प्रदीप्त प्रीत की कविताएं
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प्रदीप्त प्रीत |
समकालीन कविता की अभिव्यक्ति में ‘‘व्यंग्य’’ स्वर
नासिर अहमद सिकन्दर
प्रदीप्त प्रेम और सौन्दर्य को बिंबों में रच कर, ब्योरे दे कर, अपने कथ्य को सामाजिक विडम्बनाओं के बीच ला कर व्यंग्य को माध्यम बनाते हैं। यह प्रक्रिया कविता के भीतर जोखिम भरा कार्य है, फिर भी प्रदीप्त यह खतरा उठाते हैं। उनकी अधिकांश कविताओं में यह व्यंग्य-बोध ही कविता का आधार बनता है। जैसे नागार्जुन व्यंग्य की धार लिए कविता रचते थे, यथा; ‘चंदू मैंने सपना देखा’, ‘पाँच पूत भारत माता के’, ‘पैने दांतों वाली’ अथवा रघुवीर सहाय रचते हैं- ‘हँसो हँसो जल्दी हँसो’ तथा ‘राष्ट्रगीत में भला कौन वो भारत भाग्य विधाता है’। प्रदीप्त भी यह शैली अपनाते हैं। यहाँ स्वर और पाठ का लहजा व्यंग्य का है भले शिल्प व भाषा अलहदा हो सकती है लेकिन कविताओं का स्वर व्यंग्य का ही है। प्रदीप्त की कविताओं में एकल अभिनय के संवादी रूप के बीज भी उपस्थित हैं। प्रदीप्त की ‘‘जिन्होंने हर बार बचाया मुझे’’, ‘‘इतना ही तो मनुष्य होना चाहता हूँ’’ तथा ‘‘सीधी सपाट सड़कों पर’’ ऐसी ही कविताएं हैं-
उन्होंने मुझको नए नए नामों से पुकारा
अलग अलग स्वर में
उन्होंने मुझ पर कविताएं लिखीं
अलग अलग भावों में
मैं उनके लिए कुछ न कर सका
तिस पर मुझसे जुड़ना
उनके लिए बदनामी का सबब बनता रहा
वे भले ही दोस्त, यार, कुलीग थीं
सबकी सब प्रेमिका ही समझी गईं
(जिन्होंने हर बार बचाया मुझे)
बस इतना ही परोपकारी इंसान
क्रान्तिकारी प्रेमी
लोकप्रिय गुरू
नैतिक व आज्ञाकारी चेला
ठीक-ठाक बस इसी के इर्द-गिर्द
इतना ही मनुष्य होना चाहता हूं
(इतना ही मनुष्य होना चाहता हूं)
‘‘इतना ही मनुष्य होना चाहता हूं’’ कविता की अंतिम पंक्तियों पर गौर करेंगे तो यह कविता भी व्यंग्य में ही खत्म होती है। इस कविता में ‘‘चलने को तो कोई भी चलेगा’’ व्यंग्य की धूरी पर ही है। यहां इस एक पंक्ति की अवृत्ति टेक की तरह चलती है जब वे कहते हैं ‘‘मेरी जाति का हो तो ठीक है’’ यह पंक्ति कविता में हर ब्योरों या बिम्बों के साथ प्रयुक्त हुई है। इस कविता में अंत तक व्यंग्य का लहजा बना रहता है
एक पावरफुल प्रोफेसर खोज रहा हूं
जो विभिन्न आयोगों का सदस्य हो
मैं उनके चिल्लम-चिल्ली पर वाह-वाह करने को तैयार हूं
मेरी जाति का हो तो ठीक है
(इतना ही मनुष्य होना चाहता हूं)
उनकी कविता ‘‘जिन्होंने हर बार बचाया मुझे’’ के काव्य कथ्य को समझा जाए तो अंत तक जाते-जाते यह कविता भी सामाजिक व्यंग्य की ओर ही मुड़ती है, जहां आज भी समाज के भीतर स्त्री-पुरूष संबंधों का यही नजरिया है। यह कविता समकालीन काव्य परिदृश्य के भीतर नवीन कथ्य की भूमिका भी निभाती है। यह कविता स्त्री-पुरूष संबंधों की जिहालत पर तन्ज की कविता भी है क्योंकि आज भी हमारा समाज इसी दृष्टिकोण को अपनाता है। जहां आज भी भारतीय समाज इसी संकीर्ण मानसिकता में जीता है। यह कविता समाज के स्त्री-पुरूष के आत्मीय संबंधों को केवल एक बने बनाए नजरिये से देखने की जड़ व संकीर्ण मानसिकता पर प्रहार करती है। तथा इस कविता के माध्यम से वे समाज के भीतर स्त्री-पुरूष संबंधों को दृढ़ और भरोसेमंद बनाते हैं। प्रदीप्त की कविताओं के कथ्य षिल्प अक्सर सामाजिक विडंबनाओं के साथ भाव-भंगिमा के बीच संवादी शैली में भी प्रकट होते हैं यानी कि इन कविताओं को एक नाट्य शैली में भी प्रस्तुत किया जा सकता हैं। उनकी ‘‘प्रायश्चित’’, ‘‘सीधी सपाट सड़कों पर’’, ‘‘विभ्रम’’, ‘‘अपने बरक्स’’, ‘‘बहुत ज्यादा क्या होगा?’’ ऐसी ही कविताएं हैं।
कांस्ट्रक्शन में फंस गये छोटे से जंक्शन पर
एक भारी पेड़ का तना बाहों के बिना ऐसे खड़ा है
जैसे कहीं जाना ही नहीं है
चमड़ी उखड़ गई है
हड्डी का चूरा जाले में फंस कर झूल रहा है
(सीधी सपाट सड़कों पर)
रात गहरी हो चली है
कविता के शब्दों में
चल कर आई हुई कहानियों के बहाने
एक अनकही बात कहने को बेचैन
छटपटा रहा हूं
जैसे कहने को कोई बेचैनी न हो कर
पेट में उठा कोई भयंकर दर्द हो
(अपने बरक्स)
एक जेल लिए फिरते हैं
हम सब
बाहरी जेल आसानी से कट जाती है
अंदर की जेल कैसे काटोगे बाबू मोशाय?
(प्रायश्चित)
प्रदीप्त की कविताओं में आए बिम्बात्मक ब्यौरे कथ्य से इस कदर जुडे़ और गुथे होते हैं कि वे कविता के भीतर कथ्य को उकेरने में अंत तक बने रहते हैं। कहा जा सकता है कि ब्यौरे सीधे-सीधे कथ्य का अनुसरण करते हैं। यही वजह है कि उनकी कविताओं से एक उद्धरण नहीं निकाल सकते। यह आलोचकीय दृष्टि को बाधित करता है, लेकिन काव्य दृष्टि इस शिल्प में ही खिलती और चमकती है।
सम्पर्क
नासिर अहमद सिकंदर
मोगरा-76, तालपुरी
दुर्ग भिलाई, छत्तीसगढ़, 490006
मोबाइल : 9827489585
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नासिर अहमद सिकन्दर |
प्रदीप्त प्रीत की कविताएं
जिन्होंने हर बार बचाया
अक्सर वो तब आईं जब
नहीं रह पा रहा था अपने जैसा
उन्होंने हर बार बचाया जितना वे बचा सकती थीं
शायद वो महसूस जाती थीं
छू कर जाने वाली हवा को
जब आकाश ने भी अपनी सीमा बता कर छोड़ दिया
सर्दी-गर्मी और बरसात के बीच
उन्होंने दिया बेहिसाब दौड़ सकने के लिए एक नई दुनिया
और रख दिया एक बोसा माथे पर
वे प्रेमिकाएं नहीं थीं
वे सबके-सब दोस्त भी नहीं थीं
कोई किसी से कुछ अलग थीं
तो कोई किसी से कुछ
उन्होंने मुझे दे रखी थी आजादी
यह जानते हुए भी कि कुछ भी तय नहीं है हमारे बीच
वे मुझे गोहनिया लेती थीं गोदी में
किसी बेंच या पार्क में लेटने पर माथा सहलाया करती थीं
किसी को मेरे लम्बे बाल पसन्द थे
कोई-कोई चिढ़ भी जाया करती थीं इसी से
उन्होंने मुझको नए-नए नामों से पुकारा
अलग-अलग स्वर में
उन्होंने मुझे पर कविताएं लिखीं
अलग-अलग भावों में
मैं उनके लिए कुछ न कर सका
तिस पर मुझसे जुड़ना
उनके लिए बदनामी का सबब बनता रहा
वे भले ही दोस्त, यार, कुलीग थीं
सब के सब प्रेमिका ही समझी गईं।
इतना ही तो मनुष्य होना चाहता हूँ
("सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया:। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दु:ख भाग्भवेत्।।")
इसलिए मदद करना चाहता हूँ
ऐसे सबसे शोषित व्यक्ति की
जो मेरी जाति का हो
जो मदद के बाद मेरा गुणगान करे
एकाध तस्वीर लगा दे तो भलामानुष होगा
प्यार करना चाहता हूँ
एक सुंदर सुशील लड़की से
नौकरीपेशा हो तो और भी अच्छा
लेकिन मेरी जाति की हो
उच्च जाति की भी चलेगी
सेवा सत्कार में लीन रहे
मेरा प्रतिरोध न करे
चार चेले बनाना चाहता हूँ
जो दूर से देखते ही पैरों पर फाट पड़ें
जो मेरे आस-पास की खबरें दें
मैं उन्हें परीक्षाओं के प्रश्न बताया करूँ
मेरी जाति का हो तो ठीक है
चलने को तो कोई भी चलेगा
अत्यधिक नैतिक एवं आज्ञाकारी अवश्य हो
एक पॉवरफुल प्रोफेसर खोज रहा हूँ
जो विभिन्न आयोगों का सदस्य हो
मैं उनके चिल्लम-चिल्ली पर वाह-वाह करने को तैयार हूँ
बस वो भी मेरा लीपा-पोती कहीं छपवा दे
मेरी जाति का हो तो ठीक है
सत्ता का दरबारी हो तो अति उत्तम
बस इतना ही परोपकारी इंसान
क्रांतिकारी प्रेमी
लोकप्रिय गुरू
नैतिक एवं आज्ञाकारी चेला ठीक-ठीक बस इसी के इर्द-गिर्द
इतना ही मनुष्य होना चाहता हूँ।
सीधी सपाट सड़कों पर
कंस्ट्रक्शन में फंस गए छोटे से जंक्शन पर
एक भारी पेड़ का तना बाहों के बिना ऐसे खड़ा है
जैसे कहीं जाना ही नहीं है
चमड़ी उखड़ गई है
हड्डी का चूरा जाले में फंस कर झूल रहा है।
फुटपाथ पर बच्चा सम्भालती मजदूरन
कूड़े के ढेर के पीछे से उठती पेशाब की गंध
सभ्यता के विकासक्रम से बाहर हुए बैंडपार्टी के ढांचे
जिनमें अब बैंड जैसा कुछ नहीं
पार्टी की तो खैर बात ही छोड़ो
कोई सफेदपोश हर बार रख जाता है
चुपके से शहरों के जेब में
भारी पैकेज के पान का बीरा
उसी की जुगाली दिन-रात करते हुए
सारे शहर झेल रहे हैं
एकरसता की मार
रूढ़ियाँ चिपटी हुई हैं जोंक की तरह
उस तरफ जहां बिल्डिंगों को छोड़ आया हूँ
वहां है तरह-तरह के रंगों के प्रसार की होड़
इस तरफ जहां आया हूँ इन जंगलों में
यहां का रंग आज भी हरा और धूसर ही है
विज्ञापन नहीं होते तो शहर भी सुंदर होता
एक निर्वात लिए फिरते रहने की मजबूरी है
जिसमें हर पल दम घुटता है
दूर से खपर-खपर की आती हुई
आवाज का सहारा है
न होता तो क्या होता?
सचमुच मैं पागल हो गया होता।
अपने बरक्स
सूरज बदलते-बदलते ढल गया है
किसी किताब पर नोट्स लेने के बाद
अब कविताओं की उफान में
गोते लगा रहा हूँ
संसार से चुराया हुआ एक बिंब सजा कर
अपनी कविता बना रहा हूँ
जैसे कोई अप्रतिम कवि न हो कर
रोजमर्रा की माटी फांकता अदना सा इंसान हूँ।
रात गहरी हो चली है
कविता के शब्दों में
चल कर आई हुई कहानियों के बहाने
एक अनकही बात कहने को बैचैन
छटपटा रहा हूँ
जैसे कहने की बैचैनी न हो कर
पेट में उठा कोई भयंकर दर्द हो।
सुबह उठते-उठते उठ जाता हूँ
चंद फूलों को दबोचे चला जाता हूँ
उसकी गोंद में दुबक कर सोने
जिसके प्रेम से ही ऐतराज है
जैसे वो मेरे प्रेम की तलबगार न हो कर
निर्जीव मखमली लिहाफ़ हो।
दोपहर सड़कों पर दौड़ते हुए
आंदोलनों में नारे लगाते हुए
हॉस्टल के किसी कमरे में
व्यवस्था को गाली देते हुए
ऐसे पड़ा रहता हूँ जैसे
यहां के बाद कहीं कोई अपना नहीं है।
दिन-रात
क्षण-दर-क्षण
बदलता
मुकरता
दम्भ में जीवन जीता हुआ मैं
खुद के 'मैं' को खोज रहा हूँ
मैं अपने खोजे हुए में नहीं मिला
मैं अपने लिखे हुए में भी नहीं पाया गया
मैं ठीक-ठीक उस तरह पहचाना गया दुनिया में
जिस तरह तुम्हारे ख्याल में पैदा हुआ।
प्रायश्चित
एक जेल लिए फिरते हैं
हम सब
बाहरी जेल आसानी से कट जाती है
अंदर की जेल कैसे काटोगे बाबू मोशाय?
कैसे मिला पाओगे खुद से नजर
एक गलती छटपटाते हुए छोड़ देगी तुम्हें
जिसमें बार-बार मरोगे तुम।
धरती चल रही है
जब खड़े हुए महसूसोगे तुम
नदी के बहाव में
अधजली अस्थियां
पूजा के विर्सजित फूल
घरों से निर्वासित देव चित्र
सब कुछ जब बहा जा रहा होगा
तो क्या एक पल के लिए भी
ये खयाल नहीं आएगा
बह जाऊं इसी में
वही एक पल तुम्हारी सजा है
कानून हो सकता है नियत रहे
न्याय हमेशा ही अनिश्चित रहा है रहेगा।
तुम हमेशा से कायर रहे हो
समस्याओं से भागने वाले
तुम हमेशा खोजते हो एक नई धरती
अपनी पीड़ा को दबा देने के लिए
उस दिन भी तुम यही करोगे
तुम्हें रोक लेगा किसी भीगी हुई स्त्री का यौवन
या किसी बच्ची की निश्चल जलक्रीड़ा
तुम बचा लिए जाओगे
एक तेज बहाव
तुम्हें फेंक देगा किसी नई धरती पर
तुम्हारे पाप इतने बड़े नहीं है
जितनी इस धरती की क्षमाशीलता
तुम्हारे कदम इतना नहीं चल सकते कि
धरती कम पड़ जाए।
विभ्रम
कोई एक अकेला भीगता है
अपने अकेलेपन के दम्भ में
बारिश की छत पर बादलों की निस्सहायता से अनजान
अपनी जानने की बलवती इच्छा के बावजूद
वह कुछ भी नहीं देख सकता है
वह कितना अनजाना ही रहेगा
वह शांत निःछल भीगते अकेले कबूतर को देख सकता है
बादलों से न मिल सकने की बेचारगी को नहीं देख सकता
नहीं देख सकता उसकी आँखों में बनते-बिगड़ते बादलों के चित्र को
वह देख तो सकता है
पानी में बादलों की परछाई को
जब बिजली अचानक से चमकती है
वह सिर्फ परछाई
देख सकता है नहीं देख सकता उनके खालीपन को
वह टूट कर आए हुए पत्ते को देख सकता है
उसके भीगने को देख सकता है
वह नहीं देख सकता है
उसके भीगे मन की व्यथा को
उसके आने से भरी गई जगह को देख सकता
उसके आने से खाली हुई जगह को वह कभी नहीं देख पायेगा
वह भीगती-जलती-बुझती बत्तियों को देख सकता है
बुम्म करके ओझल हुए ट्रांसफार्मर को देख सकता है
उसके ओझल होने के कारण को नहीं देख पायेगा
वह कितना कुछ देखता है
अपने देखने पर इतराता है
वह कुछ भी नहीं देख सकता है
वह कितना अनजाना ही रहेगा
बहुत ज्यादा क्या होगा?
बहुत ज्यादा क्या होगा?
एक दिन तुम जब
अपनी सबसे अच्छी दोस्त के साथ बैठे होगे
मजबूती से उसका हाथ थामे
हर क्षण उसका साथ देने का वादा कर रहे होगे
ठीक उसी समय देश के किसी कोने में
किसी लड़की को खिलौना बनाया जा रहा होगा
वहां से एक आवाज आयेगी - बचा लो मुझे
एकाएक तुम्हें लगेगा
ये आवाज यहीं कहीं से आ रही है
तुम अपनी दोस्त से नजर नहीं मिला पाओगे
दम घुटेगा अपने होने के पछतावे में
तब दूर कहीं कोरस में थाप सुनाई देगी
आ'जादी आजादी-आ'जादी आजादी
बहुत ज्यादा क्या होगा?
एक दिन तुम जब
अपने शहर की सबसे ऊंची इमारत के नीचे खड़े हुए
अपनी बात कहते हुए झुलस रहे होगे
सफेद बादलों का झुण्ड बिना देखे तेजी से गुजर जाएगा
ठीक उसी समय एक फरमान आएगा
'अब हटो नहीं तो एक्शन ले लिया जाएगा'
तुम अपनी ताकत की तरफ देखोगे
एक घूंट गुनगुना पानी पिओगे
बेड़ियों को झकझोर के चीख पड़ोगे
आ'जादी आजादी-आ'जादी आजादी
बहुत ज्यादा क्या होगा?
एक दिन जब तुम अपने विश्वविद्यालय जाओगे
तुम देखोगे
अभिव्यक्ति के सारे अधिकार 'अभिव्यक्ति के खतरों' में बदल चुके होंगे
तुम्हारे साथ कंधा मिला कर चलने वाला तुम्हारा साथी
आंदोलनों में तुम्हारे साथ 'हम देखेंगे' गाने वाला तुम्हारा संगतकार
किसी प्रोफेसर का दरबारी गीतकार बनके
'सैय्या हमार हो नथुनिया पे गोली मारे' गाने लगा है
तुम घुटोगे और भाग कर छुप जाने के लिए मजबूर होगे
फिर से एक ही आवाज निकलेगी
आ'जादी आजादी-आ'जादी आजादी
उदासियां अंधेरे-उजाले में
पहला
दोपहर के पीले उजाले पर
सवार हो कर
चली आती हैं स्मृतियां
जिन्हें हम याद नहीं करना चाहते
और वे भी
जिनके बाद से जीवन घुट रहा है।
इस उजाले की कोई आहट नहीं होती है।
बेशरम
बेहया
बेमुरव्वत
तनाशाह है ये।
दूसरा
लम्बे होते रास्तों पर
अकेलापन बढ़ा रहे उजाले से
बेहतर है
बहुत बड़े चांद की रात में
एक छोटे से कमरे में
घुप्प अंधेरा और
उसमें मच्छरों के मानिन्द चूम रही
उदासी।
तीन
(निर्मल वर्मा से)
हम आधार विहीन हो जाते हैं
हवा में तिर रहे होते हैं
कोई किधर भी ले कर चला जाता है
अकेले होने का कोई और
दुःख
नहीं होता है निर्मल
मैं अकेले रहा गया निर्मल
चार
(निर्मल वर्मा से)
शब्द शब्द शब्द
शब्दों में घिरा हुआ
सिर से पांव तक शब्दों से डूबा हुआ।
जब नही होते शब्द
रिक्तता में जादू दिखता है
जैसे किसी ठंड भरी सुबह में
किसी लॉन की धुंध के पार कोई
धुंधला सा
बुला रहा है
पांच
धूल के कणों को इकठ्ठा
किया-किया
ओस की बूंदों का लम्स
उधार लिया
हवा के बहाव को थोड़ा बांध कर
सूरज की हल्की रोशनी में
पत्तियों की चादर ओढ़े
पत्थरों को रंग देने की तैयारी थी
छः
मैं अपने नाखूनों से
ज़ख्म देता रहा हूँ खुद को
मैं अंधेरा बढ़ाता रहा हूँ
छिपाने के लिए खुद को
गिरह खुलती ही नहीं सुख की
मैं अकेला पाता रहूंगा खुद को
सात
सात बज गए थे
दिन का आसमान अब भी चमक रहा था
अंधेरा कहीं लेट हो गया था
सिहरती हुई देह को काबू करते हुए
मैं पेशाब करने गया था
पेशाब करते हुए एक डर धमक पड़ा था
क्या रोने की सारी जगहें खो जाएंगी
अंधेरा नहीं आया तो क्या होगा!
आठ
ये मायाजाल कैसा है अंधेरे का
लुभावना इतना है कि डूबा रहूँ
इसकी गेसुओं ताले
तानाशाह इतना है कि सोचने को मजबूर करता है
हजार बार
नौ
वह कोई भी एक समय हो सकता है
अँधेरे और उजाले से परे का समय
रात का ढाई भी और शाम का पांच भी
अचानक अफ़नाता-दौड़ता हुआ
खुद को ऐसी जगह पर पाता हूँ
जहाँ से कुछ भी अपना दिखाई नहीं देता है
जो दिखाई भी देता है
उसका दावा है कि वो अब मेरा नहीं है।
दस
अंधेरे का लिबास ओढ़े आता है
अंधेरे में डूबा हुआ कोई कलाकार
अंधेरे में बैठा
उजाले का सौदागर
उजाले का जाल फेंकता है
उजाले दर उजाले पहुचने की छटपटाहट में
खत्म होती जा रही हैं कलाएं
अप्रेम
झमा-झम बरसती बारिश के दिन
दिल को मोह में बांधने के दिन
तुम्हारे साथ रहने के दिन
आह! ये मौसमी बुखार
टायफाइड: एक मौसमी बुखार
एक बैक्टरिया जाने कहाँ से आता है
क्षत-विक्षत लीवर, दूषित रक्त, दिल को भी कलुषित करता है
मैं एक पल को सोचता हूँ -'तुम मेरी नहीं तो किसी की नहीं'
फिर सोचता हूँ तुम्हारे बिना जी भी तो नहीं सकता
यह मुझे कमजोर करता है
अमनुष्य होने को आमादा एक जीव मेरा गला पकड़ता है
आधी रात में...
आधी-रात - भटकने की रात,
इंतजार में तारे गिनने की रात,
फोन पर गालियां देने की रात,
गुस्से में मार-पीट करने की रात,
सुकून खोजने की रात,
दीवारों में कैद हो जाने की रात,
बहुत दूर से एक दूसरे के साथ होने की रात,
फूल चुनने किए रात,
देह की छाप से कमरा सजाने की रात,
चुमने की रात,
प्यार करने की रात,
आँसू बहाने और पोंछने की रात,
जाने और रोक लिए जाने की रात,
मिलने और उनके बाद की आधी रात...
106 डिग्री बुखार चढ़ता है और नहाता है आधी रात में
गले में कोई जानलेवा साँस अटकती है आधी रात में
तुम्हारी दूर जाती आवाज को तुम्हें भूलने का वादा करता हूँ
और तोड़ता हूँ आधी रात को
आह! मेरे भटकने के दिनों में जब मैं सब कुछ भूलने को अमादा हूँ
धन्यवाद देता हूँ अपनी ही याददाश्त को
जो बौखलाहट के दिनों में
तुम्हारे पास ले गईं
तुम्हारे दरवाजे... (कभी तुम्हारे अनुसार अपना था)
पर दस्तक देता हूँ
तुमसे मिलने की आस में
दबे पांव चुपके से हजारों आशंकाओं के भारी मेरे पैर
तुम्हारे प्रेम सा स्थूल मेरे मेरे सा अदृश्य
बहुत पतला होकर घुसता हूँ तुम्हारे कमरे में
अलग-अलग कोनों में मेरे जीवन सा अव्यवस्थित हमारा कमरा
किताबें, कविताएं, मेरे इंतजार में लिखी गई कविताएं
इन सब में कहीं नहीं फँसता है मन
खुशी की मुस्कुराहट फैल गयी थी
तेरे-मेरे होठों के बीच हवा मात्र भी रंज नहीं थी, बस, बस,
आश्चर्य और चाहना थी
चूम-चूमकर, लिपट-लिपटकर, रुकते-रुकते ठहर गए थे हाथ-हाथ में,
पांव-पांव में, रोम का रोम से और बालों का आलिंगन था रुका-रुका
दीवारों से घिरे-घिरे और संगम भर में फैले हुए
विद्वानों के छल-कपट से छले-छिड़े और अड़े रहे
कवियों की लिबलिबाहट पर व्यंग मौन में हंसे-भरे
'हे मेरी तुम!'
कहाँ हो तुम?
तुम्हें वहाँ कहीं नहीं पाता हूँ
रोता हूँ
उन किताबों से, दीवारों से, चमकती रंगीन बत्तियों से
हमारे बिस्तर से, कमरे से जो हमारे मिलने के गवाह हैं
मुझे नहीं मिली तुम... 'हे मेरी तुम'
पहचान गया मैं तुम्हारी डायरी के पन्नों को
जो अचानक मेरे मुँह पर फड़फड़ाने लगे
और कहीं मेरी आत्मा पर छप गए
दरवाजों ने फटकार भगाया नहीं तो क्या
तुम्हारी सीढ़ियों से जो बिखरना हुआ पूरे शहर इलाहाबाद में
फैल गया मैं -
धुआँ, घास, पत्थर, गुलाब, नीम और नींद बन कर।
यमुना की दलदल रेती में कहीं धंसा जा रहा हूँ, फिसलती रेत
मुझे उबरने नहीं देती है
यह पीड़ा धंस जाने की पीड़ा नहीं है
यह असफल होने की पीड़ा है,
जिस पर मेरा कोई जोर नहीं चलता
सोचता हूँ पुल से गिरने की पीड़ा मेरी पीड़ा से कितना कम या अधिक होगी
वह कौन सी पीड़ा है
जिसे सह लेने के बाद
अपने अपराधबोध से मुक्त होता रहूँगा धीरे-धीरे...
धीरे-धीरे...
तुम्हारा आना, मुझसे प्यार करना, मेरे लिए सब कुछ छोड़ना,
मोह भंग होना, पत्थर होना और खो जाना। मैं तुम्हें खो देने के अपराधबोध से मुक्त हो जाना चाहता हूँ-
आओ मेरे कान में एक गीत गुनगुनाओ और मुझे मुक्त कर दो
खचाखच भरे कटरा में कहीं दूर मोहम्मद खलील की आवाज़
'कौने खोतवा में लुकइलू अहि रे बालम चिरई...' में
कहीं ठहर जाने की ज़िद लिए
एक छोटी गोल्ड जलाता हूँ,
सोचता हूँ अभी कितनी और
और फिर तुम आ जाओगी
फ्राइड राइस बनाने वाले रसोइये की कलाबाजी पर मुस्कुराता हूँ
और याद करता हूँ वे दिन
जब मैं तुम्हारे सामने तवे पर रोटियाँ उछालता था
और तुम दंग रह जाती थी
इन दिनों जब भी मिला तुम्हारा साथ नहीं मिला
हाथ मिला भी तो उसे उलटते-पुलटते
एक सवाल मन में उभरता रहा -
क्या ये वहीं हाथ हैं?
- जो कविताओं में मेरे लिए अप्रतिम बिंब बुनते थे
और उन्हें तुम्हारे होंठों पर सजा देते थे
- जो प्रेम के लाल रंग में रंगे हुए हमारे हाथों के साथ
हमारी आत्मा पर छप गए हैं
और कभी न छोड़ने का विश्वास दिलाते थे
- जो मुझे तुम्हारे पास और पास खींच लेने के लिए मेरी पीठ पर आते थे
- जो मेरे पसीने में डूबे रहते थे और कई दिनों तक पानी के लिए तड़पते थे
- जो मेरी याद में हरसिंगार चुन कर मेरा नाम लिखते थे और रात में महकते थे मेरे नथुने में
- जो हर निवाले से पहले जलते थे और आहिस्ता से
मुझे खिला कर मेरी नजरों के सामने इतराते थे
हां! ये वही हाथ हैं
जिन्होंने एक मासूम फूल कह कर उठाया मुझे
और दहकते हुए रेगिस्तान में छोड़ कर भूल गये हैं।
आउट... गेट आउट
और सालों बाद कोई शतक आने की
इच्छाओं का अंत
आने और आते रहना की सारी आवाजें
'मत आना' और 'मत आओ यहाँ क्या है ही तुम्हारा' में तब्दील हो गईं
मैं क्या कह रहा हूँ?
वही तो!
जो हमेशा से कहता रहा हूँ
जब तुम आओगे क्रांति होगी
मैं सेमल के वृक्ष की तरह रूपवान हो जाऊंगा खिले हुए लाल फूलों से
सारे दुःखों को विदा करना होगा जर्द सूखी पत्तियों के साथ।
सब भूल जाना चाहता हूँ।
भूलना इतना मुश्किल भरा है?
पहली बार महसूसता हूँ
नहीं भूल पाता हूँ
उन टटपुँजिया आलोचकों को भी तो नहीं सही साबित कर पा रहा हूँ
जो यह कहते हैं कि कवि लोग प्यार रचते हैं,
कविता करते हैं और भूल जाते हैं
मैं उन्हें सही साबित करना चाहता हूँ
क्योंकि मैं तुम्हें भूलना चाहता हूँ
न भूल पाने की असफलता जीने नहीं देती
तुम्हारी, उनकी, सबकी खरी-खोटी सुनता हूँ
गर्दन झुकाए चुप रहने की कोशिश करता हूँ
चाहता हूँ बोल दूं उनके कारनामे
फिर भी चुप रहता हूँ
पूंछोगो तो बोलूंगा... पूँछो....पूँछो कि इतनी वीरानी क्यों है?
पूँछों की अच्छी ध्वनियां गुम क्यों हैं?
सब इतना हताहत क्यों है?
इंतजार किसका है?
ये खामोशी क्यों है?
ये बेचारगी क्यों है?
पत्तियां बदरंग, धड़कन अनियमित, सांसें सांसत में क्यों हैं?
हवा का रुख क्यों बदल गया है?
पूँछो कि इतनी बंदिशें क्यों हैं?
कुछ भी पूँछो...
बस ये मत पूँछो कि प्रेम क्या है?
मैं सूख गई नदी होने तलक तुम्हें सींचता
तुम सूख गए पेड़ होने तलक मुझ पर इठलाती
व्यर्थ की चिंताएँ कहीं और विस्तार पाती
अब तो छोड़ी गई दुनिया में रहता हूँ
मेरा नाम अस्वीकार्य है
अप्रेमी
तरह-तरह के प्रेम
तरह-तरह के प्रेमी-प्रेमिकाएं
तरह-तरह के प्रेमपत्र
इस तरह-तरह के शब्दों की गूंज में
मेरा
तुम्हारी गर्दन के नीचे
सीने के इर्दगिर्द
सिमटा हुआ अबोलापन
कहीं गुम तो नहीं हो जाएगा?
कहां होगा इनका प्रकाशन?
खूंटियों पर टंगे हुए लोग
दरवाजों पर झुके हुए लोग
किस प्रेम का ढिंढोरा पीट रहे हैं?
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
सम्पर्क
प्रदीप्त प्रीत
मोबाइल::8573954259
शानदार!
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