नरेश सक्सेना की कविताएं
नरेश सक्सेना उन कुछ विरल
कवियों में से एक हैं जिन्होंने कम लिख कर भी बहुत ख्याति पायी है। वे कभी भी
हडबडी में नहीं दिखते। लेकिन जब भी लिखते हैं वह चर्चा का विषय बन जाता है। इनकी कविता
में कहीं भी एक अतिरिक्त शब्द या पंक्ति नहीं मिलेगी। अपनी बनक में ये कवितायेँ  कुछ ऐसी होती है कि देर तक और दूर तक हमारी स्मृतियों
में टंकी रह जाती है। कवि की नजर जहां एक ओर दाग-धब्बों तक जाती है जो सर्वहारा के
जीवन से नाभिनालबद्ध है तो दूसरी तरफ उनकी नजर नीम और चीड़ की पत्तियों पर भी जाती
है जो अत्यंत छोटी होते हुए भी कवि दृष्टि में महत्त्वपूर्ण बन जाती हैं। नरेश जी
के यहाँ कविता केवल कविता के रूप में नहीं बल्कि यह जीवनानुभवों के रूप में आती है
और यही इनकी कविताओं की मूल ताकत है। इन जीवनानुभवों में ही है एक लयात्मकता जो
जीवन की तरह ही अपना लय खुद सिरजती हैं और इस क्रम में अपनी तरफ हमें सहज ही
आकृष्ट करती है। प्रस्तुत है यहाँ पर नरेश जी के नवीनतम और कुल मिला कर दूसरे
काव्य संग्रह ‘सुनो चारूशीला’ की कुछ चुनिन्दा कविताएँ जो भारतीय ज्ञानपीठ से
प्रकाशित हुआ है।   
सीढियाँ कभी ख़त्म नहीं होतीं
सीढीयाँ चढते हुए 
जो उतरना भूल जाते हैं 
वे घर नहीं लौट पाते 
दाग-धब्बे
दाग-धब्बे
साफ़-सुथरी जगहों पर आना
चाहते हैं
जहां कहीं भी कुछ होने को
होता है 
भले ही हत्या होनी हो किसी
की 
दाग-धब्बे प्रकट होने को
आतुर हो उठते हैं 
और जब कोई नहीं आता आगे 
हत्यारों के खिलाफ, गवाही
देने 
दाग-धब्बे ही आते हैं 
त्वचा तक सीमित नहीं होता
उनका आना 
वे स्मृतियों और आत्मा तक
आते हैं 
हादसे की तरह 
और हमारे सबसे प्रिय चेहरे,
बस्तियां और शहर 
धब्बों में बदल जाते हैं 
जहां जहां होता है जीवन 
हवा, पानी, मिट्टी और आग
जहां होते हैं 
धब्बे और दाग 
जरूर वहां होते हैं 
वे जीवन की हलचल में हिस्सा
बंटाना चाहते हैं 
वे बच्चों को देते हैं
चुनौती 
कि हमारे बिना ज़रा खेल कर
दिखाओ 
(बच्चे तो अच्छी तरह जानते
हैं 
कि जिनके हाथों, किताबों और
कपड़ों पर 
लग जाते हैं स्याही के दाग 
वे जरूर पास हो जाते हैं)
जीवन से जूझते जवान हों 
या बूढ़े और बीमार 
दाग-धब्बे किसी को नहीं
बख्शते 
महापुरूषों की जीवनियों में
उनके होने का होता है बखान 
कौन से बचपन पर 
यौवन पर या जीवन पर वे नहीं
होते 
हाँ कफ़न पर नहीं होना चाहते
दाग-धब्बे, मुर्दों से बचते
हैं
गन्दी-गन्दी जगहों पर कौन
रहना चाहता है 
दाग-धब्बे भी साफ-सुथरी
जगहों पर 
आना चाहते हैं।
अजीब बात
जगहें ख़त्म हो जाती हैं 
जब हमारी वहां जाने की
इच्छाएं 
ख़त्म हो जाती हैं
लेकिन जिनकी इच्छाएं ख़त्म
हो जाती हैं
वे ऐसी जगहों में बदल जाते
हैं 
जहाँ कोई आना नहीं चाहता 
कहते हैं रास्ता भी एक जगह
होता है 
जिस पर जिंदगी गुजार देते
हैं लोग 
और रास्ते पांवों से ही
निकलते हैं
पाँव शायद इसीलिए पूजे जाते
हैं 
हाथों को पूजने की कोई
परंपरा नहीं 
हमारी संस्कृति में 
ये कितनी अजीब बात है  
नीम की पत्तियाँ
कितनी सुन्दर होती हैं पत्तियाँ
नीम की
ये कोई कविता क्या बतायेगी 
जो उन्हें मीठे दूध में बदल
देती हैं
उस बकरी से पूछो 
पूछो उस माँ से 
जिसने अपने शिशु को किया है
निरोग उन पत्तियाँ से 
जिसके छप्पर पर उसका धुआं 
ध्वजा की तरह लहराता है
और जिसके आँगन में पत्तियाँ
आशीषों की तरह झरती हैं
कभी नीम के सफ़ेद नन्हें
फूलों की गंध अपने सीने में भरी?
कभी उसके छाल को घिस कर
अपने घावों पर लगाया ?
कभी भादों के झकोरों में उन
हरी कटारों के झौरों को 
झूमते हुए देखा?
नहीं!
तब तो यह कविता मेरा नाम ही
धरायेगी 
जिसकी कोई पंक्ति एक हरी
पत्ती भर छाया भी न दे पायेगी 
वो क्या बताएगी 
कि कितनी सुन्दर होती हैं पत्तियाँ
नीम की।
पत्तियाँ यह चीड़ की 
सींक जैसी सरल और साधारण
पत्तियाँ
यदि न होतीं चीड़ की 
तो चीड कभी इतने सुन्दर नहीं
होते 
नीम या पीपल जैसी आकर्षक 
होतीं यदि पत्तियाँ चीड़ की 
तो चीड़
आकाश में तने हुए भालों से
उर्जस्वित 
और तपस्वियों से
स्थितिप्रज्ञ न होते
सूखी और झाड़ी हुई पत्तियाँ चीड़ की 
शीशम या महुए की पत्तियों
सी 
पैरों तले दबने पर 
चुर्र-मुर्र नहीं होतीं 
बल्कि पैरों तले दबने पर 
आपको पटकनी दे सकती हैं 
खून बहा सकती हैं 
प्राण तक ले सकती हैं 
पहाडी ढलानों पर 
साधारण, सरल और सुन्दर यह
पत्तियाँ चीड़ की 
मुर्दे 
मरने के बाद शुरू होता है 
मुर्दों का अमर जीवन
दोस्त आये या दुश्मन 
वे ठन्डे पड़े रहते हैं 
लेकिन अगर आपने देर कर दी 
तो फिर 
उन्हें अकडने से कोई रोक
नहीं सकता
मजे ही मजे होते हैं
मुर्दों के 
बस इसके लिए एक बार 
मरना पड़ता है।    
शिशु 
शिशु लोरी के शब्द नहीं 
संगीत समझता है
बाद में सीखेगा भाषा 
अभी वह अर्थ समझता है
समझता है सबकी मुस्कान 
सभी की अल्ले-ले-ले-ले 
तुम्हारे वेद पुराण कुरआन 
अभी वह व्यर्थ समझता है 
अभी वह अर्थ समझता है 
समझने में उसको, तुम हो 
कितने असमर्थ, समझता है 
बाद में सीखेगा भाषा 
उसी से है, जो है आशा  
मिट्टी 
नफ़रत पैदा करती है नफ़रत 
और प्रेम से जनमता है प्रेम
इंसान तो इंसान,
धर्मग्रंथों का यह ज्ञान 
तो मिट्टी तक के सामने ठिठक
कर रह जाता है
मिट्टी के इतिहास में
मिट्टी के खिलौने हैं 
खिलौनों के इतिहास में हैं
बच्चे 
और बच्चों के इतिहास में
बहुत से स्वप्न हैं 
जिन्हें अभी पूरी तरह समझा
जाना शेष है
नौ बरस की टीकू तक जानती है
ये बात 
कि मिट्टी से फूल पैदा होते
हैं 
फूलों से शहद पैदा होता है 
और शहद से पैदा होती है बाकी
कायनात
मिट्टी से मिट्टी पैदा नहीं
होती  
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
संपर्क
विवेक खंड, 2/5 गोमती नगर 
लखनऊ -226010
मोबाइल- 
08090222200
09450390241 



 
 
 
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