यादवेन्द्र का आलेख 'चालीस साल के अंतराल में लिखी दो कहानियाँ'

 

अब्दुल बिस्मिल्लाह


समय कभी थमता नहीं बल्कि हर पल आगे बढ़ता रहता है। समय के साथ परिस्थितियां भी बदलती हैं जिन्हें रचनाकार अपनी रचनाओं में उतारते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि आज हमारे समाज की मानसिकता बहुत बदल गई है। राजनीतिक दल धर्म का इस्तेमाल वोट के लिए करने से बिल्कुल हिचकिचाते नहीं। धीरे धीरे जनता के लिए भी यह धर्म सबसे ऊपर हो गया है। हिन्दू मुसलमान के बीच की खाई लगातार बढ़ती जा रही है। शहरों का यथार्थ और भी निर्मम है। यहां किसी को किसी से कोई मतलब नहीं। तीज त्यौहार पर मिलने जुलने की परम्परा का शहरों के लिए कोई मतलब नहीं। अब्दुल बिस्मिल्लाह हमारे समय के सशक्त कहानीकार हैं। अपनी हालिया छपी कहानी में वे लिखते हैं "हैसियत और पहचान सिमट कर कितनी हाशियाई रह जाती है इसका बयान है कहानी "रंगीन पन्ने"। धार्मिक आज़ादी तो छिन ही गई, पड़ोसी के साथ मेल मिलाप और साझापन सपने की बात हो गई। ईद में वे सेवइयाँ बना कर पड़ोसियों (मुसलमान भी शामिल) का इंतज़ार करते रहे पर कोई नहीं आया। हद तो तब हो गई जब दिवाली में पड़ोसी ने उन्हें अपने फ्लैट में घुसने तक को रोक दिया - लक्ष्मी के आगमन के लिए उसने जो रंगोली बनाई वह उसके दरवाज़े से ले कर रिज़वान साहब के दरवाज़े को घेरे हुए थी। यह कैसे हो सकता कि लक्ष्मी के आगमन से पहले मुसलमान उस जगह फटक जाए। रिज़वान साहब अपनी बेगम के साथ रोशनी के पर्व पर अपने घर से निष्कासित नीचे जा कर एक अंधेरे कोने में बैठे रहे।" किसी भी समाज और राष्ट्र के लिए यह अच्छी बात नहीं कि वहां रहने वाला एक बड़ा समुदाय खुद को उपेक्षित महसूस करे। अरसा पहले बिस्मिल्लाह की एक और कहानी प्रकाशित हुई थी 'अतिथि देवो भव'। उस समय स्थितियां इतनी क्रूर नहीं हुई थीं। लेकिन आज के हालात सबके सामने हैं। यादवेन्द्र हमारे समय के खौफनाक व्यवहार को दर्ज करते हुए उचित ही लिखते हैं 'संप्रदायों के बीच अलगाव के दरम्यान नफ़रत और हिंसा ने जो जगह बनाई है उस पर चंदन पांडेय (कीर्तिगान) और गौरी नाथ (कर्बला दर कर्बला) तो बात कर सकते हैं, अब्दुल बिस्मिल्लाह बिल्कुल नहीं।'

आजकल पहली बार पर हम प्रत्येक महीने के पहले रविवार को यादवेन्द्र का कॉलम 'जिन्दगी एक कहानी है' प्रस्तुत कर रहे हैं जिसके अन्तर्गत वे किसी महत्त्वपूर्ण कहानी को आधार बना कर अपनी बेलाग बातें करते हैं। कॉलम के अंतर्गत यह  बारहवीं प्रस्तुति है। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं यादवेन्द्र का आलेख ''दुनिया से ख़त्म (न) हो गया इंसान का वजूद'।


ज़िंदगी एक कहानी है : 12

'चालीस साल के अंतराल में लिखी दो कहानियाँ' 


यादवेन्द्र 


बया के ताज़ा अंक में छपी अब्दुल बिस्मिल्लाह की कहानी "रंगीन पन्ने" पढ़ी जो आज की क्रूर और डरावनी हकीकत को बयान करती है। कथानायक रिज़वान साहब किसी नदी को पाट कर बनी बेतरतीब गरीब बस्ती से निकल कर हरियाली और साफ़ हवा वाले सपनों में देखी कॉलोनी में आबाद होते हैं पर वहाँ उनकी हैसियत और पहचान सिमट कर कितनी हाशियाई रह जाती है इसका बयान है। धार्मिक आज़ादी तो छिन ही गई, पड़ोसी के साथ मेल मिलाप और साझापन सपने की बात हो गई। ईद में वे सेवइयाँ बना कर पड़ोसियों (मुसलमान भी शामिल) का इंतज़ार करते रहे पर कोई नहीं आया। हद तो तब हो गई जब दिवाली में पड़ोसी ने उन्हें अपने फ्लैट में घुसने तक को रोक दिया - लक्ष्मी के आगमन के लिए उसने जो रंगोली बनाई वह उसके दरवाज़े से ले कर रिज़वान साहब के दरवाज़े को घेरे हुए थी। यह कैसे हो सकता कि लक्ष्मी के आगमन से पहले मुसलमान उस जगह फटक जाए। रिज़वान साहब अपनी बेगम के साथ रोशनी के पर्व पर अपने घर से निष्कासित नीचे जा कर एक अंधेरे कोने में बैठे रहे। 


यह कहानी बदले हुए भारत की तस्वीर दिखाती है हालांकि इसकी बुनावट में वह सहज प्रवाह नहीं है लेखक जिसके लिए जाने जाते हैं। कोई भी इसको पढ़ कर अनायास कह उठेगा कि वास्तविक भारत अब इतना माइल्ड रहा नहीं थोड़ी देर को रिज़वान साहब को घर से बाहर अंधेरे में बिठा कर संतुष्ट हो जाए पर अब्दुल बिस्मिल्लाह नामक मुस्लिम लेखक की अपनी सीमा भी तो है। आज से चालीस पचास साल पहले जिस तरह की रचनात्मक आज़ादी राही मासूम रज़ा या अब्दुल बिस्मिल्लाह को हासिल थी वह सिकुड़ते सिकुड़ते आज संकरी गली में तब्दील हो गई है।





उपर्युक्त पढ़ते हुए संयोग से मुझे अब्दुल बिस्मिल्लाह की पुरानी कहानी "अतिथि देवो भव" याद आती है। यह 1990 में पहली बार छपे लेखक के इसी शीर्षक के कथा संग्रह में संकलित है। मान लेते है कि 1980-85 के आस-पास यह लिखी गई होगी - जब बर्फ़ वाला ठंडा पानी पाँच पैसे में मिलता था, सुगंधित जय साबुन का जलवा था और पंजाब का खालिस्तान समर्थक आंदोलन चरम पर था। यानी इस कहानी के लिखे जाने के बाद कम से कम चालीस साल तो बीत ही गए। सालों की गिनती छोड़ दें तो यह कहना अनुचित न होगा कि भारतीय समाज अपनी समग्रता और समरसता को बेशर्म तौर पर त्याग कर खंड-खंड बिखर चुका है और हम बड़े तू छोटा का हिंसक खेल खेल रहा है।


"अतिथि देवो भव" कहानी में प्रचंड गर्मी की लू वाली दोपहर में युवा मिश्रीलाल गुप्ता को संस्कृत पढ़ाए हुए पड़ोसी मास्साब उससे मिलने शहर जाते हैं पर वह घर पर मिलता नहीं। वह समय मोबाइल वाला था नहीं कि घर से निकलने से पहले फ़ोन कर पूछ लें। मगर बगल के कमरे में रहने वाले राम मनोहर पांडे की पत्नी पड़ोसी धर्म निभाते हुए दोपहर से रात तक बड़ी आत्मीयता के साथ उनकी आवभगत करती हैं। बगैर नाम और पता ठिकाना पूछे पानी चाय तो पिलाती ही हैं, आराम करने को खाट और पंखा भी देती हैं। रात में घी चुपड़ी गर्मागर्म रोटियाँ सेंक कर बैंगन की स्वादिष्ट सब्ज़ी और आम के अधपके अचार के साथ पका आम भी प्रेमपूर्वक खिलाती हैं पर जैसे ही उनका नाम गुप्ता या ब्राह्मण न हो कर मुहम्मद सलमान पता चलता है, रोटी सेंकना छोड़ कर स्टील का ग्लास उठा कर कांच का ग्लास बगल में धर देती हैं - गाली गलौज नहीं करतीं, न घर से बाहर निकालतीं जबकि उस समय उनके पति भी घर में थे। दिलचस्प है यह जानना कि मिश्रीलाल के बाबा संस्कृत पढ़ना चाहते थे पर शिक्षक न होने से उर्दू पढ़े और सलमान साहब संस्कृत पढ़े पर किसी सरकारी स्कूल में संस्कृत शिक्षक की नौकरी नहीं मिली तो इस्लामी स्कूल में दूसरा विषय पढ़ाने लगे। एक इंटरव्यू में लेखक ने अपने अनुभव साझा करते हुए बताया कि वे भी संस्कृत पढ़ना चाहते थे पर युनिवर्सिटी ने मुसलमान को संस्कृत पढ़ाने से इनकार कर दिया। सलमान साहब ने मिश्रीलाल को खूब संस्कृत पढ़ाया और पांडे जी गीता के श्लोक पढ़ते हुए क्या सही उच्चारण कर रहे हैं क्या गलत यह सब समझ रहे हैं सलमान साहब।






यह कहानी जिस दौर में लिखी गई उसमें धर्म और जाति का भेदभाव न हो ऐसा नहीं था पर वह सामाजिक जीवन का एकमात्र ध्रुव सत्य और मरने मारने के नैतिक अधिकार को स्वीकृति देने वाला एटम बम नहीं बना था। गनीमत है कि तब उत्तर भारतीय समाज में हिंदू खतरे के उच्चतम स्तर तक नहीं पहुंचा था और हर शब्द के साथ जेहाद जोड़ कर साज़िश देखने की उतावली की महामारी का प्रकोप नहीं हुआ था। मॉब लांचिंग का आविष्कार सर्वसुलभ नहीं हुआ था - नहीं तो पांडे जी की पत्नी की सिर्फ़ ऐसी खामोश सिविल नाफ़रमानी से काम थोड़े चल जाता, सलमान साहब को घेर कर मारपीट करने के लिए स्वघोषित धर्मरक्षकों का जमावड़ा हो जाता और टुकुर-टुकुर ताकती पुलिस उनके खिलाफ़ राष्ट्रीय सुरक्षा को आंच पहुंचाने वाला कोई न कोई मुकदमा दर्ज़ कर लेती। ऐसे मंजर में मास्साब को मिश्रीलाल तो मिला नहीं, उनका सुरक्षित घर लौट पाना भी बिल्कुल मुमकिन न होता।


चार साढ़े चार दशकों में अविश्वसनीय तौर पर बदल गए उत्तर भारतीय समाज को देखने समझने में एक ही लेखक की दो कहानियों को पढ़ना दिलचस्प लगता है पर यह सोच समझ कर मजबूरी में बरते हुए संयम को भी उजागर करता है - संप्रदायों के बीच अलगाव के दरम्यान नफ़रत और हिंसा ने जो जगह बनाई है उस पर चंदन पांडेय (कीर्तिगान) और गौरी नाथ (कर्बला दर कर्बला) तो बात कर सकते हैं, अब्दुल बिस्मिल्लाह बिल्कुल नहीं।



यादवेन्द्र 




यादवेन्द्र 
पूर्व मुख्य वैज्ञानिक
सीएसआईआर - सीबीआरआई , रूड़की



सम्पर्क 

पता : 72, आदित्य नगर कॉलोनी,

मोबाइल - +91 9411100294 

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

हर्षिता त्रिपाठी की कविताएं