महेश चन्द्र पुनेठा की कविताएँ
रसूल हमजातोव मेरा दागिस्तान में एक जगह लिखते हैं - कवि के लिए
विषय की नहीं अपितु दृष्टि की जरूरत होती है. कब किस वक्त कौन सा दृश्य या
घटनाक्रम उसके कविता का विषय बन जाएगा यह खुद कवि को भी पता नहीं रहता.  महेश पुनेठा ऐसे ही कवि हैं जो दृष्टि सम्पन्न
कवि हैं. उनकी एक कविता है ‘परीक्षा कक्ष के बाहर खड़े जूते मोज़े’ आजकल परीक्षा के
समय परीक्षार्थियों के जूते-मोज़े, चप्पल बेल्ट वगैरह परीक्षा कक्ष के बाहर रखवाने
का चलन चल पड़ा है. एक ठण्ड भरे ऐसे ही दिन में परीक्षार्थियों के जूते मोज़े बाहर
रखा देख कर महेश का मन इस क्रूरतम व्यवस्था से हिल उठता है और कवि इस पूरी
व्यवस्था पर ही प्रश्न चिन्ह उठाता है. आज पहली बार पर प्रस्तुत है अपनी ही ढब के
अनूठे कवि महेश
चन्द्र पुनेठा की कुछ नयी कविताएँ.
महेश चन्द्र पुनेठा की कविताएँ 
पुनर्वास 
[१]
[१]
मेरा जन्म 
और
हमारे कुनबे का विस्थापन
एक ही वर्ष हुआ था
लगभग आधी सदी होने को आई
पुनर्वास का
और
हमारे कुनबे का विस्थापन
एक ही वर्ष हुआ था
लगभग आधी सदी होने को आई
पुनर्वास का
इन्तजार
कर रहे हैं हम 
[२] 
जब भी सुनता हूँ पुनर्वास
विस्थापन शब्द
विस्थापन शब्द
मुझे और भी भयानक लगने लगता है 
वे बातें याद आने लगती हैं जो
पिताजी के मुंह से सुनी थी बचपन में
जब बिल्ली के बच्चों की तरह
बीते थे हमारे दिन
अब तो पिता जी चुप्पा हो गये हैं
चेहरा भी भावहीन हो चला है
वे बातें याद आने लगती हैं जो
पिताजी के मुंह से सुनी थी बचपन में
जब बिल्ली के बच्चों की तरह
बीते थे हमारे दिन
अब तो पिता जी चुप्पा हो गये हैं
चेहरा भी भावहीन हो चला है
बचपन की अधिकतर बातें मुझे याद नहीं 
लेकिन ये बातें इतनी बार सुनी मैंने
कि अमिट स्याही से हो गये हैं
कोई पूछता जब पिता जी से
क्या हुआ पुनर्वास का?
पिताजी एक सांस में बोल पड़ते –
हाँ, ले गये थे दिखाने सा..... ले....
चंडाक की बगल वाली पहाड़ी पर
एकदम सुनसान जगह
जहाँ जाते हुए भी डर लगती थी
चढ़ाई चढ़ते-चढ़ते दम निकल गया
लेकिन ये बातें इतनी बार सुनी मैंने
कि अमिट स्याही से हो गये हैं
कोई पूछता जब पिता जी से
क्या हुआ पुनर्वास का?
पिताजी एक सांस में बोल पड़ते –
हाँ, ले गये थे दिखाने सा..... ले....
चंडाक की बगल वाली पहाड़ी पर
एकदम सुनसान जगह
जहाँ जाते हुए भी डर लगती थी
चढ़ाई चढ़ते-चढ़ते दम निकल गया
दो कमरे के दडबेनुमा मकान
बनते ही जिनका प्लास्टर भी गिरने लगा था
आँगन तो छोडो
अल्टने-पलटने की भी जगह नहीं उनके बीच
न जंगल 
न पानी
स्कूल और अस्पताल तो दूर की बात
कह रहे थे
छांट लो जिसमें रहना चाहते हो
लौट आया साहब
इससे तो हम बंजारे ही भले .......
न पानी
स्कूल और अस्पताल तो दूर की बात
कह रहे थे
छांट लो जिसमें रहना चाहते हो
लौट आया साहब
इससे तो हम बंजारे ही भले .......
[३]
एक प्रार्थना है दोस्तों 
उस आमा को मत बताना 
कि उनका गाँव भी 
आ रहा है डूब क्षेत्र में 
जो 
पिछले दिनों 
अपनी बीमारी के चलते 
इलाज करवाने 
शहर आई थी अपने बेटे के पास
जितने दिन रही वहाँ 
माँ-बाप से बिछुड़ी किसी बच्ची की तरह 
कलपती रही 
गाँव को लौटते वक्त
जिसकी चाल में 
बहुत दिनों बाद गोठ से खोले गये 
बछिया की सी गति देखी गयी
मत कहना उस से 
आमा! तुम्हारा गाँव भी  
पंचेश्वर बांध में डूबने वाला है
किसे डर लगता है प्रश्नों के खड़े
होने से  
पिंगपोंग की गेंद की तरह 
उछलते-कूदते रहते हैं प्रश्न
बच्चों के मन में
खाते रहते हैं -
क्यों, क्या, कैसे के टप्पे
उछलते-कूदते रहते हैं प्रश्न
बच्चों के मन में
खाते रहते हैं -
क्यों, क्या, कैसे के टप्पे
उम्र बढ़ने के साथ-साथ 
झिझक, डर, घबराहट के पत्थरों तले
दब जाते हैं प्रश्न
झिझक, डर, घबराहट के पत्थरों तले
दब जाते हैं प्रश्न
बार-बार आमंत्रित करने पर भी 
नहीं हो पाते हैं खड़े
जैसे टूट चुके हों घुटने
नहीं हो पाते हैं खड़े
जैसे टूट चुके हों घुटने
सोचा कभी 
कौन है जो तोड़ रहा है
प्रश्नों के घुटने
कितनी गहरी हैं चोटें
किसे डर लगता है
प्रश्नों के खड़े होने पर
सोचा है कभी
कौन है जो तोड़ रहा है
प्रश्नों के घुटने
कितनी गहरी हैं चोटें
किसे डर लगता है
प्रश्नों के खड़े होने पर
सोचा है कभी
बदलाव के विरोधी
नाम बदल देने से
दशा नहीं बदल जाती है
दशा नहीं बदल जाती है
जैसे वस्त्र बदलने से 
विचार 
वे भी अच्छी तरह जानते हैं
इस बात को
वे भी अच्छी तरह जानते हैं
इस बात को
दरअसल
बदलाव के वे हमेशा से विरोधी रहे हैं
बदलाव के वे हमेशा से विरोधी रहे हैं
अहसास भर हो जाय 
बदलाव का
बस इतना ही काफी है उनके लिए
बदलाव का
बस इतना ही काफी है उनके लिए
प्रतीकों पर 
गहरा विश्वास है उनका
बदलाव को भी
प्रतीकों में ही अंजाम देते हैं वे
गहरा विश्वास है उनका
बदलाव को भी
प्रतीकों में ही अंजाम देते हैं वे
 लोक
मेरा क्या है 
कुछ भी तो नहीं
सब कुछ
तुम्हारा ही है
मेरे तो केवल
तुम हो
कुछ भी तो नहीं
सब कुछ
तुम्हारा ही है
मेरे तो केवल
तुम हो
पता नहीं 
यही तो सबसे बड़ा अंतर है
गर कोई बटन टूट कर गिर जाय
मैं उठा कर
ताख पर रख देता हूँ
मैं उठा कर
ताख पर रख देता हूँ
फिर
या तो उसे भूल जाता हूँ
या बटन कहीं खो जाता है
या तो उसे भूल जाता हूँ
या बटन कहीं खो जाता है
लेकिन तुम हो
बटन के टूटते ही
निकाल लाती हो सुई-तागा
लगे हाथ टांक देती हो
बटन के टूटते ही
निकाल लाती हो सुई-तागा
लगे हाथ टांक देती हो
पता नहीं अभी 
और कितना समय लगेगा
मुझे
तुम जैसा बनने में
और
विस्थापन की पीड़ा समझने में
और कितना समय लगेगा
मुझे
तुम जैसा बनने में
और
विस्थापन की पीड़ा समझने में
तुम्हारी तरह होना चाहता हूँ
मिलती हो गर 
किसी अजनबी महिला से भी
आँखें मिलते ही
बातें शुरू हो जाती हैं तुम्हारी
घर-बार, बाल-बच्चों से शुरू हो कर
सुख-दुःख तक पहुँच जाती हो
बच्चों की आदतें
सास-ससुर की बातें
एक दूसरे के पतियों की
पसंद-नापसंद तक जान लेती हो
भीतर की ही नहीं
गोठ की भी कि-
कितने जानवर है कुल
कितने दूध देने वाले
और कितने बैल
कब की ब्याने वाली है गाय
और भी बहुत सारी बातें
जैसे साडी के रंग
पहनावे के ढंग
पैर से ले कर नाक–कान में
पहने गहन-पात के बारे में
ऐसा लगता है जैसे
जन्मों पुराना हो
तुम्हारा आपसी परिचय
आश्चर्य होता है कि
तुम कहीं से भी कर सकती हो
बातचीत की शुरुआत
जैसे छोटे बच्चे अपना खेल
कैसे मिलते ही ढूंढ लेते हैं
कोई नया खेल
दूसरी ओर मैं हूँ
पता नहीं कितनी परतों के भीतर
कैद किये रहता हूँ खुद को
चाह कर भी शुरू नहीं कर पाता हूँ
किसी अजनबी से बातें
पता नहीं क्यों
सामने वाला अकड़ा-अकड़ा सा लगता है
बातचीत शुरू भी हो जाय तो
वही घिसी-पीटी
क्रिकेट-फिल्म या राजनीति की
न्यूज चैलनों से सुनी-सुनाई
या अखबार में पढ़ी हुई
उसमें भी
दूसरों की सुनने से अधिक
खुद की सुनाने की रहती है
ढलान में उतरती धाराओं की तरह
सुख-दुःख तक पहुँचने में
तो जैसे
दसों मुलाकातें गुजर जाती हैं
देखता हूँ –
मुझ जैसे नहीं होते हैं किसान-मजदूर
पहली ही मुलाकात में
बीडी-तम्बाकू निकाल लेते हैं
बढाते हैं एक–दूसरे की ओर
शुरू हो जाती हैं
गाँव-जवार और खेती-बाड़ी की बातें
किसी अजनबी महिला से भी
आँखें मिलते ही
बातें शुरू हो जाती हैं तुम्हारी
घर-बार, बाल-बच्चों से शुरू हो कर
सुख-दुःख तक पहुँच जाती हो
बच्चों की आदतें
सास-ससुर की बातें
एक दूसरे के पतियों की
पसंद-नापसंद तक जान लेती हो
भीतर की ही नहीं
गोठ की भी कि-
कितने जानवर है कुल
कितने दूध देने वाले
और कितने बैल
कब की ब्याने वाली है गाय
और भी बहुत सारी बातें
जैसे साडी के रंग
पहनावे के ढंग
पैर से ले कर नाक–कान में
पहने गहन-पात के बारे में
ऐसा लगता है जैसे
जन्मों पुराना हो
तुम्हारा आपसी परिचय
आश्चर्य होता है कि
तुम कहीं से भी कर सकती हो
बातचीत की शुरुआत
जैसे छोटे बच्चे अपना खेल
कैसे मिलते ही ढूंढ लेते हैं
कोई नया खेल
दूसरी ओर मैं हूँ
पता नहीं कितनी परतों के भीतर
कैद किये रहता हूँ खुद को
चाह कर भी शुरू नहीं कर पाता हूँ
किसी अजनबी से बातें
पता नहीं क्यों
सामने वाला अकड़ा-अकड़ा सा लगता है
बातचीत शुरू भी हो जाय तो
वही घिसी-पीटी
क्रिकेट-फिल्म या राजनीति की
न्यूज चैलनों से सुनी-सुनाई
या अखबार में पढ़ी हुई
उसमें भी
दूसरों की सुनने से अधिक
खुद की सुनाने की रहती है
ढलान में उतरती धाराओं की तरह
सुख-दुःख तक पहुँचने में
तो जैसे
दसों मुलाकातें गुजर जाती हैं
देखता हूँ –
मुझ जैसे नहीं होते हैं किसान-मजदूर
पहली ही मुलाकात में
बीडी-तम्बाकू निकाल लेते हैं
बढाते हैं एक–दूसरे की ओर
शुरू हो जाती हैं
गाँव-जवार और खेती-बाड़ी की बातें
मैं भी होना चाहता हूँ तुम्हारी
तरह 
खिलाना चाहता हूँ हँसी के फूल
खोल देना चाहता हूँ सारी गांठें
बिखेर देना चाहता हूँ स्नेह की खुशबू
बसाना चाहता हूँ दिल की बस्ती
पर समझ नहीं आता है
किस खोल के भीतर पड़ा हूँ
एक घेंघे की तरह
खिलाना चाहता हूँ हँसी के फूल
खोल देना चाहता हूँ सारी गांठें
बिखेर देना चाहता हूँ स्नेह की खुशबू
बसाना चाहता हूँ दिल की बस्ती
पर समझ नहीं आता है
किस खोल के भीतर पड़ा हूँ
एक घेंघे की तरह
मुझे विश्वास नहीं होता
भाषा  का कुआं 
धर्म का कुआं 
जाति का कुआं 
गोत्र का कुआं 
रंग का कुआं 
नस्ल का कुआं 
लिंग का कुआं 
कुएं के  भीतर कुएं बना डाले हैं तुमने 
एक कुआं 
उसके भीतर एक
और कुआं 
फिर एक और कुआं
ख़त्म ही नहीं
होता है यह सिलसिला
सबसे भीतर वाले
कुएं में 
जा कर बैठ गए
हो तुम 
खुद को सिकोड़ कर
जहाँ कुछ भी
नहीं दिखाई देता है 
मुझे शक है 
कि तुम खुद को
भी देख पाते हो या नहीं 
लोग कहते हैं
तुम जिन्दा हो 
पर मुझे
विश्वास नहीं होता है 
एक जिन्दा आदमी
इतने संकीर्ण
कुएं में 
कैसे रह सकता है
भला!
ग्रेफिटी
प्रश्नों से
भरे बच्चे  
तब अपने जवाब
लिखने में व्यस्त थे 
उन्हें फुरसत
नहीं थी सिर उठाने की 
मेरे पास फुरसत
ही फुरसत 
इतनी कि ऊब के
हद तक 
मेजों/ दीवारों/ बेंचों में  
लिखी इबारत
पढने लगा 
कहीं नाम लिखे
थे पूरी कलात्मकता से
लग रहा था अपना
पूरा मन 
उड़ेल दिया होगा
लिखने वाले ने  
कहीं आई लव यू 
या माई लाईफ.... जैसे वाक्य
पता नहीं 
जिसके लिए लिखे
गए हों ये वाक्य 
उनका जीवन में 
कोई स्थान बन
पाया होगा कि नहीं  
कहीं फ़िल्मी
गीतों के मुखड़े   
कहीं दिल का
चित्र
खोद-खोद कर  
जिसके बीचोबीच
तीर का निशान
जैसे अमर कर
देना चाहो हो उसे 
कहीं फूल-पत्तियां और डिजायन 
कहीं गलियां भी
थी 
कुछ उपनामों के
साथ 
कुछ धुंधला गयी
थी 
और कुछ चटक 
कुछ गडमड नए
पुराने में 
आज कुछ यही हाल
होगा 
उनकी स्मृतियों
और भावनाओं
का  
यह कोई नयी बात
नहीं 
इस तरह की
कक्षाएं 
आपको हर स्कूल
में मिल जायेंगी 
यह स्कूल से
बाहर भी 
मैं पकड़ने की
कोशिश कर रहा था 
कि ये कब और
क्यों लिखी गयी होंगी
ये इबारतें 
क्या चल रहा
होगा 
उनके मन-मष्तिष्क में उस वक्त 
क्या ये उनकी
ऊब मानी जाय 
या प्रेम व
आक्रोश जैसे भावों की तीव्रता
जिसे न रख पाये
हों दिल में 
या किसी तक
अपने मन की 
बात को
पहुंचाने का एक तरीका 
लेकिन मैं नहीं
पकड़ पाया 
जब बच्चे जवाब
लिखने में व्यस्त थे 
मेरे मन में 
अनेक सवाल उठ
रहे थे –
क्या दुनिया के
उन समाजों में भी 
इसी तरह भरे
होते होंगे 
मेजें और
दीवारें 
जहाँ प्रेम और
आक्रोश की 
सहज होती होगी
अभिव्यक्ति 
जहाँ बच्चों को
जबरदस्ती न
बैठना पड़ता होगा 
बंद कक्षाओं
में ......
या कुछ और है
इसका मनोविज्ञान?
परीक्षा कक्ष के बाहर पड़े मोज़े-जूते 
चल रही हैं बर्फीली हवाएं 
तुम्हें हमारी सबसे अधिक जरूरत है अभी
हम परीक्षा कक्ष के बाहर पड़े-पड़े
सुन रहे हैं -
धडधडाते/ हार्न बजाते गुजरते हुए
डंपरों और कक्षा-कक्ष में
इधर से उधर चहलकदमी करते बूटों की आवाज
हमें दिखाई दे रही है –
गर्मी पैदा करने की कोशिश में
तुम्हारे पैरों की आपस की रगड़
बार-बार टूट रही है तुम्हारी तन्मयता
हमें महसूस हो रही है –
ठण्ड कैसे तुम्हारे पैरों के पोरों से
पहुँच रही है हाथों की
अँगुलियों तक
लगता है जैसे बर्फीली हवाएं भी
ले रही हैं तुम्हारी परीक्षा
पता नहीं तुम पर गढ़ी दो-दो जोड़ी आँखें
ये सब देख पा रही हैं या नहीं
या फिर देख कर भी अनदेखा कर रही हैं
किसी मजबूरी में
गर्म कपड़ों में लदे-फदे उड़नदस्ते
ढूंढ रहे हैं नक़ल
लेकिन इस ठण्ड को नहीं ढूंढ पा रहे हैं
या ढूंढना नहीं चाहते हैं
भेजेंगे रिपोर्ट कंट्रोल रूम तक
सब कुछ चुस्त-दुरस्त बताया जाएगा
हम सोच रहे हैं –
क्या यह ठण्ड
या परिसर में गूंजती आवाजें नहीं प्रभावित करती है
किसी परीक्षा परिणाम को
कैसे हैं ये लोग
जिन्हें इतनी सी बात समझ नहीं आती
तुम्हें हमारी सबसे अधिक जरूरत है अभी
हम परीक्षा कक्ष के बाहर पड़े-पड़े
सुन रहे हैं -
धडधडाते/ हार्न बजाते गुजरते हुए
डंपरों और कक्षा-कक्ष में
इधर से उधर चहलकदमी करते बूटों की आवाज
हमें दिखाई दे रही है –
गर्मी पैदा करने की कोशिश में
तुम्हारे पैरों की आपस की रगड़
बार-बार टूट रही है तुम्हारी तन्मयता
हमें महसूस हो रही है –
ठण्ड कैसे तुम्हारे पैरों के पोरों से
पहुँच रही है हाथों की
अँगुलियों तक
लगता है जैसे बर्फीली हवाएं भी
ले रही हैं तुम्हारी परीक्षा
पता नहीं तुम पर गढ़ी दो-दो जोड़ी आँखें
ये सब देख पा रही हैं या नहीं
या फिर देख कर भी अनदेखा कर रही हैं
किसी मजबूरी में
गर्म कपड़ों में लदे-फदे उड़नदस्ते
ढूंढ रहे हैं नक़ल
लेकिन इस ठण्ड को नहीं ढूंढ पा रहे हैं
या ढूंढना नहीं चाहते हैं
भेजेंगे रिपोर्ट कंट्रोल रूम तक
सब कुछ चुस्त-दुरस्त बताया जाएगा
हम सोच रहे हैं –
क्या यह ठण्ड
या परिसर में गूंजती आवाजें नहीं प्रभावित करती है
किसी परीक्षा परिणाम को
कैसे हैं ये लोग
जिन्हें इतनी सी बात समझ नहीं आती
जिन्दा होने का सबूत
घबराइए मत 
इन क्रूर दिनों में
ब्लड प्रेशर का बढ़ना ,
आपके
जिन्दा होने का सबूत है.
इन क्रूर दिनों में
ब्लड प्रेशर का बढ़ना ,
आपके
जिन्दा होने का सबूत है.
किससे कहूं 
किससे कहूं 
क्या कहूं
इन दिनों बार-बार
अपने ही दांतों के बीच
अपने ही होंठ आ जा रहे हैं
मैं घावों पर
जीभ सहला के रह जा रहा हूँ.
क्या कहूं
इन दिनों बार-बार
अपने ही दांतों के बीच
अपने ही होंठ आ जा रहे हैं
मैं घावों पर
जीभ सहला के रह जा रहा हूँ.
बना सकें ऐसी दुनिया 
मैं छोटा आदमी 
बहुत बड़ा नहीं सोच सकता हूँ
बस इतना काफी है
कि बना सकें ऐसी दुनिया
घर से बाहर गए हों बच्चे
देर भी हो जाय
गर घर लौटने में उन्हें
बहुत बड़ा नहीं सोच सकता हूँ
बस इतना काफी है
कि बना सकें ऐसी दुनिया
घर से बाहर गए हों बच्चे
देर भी हो जाय
गर घर लौटने में उन्हें
हम घर पर निश्चिन्त रह सकें
गाँव में मंदिर 
मीलों दूर से 
पानी सारते-सारते
थक गये कंधे
थक गयी गर्दन
मांगते-मांगते
लोग थक गये
नहीं मिली एक पेयजल योजना
मगर
बिन मांगे मिल गया
लाखों के बजट का
एक भव्य मंदिर
खड़ा हो गया उन खेतों में
जहाँ
क्रिकेट खेला करते थे बच्चे
पानी सारते-सारते
थक गये कंधे
थक गयी गर्दन
मांगते-मांगते
लोग थक गये
नहीं मिली एक पेयजल योजना
मगर
बिन मांगे मिल गया
लाखों के बजट का
एक भव्य मंदिर
खड़ा हो गया उन खेतों में
जहाँ
क्रिकेट खेला करते थे बच्चे
लोग प्रशंसा कर रहे हैं 
उनकी धर्मपरायणता की
सर पर पानी सारते हुए
उनकी धर्मपरायणता की
सर पर पानी सारते हुए
कभी सोचा भी
नहीं था 
कभी सोचा भी
नहीं था 
कि मरे हुए जानवर की 
खाल से भी 
सस्ती हो जायेगी 
आदमियों की खाल
सदियों से
उतरवाते रहे 
जिनसे मरे जानवरों की खाल
ढोल-दमुवा मुड़वाने से ले कर
जूते बनवाने तक
के लिए 
आज उन्हीं की 
खाल उतार दी जायेगी
उन्होंने सोचा
भी नहीं होगा कभी
एक पुस्तैनी
धंधा 
अपराध में 
बदल जाएगा इस
तरह 
और मरे जानवर
की खाल
हो जायेगी इतनी
पवित्र
जिस काम के लिए
कभी
त्यार बाण
मिलता था
आज इस तरह डंडे
पड़ेंगे 
क्या तुमने कभी
जानने भर की भी कोशिश की 
कि क्यों मजबूर
हैं वे 
मरे जानवरों की
खाल उतारने को
जबकि छोड़ चुके
हैं 
उनके बहुत सारे
भाई बंधू
इसी तरह के 
बहुत सारे
पुस्तैनी धंधों को
सत्तर सालों
में 
मिल नहीं पाया
उन्हें कोई विकल्प
कितने शर्म की
बात है
मंगल की खोज
में
निकल चुके देश
के लिए
आदमियों की पीठ
पर 
लाठी बरसाने
वालो 
क्या तुम्हें
कभी 
व्यवस्था की
पीठ भी 
दिखाई देती है 
जिसके चलते न जाने
कितने ही लोग
रोज-ब-रोज
अपनी ही आत्मा
की खाल 
उतार कर जीने
को मजबूर हैं.
चायवाला
सिनेमा लाईन के
नुक्कड़ में 
चाय की गुमटी 
आज भी उसी तरह
रहती है गुलजार 
जैसे हमारे
स्कूली दिनों में 
तब खिम्दा
उबालता था चाय 
आज उसका बेटा 
अदरक, इलायची और भुने अजवायन वाली 
चाय का
जायकेदार स्वाद 
खींच ले जाता
है उसकी ओर 
एक बार पी ले
कोई 
भूल नहीं सकता
है फिर 
गुमटी का
रास्ता 
उसके बेटे को
देख
खिम्दा का कांच
के गिलास में 
चीनी घोलने 
और चार गिलासों
को चार उंगुलियां डाल
खखोलने का
अंदाज 
आज भी रह-रह कर याद आता है
कानों में
घुलने लगती है एक लय
मैंने जाना 
लय संगीत में
ही नहीं
जीवन की हर गति
में होती है 
गर्मी की
सुनसान दोपहर हो 
या जाड़ों की
ठिठुरती सुबह 
कभी टूटी नहीं
यह लय 
लयभंग होते इस
दौर में 
गुमटी के पास
से गुजरते हुए 
एक सवाल बार-बार मन में आता है 
आखिर क्या कमी
रह गयी 
खिम्दा की चाय
में 
या कहो उसके
श्रम में 
मंत्री तो छोडो 
एक संतरी भी
नहीं बन पाया 
इस चायवाले का
कोई
संपर्क-
महेश चन्द्र पुनेठा  
शिव कालोनी, पियाना  
पोस्ट - डिग्री कालेज 
जिला- पिथोरागढ़ 262502 
मोबाईल - 9411707470
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)






 
 
 
बहुत सुन्दर कविताएं
जवाब देंहटाएंब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 07/10/2018 की बुलेटिन, कुंदन शाह जी की प्रथम पुण्यतिथि “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंव्यवस्था पर जबरदस्त प्रहार हैं महेश पुनेठा जी की कवितायें
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (09-10-2018) को "ब्लॉग क्या है? " (चर्चा अंक-3119) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'