अनुराधा सिंह की कविताएँ
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| अनुराधा सिंह | 
युवा कवयित्री अनुराधा सिंह की कविताएँ अभी
हाल ही में लमही के अप्रैल 2017 अंक में प्रकाशित हुई हैं। अनुराधा
ने अपने कथ्य से ही नहीं अपितु अपनी कविताओं में शब्दों के चयन, बिम्ब और अपने शिल्प
के जरिए भी ध्यान आकृष्ट किया है। इसीलिए इन कविताओं से रु-ब-रु होते हुए उस
ताजगी और टटकेपन का अहसास होता है जो अब कविताओं से अब अक्सरहा नदारद दिखने लगी है। आलोचक ओम
निश्चल की एक लम्बी टिप्पणी के साथ आज पहली बार पर प्रस्तुत है अनुराधा सिंह की
कविताएँ।   
भाषा से नहीं, कथ्य से बनती है कविता 
ओम निश्चल 
किसी भी कविता में हम क्या तलाशते हैं। क्या केवल भाषा? क्या केवल कथ्य? क्या केवल
सरोकार? क्या कवि का अपना अंदाजेबयां जो
औरों से जुदा हो? क्या चाहते हैं हम कविता से? कविता क्या गद्य की उस अविजित सत्ता में होती है जो इन दिनों उस पर
आच्छादित है? क्या वह उस द्रवणशील संवेदनशील
कवि की चेतना में है जो आंखों के आंसू, कंठ में फँसे हुए कौर, कबूतरों से छिनते अरण्य, प्रकृति से ओझल होती नदी, चिड़ियों से छिनते घोंसले, कविता से रूठती भाषा और स्त्री से छिनते उसके स्त्रीत्व को बखूबी
पहचानती है और संवेदना के गोठिल होते दांतों को निरंतर पैना करने के लिए व्यग्र
दिखती है?
जब कविता निज की व्यथा का प्रारुप बनती जा रही हो, शब्द केवल भाषाई स्थापत्य की गरिमा बचाने में संलग्न हों, प्रेम केवल शब्दों के बियाबान में गुमशुदगी का शिकार हो, नाउमीदी के ऐसे हालात में भी कुछ कवि ऐसे होते हैं जो पृथ्वी के
घावों को कुरेदने के बजाय उस पर मलहम का नया फाहा रखते हैं। आधुनिक सभ्यता जिससे
हमने जीने की उदात्त ख्वाहिशों की कामना की थी, आज वही हमें उत्तरोत्तर कट्टर और निष्करुण बना रही है। लोकतंत्र
में आज नारों की अहमियत इतनी अधिक है कि शासक विज्ञापन के बलबूते अंधेरे और अज्ञान
में सोये समाज को जगाना चाहते हैं। सोशल मीडिया और त्वरित संचार साधनों के बाजवूद
जिस तरह मनुष्य आज निरंतर अकेला होता जा रहा है, अपने-अपने अजनबी होते इस जीवन में परदुखकातरता केवल एक पराये अहसास
में बंध कर रह गयी है। ऐसे में कविता उन करोड़ों वंचित मनुष्यों, औरतों, बच्चों, सूखती नदियों, ढहते पहाड़ों, उजड़ते जंगलों, मिटाई जाती
सभ्यताओं के पक्ष में अपनी आवाज़ उठाती है।
एक अच्छा कवि हमें न केवल ऐसे मौजूँ सवालों से रूबरू करता है बल्कि
वह कविता में नई और अछूती भाषा, नए प्रयोगों, नई शैलियों से भी रूबरू करता है। वह सामयिक होते हुए भी शाश्वत की
चिंताओं में सांस लेता है। उसकी कविता के रुधिर और अस्थिमज्जा में ये चिंताएं
अनुस्यूत होती हैं। हाल में प्रकाश में आई अनुराधा सिंह ऐसी ही कवयित्री हैं
जिन्होंने कविता को मानवीय प्रतिश्रुतियों से जोड़ा है और कविता को उस अछूती चेतना
से भरा है जो इन दिनों कविता से लुप्त हो रही है। जिस तरह देवीप्रसाद मिश्र, सविता सिंह, गीत चतुर्वेदी, आशुतोष दुबे, अनीता वर्मा, लीना मल्होत्रा और प्रेमरंजन अनिमेष जैसे कवियों के लिए कविता
संवेदना का एक सूक्ष्म धरातल रचती है, अर्थ के अनेक स्तरों पर वह हमें ले जाती है, कहने के नए तौर तरीके ईजाद करती है, उसी दिशा में अनुराधा सिंह की कविताएं जीवन जगत के अनेक अभेद्य
कोनों में जाती हैं। वे स्त्री पर सोचती हुई नितांत स्त्रीवादियों की सी मन:स्थिति
का शिकार होने से बचती हैं तो लिखने से क्या होगा, जिंदा रहने के तर्क, सोने के लिए अनुकूल माहौल बनाते बाजार, लड़खड़ाते प्रेम, खाप पंचायतें
और कविता की उदासी तथा स्त्री अवमूल्यन की तमाम तहें और सीवनें खोलती हुई हमारे
विवेक पर जैसे हजारों हजार प्रश्नचिह्न लगाती हैं। उनकी तमाम कविताओं के पीछे एक
ऐसी संवेदनशील स्त्री नजर आती है जिसका अपना नजरिया है और जो कविता में केवल सलोना
कहने के लिए नहीं, बल्कि गीत चतुर्वेदी की शब्दों
में अलोना कहने के लिए पैदा हुई है। क्या सोचती होगी पृथ्वी कविता को ही देखें तो
जैसे यह पृथ्वी के उजड़ते सौभाग्य की कथा हो। हम धरती से उसका पृथ्वीत्व छीनने पर
जैसे आमादा हों।
प्रेम एक ऐसा नरम ठीहा है जिस पर आते ही कवियों की बांछें खिल जाती
हैं। वे प्रेम की प्रतिश्रुतियों का भाष्य लिखते हैं किन्तु प्रेम को बरतना नहीं
जानते। यदि ऐसा न होता तो इतनी मुखरता से कवयित्री न कहती कि ’जिन्होंने प्रेम और स्त्री पर बहुत लिखा, दरअसल उन्होंने ही किसी स्त्री से प्रेम नहीं किया।‘ यों तमाम विषय यहां हैं पर स्त्री जीवन की विषण्णता पर शायद सबसे ज्यादा; जहां कविताओं के भीतर कारुण्य का सैलाब बहता है। स्त्रियां किन-किन
संकटों से गुजरती हुई जैसे रोज एक मनुष्य उगाती हैं, जोतती हैं असभ्यता की पराकाष्ठा तक लहलहाती सभ्यता की फसल, कविताएं इसे दर्ज करती हैं। ये कविताएं प्रेम के छल को भूल नहीं
जाना चाहतीं। उसकी कचोट जैसे आत्मा के झीने और अदीखे पट पर चित्रित हो उठती है।
खेद है, मैं फिर भी बेहतर थी, दूरबीन/खुर्दबीन, यह अतिप्रश्न, ये तय है, सन 1800 की बागान औरतें, कुछ ऐसा हुआ, बचा लो, ईश्वर नहीं नींद चाहिए, इतनी सी देर में, प्रेम का
समाजवाद, वृन्दावन की विधवाएं, हम जन्मी हैं रसातल में, तीस छाप बीस बीड़ी, धारावी की लड़कियां, बस प्रेम नहीं ठहरा, इतनी सी देर में, अप्रेम, कूटनीति, आउटडेटेड संविधान, अव्यक्त, स्वागत है नए साल, अबकी मुझे चादर बनाना, प्रेमिकाएं प्रेम नहीं करती थीं ---इन तमाम कविताओं में स्त्री की
आत्मग्लानि, पुरुषत्व के छल-प्रपंच और स्त्री
की लहूलुहान हिम्मत एक साथ दिखते हैं।
क्या विडंबना है कि स्त्रियॉं प्रेम के लिए तरसती है और बाहर
चौतरफा प्रेम की बारिशें होती हैं। इसमें संशय नहीं कि कवयित्री पर स्त्रीवादी
चिंतकों का असर है, दुनिया भर की स्त्रियों के हालात
को उसने अनुभव और संवेदना के लेंस से देखा है तथा पाया है कि स्त्री अब भी सेकंड
सेक्स की संज्ञा से बाहर नहीं आ पाई है। प्रेम के नाम पर चलते धोखादेह तंत्र को ये
कविताएं उधेड़ती हैं। इन कविताओं के बीच से एक ऐसी स्त्री भी बाहर आती हुई दिखती
है जो व्याकरण से उलट स्त्रीत्व की सारी प्रचलित परिभाषाओं को तोड़ कर पुरुष से
रूबरू होने की इच्छा रखती है। कभी कभी तो लगता है ये सारी कविताएं ग़ज़ल के इस शेर
का भाष्य हैं: ‘मैं बहुत खुशरंग अरमानों की चादर
थी मगर। मुझको मेरी ज़िन्दगी ने ओढ कर मैला किया।‘ किन्तु जिस एक कविता में इन सारी कविताओं का सारांश रचा बसा है वह
है ‘अव्यक्त’। 
कह रहे थे
तुम अपने प्रेम की गाथा
पूरे उद्वेग, पीड़ा और सुख के साथ
सुन रही थी मैं एक साधक सी
उदार तल्लीन
निचले होंठ में दाबे
अपना पूरा प्रेम, सुख, पीड़ा
और एक सिसकी।
अनुराधा सिंह की कविताएं पढ़ते हुए जिन दो जगहों पर निगाह ठिठकती
है वे हैं--
जिंदगी की गाड़ी ठीक से चलाने में
ग्रीस से ज्यादा ऑंसू काम आए। (नकाब)
लड़कियां उन्हीं लड़कों से प्रेम करके घर बसाना चाहती थीं
जो उन्हें प्रेम कर के छोड़ देना चाहते थे। (प्रेम का समाजवाद)
जो उन्हें प्रेम कर के छोड़ देना चाहते थे। (प्रेम का समाजवाद)
अनुराधा सिंह ने आधुनिक समाज में
उस स्त्री को तलाशने की चेष्टा की है जो तमाम दुख, अवसाद और अवमान के बीच रहती हुई अपने जीवन के किसी न किसी कोने में
पसरे अव्यक्त अंधकार को चीर कर प्रकाश में आना चाहती है। लगभग बोलचाल की भाषा में
इन कविताओं का कथ्य और स्थापत्य फीका नहीं पड़ता बल्कि वह संप्रेषणीयता के संकट से
हमें उबारता भी है। मुझे आशा है कवयित्री स्त्री-संवेदना की सीमाएं लांघ कर धीरे
धीरे उस विराट अनुभव बोध की दुनिया में भी प्रवेश करेंगी जहॉं मनुष्यता के कटे-फटे
की मरम्मत के लिए अभी और शब्दों के रफूगर की जरूरत है। 
अनुराधा सिंह की कविताएं
पितर 
माँ कहती अभी किनकी है 
भात ढँक दो 
पिता कहते सीमेंट गीला है 
पैर नहीं छापना 
खेत कहते बाली हरी है मत उघटो 
धूप कहती खून पसीना कहाँ हुआ अभी 
चलती रहो, और बीहड़ करार हैं अभी 
मैं समय के पहिये में लगी सबसे मंथर तीली 
जब तक व्यथा की किनकी बाक़ी रही 
किसी के सामने नहीं खोला मन
ठंडा गरम निबाह लिया 
सुलह की थाली में परोसा देह का बासी भात 
आँख के नमक से छुआ 
सब्र के दो घूँट से निगल लिया
पत्थर हो गया मन का सीमेंट पिता 
कहीं छाप नहीं छोड़ी अपनी  
देह की बाली पकती रही 
नहीं काटी हरे ज़ख्मों की फसल 
इतनी निबाही तुम सब पितरों की बातें  
कि चुकती देह और आत्मा के पास नहीं
बाक़ी  
अपना खून पानी नमक अब ज़रा भी 
न दैन्यं ...
दीन हूँ, पलायन से आपत्ति नहीं मुझे 
ऐसे ही बचाया है मैंने धरती पर अपना
अस्तित्व 
जंगल से पलायन किया जब देखे हिंस्र पशु 
नगरों से भागी जब देखे और गर्हित पशु 
अपने आप से भागी जब नहीं दे पाई 
असंभव प्रश्नों के उत्तर 
घृणा से भागती न तो क्या करती 
बात यह थी कि मैं प्रेम से भी भाग निकली 
सड़कें देख
शंका हुई कि आखेट हूँ सभ्यता का 
झाड़ियों में जा छिपी  
बर्बरता के आख्यान सुनाई दिए 
मैदान में आ रुकी  
औरतों के फटे नुचे कपड़े बिखरे थे 
निर्वस्त्र औरतें पास के ढाबे में पनाह
लेने चली गयी थीं
मैं मैदान में तने पुरुषों 
ढाबे में बिलखती औरतों से भाग खड़ी हुई 
एक घर था जिसमें दुनिया के सारे डर मौजूद
थे 
फिर भी नहीं भागी मैं वहाँ से कभी 
यह अविकारी दैन्य था 
निर्विकल्प पलायन 
न दैन्यं न पलायनम कहने की 
सुविधा नहीं दी परमात्मा ने मुझे.
रफूगर 
एक
खौंचा सिया 
कि छोटी पड़ गयी ज़िन्दगी
बड़े महँगे हो रफूगर तुम
ये क्या कि मरम्मत के वक़्त काट छाँट देते हो
कैसे जिया जायेगा इतने कम में
उसने नज़र उठाई वह भी बेज़ार
सुई की नोक भी
निशाने पर मेरी आँख, बेझप
कौन है तू?
मैंने चूम लीं उसकी उंगलियाँ
और उन उँगलियों की हिकारत
फुसफुसाई कान की लौ पर, वक़्त थरथराया
कि छोटी पड़ गयी ज़िन्दगी
बड़े महँगे हो रफूगर तुम
ये क्या कि मरम्मत के वक़्त काट छाँट देते हो
कैसे जिया जायेगा इतने कम में
उसने नज़र उठाई वह भी बेज़ार
सुई की नोक भी
निशाने पर मेरी आँख, बेझप
कौन है तू?
मैंने चूम लीं उसकी उंगलियाँ
और उन उँगलियों की हिकारत
फुसफुसाई कान की लौ पर, वक़्त थरथराया
तुम
आलीपनाह 
मेरा नाम कुछ भी हो सकता है
जैसे नाचीज़
और अब अगर जान लिया है मेरा नाम
तो रफू करो मेरा सब फटा उधड़ा
मिला दो मेरी चिंदी चिंदी
जोड़ दो यह चाक जो बढ़ता ही जा रहा है हर घड़ी
नहीं भरता यह ज़ख्म कोई वक़्त मरहम
लो सिलो पूरी दयानतदारी
थोड़ी फिजूलखर्ची से
कि अब भी सलामत है मेरी फटी जेब चाक गरेबां
खस्ता आस्तीन
सिलो कि सलामत रहें तुम्हारी उँगलियाँ
उनकी हिक़ारत
मेरा नाम कुछ भी हो सकता है
जैसे नाचीज़
और अब अगर जान लिया है मेरा नाम
तो रफू करो मेरा सब फटा उधड़ा
मिला दो मेरी चिंदी चिंदी
जोड़ दो यह चाक जो बढ़ता ही जा रहा है हर घड़ी
नहीं भरता यह ज़ख्म कोई वक़्त मरहम
लो सिलो पूरी दयानतदारी
थोड़ी फिजूलखर्ची से
कि अब भी सलामत है मेरी फटी जेब चाक गरेबां
खस्ता आस्तीन
सिलो कि सलामत रहें तुम्हारी उँगलियाँ
उनकी हिक़ारत
क्या चाहते हो स्त्री से 
घोर दुर्भिक्ष में 
तुम्हारी किस्म किस्म की भूख का अन्न
बनी  
दुर्दिन में सुख की स्मृति 
वीतराग में विनोद  
ऐसे बसने लगी जीवन के एक कोने में
तुम्हारी स्त्री 
तुम्हारे घाव पर छाला थी  
अपने द्रव से बचाए तुम्हारा प्रदाह  
तुम पीड़ा का हेतु समझते रहे उसे 
छाला फोड़ने से घाव खुलता है, बात इतनी सी थी 
तुम लिखना चाहते थे कविता 
वह स्याही बन फैल गयी शिराओं में 
सबने कहा, वाह! खून से लिखते हो 
तुमने प्रेम कविता सुनाई
वह बन गयी कान 
और फिर आँख बन कर रो दी 
कि उसमें कहीं नहीं था उसका नाम
दुनिया हिली तो 
नींव थामे रही तुम्हारी 
बादल फटे मजबूत छाता बन गयी 
भीगती रही अपनी ही देह के नीचे 
नहीं छोड़ी ख़ुद के लिए एक आश्वस्ति 
तुमने भी कट्टा और बीघा में नापी उसकी
कोख   
वह हर भूमिका में तुम्हारे भीतर छिपा
प्रेमी ढूँढ़ती है 
तुम जाने क्या क्या चाहते हो स्त्री
से  
अबकी मुझे चादर बनाना
माँ ढक देती है
देह 
जेठ की तपती रात भी
‘लड़कियों को ओढ़ कर सोना चाहिए’
जेठ की तपती रात भी
‘लड़कियों को ओढ़ कर सोना चाहिए’
सेहरा बांधे
पतली मूँछ वाला मर्द 
मुड़ कर आँख तरेरता
राहें धुंधला जाती पचिया चादर के नीचे
नहीं दिखते गड्ढे पीहर से ससुराल की राह में
नहीं दिखते तलवों में टीसते कीकर
अनचीन्हें चेहरे वाली औरत खींच देती
बनारसी चादर पेट तक
‘बहुएं दबीं ढकीं ही नीकीं’
चादर डाल देता देवर उजड़ी मांग पर
और वह उसकी औरत हो जाती
मुड़ कर आँख तरेरता
राहें धुंधला जाती पचिया चादर के नीचे
नहीं दिखते गड्ढे पीहर से ससुराल की राह में
नहीं दिखते तलवों में टीसते कीकर
अनचीन्हें चेहरे वाली औरत खींच देती
बनारसी चादर पेट तक
‘बहुएं दबीं ढकीं ही नीकीं’
चादर डाल देता देवर उजड़ी मांग पर
और वह उसकी औरत हो जाती
माँ, अबकी मुझे देह नहीं 
खड्डी से बुनना
ताने बाने में
नींद का तावीज़ बाँध देना
चैन का मरहम लेप देना
मौज का मंतर फूँक देना
बुनते समय
रंग बिरंगे कसीदे करना
ऐसे मीठे प्रेम गीत गाना
जिनमें खुले बालों वाली नखरैल लड़कियां
पानी में खेलती हों
धूप में चमकतीं हों गिलट की पायलें
खड्डी से बुनना
ताने बाने में
नींद का तावीज़ बाँध देना
चैन का मरहम लेप देना
मौज का मंतर फूँक देना
बुनते समय
रंग बिरंगे कसीदे करना
ऐसे मीठे प्रेम गीत गाना
जिनमें खुले बालों वाली नखरैल लड़कियां
पानी में खेलती हों
धूप में चमकतीं हों गिलट की पायलें
माँ, अबकी मुझे देह नहीं चादर बनाना 
जिसकी कम से कम एक ओर
आसमान की तरफ उघड़ी हो
हवा की तरफ
नदी की तरफ़
जंगल की तरफ
साँस लेती हो
सिंकती हो मद्धम मद्धम
धूप और वक़्त की आंच पर
जिसकी कम से कम एक ओर
आसमान की तरफ उघड़ी हो
हवा की तरफ
नदी की तरफ़
जंगल की तरफ
साँस लेती हो
सिंकती हो मद्धम मद्धम
धूप और वक़्त की आंच पर
सृष्टि जो हमने रची 
धरती जो मिल कर गोल की हमने 
उत्तरी दक्षिणी ध्रुव के बीच 
उस पर अकेली कैसे बसूँ अब 
कहाँ से ढूँढ लाये थे चकमक 
जब सुलगाया हमने सूरज 
एक कमरे में दिन जलाया एक में बुझाई रात 
आज कल वही धूप मेरी चादर परदे आँखें 
सुखाने के काम आ रही है  
हवा से कहो अपने बाल 
बाँध कर ही रखती हूँ इन दिनों 
बस उतनी ही आया करे 
जितनी मेरे फेफड़ों में जगह है
जितनी निःश्वास लौटा पाती हूँ जंगल
को  
एक रात काले जादू से स्याह की तुमने 
मैंने टाइटेनियम टू से रंगा चाँद   
एक निरभ्र था    
जिसे आर्कटिक रंग से ढँक दिया था 
कि मुझे नीला पसंद है  
अक्सर यह सोचती हूँ कि 
एक प्रेम का भी निर्माण किया था हमने 
वह कहाँ गया भला 
क्या तुम्हें भी बुरा लगता है 
हमारी साथ साथ बनायी सृष्टि में 
यूँ अकेले अकेले रहना. 
विलोम 
प्रेम जंगली कबूतर के पंखों सा निस्सीम
छोड़ जाता है हमारे हाथ में अपना रोंयेदार
स्पर्श 
मैंने जब उससे दूर जाना चाहा चीज़ें उसके
साथ ही छूटने लगीं  
एक अतीत था जो बंधा था इस छोड़े जाते पल से
और अपने तमाम अतीतों से जब हम साथ भी नहीं
थे 
उसे छोड़ देना अपने पूरे जीवन को दोफाड़ कर
देना था 
इसी मुश्किल की आसानी से हम जुड़े रहे इतने साल 
कि वह पूरा पा कर भी उंगली छूते डरता रहा
उंगली छूते ही पूरा पा लेने का अभ्यास दोहरा बैठता
न होना स्वीकार्य नहीं था उसे
होने से डरता था
बहुत स्त्री होने पर मर मिटा एक दिन
इतनी अधिक स्त्री होने से आक्रांत था
ऐसे पैर लटकाए बैठे रहे हम काल पहाड़ी पर
ऐसे साथ साथ सूर्योदय और सूर्यास्त बिताये
उसने ही नहीं कहा कि सुन्दर हूँ मैं
उसके ही साथ लगा कि बहुत सुन्दर हूँ मैं .
कि वह पूरा पा कर भी उंगली छूते डरता रहा
उंगली छूते ही पूरा पा लेने का अभ्यास दोहरा बैठता
न होना स्वीकार्य नहीं था उसे
होने से डरता था
बहुत स्त्री होने पर मर मिटा एक दिन
इतनी अधिक स्त्री होने से आक्रांत था
ऐसे पैर लटकाए बैठे रहे हम काल पहाड़ी पर
ऐसे साथ साथ सूर्योदय और सूर्यास्त बिताये
उसने ही नहीं कहा कि सुन्दर हूँ मैं
उसके ही साथ लगा कि बहुत सुन्दर हूँ मैं .
बेहतर है रो लो अब 
आँखें सूखी 
चेहरा पानी था 
वजूद था कि एक ज़र्बज़दा बूंद  
मैंने रोने की तमाम वज़हें दीं थीं 
तमाम वज़हें दीं थीं बिखर जाने की 
पर वह थी कि अब भी 
जब्तशुदा 
बहुत लाचार 
बहुत नाकाम 
बदन काँपता ही रहा 
सदियों से बेहिस आंधियों के थपेड़ों में 
माथे पर फेरा दो चार बार बेबस हाथ 
होंठ खोले और बंद किए 
और मैं बस इतना ही कह पाया  
“इससे अच्छा तो रो लो एक
बार।“
सम्पर्क - 
मोबाईल - 09930096966 
ई-मेल :  anuradhadei@yahoo.co.in
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)  



 
 
 
प्रचलित पुरूषवादी आग्रहों से रचे संसार में स्त्री की संवेदना और उसके अस्तित्व को किस तरह हाशिये पर कर दिया गया है अनुराधा सिंह जी की कविताएँ न केवल इसकी पड़ताल करती हैं वरन वे उस बेचैनी को भी स्वर देती हैं जो इस यथार्थ को स्वीकार न करने की इच्छा और साहस से भरी है। वह इस इच्छा और साहस को अपने अंदर महसूसती हुई एक विस्तार का मौका देती हैं इसलिए उनकी अभिव्यक्ति मार्मिक हो जाती है। आप जब पढ़ते हैं
जवाब देंहटाएं"पत्थर हो गया मन का सीमेंट पिता
कहीं छाप नहीं छोड़ी अपनी
देह की बाली पकती रही
नहीं काटी हरे ज़ख्मों की फसल
इतनी निबाही तुम सब पितरों की बातें
कि चुकती देह और आत्मा के पास नहीं बाक़ी
अपना खून पानी नमक अब ज़रा भी।"
तो इसकी गूँज मन के अंदर बनी रहती है। यह अनवरत चले आ रहे अन्याय को सहज और शाश्वत मान लेने के विरोध में कविता की आवाज है।
बहुत आभार राकेश जी।
हटाएंसुन्दर कविताएँ
जवाब देंहटाएंबहुत आभार
हटाएंबहुत सुंदर अनुराधा जी 😊👌 हर बार इतना अच्छा और प्रभावी लेखन बेहद रोमांचित और आश्चर्यचकित करता है। अत्यंत आभार एवं शुभकामनाएँ। 👍🙏
जवाब देंहटाएंशुक्रिया निपुण जी।
हटाएंबहुत भावुक , मर्मस्पर्शी और बेहतरीन कविताएं
जवाब देंहटाएं