पंकज पराशर का आलेख 'अरथ अमित अरू आखर थोरे'
  (नरेश सक्सेना) 
नरेश सक्सेना हमारे समय के ऐसे कवि हैं जिन्होंने अत्यंत कम लिख कर भी 
कविता के परिदृश्य में अपनी महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज कराई है। उनका पहला 
संग्रह 'समुद्र पर हो रही है बारिश' काफी चर्चा में रहा था। अभी-अभी भारतीय
 ज्ञानपीठ से उनका दूसरा कविता संग्रह 'सुनो चारुशीला' प्रकाशित हुआ है। इस
 महत्वपूर्ण संग्रह पर युवा आलोचक पंकज पराशर ने बड़ी बारीकी से निगाह डाली है। इसी क्रम में हम प्रस्तुत कर रहे हैं 'सुनो चारुशीला' पर पंकज का समीक्षात्मक आलेख। 
'अरथ अमित अरू आखर थोरे'
पंकज पराशर
आचार्य रामचंद्र शुक्ल 
ने अपने सुप्रसिद्ध निबंध 
‘कविता क्या है?’ में लिखा है, 
‘ज्यों-ज्यों हमारी वृत्तियों 
पर सभ्यता के नये-नये आवरण चढ़ते 
जायेंगे त्यों-त्यों एक ओर 
तो कविता की आवश्यकता बढ़ती 
जाएगी, दूसरी ओर कवि कर्म कठिन 
हो जाएगा।’ मनुष्य की वृत्तियों 
पर सभ्यता के नये-नये आवरण आज 
इस कदर चढ़ गए हैं कि कविताओं 
की बढ़ती संख्या के बीच ‘शुद्ध 
कविता की खोज’ करना बहुत श्रमसाध्य 
कार्य हो गया है। हिंदी काव्य-आलोचना 
में लोक-चक्षु गोचर करने का 
महती दायित्व जिन कंधों पर 
था/है उनकी अपनी पसंद-नापसंद 
और सच्ची और खरी बात कहने से 
बचने की रणनीति के कारण काव्य-विवेक 
और जीवन-विवेक की पहचान निरंतर 
क्षीण हो रही है। तुरंता-प्रशंसा-आकांक्षी 
कवि-समाज में असहिष्णुता और 
अधैर्य इतना बढ़ गया है कि साहित्यिक 
असहमति और आलोचना को लेकर अप्रसन्नता 
अब असाहित्यिक तरीके से व्यक्त 
होने लगी हैं। यह अकारण नहीं 
है कि अब कवि-समाज में सच्चे 
कवि की पहचान और महत्ता के प्रतिष्ठापन 
का कार्य कम हो रहा है, जैसे 
काव्याभास-भर लगने वाली कविताओं 
के बीच सच्ची कविता की पहचान 
और उसकी महत्ता का रेखांकन 
कठिनतम कार्य हो गया है। इसका 
दूसरा पहलू भी कम दारुण नहीं 
है। शिल्प-सिद्ध और भाषा-सिद्ध 
कवियों पर आज परिदृश्य में 
बने रहने का दबाव इतना बढ़ गया 
है कि वे संपादक-प्रिय और परिदृश्य-प्रिय 
बने रहने के लिए निरंतर कविताएं 
लिखते रहते हैं-शायद यह जानते 
हुए भी कि वे ऐसी और इतनी कविताएं 
लिख कर अपनी ही बेहतर कविताओं 
के अवमूल्यन और निम्न-स्तरीय 
काव्य-भीड़ में खो जाने का मार्ग 
प्रशस्त कर रहे हैं। ऐसे में 
मुझे रीतिकालीन कवि ठाकुर की 
ये पंक्तियां अत्यंत प्रासंगिक 
लगती हैं,  
‘सीखि लीन्हों मीन मृग खंजन 
कमल नैन
सीखि लीन्हों जस औ प्रताप 
को कहानौ है
ढेल सो बनाय आय 
मेलत सभा के बीच, 
लोगन कवित्त 
कीबो खेल करि जानो है।’
समकालीन 
काव्य-परिदृश्य में आज अनेक 
पीढ़ी के कवि सक्रिय हैं, परंतु 
यह एक निराशाजनक सचाई है कि 
अनेक तरह की काव्य-भूमि और भाव-भूमि 
की कविताएं कवियों के निजी 
कंठ-स्वर की पहचान के साथ हिंदी 
कविता में बेहतर ढंग से संभव 
नहीं हो पा रही हैं। यकसांपन 
का साम्राज्य आज हिंदी कविता 
की सचाई के रूप में लक्षित की 
जा सकती है। परंतु प्रसन्नता 
की बात यह है कि समकालीन काव्य 
परिदृश्य में कुछ युवा कवियों 
के यहां उनकी निजता, उनकी भाषा-शैली 
और निज कंठ-स्वर पाने की आकांक्षा 
सशक्त रूप में दिखाई देती है। 
कविता की उत्कृष्टता और स्तरहीनता 
को ले कर एक सामान्य-सी समझ लेखन 
की संख्या को लेकर है कि जो कवि 
ज्यादा लिखते हैं वे प्रायः 
बुरी कविताएं अधिक संख्या में 
लिखते हैं। तो क्या यह माना 
जाए कि कम लिखना बेहतर लिखने 
की कुंजी है? या यह कि यदि कोई 
कवि कम लिखता है तो वह अनिवार्य 
रूप से अच्छी कविताएं ही लिखेगा? 
इस बहस का दूसरा पक्ष यह है कि 
यदि कोई अधिक कविताएं लिखता 
है तो क्या यह मान लेना उचित 
है वह बुरी कविताएं अधिक लिखेगा? 
या यह कि अधिक लिखने वाला कवि 
बुरी कविताएं अधिक लिखता है? 
जर्मन के महान कवि राइनेर मारिया 
रिल्के तकरीबन पचास-बावन साल 
की उम्र तक ही जिंदा रहे और उनकी 
तीस से ऊपर काव्य-कृतियां हैं। 
इसके बावजूद उनकी शायद ही कोई 
ऐसी कविता हो जिसे आप कमतर ठहरा 
सकें। वहीं उर्दू शायर मिर्ज़ा 
ग़ालिब महज एक ही दीवान है और 
उनका एक दीवान सैकड़ों दीवान 
पर भारी है। जिन लोगों ने कम 
लिखा उनमें ऐसे अनेक कवि हैं 
जिन्होंने कम लिखने के बावजूद 
कमजोर रचना की। जबकि कुछ कवियों 
ने अधिक लिखने के बाद भी दमदार 
लिखा। इसलिए कम लिखना बेहतर 
लिखने की शर्त नहीं हो सकती 
और न अधिक लिखना घटिया लेखन 
होने की कोई शर्त या पहचान है। 
मुझे लगता है बजाय यह देखने 
के कि किसी कवि ने अधिक लिखा 
है या कम, रचना को देखने का सामान्य 
और पल्लवग्राही तरीका यह होना 
चाहिए कि उसने जो लिखा है वह 
कैसा और किस स्तर का लिखा है?
हिंदी के 
वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना 
ने अपनी उम्र और विराट् जीवनानुभव 
के मुकाबले कम लिखा है। उनके 
समकालीनों में शायद ही कोई 
ऐसा कवि हो जिन्होंने इतना 
कम लिखा हो। कम लिखने के मामले 
में आलोक धन्वा ने भी कम लिखा 
है और उनका भी अब तक एक ही संग्रह 
‘दुनिया रोज़ बनती है’ है, मगर 
वे उम्र में नरेश जी से छोटे 
हैं। तिहत्तर साल की उम्र में 
अभी हाल में उनका दूसरा संग्रह 
‘सुनो चारुशीला’ शीर्षक से 
आया है। इसमें आम तौर पर किसी 
काव्य-संग्रह में जितनी कविताएं 
होती हैं उस हिसाब से कम कविताएं 
हैं, मगर जितनी हैं वह गुणात्मक 
रूप से काफी हैं। यहां भी एक 
आम प्रचलित समझ की बात करते 
चलें। किसी कविता संग्रह को 
लेकर यह कहा जाता है कि जिसे 
वाकई कविता कहा जा सके वह किसी 
भी कवि के संग्रह में दस-बारह 
से अधिक नहीं होती। तो इस हिसाब 
से देखें तो नरेश सक्सेना के 
दूसरे संग्रह में शायद ही कोई 
कविता ऐसी हो जो काव्य-आस्वादकों 
को प्रभावित करने की क्षमता 
न रखती हों। नरेश जी ने संग्रह 
के पूर्वकथन में लिखा है कि 
इस संग्रह की अधिकांश कविताएं 
सन् 2000 के बाद की हैं, किंतु कुछ 
कविताएं 1960-62 के आसपास की भी हैं। 
यानी कालखंड के हिसाब से भी 
चार-पांच दशक की कविताओं को 
यहां संकलित किया गया है। केदारनाथ 
सिंह का दूसरा कविता-संग्रह 
‘अकाल में सारस’ जब लगभग बीस 
बरस बाद आया था तो काव्य-आस्वादकों 
ने उसे बहुत उत्सुकता से देखा 
था। नरेश जी का आलम यह है कि 
उनके नाम ‘पहल सम्मान’ जब घोषित 
हुआ था तो उस समय तक उनका पहला 
कविता-संग्रह भी प्रकाशित नहीं 
हुआ था। पहला संग्रह आया तब 
जब पहल सम्मान देने के लिए पुरस्कार 
समारोह आयोजित किया गया। 
‘समुद्र 
पर हो रही बारिश’ नरेश सक्सेना 
का पहला काव्य-संग्रह है, जो 
बेहद चर्चित हुआ। जब हिंदी 
के अंतवादी-उद्घोषक आलोचक अटल 
आत्मविश्वास के साथ यह कह रहे 
थे कि हिंदी कविता के पाठक नहीं 
है, कविता कोई पढ़ना नहीं चाहता, 
कविता की किताबें बिकती नहीं 
आदि-आदि तब नरेश सक्सेना के 
संग्रह को पाठकों ने बेहद पसंद 
किया और कई काव्य-रसिकों को 
उनकी अधिकांश कविताएं याद हो 
गईं। ‘सुनो चारुशीला’ की पहली 
कविता है ‘रंग’। नरेश जी की 
दृष्टि में सामाजिक विघटन का 
यथार्थ किस तरह प्रकृति के 
रंग की व्याख्या भी सांप्रदायिक 
रंग में रंगीन हो कर प्रकट हुआ 
है, देखिए,
‘सुबह उठ कर देखा तो आकाश
लाल, 
पीले, सिंदूरी और गेरुए रंगों 
से रंग गया था
मजा आ गया ‘आकाश 
हिंदू हो गया है’
पड़ोसी ने 
चिल्ला कर कहा
‘अभी तो और भी 
मज़ा आएगा’ मैंने कहा
बारिश 
आने दीजिए/सारी धरती मुसलमान 
हो जाएगी।’ 
यानी रंगों से 
यदि प्रकृति का हिंदू और मुसलमान 
होना निर्धारित हो रहा हो तो 
फिर प्रकृति का ही दूसरा रंग 
हरा देखें जिसके बाद फिर पूरी 
धरती मुसलमान हो जाएगी। इस्लामिक 
देशों में हरे रंग का अपना ही 
महत्व है। क्योंकि अरब में 
रेगिस्तान के कारण हरियाली 
न के बराबर है और जीवन में जिस 
चीज का अभाव अधिक हो, उस चीज 
की चाहत अधिक होती है। तो अरब 
में हरियाली के अभाव ने इस्लामिक 
मुल्कों में हरियाली की चाहत 
को पैदा की और प्रकृति में हरियाली 
की संभावना बारिश से बनती है। 
तो जब बारिश आएगी तो हरियाली 
पैदा होगी और धरती हिंदू से 
मुसलमान हो जाएगी। ‘राम की 
शक्तिपूजा’ में निराला कहते 
हैं, ‘आराधन 
का दो दृढ़ आराधन से उत्तर’। 
तो उसी अंदाज़ में कवि प्रकृति 
के सांप्रदायीकरण का उत्तर 
प्रकृति के ही दूसरे रंग की 
मिसाल से देते हैं। हिंदू धर्म 
में विभेदीकरण के प्रतीक-रंगों 
की मिसाल आकाश के बदले हुए रंग 
से देने वाले पड़ोसी इस बात 
से बेख़बर हैं कि बारिश में 
सारी धरती जल-थल हो कर एक हो जाएगी 
उसके बाद पैदा होने वाले हरे 
की हरियाली को देखकर हिंदू 
प्रतीक रंगों को वे कहां और 
कैसे ढूंढ़गें? 
एक और रंग 
देखें-प्रेम का रंग। संग्रह 
की शीर्षक कविता ‘सुनो चारुशीला’ के रंग 
के कुछ आयाम देखना उचित होगा, 
‘सुनो चारुशीला! / 
एक रंग और एक रंग मिल कर एक ही 
रंग होता है
एक बादल और एक बादल 
मिलकर एक ही बादल होता है
एक 
नदी और एक नदी मिल कर एक ही नदी 
होती है।’ 
एक और एक मिलकर 
अनेक की बात तो की जाती है परंतु 
एक और एक मिलकर वस्तुतः वह एक 
ही रहता है, दो नहीं होता। दो 
और दो का जोड़ हमेशा चार कहां 
होता है, शायद इसीलिए एक शायर 
मौला से सोच-समझ वालों को थोड़ी 
नादानी देने की प्रार्थना करता 
है। लियो टॉल्सटाय के बारे 
में विद्वानों ने कहा है कि 
वे किसी भी विषय पर लिख सकते 
थे और कमाल यह कि जिस भी विषय 
को उठाते उसी में जान डाल देते 
थे। हिंदी कवियों में नागार्जुन 
का जवाब नहीं है कि वे गुलाबी 
चूड़ियां से ले कर मादा सूअर 
तक पर लिख सकते थे और ऐसी काव्य-दृष्टि 
उन्हें प्राप्त थी, जिसकी वजह 
से वे उस कविता को यादगार कविता 
बनाने की कूव्वत रखते थे। इस 
बात को ठीक से लक्षित किया जाना 
चाहिए कि नरेश सक्सेना भी इस 
क्षमता के धनी हैं कि वे किसी 
भी विषय पर कविता लिख सकते हैं 
और यह उन्होंने ‘सुनो चारुशीला’ 
की कई कविताओं में लिखकर ज़ाहिर 
किया है। उन्होंने ऐसी-ऐसी 
चीजों को अपनी कविता का विषय 
बनाया है, जिस पर कविता संभव 
हो सकती है और वह भी बेहतरीन 
कविता, यह एकबारगी यकीन करना 
मुश्किल लगता है। पर यही सच 
है। उनकी एक कविता है ‘दाग़ 
धब्बे’। बकौल नरेश जी दाग़ 
धब्बे साफ़-सुथरी जगहों पर 
आना चाहते हैं। क्योंकि
 ‘गंदी-गंदी जगहों पर कौन रहना 
चाहता है
दाग़ धब्बे भी साफ़-सुथरी 
जगहों पर आना चाहते हैं।’ 
कमाल यह है कि साफ़-सुधरी जगहों 
पर आने की आकांक्षा रखने वाले 
दाग़-धब्बे ज़िंदा लोगों को 
चुनते हैं, न कि मुर्दों को। 
इस तरह के जिंदा लोग जिनके बारे 
में पंजाबी में कहते हैं, 
‘सौ मुर्दा 
संतां कोलो / इक जिंदा ज़ालिम 
चंगा-ए।’ 
 तो ऐसे ज़िंदा ज़ालिमों 
के पास आना चाहते हैं दाग़ धब्बे। 
जहां जीवन होगा, जीवन की हलचल 
होगी, जीवन-संघर्ष होगा, जिंदादिली 
होगी वहां अनिवार्य रूप से 
दाग़-धब्बे आएंगे। नरेश जी 
कहते हैं,
‘जीवन से जूझते जवान हों
या 
बूढ़े और बीमार
दाग़-धब्बे 
किसी को नहीं बख्शते
महापुरुषों 
की जीवनियों में
उनके होने 
का होता है बखान
कौन से बचपन 
पर
यौवन पर या जीवन पर वे नहीं 
होते
हां कफ़न पर नहीं होना 
चाहते / दाग़-धब्बे मुर्दों से 
बचते हैं।’ 
ज्यों-त्यों 
धर दीनी चदरिया वाले आदर्शवादी 
जीवित मुर्दों से भी बचते हैं 
दाग-धब्बे-जीवनहीन-प्राणहीन 
माहौल में दाग-धब्बे कैसे पैदा 
हो सकते हैं भला!
नरेश जी 
की कविता की शुरुआत विशुद्ध 
अभिधात्मक अर्थों से शुरू 
होती है, एक वैज्ञानिक चेतना
संपन्न सार्वभौम सत्य से। 
उसके बाद की उनकी कविता उस सत्य 
के सहारे मनुष्य की सुषुप्त 
संवेदना को जाग्रत करती है-कई 
बार तो बेहद मार्मिक तरीके। 
अजीब बात यह है कि हिंदी आलोचना 
में इन दिनों ‘विमर्श रचने’ 
पर जिस प्रकार अधिक ध्यान दिया 
जा रहा है, उसी प्रकार लगता है 
बौद्धिक कवियों ने ज्ञान के 
आतंक में अभिधा शब्द-शक्ति 
को चलन से बाहर करने का बीड़ा 
उठाया लिया है। शायद इसीलिए 
आज पुरस्कारों के शोर में चारों 
ओर अच्छी-बुरी का परीक्षण किए 
बगैर इनाम तो मिल रहा है, सजा 
नहीं मिलती कवि को। जबकि हरिशंकर 
परसाई ने कवि से एक निजी बातचीत 
में कहा था कि अच्छी कविता पर 
सजा भी मिल सकती है। नाईजारियाई 
कवि केन सारो वीवा इस बात का 
एक बड़ा उदाहरण है, गदर और वरवर 
राव इस बात के उदाहरण हैं कि 
अच्छी कविता पर इनाम से अधिक 
सजा मिलती है। जबकि कवि ने कहा 
है,
 ‘अच्छी 
कविता पर सजा भी मिल सकती है
जब सुन रहा हूं वाह, वाह/मित्र 
लोग ले रहे हैं हाथों-हाथ
सजा 
कैसी कोई सख्त बात तक नहीं कहता
तो 
शक होने लगता है/परसाई जी की 
बात पर नहीं-
अपनी कविताओं पर।’  
यह शक उसी कवि को हो सकता है, 
जो इनाम-ओ-इकराम की नहीं कविता 
की सचाई और कविता की ताकत को 
व्यापक जनहित के निमित्त प्रयोग 
करता है। 
नरेश सक्सेना 
के इस संग्रह में अनेक ऐसी कविताएं 
हैं जिसमें एक-एक कविता पर मुकम्मल 
तौर पर एक स्वतंत्र आलोचनात्मक 
लेख की जरूरत है। भाषा को लेकर 
नरेश जी के काव्य-चिंतन को देखना 
यहां जरूरी है। शब्द, अर्थ और 
भाषा को लेकर आम लोगों की जो 
राय है, जो सोच है उसके उलट नरेश 
जी ने बिल्कुल अलग नजरिये से 
इस चीज पर सोचते हैं, 
‘शिशु लोरी के शब्द नहीं
संगीत 
समझता है
बाद में सीखेगा भाषा
अभी 
वह अर्थ समझता है।’ 
इस बात 
को तभी आप ठीक से समझ सकते हैं 
जब आप शिशु के भाषिक विकास को 
देखें। वास्तव में शिशु अर्थ 
पहले समझता है, भाषा तो वह बाद 
में सीखता है, अर्जित करता है। 
भाषा को लेकर उनकी एक और कविता 
है ‘भाषा से बाहर’ जिसमें वे 
कहते हैं, 
‘बेहतर हो
कुछ दिनों के लिए 
हम लौट चलें
उस समय में
जब मनुष्यों 
के पास भाषा नहीं थी
और हर बात
कह के 
नहीं, कर के दिखानी होती थी।’ 
 जब हम इस प्रक्रिया को ध्यान 
और उस पर सोचें तब हम भाषा अर्जन 
की प्रक्रिया, अर्थ समझने की 
प्रक्रिया को शब्द-शक्ति के 
तीनों रूपों में बेहतर तरीके 
से समझ सकेंगे। ‘समुद्र पर 
हो रही बारिश’ के बाद नरेश जी 
का यह संग्रह हिंदी कविता में 
एक नया प्रस्थान-विंदु ही नहीं, 
कविता को लेकर चल रहे ‘विमर्श’ 
को एक सार्थक और सही दिशा में 
किया गया हस्तक्षेप भी साबित 
होगा। 
***
नरेश सक्सेना-सुनो चारुशीला! 
(कविता-संग्रह), 
भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, 
संस्करण-2012, 
मूल्य-100 रुपये, पृष्ठ-82.
सहायक प्रोफेसर, हिंदी विभाग, 
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, 
अलीगढ़-202002 (उ.प्र.) 
फोन- 096342-82886
(आलेख में प्रस्तुत पेंटिंग्स गूगल से साभार ली गयी हैं। ) 
 
                               (पंकज पराशर)





 
 
 
बढ़िया समीक्षा. सुनो चारुशीला की कई कवितायेँ पहले भी देखने को मिली थीं. यहाँ इस तरह के भाष्य में पढ़ना सुखद है.पंकज जी ने जिस तरह कम लिखने और ज्यादा लिखने के गुणवत्ता परक द्वंद्व को अभिव्यक्त किया है वह काबिल-ए-तारीफ है.
जवाब देंहटाएंनरेश सक्सेना इस संग्रह के पहले भी प्रतिष्ठित कवियों के जमात में परिगणित किये जाते रहे हैं. सुनो चारुशीला उनकी प्रतिष्ठा में जरूर वृद्धि करेगी.उनकी कविता रंग मेरी स्मृतियों में अंकित हो गयी कविताओं में से एक है.
इस आलेख को प्रस्तुत करने के लिए संतोष सर को बधाई. पंकज जी को बढ़िया प्रस्तुति और गंभीर विवेचन के लिए बधाई और आदरणीय नरेश सक्स्सेना जी को सुनो चारुशीला के लिए बहुत-बहुत बधाइयाँ...
पंकज पराशर कुशल आलोचक हैं। रचना को समझने की उनकी द्रष्टि भी विस्तृत है। इसीलिए नरेश सक्सेना जैसे वैज्ञानिक संवेदना के शिल्पकार पर पूरी दक्षता के साथ कलम समर्पित की है। वैसे , नरेश जी की कवितायेँ एक साथ कई दृष्टिकोणों से जीवंत आलोचना की मांग करती हैं। पंकज जी की इस सार्थक पहल के लिए बधाई .
जवाब देंहटाएंपंकज पराशर कुशल आलोचक हैं। रचना को समझने की उनकी द्रष्टि भी विस्तृत है। इसीलिए नरेश सक्सेना जैसे वैज्ञानिक संवेदना के शिल्पकार पर पूरी दक्षता के साथ कलम समर्पित की है। वैसे , नरेश जी की कवितायेँ एक साथ कई दृष्टिकोणों से जीवंत आलोचना की मांग करती हैं। पंकज जी की इस सार्थक पहल के लिए बधाई .
जवाब देंहटाएंअच्छा लेख है मित्र | पुस्तक मेले से मैं नरेश जी की यह पुस्तक ले आया हूँ | आपने इस लेख के माध्यम से उसे और जल्दी पढने की इच्छा जगा दी है | 'समुद्र पर हो रही बारिश' के बाद 'सुनो चारुशीला' के द्वारा नरेश जी ने जिस तरह से हमारे दौर की कविता में हस्तक्षेप किया है , वह अनूठा है | लेख के लिए पंकज भाई को बधाई |
जवाब देंहटाएंबहुत गहराई और विस्तार से लिखी गई समीक्षा . 'सुनो चारुशीला ' संग्रह को पढ़ने की इच्छा और ज्यादा हो गई है यह समीक्षा पढ़कर . सादर .
जवाब देंहटाएं-नित्यानंद गायेन
Bahut jaldi sangrha padunga... accha aalekh. Abhaar. - kamal jeet choudhary ( j n k )
जवाब देंहटाएं"नरेश जी की कवितायेँ एक साथ कई दृष्टिकोणों से जीवंत आलोचना की मांग करती हैं। पंकज जी की इस सार्थक पहल के लिए बधाई" भरत प्रसाद जी की टिप्पणी ध्यान देने योग्य है। नरेश सक्सेना पर समीक्षा बहुत मेहनत और समय की माँग करती है। ये केवल एक शुरुआत है तो शुरुआत अच्छी है।
जवाब देंहटाएंTiwari Keshav- Pankaj ji ne mere priy kawi per gahri nazer dali ha. Naresh ji kabhi kabhi hatprabh ker dete han apne kathan se mai unki aisi kitni kawita padh chuka hoon. Pankaj ji aur pahli bar ka shukriya.
जवाब देंहटाएंबहुत सम्यक पड़ताल किया है पंकज जी ने 'सुनो चारुशीला' की बहुत ही सुंदर विवेचन ! पुस्तक पढ़ने की इच्छा बलवती हो उठी है !
जवाब देंहटाएं