महेश चन्द्र पुनेठा की किताब शिक्षा के सवाल पर सन्तोष कुमार तिवारी की समीक्षा शिक्षा के सवाल : एक किताब, जिसमें सब हाजिर नाज़िर हों
शिक्षा से किसी भी 
देश और समाज का स्वरूप तय होता है। आज शिक्षा का जिस तरह से व्यावसायी करण 
किया जा रहा है उसके मद्देनजर इस बात को ध्यान में रखना होगा कि शिक्षा को 
आर्थिक लाभ के नजरिए से देखना ही संकुचित नजरिया है। इसमें निवेश से 
तात्कालिक लाभ भले न हो दूरगामी लाभ जरूर होता है। वैसे भी राज्य का यह 
कर्तव्य है कि वह अपने यहाँ के बच्चों को अनिवार्य रूप से शिक्षा प्रदान 
करे। महेश पुनेठा एक कवि होने के साथ साथ एक जागरूक शिक्षक भी हैं। हाल ही 
में उनकी एक किताब आयी है 'शिक्षा के सवाल'। इस किताब में उन्होंने बड़ी 
बेबाकी से शिक्षा के तमाम सवालों की निर्मम तहकीकात की है। इस किताब की 
समीक्षा की है कवि और शिक्षक सन्तोष तिवारी ने। तो आइए आज पहली बार पर पढ़ते
 हैं सन्तोष तिवारी की यह समीक्षा।
शिक्षा के सवाल :  एक किताब, जिसमें सब हाजिर नाज़िर हों 
सन्तोष कुमार तिवारी
कवि,
 लेखक महेश चन्द्र पुनेठा की यह किताब शिक्षा के अनेक अनसुलझे-अधूरे सवालों
 का मात्र दुहराव भर नहीं, जैसा आपने और किताबों मे पढ़ा होगा; बल्कि इसमें
 लेखक सुचिन्तित अध्यापक के साथ-साथ साक्षी भाव से शिक्षा विभाग की 
कार्यप्रणाली, समाज का नजरिया, अध्यापक का अपने दायित्वों को ले कर समाज
मनोविज्ञान, बच्चे व पाल्य की भागीदारी की गहरी विवेचना  विद्यमान है।
29 लेखों की इस किताब को पढ़ते हुए यह आभास हुआ कि इसके लेख कई वर्षों के अध्यापकीय अनुभव व परिस्थियों पर पक कर तैयार हुए होंगे। बालमनोविज्ञान के सापेक्ष शिक्षक
 मनोविज्ञान की चर्चा लेखक की सूझबूझ व समझ  का परिचायक है। वे कहते हैं - 
'शिक्षा में बच्चे के मनोविज्ञान की तो बहुत अधिक चर्चा की जाती है, भले ही
 यह चर्चा सैद्धांतिक स्तर पर ही हो, पर  शिक्षक के मनोविज्ञान की कोई बात 
नहीं होती। सेवारत प्रशिक्षण, यह इतना ठस, परम्परागत एवं रूढिबद्ध है कि 
उसे प्राप्त करने के बाद भी न शिक्षक संवेदनशील हो पाता है और न ही 
नवाचारी।' (शिक्षा के सवाल, पृष्ठ 13) यह अनुभव हर समर्पित अध्यापक के 
अनुभव से काफी हद तक मेल खाता होगा। इस विषय पर राष्ट्रीय स्तर की 
कार्यशाला की जरूरत है।
बच्चे
 में सीखने की अभिप्रेरणा में प्राय: उसके मन में बैठा भय रुकावट का काम 
करता है, ऐसी स्थित में वह अध्यापक से किनारा काटने की कोशिश करता करने 
लगता है। स्कूलों में भयमुक्त वातावरण की ठोस  कार्य-योजना के अभाव की तरफ 
इशारा करती यह किताब उसके हल की तरकीब भी बताती है। लेखक के मतानुसार 
सृजनात्मकता का प्रस्थान बिंदु है 'सम्यक् शिक्षा के बारे में समझ पैदा 
करना।'
नवउदारवादी धारणा 
ने सरकारी स्कूलों के ढाँचे को कमजोर किया है। उसका कारण साफ है क्योंकि अब
 शिक्षा बाजार प्रभावित हो गयी है जिसकी वजह से वह सृजनात्मकता की उपादेयता
 पर जोर देने के बजाय फायदे के सौदे में बदलती जा रही है। मैं अपना 
व्यक्तिगत अनुभव बता रहा हूँ। जहाँ मैं अध्यापक हूँ वहीं एक जमा जमाया 10+2
 प्राइवेट स्कूल इस कारण बन्द हो गया कि प्रबंधन ने माना कि घाटा होने कारण
 स्कूल बन्द करना पड़ा।
शिक्षा
 का अधिकार 2009 को बारीकी से देखें तो अधिनियम में कुछ ऐसे प्रावधान हैं 
कि जो शिक्षा के निजीकरण को पर्याप्त  बल दे रहे हैं। शिक्षा के सवाल में 
लेखक शिक्षा में बदलाव या बदलाव की शिक्षा लेख में बुनियादी तौर पर शिक्षा 
के पुराने ढाँचे में बदलाव का संकेत दिया है। इस क्रम मे एक बात यह जोड़ना 
जरूरी लग रहा है कि जो लेखक की नजर से कैसे छूट गया कि विद्यालय, शिक्षक और
 छात्र के अलावा अभिभावक को भी शिक्षा के बृहत्तर दायरे में शामिल किया 
जाना चाहिए। यह शिक्षा-चतुष्टय तब जा कर परिवर्तन का माध्यम बन सकेगा| मेरे
 लगभग बीस वर्षों के अध्यापन का यह तजुर्बा है कि शायद ही कोई अभिभावक 
बच्चे से विद्यालय के पठन पाठन पर सवाल करता होगा। जहाँ
 मोटी फीस भरता है वहाँ तो वह जरूरत से ज्यादा चौकन्ना रहता है, जबकि 
सरकारी स्कूल में नाम लिखा कर वह मान लेता है कि अब मेरा काम पूरा हुआ, 
सारी जिम्मेदारी अब टीचर की हो गयी। अब भला इस सोच का इलाज क्या है? महेश 
जी इस पक्ष पर जरूर कुछ लिखेंगे, आशा है।
'शिक्षा
 की असफलता' नामक लेख में लेखक ने एक अहम् बिंदु पर चर्चा की है। यह बात 
बड़े काम की है कि शिक्षा समाज में व्याप्त कुरीतियों, रूढियों एवं अन्य 
तमाम बुराइयों को दूर करने में फिसड्डी क्यों है? इस बाबत विज्ञान -मर्मज्ञ
 लेखक देवेंद्र मेवाड़ी का कथन अक्षरश: सत्य है जिसमें वे  कहना चाहते हैं 
कि देश भर मे ऐसा कोई गाँव कस्बा होगा जहाँ जादू टोना, देवी देवता का आना 
सहित अनेक आडंबर लोगों पर हावी न हो। यहाँ तक कि पढ़ा लिखा एलीट तबका भी इस
 चपेट में आपको बाकायदे दिख जाएगा।
शिक्षा
 का परीक्षा केंद्रित होना भी बहुत शुभ संकेत नहीं। होता ये है कि हर बच्चा
 जन्मत: कुछ न कुछ विशिष्टता ले कर धरती पर आता है। हो सकता है वह किताबी 
ज्ञान में पीछे हो परन्तु ललित कला के किसी क्षेत्र में लाजवाब हो। कहने का
 आशय यही कि संभावना तलाशने की जिम्मेवारी कौन लेगा। पाठ्यक्रम प्रधान 
सिस्टम से तो वह बच्चा बाहर हो सकता है मगर उसमें जो विलक्षणता  है  उसका 
पारखी कहां मिलेगा? भाई महेश पुनेठा पिछले कई वर्षों से दीवार पत्रिका पर 
बड़ा काम कर रहे हैं, उन्हें इस  विषय में  विभाग के उच्चाधिकारियों से 
संपर्क करके अवगत कराना चाहिए कि सभी सरकारी प्राथमिक, जूनियर, हाईस्कूल व 
इंटर कॉलेजों मे भी दीवार पत्रिका पाठ्यचर्या का अंग बने।
दीवार
 पत्रिका वस्तुत बच्चे की समझ व मेधा को बाहर लाने, कागज पर उकेरने का 
माध्यम है। दीवार पत्रिका तैयार करने तथा उससे संबंधित सहायक सामग्री 
जुटाने के उपाय पर  लम्बी चर्चा किताब को नयेपन प्रदान करती है। बकौल 
पुनेठा, दीवार पत्रिका यदि आप अपने स्कूल या कालेज में तैयार करते हैं  आप 
बच्चों को कल्पनाशीलता के साथ-साथ  रचनात्मक दक्षता से सम्पन्न करने का 
अनूठा काम कर रहे हैं।
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| महेश पुनेठा | 
हिन्दी
 के वरिष्ठ कवि स्वर्गीय चन्द्र कान्त देवताले की एक कविता है जिसका शीर्षक
 है - थोड़े से बच्चे और बाकी बचपन के साथ अमानवीय क्रूरता उजागर हुई है।
देश के भविष्य बच्चों का स्कूल जाने की उमर में काम के बोझ दब कर भटक जाने पर कवि देवताले की  गहरी संवेदना आँख नम करती है.....
उनकी स्मृतियों में फिलवक्त 
चीख और रुदन
और गिड़गिड़ाहट की हिंसा है
उनकी आँखों में कल की छीना-झपटी
और भागमभाग का पैबंद इतिहास है। 
(शिक्षा के सवाल, पृष्ठ...84)
इसके
 अलावा और विभिन्न  लेखों  को पढ़ते हुए लगता है कि एक बहुत बड़ा वृत्त है 
जिसमें किताबें, बच्चे, अभिभावक, विद्यालय और अध्यापक , सरकारी अमला सब के 
सब अपनी जिम्मेदारियों व जवाबदेही के साथ मौजूद हैं, परंतु सभी के पास 
शिक्षा के अनेक  सवालों पर चुप्पी है या फिर बेतुके जवाब की जरूरत हैे सभी 
अवयवों को साध कर सरकारी शिक्षा व्यवस्था को फिनलैंड की स्कूली शिक्षा के 
समानान्तर  लाने की। जिसमें सब की अपनी अपनी भूमिका है.....तो फिर आइए, दूर क्यों खड़े हैं?
पुनेठा
 जी के इस सद्प्रयास के लिए, कि उन्होंने सिर्फ सवाल करने के लिए सवाल नहीं
 किया बल्कि सरकारी शिक्षा की यथास्थितिवादी माहौल को बदलने का मन बनाया 
है, को गति प्रदान करें।
......................
*शिक्षा के सवाल*
*लेखक : महेश चंद्र पुनेठा*
*लोकोदय प्रकाशन, *लखनऊ*
*मूल्य : रु 150/*
(युवा कवि व समीक्षक सन्तोष कुमार तिवारी का जन्म  15/06/1974 को अयोघ्या में हुआ। वे पिछले बीस
 बरसों से अध्यापन से जुड़े हैं। आप राजकीय इंटर कॉलेज ढिकुली, रामनगर में 
प्रवक्ता हिन्दी कार्यरत हैं। दो कविता संग्रह आपके प्रकाशित हे चुके हैं। 
निवास रामनगर, नैनीताल है।)
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| सन्तोष कुमार तिवारी | 
सम्पर्क  
मोबाइल :  8535059955


 
 
 
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