महेश चन्द्र पुनेठा की कविताएँ
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| महेश चन्द्र पुनेठा | 
कविता लिखने के क्रम में हर कवि के मन में यह सवाल जरुर उठता है कि वह कविता क्यों लिख रहा है? कविता के इस अभिप्राय को ले कर तमाम कवियों ने कविताएँ लिखी हैं। और यह सिलसिला आज भी जारी है। युवा कवि महेश पुनेठा भी इस सवाल से टकराते हैं। महेश अपनी कविताओं में कल्पना की उड़ान तो भरते हैं लेकिन वे अपनी जमीन को नहीं भूलते। कविता में भी वे जमीन की बातें ही करते हैं। कविता लिखने के सवाल को ले कर भी वे भ्रम में नहीं हैं। उन्हें पता है कि अगर उन्होंने कविता नहीं भी लिखी तो ‘दुनिया एक इंच इधर से उधर नहीं होगी’ लेकिन कविता लिखना उनके लिए इसलिए अहम् है कि यह जो दुनियावी अँधेरा बढ़ता जा रहा है उसे कम करने की कोशिश में वे अपने ‘भीतर की कविता’ को बचाना चाहते हैं। कवियों के लिए जरुरी है कि यह भीतर की कविता ही उनके अंदर बची रहे जो लगातार छिजती चली जा रही है कि मरने न पाए मेरे भीतर की कविता। एक जगह अपने अर्थ को और स्पष्ट करते हुए महेश लिखते हैं – ‘मैं रचता हॅू/ एक कविता/ ठंड को खत्म करने को।‘ लेकिन इसके साथ वे श्रम की अर्थवत्ता को भी विनम्रता से स्वीकार करते हैं। इसीलिए तो वे साहस के साथ कहते हैं – ‘कमतर ठहराता है जो/ तुम्हारे काम को/ जरूर कोई षड़यंत्र करता है/ ठंड को बचाने के पक्ष में।‘ हाल ही में इलाहाबाद के साहित्य भण्डार से महेश पुनेठा का एक कविता संकलन आया है ‘पंछी बनती मुक्ति की राह’। ये कविताएँ इसी संकलन से ली गयी हैं। आइए आज पढ़ते हैं कुछ इसी तरह की मानवता की तासीर वाली महेश पुनेठा की कविताएँ।
महेश
चन्द्र पुनेठा की कविताएँ 
पहली
कोशिश 
मैं न लिख पाऊँ एक
अच्छी कविता 
दुनिया एक इंच इधर
से उधर नहीं होगी 
गर मैं न जी पाऊँ
कविता 
दुनिया में अंधेरा
कुछ और बढ़ जाएगा
इसलिए मेरी पहली
कोशिश है 
कि मरने न पाए
मेरे भीतर की कविता।
कलावादी
जिस वक्त में 
कुचले जा रहे हैं
फूल 
मसली जा रहीं हैं
कलियाँ
उजाड़े जा रहे
वन-कानन
वे विमर्श कर रहें
हैं
फूलों के रंग-रूप
पर। 
फुंसी
जिसे उभरते देख
मसल कर 
खत्म कर देना
चाहते हो तुम 
लेकिन 
वह और अधिक विषा
जाती है 
तुम्हारी
गलती  
छोटी सी फुंसी को 
दर्दनाक फोड़े में
बदल देती है। 
तुम
से अच्छे
इतना दमन/शोषण
अन्याय-अत्याचार
फिर भी ये चुप्पी।
तुम से अच्छे तो
सूखे पत्ते हैं।
जीवन
व्यर्थ गँवाया 
भूखे का भोजन 
प्यासे का पानी 
ठिठुरते की आग 
तपते को हवा 
बेघर का घर 
जरूरतमंद का धन 
लुटे-पिटे का ढॉढस
बिछुड़ते का राग 
फगुवे का फाग 
गर इतना भी बन न
पाया
हाय! जीवन यॅू ही
व्यर्थ गँवाया।
प्रतीक्षा
निराशा की बात
नहीं कोई
जड़ नहीं 
मृत नहीं 
ठूँठ नहीं ये 
जाड़ों के पत्रविहीन
वृक्ष से हैं ये 
बसंती हवा की
प्रतीक्षा भर है इन्हें 
फिर देखो 
किस उत्साह से
लद-फद जाते हैं ये
देखते ही देखते
बदल जाएगा जंगल सारा।
तुम्हारी
शिकायत 
जब नहीं करते हो
तुम 
कोई शिकायत मुझसे 
बहुत दिनों तक 
मन बेचैन हो जाता
है मेरा
लगने लगता है डर 
टटोलने लगता हॅू
खुद को  
कि कहॉ गलती हो गई
मुझसे।
दुःख
की तासीर 
पिछले दो-तीन दिन
से 
बेटा नहीं कर रहा
सीधे मुँह बात
मुझे बहुत याद आ
रहे हैं 
अपने माता-पिता 
और उनका दुःख 
देखो ना! कितने
साल लग गए मुझे
उस दुःख की तासीर
समझने में। 
किताबों
के बीच पड़ा फूल 
सूख चुकी हो भले 
इसके भीतर की नमी 
कड़कड़ी हो चुकी हों
इसकी पत्तियाँ 
उड़ चुकी हो भले 
इसमें बसी खुशबू 
फीका पड़ चुका हो
भले 
इसका रंग
पर इतने वर्षों
बाद अभी भी 
बचा हुआ है इसमें 
बहुत कुछ 
बहुत कुछ 
बहुत कुछ ऐसा 
खोना नहीं चाहते
हम 
जिसे कभी। 
सीखना
चाहता हूँ
नदी के पास 
नहीं है कोई कलम 
न ही कोई तूलिका 
न ही हथौड़ा छीनी 
फिर भी लिखती है 
नई इबारत 
बनाती है 
नए-नए चित्र 
गड़ती है 
नई-नई आकृतियाँ 
कठोर शिलाखंडों पर
हर लेती है उनका
बेडौलपन 
सीखना चाहता हूँ
मैं भी नदी से 
यह नायाब हुनर।
षड़यंत्र
तुम बुनती हो 
एक स्वेटर 
किसी को ठंड से
बचाने को 
और 
मैं रचता हॅू
एक कविता 
ठंड को खत्म करने
को।
गर्म रखना चाहती
हो तुम 
और 
गर्म करना चाहता हूँ
मैं भी। 
कमतर ठहरता है जो 
तुम्हारे काम को 
जरूर कोई षड़यंत्र
करता है 
ठंड को बचाने के
पक्ष में।
मुक्तिदाता
सा गौरव 
बंधनों पर कभी 
एक भी शब्द नहीं
फूटा मुँह से जिनके
वे बहुत चौकन्ने
हो गए 
         चिता पर रखने से पहले 
         रह न जाय उसके शरीर में कोई बंधन 
         चूड़ी....चरेऊ.....पाजेब.......
         मुर्दे को सभी बंधनों से मुक्त कर 
         मुक्तिदाता सा गौरव 
         झलक आया उनके चेहरों पर।
बाजार-समय
बहुत सारी हैं
चमकीली चीजें 
इस बाजार-समय में
खींचती हैं जो
अपनी ओर 
पूरी ताकत से 
मगर 
बहुत कम  हैं 
जो बॉधती हों कुछ
देर भी।
फिर भी
चमक से चौंधिया कर
फँस ही जाता है
गिरफ्त में इनके
बच-बच कर निकलने
वाला भी ।
पसंद करने लगता है
उन्हीं को
कभी
नहीं मर सकता 
उनके 
दृढ़ इरादे 
और कठिन परिश्रम 
कठोर से कठोर काँठे
को भी 
बदल देते हैं 
सुन्दर स्थापत्य
में 
रौखड़ में भी 
लहलहा देते हैं हरियाली।
फिर ये तो जीती
-जागती 
दुनिया है दोस्तो!
इसलिए 
कभी भी नहीं मर
सकता 
मेरी आँखों में
सुंदर दुनिया का
सपना।
उन्हें
चिंता है 
उन्हें चिंता है
कि खत्म होती जा रही हैं लोक बोली-लोक संस्कृति 
चलाया है उन्होंने
अभियान उसे बचाने का 
आयोजित की जा रही
हैं गोष्ठियाँ-सेमीनार 
निकाली जा रही हैं
पत्र-पत्रिकाएं 
रचा जा रहा है लोक
बोली में साहित्य 
प्रोत्साहित किया
जा रहा है अपनी बोली में बातचीत के लिए 
ढूँढे जा रहे हैं
पुराने से पुराने शब्द-
देशी व्यंजनों/ अनाजों/
औजारों/ बर्तनों/ आभूषणों/ वस्त्रों आदि से जुड़े 
शामिल किया जा रहा
है शब्दकोशों में उन्हें 
जब तक शब्द शामिल
हो रहे शब्द कोशों में 
चीजें गायब हो जा
रही हैं जीवन से 
उन्हें चिंता है
कि खत्म होते जा रहे हैं लोक बोलियाँ।
बदलाव
के दुश्मन
नहीं हैं दुल्हन
के आँखों में आसूँ 
इससे अच्छी बात
क्या हो सकती है 
आखिर खुशी  के क्षणों में क्यों बहें आँसू?
लोगों को यह अटपटा
लग रहा है 
उठाने लगे हैं
प्रश्न जमाने पर-
कैसा बेशर्म जमाना
आ गया है 
अब दुल्हनें रोती
भी नहीं हैं 
ये बे-हयापन नहीं
तो और क्या है
कोई लोक-लाज भी
नहीं रह गई अब.......
आखिर क्यों देखना
चाहते हैं ये दुल्हन को रोते हुए?
कौन हैं ये लोग
क्या है इनकी
परेशानी 
किसी भी बदलाव से 
पेट में मरोड़
क्यों उठने लगती है इनके?
दुपहिया
चलाती युवतियाँ
मुख्य सड़क पर
निकलता हूँ जब 
चलता हूँ
बचते-बचाते हुए 
वहाँ निकलते हैं 
दो पहिया वाहनों
में सवार
हवा से बातें करते
हुए 
नए जमाने के नए
युवक-युवतियाँ 
डर लगता है उनकी
गति को देख कर 
गति में किसी तरह
कम नहीं युवतियाँ भी 
सर्रर्....रर्....र...
से युवकों को काट 
निकल जाती हैं आगे
दुपहरिया को लहराती हुई 
भय न जाने कहाँ
फुर्र हो गया उनका 
जैसे भय भी भयभीत
हो गया हो उनकी गति से 
भय को छोड़ कर ही
आगे निकल पाई हैं वे 
बहुत अच्छा लगता
है उन्हें देखना 
सिर ऊँचा
कंधे चौड़े 
नजरें चौकन्नी 
समय की गति से
कदम-कदम मिलाकर भागते।
खड़ी
चट्टान पर घसियारिनों को देख कर 
एक-दो ने अंतरिक्ष
में 
कर ली हो चहलकदमी 
दो-चार ने एवरेस्ट
में 
फहरा दिया हो अपना
परचम 
कुछ राजनीति के
बीहड़ को लाँघ कर 
खड़ी हो गई हों उस
पार 
कुछ और इसी तरह
किसी अन्य वर्जित प्रदेश में 
कर गई हों प्रवेश 
दृष्टांत के रूप
में 
उद्धरित किए जाने
लगे उनके नाम 
मील के पत्थर ही
हैं वो  
इधर तो बहुत सारी 
टँकी हुई-सी हैं
अभी भी 
सदियों से इसी तरह
ओस की बूँद सी 
अब गिरी कि तब
गिरी।
कैसे करूँ संतोष 
नहीं मिल जाता जब
तक इन्हें
जीवन का कोई मैदान
बेखौफ हो कर खड़ी
हो सकें जहाँ ये। 
कन्या
पूजन 
अल्ट्रासाउंड की
रिपोर्ट 
आने के बाद से 
घर का माहौल ही
बदला-बदला है 
सास-ससुर के
व्यवहार में 
आ गई है थोड़ी नरमी
पति के मन में
अतिरिक्त प्रेम 
प्रसवा भी खुश है 
अब के औजारों से
बच गई 
उसकी कोख 
और भी कारण हैं
उसकी खुशी के 
आज रामनवमी है 
नवदुर्गा के
व्रतों का समापन है 
कन्या पूजन है घर
में आज
धोए जाएंगे नौ
कन्याओं के चरण 
पिया जाएगा
चरणामृत 
चढ़ाए जाएंगे फूल 
उतारी जाएगी आरती 
खिलाए जाएंगे
सुस्वादिष्ट व्यंजन
मुहल्ले भर में
ढूँढी गई कन्याएँ 
इग्यारह से कम की 
बड़ी मुश्किल से 
गिनती पूरी हो पाई
नौ की 
कन्या पूजन चल रहा
है इस समय.....। 
एक
नई दुनिया के निर्माण की तैयारी
मेरा तेरह वर्षीय
बेटा 
गूँथ रहा है आटा 
पहली-पहली बार 
पानी उड़ेल समेट
रहा है आटे को 
पर नन्हीं
हथेलियों में 
नहीं अटा पा रहा
है आटा  
कोशिश में है कि
समेट लूं एक बार में सारा 
गीला हो आया है
आटा 
चिपका जा रहा है
अंगुलियों के बीच भी 
वह छुड़ा रहा है
उसे 
फिर से एक लगाने
की कोशिश  
अब पराद में चिपके
आटे को छुड़ा रहा है
फिर पानी
आवश्यकतानुसार 
अब भींच ली हैं
मुट्ठियाँ उसने 
नन्हीं-नन्हीं
मुट्ठियों के नीचे तैयार हो रहा है आटा 
इस तरह उसका 
समेटना 
अलगाना 
भींचना 
बहुत मनमोहक लग
रहा है
मेरे भीतर पकने
लगा है एक सपना  
जैसे रोटी नहीं 
एक नई दुनिया के
निर्माण की तैयारी कर रहा हो वह। 
सम्पर्क-
मोबाईल - 09411707470
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)



 
 
 
महेश की कविताओं का यह स्वर पहले संग्रह की कविताओं से भिन्न और अग्रगामी है। महेश को थोड़ा सचेत रहते हुए आगे बढ़ना चाहिए और अपनी मूल संवेदना का ध्यान रखना चाहिए जिसके पीछे छूट जाने की झलक कहीं कहीं दिख रही है।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया विजय भाई .
हटाएंआपके सुझाव का अवश्य ध्यान रखूँगा.
सहमत
हटाएंमेरे लिए कविता मूल्य और जिजीविषा का पर्याय रही है। पुनेठा जी की कविताएँ उसे ताकत देती है। पहली कविता तो मानो मेरे लिए कविता के अर्थ को ही सुस्पष्ट करती है। छोटी-छोटी कविताएँ बिना किसी घुमाव-फिराव के बड़ी बात कहती हैं। इसलिए इनका असर भी होता है। वैसे कुछ कविताएँ कमजोर सी भी लगीं। जैसे किताब के बीच फूल, बाजार समय कुछ विशेष कह नहीं पा रही। इसी तरह जीवन व्यर्थ गँवाया कविता तो अच्छी है, लेकिन इसे पढ़कर केशव तिवारी की कविता काहे का मैं की याद आती है, और यह कविता अपने स्वर में उससे आगे न बढ़कर पीछे रह जाती है। बाकी अच्छी कविताएँ हैं। फुंसी, दुख की तासीर, तुमसे अच्छे, तुम्हारी शिकायत आदि कविता तो बार-बार याद आएगी!
जवाब देंहटाएंएक दौर आता है जब छोटी कविताओं में मन रमता है । किसी थॉट को सीधे कह डालने / कह पाने का सुख अनिवर्चनीय होता है । पर उसे कविता की ऊंचाई तक ले जाने में मेहनत लगती है । फिर भी इस से परहेज नहीं करना चाहिए । इस नए पन का स्वागत है । और बधाई । शिकायत और दुपहिया चलाती बेहद असरदार कविताए बन पडी हैं ।
जवाब देंहटाएंबाकी विजय भाई की टिप्पणी पर ध्यान जरूर दें ।
Shandar
जवाब देंहटाएं