्मिक कवितायेँ विचारोत्तेजक भी
जवाब देंहटाएंआभार रतिनाथ जी , आपको आकंठ में पढ़ा था .. यहाँ तो एक से बढ़कर एक रचनाओं का खजाना भरा देखा आज । नेट पर बैठना कम हो पाता है पर सबको पढ़ना है अब एक एक कर .. बहुत कुछ सीखने मिलेगा आप सबसे ।
हटाएंबेहतरीन रचनाएँ , एकदम अलग रंग -रूप की कवितायेँ | मोहन जी को बधाई
जवाब देंहटाएंआभार नित्या जी , आप जैसे मौलिक रचनाकर्म करने वाले लेखक की ये प्रतिक्रिया मेरे लिये बहुत खास है
हटाएंबधाई!!! अच्छी कविताएँ !!! संतोष जी का शुक्रिया !!!
जवाब देंहटाएंआभार सुंदर जी । आप बेबाक सलाह देते रहें
हटाएंक्या नहीं है इन कविताओं में .......बिम्बों और रूपकों की ताजगी , कथ्य का नयापन ,भाषा की मिव्ययता , भाव व विचार की प्रवणता , मनुष्यता की पक्षधरता , गहरी मार्मिकता , प्रतिरोध और बोधगम्यता .........मन प्रसन्न हो गया इन्हें पढ़कर . .......ये कवितायेँ कथ्य और शिल्प की दृष्टि से ही नहीं बल्कि अपने काव्य-सरोकारों से भी हिंदी कविता के भविष्य के प्रति आश्वस्त करती हैं .
जवाब देंहटाएंबहुत दिनों बाद इतनी ताजी और सच्ची कवितायें पढ़ीं.
जवाब देंहटाएंkvitaon me imandari aur sachchai ki jhalak hai isliye hriday par chhap chhodti hain.. bahut badhai
जवाब देंहटाएंbahut bahut achchhi.......kavitayen........naman...
जवाब देंहटाएं