खालिद जावेद के उपन्यास पर पवन करण की समीक्षा





किताबें इस मायने में महत्त्वपूर्ण होती हैं कि यह पाठक के मन मस्तिष्क को मथ कर रख देती हैं और उसकी दृष्टि और जीवन को बदल कर रख देती हैं। कई किताबों का प्रभाव तो हमारे मानस पर लम्बे समय तक बना रहता है। खालिद जावेद का उपन्यास 'नेमत खाना' हाल ही में हिन्दी में अनुदित हो कर प्रकाशित हुआ है। इस महत्त्वपूर्ण उपन्यास को पढ़ते हुए कवि पवन करण लिखते हैं 'क्या आपको पता है कि आपके जीवन की सबसे नजदीकी, साफ और जरूरी जगहों पर कितनी गंदगी सांसे ले रही है। नहीं, तो हिम्मत जुटाइये और अपने भीतर के इस बजबजाते-बुलबुलाते कीचड़ बन कर ठहरे, सिकुड़ते-फैलते और लगातार सड़ते हुए उस पानी से मिलिए, जिसे आप खुद ही अपने भीतर बनाये रखते हैं। 'नेमत ख़ाना' पढ़े बिना खुद के इस रूप से मिल पाना संभव नहीं।' आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं खालिद जावेद के उपन्यास  'नेमत ख़ाना' पर पवन करण की समीक्षा।



जीवन का रुदन भी नहीं, बस दृष्टि है 'नेमत ख़ाना'


पवन करण 



हर नींद एक कब्र है यह और बात है कि इसके पहिए बार-बार दलदल में फंस जाते हैं और सफर टल जाता है-

खालिद जावेद का उर्दू से हिंदी में अनुदित हो कर आया एक उपन्यास 'मौत की किताब' पहले पढ़ चुका हूं। उसे पढ़ कर भी अंधेरे या साफ कहूं तो मौत के अंधेरे में खो गया और किसी तरह खुद को उससे बाहर निकाल कर लाया। मौत की आंखों की तरह चमकती, अंधेरे की ऐसी दुनियां इससे पहले जिसकी मैंने कल्पना तक न की थी। 

उनका उपन्यास 'नेमत ख़ाना' उससे आगे बढ़ कर अपने पढ़ने वाले को खुद में बदल लेने की क्षमता रखता है। जैसे कि आप अपने हाथ में थमी 'नेमत ख़ाना' पुस्तक की शक्ल में खुद को पढ़ रहे हों। इसकी मानसिकता भी यही है कि इसे पढ़ने के बाद आप अपने हाथों में किताब की शक्ल में यह नहीं, आप खुद बचते हैं। 

क्या आपने कभी महसूस किया है कि आपके भीतर घिन का कितना बड़ा ढेर मौजूद है। लगातार सड़ांध मारता और बदबू फैलाता। क्या आपको पता है कि आपके जीवन की सबसे नजदीकी, साफ और जरूरी जगहों पर कितनी गंदगी सांसे ले रही है। नहीं, तो हिम्मत जुटाइये और अपने भीतर के इस बजबजाते-बुलबुलाते कीचड़ बन कर ठहरे, सिकुड़ते-फैलते और लगातार सड़ते हुए उस पानी से मिलिए, जिसे आप खुद ही अपने भीतर बनाये रखते हैं। 'नेमत ख़ाना' पढ़े बिना खुद के इस रूप से मिल पाना संभव नहीं। 

खालिद जावेद जिस निर्ममता से जिंदगी को देखते और लिखते हैं वह उन्हें जुदा लेखक के रूप में हमारे सामने खड़ा करता है। उनका कहना कि - मानसिक रूप से और अपनी आत्मा के स्तर पर आदमी अपनी आंतों के अंदर ही छिपा रहता है। इन्सान की आंतें ही उसका घर हैं। और क्या आप जानते हैं कि घर की सबसे खतरनाक जगह कौन सी है? याद रखिए, बावर्चीखाना (रसोई) एक खतरनाक और भयानक जगह का नाम है।- लेखक की मुश्किल और खोजी मानसिकता से हमारा परिचय कराता है।

यदि आपने 'नेमत ख़ाना' पढ़ना प्रारंभ करने से पूर्व किताब के आखिरी पृष्ठ पर प्रकाशित खालिद जावेद का चित्र अपने मन में उतार लिया तो उनकी आंखें (मुझे यह भी लगता है जो दरअसल किताब की आंखें हैं), जिनकी सामर्थ्य पर विश्वास करना मुश्किल है, आपको किताब खत्म होने तक सताती रहेंगीं। मैं इस किताब और लेखक की दोनों आंखों की बेरहम चमक से बच कर भागना चाहता हूं। मगर मुश्किल यह है कि मैं इसे मैं पढ़ चुका हूं और यह मुझे खुद में बदल चुकी है। अब मेरे चेहरे पर लेखक का भी चेहरा है। मेरी आंखों में लेखक की आंखों की चमक है।

एक ऐसी किताब जिसमें न तो मजहबी आक्रामकता हो न सांप्रदायिकता का सर्वग्रासी विस्तार, न गरीबी और दरिद्रता का रूदन और न ही पहचान का एकत्रीकरण, वह अपना पूरी तरह से निर्वहन कर ले जाये। पाठक को आश्चर्यजनक बेचैनी से भर देने के लिए पर्याप्त है। जबकि इसकी प्रबल संभावना इसके कथानक में व्याप्त थी। मगर इसके केंद्र में लेखक ने बस जीवन को रखा है। आश्चर्य यह है कि 'नेमत ख़ाना' जीवन का रुदन भी नहीं, बस दृष्टि है, ऐसी दृष्टि जो जीवन को उसके सबसे नग्न और निर्मम गंदे, गलीज और घृणित रूप में रूप में देखती है।


खालिद जावेद


'नेमत ख़ाना' समीक्षाओं, आलोचना और प्रस्तावना में बंधने-थमने वाली किताब नहीं, इस पर कुछ कहने के लिए आपको किताब परखने की अपनी परंपरागत सोच से बाहर आना होगा। जो किताब में नहीं उसे लिखने से बचने के लिए आपको अपनी पेन की स्याही और निब दोनों बदलनी होगी अन्यथा कागज पर इसके बारे में आपका लिखा फीका नजर आयेगा। जिससे मैं बच रहा हूं, इसकी कथा या सार लिख कर आप किताब से अधिक खुद का भीतर उजागर कर देंगे।

किताब पढ़ने के बाद एक प्रश्न खुद से पूछता हूं -

क्या तुम जिंदा हो?

खुद को जबाव देता हूं.......हां मैं जिंदा हूं।

क्या तुम मुर्दा हो......हां मैं मुर्दा हूं।

क्या तुम अपनी आंतों से सर बाहर निकाल कर घर के बाबर्चीखाने में झांकते आदमी हो

हां मैं ऐसा ही आदमी हूं?

क्या तुम कोई जीभ लपलपाते पालतू जानवर हो-

हां.. मैं बाबर्चीखाने के दरवाजे से बंधा अपनी आंतों के भीतर भूख-ता कुत्ता हूं।

पढ़ने के दौरान दिमाग में रुक कर रह जाने को मना लेने वाले किताब के कुछ अबूझ-धुंधले-सुलझे, अनसुलझे दार्शनिक और काव्यात्मक अंश यहां भी।- 

मेरे शरीर के अंदर उम्र की मात्रा बढ़ रही है। जिस्म में उम्र का बढ़ते जाना, गुब्बारे में गैस का बढ़ते जाना

*

तवा तब रंग-बिरंगी चिनगारियां बिखरते हुए हंसने लगता जब वो रोटियां पकाती

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नफरत का शरीर भी होता है

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कभी-कभी कुछ इन्सानों के हाथ उनके पांव में उतर आते हैं।

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सारी दुनिया की एक अंतर्राष्ट्रीय भाषा भूख नहीं तो और क्या है

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इन्सानी आँतों की लालसा अपनी प्रकृति में उसके गुप्तांगों की लालसा से अधिक भयानक है

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आत्मा की पवित्रता के डंके पीटते रहने से ही कुछ नहीं होता। अस्ल समस्या तो शरीर की है

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उम्र--उम्र--! ज़िंदा रहने की सजा। पागलपन रहने की सजा तैयार करने वाला एक स्कूल।

*

सोने वालों को, नींद में चलने वाले ही जगाते हैं

*

किताबें पढ़ना भी एक तरह की आवारागर्दी करना ही है। किताबों में दीमक की तरह आवारागर्दी। मैंने दीमक को उसके बदसूरत और बदनुमा दाँतों के साथ देखा।

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टेक्नोलॉजी को जो काम करने की सबसे ज्यादा आदत है, वो है अपनी सभी परिकल्पनाओं में से मनुष्य की चेतना को बेदखल कर देना

*

तुम्हारी टेक्नोलॉजी इन्सान के अंदर हीन-भावना को जन्म देती है। इसका नैतिक साहस दबाता है और इन्सान के आज़ाद, रचनात्मक और अतार्किक व्यवहार को हेय दृष्टि से देखती है।

*

मौत किस सफाई, महारत और सलीके के साथ, इंसानों को हादसों, बीमारियों, तबाहियों और बुढ़ापे से बाहर खींचकर, चुन लेती है

*

कायर के गुट से ख़तरनाक इन्सानों का कोई दूसरा गुट नहीं।

*

अब पता नहीं चलता कि सज़ा क़त्ल की नकल थी या क़त्ल सज़ा की नक़ल।

*

इस देश में करने के लिए इतने काम कबसे पैदा हो गये?

*

हर इंसान दूसरे इंसान के लिए ठग है। इन्सान अपने जवाहिरी मज़हब के साथ-साथ, एक ख़ुफ़िया मज़हब भी अपने अंदर छिपाये-छिपाये ज़िंदगी गुज़ारता है

*

मोहब्बत पीछे से आ कर, गले में रूमाल का फंदा डालती है

*

हर नींद एक डाक-गाड़ी है जिसकी मंज़िल कब्र है और यह और बात है कि इसके पहिए बार-बार दलदल में फंस जाते हैं और सफ़र टल जाता है

*

मेरे लिए तो यह दुनिया बावर्चीखाने में पड़े जूठे बर्तनों के समान है जो अभी तक अपने धोए न जाने पर सिसक रहे हों

*

अलंकारों के द्वारा साहित्य में बेवकूफ बनाया जाता है। क़ानून, अर्ज़ियों या अपीलों में नहीं

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मैं अपने नमक को सँभाल कर रखना चाहता हूँ। नमक में लाशें देर से सड़ती हैं

*

हर सज़ा हमेशा लावारिसों की तरह हवा में भटकती फिरती है, वह किसी को भी मिल जाए। कोई भी उसका बारिश बन जाए। सज़ा को इससे क्या सरोकार। उसे तो किसी के जिस्म में रहने के लिए एक ठिकाना चाहिए।

*

मोहब्बत हो या नफ़रत, इस मामले में दोनों एक हैं। दोनों साथ-साथ रहने से, और नजदीकियों से ही बढ़ते हैं

*

आर्ट पर इतना बुरा समय पहले कभी नहीं पड़ा था और इतने आलसी, आसानी की तलाश में रहने वाले, सतही और बुरे पाठक इससे पहले कभी नहीं देखे गए थे

*

पिछले बीस वर्षों में इतनी ज़हरीली हवाएं चली हैं कि सब इन्सान मुझे नीले-नीले नज़र आते हैं

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ये खाने जो ज़िंदगी जैसी घटिया चीज़ को टिकाऊ और मज़बूत बनाने का ख़तरनाक काम अंजाम देते हैं। ये खाने जो पेट में कीड़े और आंतों में बदबूदार मल की जड़ हैं

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औरत और मर्द के शरीर एक दूसरे के लिए दस्तर-ख्व़ान पर सजे हुए खाने हैं

*

ये दुनिया ईमानदार लोगों के ख़िलाफ़ एक साज़िश के सिवा कुछ और नहीं

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दंगे में कोई भी इन्सान बिना अफ़वाहों के जी नहीं सकता

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जुर्म और सज़ा दोनों जुड़वा हैं। सज़ा जुर्म की परछाईं है। वह जुर्म के अंदर से पैदा होती है। वह जुर्म के पेट में अपना वीर्य डालती है। जुर्म केवल एक माध्यम है सज़ा पैदा करने का।

*

इन्सान कब से शर्मिंदा होता आया है मगर उसकी शर्मिंदगी दुनिया का कूड़ा-करकट साफ़ करने के लिए कभी झाड़ू नहीं बन सकी।

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कुछ औरतों के स्तन छाती की अज्ञात, रहस्यमय गहराईयों में छिपे रहते हैं। और मर्द के हाथ लगने से बाहर आने के लिए तड़प उठते हैं

*

तेज़ और गुस्सैल लड़कियाँ, प्रेम में पड़ कर जिस्म जल्द हो सौंप देती हैं।

सूर्य प्रकाशन मंदिर, बीकानेर से प्रकाशित इस उपन्यास ने मुझे बिथोल कर रख दिया। क्या आप इसके लिए तैयार हैं।



पवन करण 



सम्पर्क


पवन करण 

मोबाइल : 9425109430

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