विवेक चतुर्वेदी की कविताएँ
विवेक  चतुर्वेदी
जन्मतिथि - 03-11-1969 (जबलपुर, म.प्र.)
शिक्षा - स्नातकोत्तर
(ललित कला)
प्रकाशन - अहा जिंदगी, कथादेश, मधुमती, साक्षात्कार,
नईदुनिया,
प्रभात खबर, दुनिया इन दिनों, पाखी।
सृजन उपस्थिति - कविता कोश, जानकीपुल,
प्रभात खबर.काम एवं बिजूका।
सहभागिता
इंदौर साहित्य उत्सव
2016 एवं 2017
जबलपुर आर्ट एंड म्युजिक फेस्टिवल
2017
समानांतर साहित्य उत्सव, जयपुर
2018
छत्तीसगढ़ हिन्दी साहित्य सम्मेलन रायपुर
2018
सम्मान/पुरस्कार/उल्लेख
दिव्यांग जनों के उत्थान हेतु राष्ट्रीय पुरस्कार
2017 के लिए मध्यप्रदेश से नामांकित।
दिव्यांग  युवाओं की आजीविका समाधान हेतु अभिनव परियोजनायें सृजित करने प्रतिष्ठित म.प्र. के पंडित ओंकार तिवारी अलंकरण 2016 से सम्मानित।
सामाजिक न्याय एवं निःशक्तजन कल्याण विभाग, म.प्र. शासन भोपाल के महर्षि दधिची पुरस्कार
2016-17 हेतु श्रवणबाधित श्रेणी में जिला जबलपुर से अनुशंसित।
माय एफ. एम. 94.3 के प्रतिष्ठित  ‘जियो दिल से अवार्ड’ में देश के चुनिंदा 18 सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ बधिर युवाओं के उत्थान के कार्य हेतु मध्यप्रदेश राज्य से चयनित।
जेलबंदियों के पुनर्वास पर कामनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशियेटिव द्वारा प्रकाशित ‘ए सिविल सोसायटी पर्सपेक्टिव’
में उल्लेख।
लघु फिल्म (निर्माण,
निर्देशन, पटकथा एवं वाचन)  
जल, जंगल और जन
सहेजें जल अनमोल
आजीविका - प्रशिक्षण समन्वयक,
लर्निंग रिसोर्स डेवलपमेंट सेंटर, कलानिकेतन पालिटेक्निक महाविद्यालय, जबलपुर
पहली बार पर हमने 'वाचन-पुनर्वाचन' कॉलम की शुरुआत की थी जिसमें किसी कवि की कविताएँ दूसरे कवि की टिप्पणी के साथ प्रस्तुत की जाती हैं। इस क्रम को आगे बढाते हुए आज पहली बार पर विवेक चतुर्वेदी की कविताएँ दी जा रही हैं। टिप्पणी वरिष्ठ कवि एवं आलोचक सवाई सिंह शेखावत एवं गणेश गनी की हैं। साथ में है कवि का आत्मकथन भी। तो आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं विवेक चतुर्वेदी की कविताएँ।   
आत्मकथन
कविता और सभी ललित कलाएँ मेरे देखे बेहतर आदमी की खोज हैं। कविता भोगे हुए यथार्थ की भावपरक व्यंजना हैं और कल्पना के जरिए मनुष्य की आत्यंतिक सम्भावनाओं की पड़ताल भी है। मुझे लगता है जो कुछ भी मेरे भीतर बेहतर होता है तो कविता की शक्ल में रिस जाता है। कई बार बहुत करीब होते-होते किसी कोने में कविता एकदम अपरिचित हो कर मुझे आइना दिखा देती है। वो रोज मुझे चुनौती देती है कि चेतना के किसी ज्वार में तूने मुझे रच तो दिया पर मुझे जी कर दिखा, प्रेम कविताओं का मेरा चाँद अचानक किसी गरीब बस्ती में रोशनी करने के लिए चल पड़ता है। मैं निरे प्रेम की कविताएँ,
नहीं  रच पाता, जीवन के खाँटी स्वाद के साथ सरोकार हो ही जाता है।
टिप्पणी
वरिष्ठ कवि एवं आलोचक सवाई सिंह शेखावत ‘पसीने की कविता’ पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं कि, ‘‘विवेक चतुर्वेदी की कविता में जीवन, जीवन-संघर्ष,उसकी सहज कामनाएँ, उनके लिए की जाने वाली जरुरी जद्दोजहद, खेत-खलिहान, पहाड़, नदी, धान, कजरी, छप्पर-छाँव के साथ ही महानगरों और राजमार्गों के जुड़ाव भी हैं ताकि वह समुचित समर्थन मूल्य की माँग के साथ खाद-बीज के अभाव, पानी के लिए जारी षडयंत्र, ब्लाक अफसर की बेईमानी के विरुद्ध साँप सी सनसनाती हुए गाँव से कलारी हटाने के जुलूस में भी शरीक हो सके। इस तरह गाँव के जीवन की वह सहभागिता बचाई जा सके जिसमें चरखा कातती, जिज्जी के गौने की उम्मीद में आँखें भिगोती, बापू के गमछे को धोती-सुखाती कितनी माँएं आज भी जीवन के हित में जूझ रही हैं। बिना किसी अतिरिक्त भावुकता के विवेक चतुर्वेदी हमें गाँव के जीवन-संघर्ष में शामिल करते हैं और इस तरह कविता में मनुष्य से जुडी उम्मीद को भी बचाते हैं!’’
वरिष्ठ कवि एवं आलोचक गणेश गनी कहते हैं -
अच्छी कविताएं अच्छे कवि ही लिखेंगे!
कुछ बड़े कहलाए जाने वाले कवियों ने आगे ऐसी परम्परा स्थापित करने की कोशिश की या नहीं की, पर एक रास्ता जरूर बन गया, जिस पर चलने वाले चन्द युवा भी हैं। ये लोग स्त्रियों पर ऐसी शर्मसार करने वाली कविताएं लिख रहे हैं कि जिन्हें आप अश्लीलता की श्रेणी में ही रख सकते हैं। हद तो तब होती है जब ऐसी फूहड़ कविताओं को पुरस्कार दिए जाते हैं। कुछ आलोचक इनका भरपूर समर्थन भी करते हैं।
हालांकि कुछ ऐसे कवि भी हैं जिन्होंने अपनी भाषा और शिल्प से दैहिक कविता को भी कुछ यूं बांधा है कि पढ़ते हुए शर्म नहीं बल्कि स्त्री के प्रति सम्मान बढ़ता ही है। शताब्दी राय की ‘ए लड़की’ कविता और दोपदी सिंघार की ‘पेटीकोट’ कविता कुछ ऐसी ही कविताएं हैं। ऐसे समय में स्त्री और देह पर लिखने वाले कुछ शानदार कवि भी हैं, जिनसे आश्वस्त हुआ जा सकता है। विवेक चतुर्वेदी की यह कविता देखें-
    लड़की दौड़ती  है तो/थोड़ी तेज हो जाती है धरती की चाल /औरत टाँक रही है बच्चे के अँगरखे पर सुनहरा गोट... 
     और गर्म  हो चली है सूरज की आग/ बुढ़िया ढार रही है तुलसी के बिरवे पर जल/ तो और हरे हो चले हैं सारे  जंगल... 
     पेट में बच्चा लिए प्राग इतिहास की गुफा में बैठी औरत/ बस ..बाहर देख रही है/ और खेत के खेत सुनहरे  गेहूँ के ढेर में बदलते जा रहे हैं...।।
     प्रेम पर हर कवि लिखता है। ख़ासकर नया नया कवि तो प्रेम कविताएं ही लिखता है। विवेक की प्रेम कविता बंधन जैसा एहसास नहीं करवाती, न ही कोई शर्त लगाती है । प्रेम तो आपसी समझ की वो ऊंचाई है, जिससे आगे केवल आज़ादी है। यह केवल वफ़ादारी और कुर्बानी ही नहीं है बल्कि विश्वास की पराकाष्ठा भी है-
     विवेक की एक और प्रेम कविता यहां देखी जा सकती है। एक संवेदनशील कवि अपनी स्मृतियों में जीता है, जीना भी चाहिए, क्या बुराई है। नॉस्टेल्जिया तब तक कविता में अच्छा लगता है, जब तक उसके साथ एक ऐसा रिश्ता बना रहे कि जिसमें बेचारपन न हो-
     तुम्हारे साथ जो भी काता मैंने/ खूँटी पर टाँग रखा है/ तुम चाहो उतारो उसे या वहीं रहे टँगा... छिन जाए/ जब भी देखता हूँ चाहता हूँ उसे उतार दूँ/ पर टूटने लगता है अरझ कर एक एक सूत/ दर्द भरी टीस के साथ/ और नहीं तोड़ सकता मैं एक भी सूत/ जो साथ हमने काता है/ तुम्हारे साथ...।।
     विवेक छोटी-छोटी कविताओं के माध्यम से अधिक खुलते हैं। यह आवश्यक नहीं है कि लम्बी कविता ही लिखी जाए। छोटी कविता भी बहुत मुश्किल है। एक अर्थपूर्ण छोटी कविता लिखने के लिए भी कुशलता ही चाहिए-
     सबसे कठिन काम है बच्चों के मनोविज्ञान पर लिखना। इधर बहुत चूक होने की संभावना रहती है। विवेक ने अपने बचपन को याद रख कर कुछ कड़ियों को जोड़ा है जो सीधे बचपन के आंगन ले जाती हैं। बच्चा वो सब सोचता है, जिसे सोचना बड़ों के बस की बात नहीं है-
     विवेक की कविताओं में प्रेम, लोकधर्मिता, प्रतिबद्धता आदि विविधताएं हैं। कविताएं ताज़गी से भरपूर और असरदार हैं। बिम्बों और रूपकों का प्रयोग कविताओं को बेहतर बनाता है-
     विवेक चतुर्वेदी की कविताएं साधारण भाषा और शिल्प में लिखी अच्छी कविताएं हैं, जिन्हें पढ़कर  एक तसल्ली मिलती है मन को को। कवि अपने आसपास की चीज़ों से संबंध बनाते हुए जीवन की आशाओं को यहीं खोजता है। वो आशावादी है, बच्चों, फूलों, धरती प्रेम करने वाला कवि है।
     - गणेश गनी 
विवेक चतुर्वेदी की कविताएँ
सुनो बाबू...
जो ये बूढ़ा मजदूर 
तोड़ रहा दीवार 
देखता हूँ 
सुलगा रहा है तुम्हारी ही तरह बीड़ी 
चमकते लौ में मूँछ के बाल
वैसी ही तो घनी झुर्रियाँ 
पोपला मुँह
तुम्हारी ही तरह उसने
भीतरी भरोसे से देखा 
जरा ठहर कर 
और तोड़ कर रख दिया
हठी कांक्रीट 
दोपहर... तुम्हारी ही तरह 
देर तक हाथ से 
मसलता रहा रोटी 
पानी चुल्लू  से पिया 
धीर दिया तुम्हारी ही तरह
कि मैं हूँ तो सिरजेगा
सब काम ठीक... 
अनायास मन पहुंच गया 
उस कोठरी में
जहाँ तुम लेटे थे 
मूँज की खाट में आखिरी रात 
अँधेरे में गुम हो रही थी सांस
खिड़की से झाँक रही थी
एक काली बिल्ली 
खड़े  थे सब बोझिल सर झुकाए... 
घुटी चुप चीर निकल पड़ी थी मेरी हूक
तो आँख खोल तुम कह उठे थे डपट कर 
रोता क्यों है बे... मैं नहीं जाऊंगा कहीं
और मूँद ली थी आँख...
और मूँद ली थी आँख...
बाबू... लगा आज 
तुमने ठीक ही तो कहा था...
सुनो बाबू...   
नींद और कविता
एक कविता 
शिशु की नींद सी है 
निश्चिन्त आस्तिक... 
देवाश्रम में गाय सी 
पूस की धूप सी 
दुधुआए स्तन की स्मृति सी 
गोद के झूले सी
शिशु की नींद है खरगोश सी 
या फिर पुआल सी 
कि गुनगुने पानी सी 
या मौन मंत्र सी 
शिशु की नींद और कविता 
मनुष्य होने के जंगल की ओर
एक रास्ता है 
पर याद रखना...
ये दु:स्वप्न पर चीख भी है 
या सरक आए दुख
पर फूटी रुलाई भी..
शिशु की नींद जैसे 
अपनी लय में हो कविता 
पर जरूरत पर कुनमुनाहट भी 
आस्तिकता है लय
और असहमति है कुनमुनाहट 
और जीवन दोनों से है...।।
आने की खबर सुन कर भी...
कहीं भी जनम जाते हैं बच्चे 
रेल में, झुग्गी में, खेत पर, कारखानों में...
जिंदगी की जिद में बच्चे 
गर्भ की गुफा के 
बंद शिला द्वार को धकेल देते हैं
बच्चे जबर्दस्ती, उपेक्षा, शोषण
और हिंसा की स्याही से रंगे 
अखबारों में लिपट कर 
हमारे सामने आते हैं, 
पर उनके बदन पर
वो बदरंग चस्पा नहीं होता 
बच्चे विस्मय भरी आँखों से 
हमारी आँखों में देखते हैं
वो अपने 
नन्हें हाथों से हमको
झिंझोड़ते हैं - तुमने बुहारी क्यों नहीं
ये दुनिया...
हमारे आने की खबर सुन कर भी ... ।
 अनाथ
लिपटे नहीं 
गमछे जैसे पिता
न माँ सतुए सी घुली
कितना जलता रहा बैसाख।।
भोर ..... आ ही जाती है
कल का अनमना मिट्ठू
रट रहा है अब राम-राम
उनींदी रात से जूझी अम्मा ने
खटिया छोड़ दी है
जरा रो-धो कर उठी मुन्नी
जा रही है स्कूल
पिराती पीठ कोसती भौजी ने
चूल्हे पर रख दी है चाय
खदबदाने लगी है
जाड़े को अंगौछी में बांध
निकल पड़े हैं बाबू खेत
जाने मंडी टुटही साइकिल को 
औंधाए भैया चुना रहे हैं चका में तेल
देखता हूँ...
कितनी भी उधड़ जाये रात की सड़क
काठ की टुनटुनी बजाते
भोर की बैलगाड़ी आ ही जाती है।।
सभा
वो सभा एक तालाब थी 
उसमें थीं बहुत सी
यंत्रचालित मछलियाँ 
कुर्सियों से बंधी।  
कुछ मातहत मछलियाँ 
दौड़ती हुईं 
जिनके चेहरे पर थी हवाइयाँ,
सभा में आमंत्रित बड़े मगर का 
रास्ता देखतीं 
दो मझौली मछलियाँ  
तालाब के मुहाने पर तैनात थीं।
सभा की आयोजक बड़ी मछली 
तालाब की गहराई से मुहाने तक
बदहवास दौड़ती थी 
पूछती बार बार -क्या मगर आ गए?
सभा में कुछ केकड़े थे जो 
कभी आगे, कभी पीछे होते थे, 
कुछ थे बुद्धिजीवी जलचर.. 
जो अपनी सीपों में बंद थे,
पूरी सभा में पहचाने जाने वाले 
कुछ आक्टोपस थे। 
कुछ छात्र मछलियाँ
कतारबद्ध बैठाई गई थीं
देखती अपलक, 
बड़े मगर के लिए तैयार मंच 
अनुशासित विचारहीन युवा मछलियाँ.. 
मगर की प्रत्येक मुद्रा पर बजाने को 
अभ्यस्त विशेष ताल में तालियाँ।
                           
फिर दमकती देह वाली सोनमछली 
प्रशस्ति वाचन को सतर्क, 
सजीले दस्तावेज लिए
कुछ सजावटी मछलियाँ 
लिए तयशुदा तथ्यों के दस्तावेज 
जिन्हें परोसा जाना है। 
वहाँ मोटी खाल वाले
विद्रूप  कछुए भी थे रेंगते, 
सभा के बाहर दलदल में लोरती थीं 
जो असंख्य छोटी मछलियाँ, 
ये सभा संविधान में मिले 
उनके अधिकारों पर ही थी, 
पर उनको इस सभा में आने की
इजाजत ना थी। 
सभा में जो भी कही जानी थीं बातें, 
वो सब पहले से ही थीं तयशुदा 
सभा के पहले ही बांट दी गई थीं
संतोष के आटे की गोलियाँ,
स्वीकृति में हिलता सिर
सबसे अनिवार्य मुद्रा थी।
बड़ा मगर आया
तो अपनी दुम पर 
खड़ी  हो गई मछलियाँ, 
खुरदरे शल्क  वाले 
तालाब के अधिपति 
उस मगर ने कहा- 
हम स्वतंत्र हैं ..
और मछलियां स्वतंत्रता के 
उत्सव में लीन हो गईं 
मगर ने कहा - बहुत विकास हुआ
इन दिनों  ..
और कुपोषित कमजोर जलचर                              
मुदित हो गए,
मगर कहता गया 
और तालियों की ध्वनि बढ़ती गई
बढ़ता गया उन्माद। 
सभागार के बंद कांच के दरवाजे से झाँकती 
सच की बूढ़ी माई- मछली 
देर तक लाठी ठोकती रही 
पर भीतर न आ सकी..
वो सभा एक तालाब थी..।।
पेड़ की मृत्यु पर
...
आम का एक पेड़ 
कट गया है 
गुम गया है छोटी 
चिड़ियों का बसेरा 
सुबह का मद्धम मधुगीत 
कोलाहल में बदलता जा रहा है 
धूसर होता जा रहा है 
मेरी आत्मा का हरा रंग 
अहम में ऐंठे देवों के यज्ञ में 
समिधा होने को अभिशप्त 
पड़ी हैं बेजान 
कटे पेड़ की अस्थियाँ 
सड़क की धूल में 
लहालोट हैं सूखती जा रहीं 
हरी पत्तियाँ 
असंख्य फलों के 
अजन्मे भ्रूणों का रूदन 
पेड़ की छाल के भीतर रिस रहा है 
रिस रहा है मेरे भीतर 
का आदमी होना
इस सदी के
सबसे बड़े कटघरे में
इस सदी की सबसे दुखद 
शोकसभा में अपराधी सा
मैं खुद को खड़ा पाता हूँ 
आम के एक पेड़ की मृत्यु पर..
सम्पर्क – 
1254, एच. बी. महाविद्यालय के पास, विजय नगर, जबलपुर (म.प्र.)
482002
फोन  - 9039087291, 7987819390
ईमेल - vchaturvedijbp@gmail.com
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.) 




 
 
 
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (04-07-2018) को "कामी और कुसन्त" (चर्चा अंक-3021) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी