अनिल सिंह अनलहातु की कविताएँ
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| अनिल सिंह अनलहातु | 
जन्म –  बिहार के
भोजपुर(आरा) जिले के बड़का लौहर-फरना गाँव में दिसंबर  1972 
शिक्षा –   बी.टेक., खनन
अभियंत्रण- इन्डियन स्कूल ऑफ़ माइंस ,धनबाद,
               कम्प्यूटर
साइंस में डिप्लोमा, प्रबंधन में  सर्टिफिकेट
कोर्स. 
प्रकाशन – साठ – सत्तर
कवितायें, वैचारिक लेख, समीक्षाएं
एवं आलोचनात्मक लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में
प्रकाशित.
“कविता-इण्डिया”, ”पोएट्री
लन्दन” , “संवेदना”, “पोएट”, “कविता-नेस्ट” आदि अंग्रेजी की पत्रिकाओं एवं
वेब पत्रिकाओं में अंग्रेजी कवितायें प्रकाशित.
   “तूतनखामेन
खामोश क्यों है” कविता संग्रह प्रेस में.
पुरस्कार – 
“कल के लिए” द्वारा
मुक्तिबोध  स्मृति  कविता  पुरस्कार, 
अखिल भारतीय हिंदी सेवी  संस्थान, इलाहाबाद
द्वारा “राष्ट्रभाषा गौरव“ पुरस्कार. 
आई.आई.टी. कानपुर द्वारा हिंदी में वैज्ञानिक लेखन पुरस्कार   
संप्रति –   केन्द्रीय
लोक उपक्रम में उपमहाप्रबंधक.
वक्तव्य :
कविताएँ मेरे लिए सिर्फ कथार्सिस का ही काम नहीं करती
अपितु मुझे, व्यक्ति के रूप
में मनुष्य की गरिमा को उसकी सम्पूर्णता में स्थापित एवं व्यक्त करने का लगातार
दबाव भी बनाती हैं. सामाजिक विद्रूपताओं एवं वैषम्य के विरुद्ध अनवरत और अंतहीन
संघर्ष की अंत:प्रेरणा है मेरा लेखन. मेरी रचनाएं आईना हैं, समाज और व्यक्ति को उसका विद्रूप,विरूप और विकृत चेहरा दिखाती हुईं एक बेहतर मनुष्य और
एक बेहतर समाज के निर्माण हेतु सतत सक्रियता का संधान करती हुईं .जब भी कोई
व्यक्ति अपने अधिकार के लिए खड़ा होता है, वह सुन्दर दिखने लगता है .....मेरी कविताएं इसी सुन्दरता की  शाब्दिक अभिव्यक्ति हैं. 
आजादी
के बाद के वर्षों में यह पहला मौक़ा है जब देश एक दोराहे पर खड़ा नजर आ रहा है.
हमारे सामने है एक तो वह राह जिस पर चलते चले आएँ हैं. और इस चलते चले आने में तमाम
दुश्वारियों का सामना भी किया है. दूसरी राह वह है जो मोदी सरकार बनने के बाद कुछ
राष्ट्रवादियों और हिंदुवादियों द्वारा तैयार की जा रही है. यह लुभावनी राह है.
इसमें जाति-धर्म के साथ उस प्राचीनतम गौरव एवं स्वाभिमान का तड़का है जिसकी गंध
अतीत के उस स्वर्णिम काल में छिपी है जो पूरी तरह यूटोपिया है. यह अनायास ही नहीं
है बल्कि इसकी एक लम्बी परम्परा ही है. सभ्यता का मुलम्मा कुछ इसी तरह का होता है
जो हमें ही नहीं पूरी सभ्यता को एक बारगी भ्रमित कर देता है. गौर से देखा जाए तो इस
सभ्यता के हाथ उन निर्दोष मानवों के रक्त से सने हैं और इस मानवता को जमींदोज कर
ही उसने ‘अपनी श्रेष्ठता का स्तूप’ खड़ा किया है. इसी क्रम में आज
लेखकीय सरोकारों की अहमियत बढ़ जाती है. सौभाग्यवश लेखकों का प्रतिरोध भी दिखाई पड़
रहा है. युवा कवि अनलहातु की कविताएँ हमें आश्वस्त करती हैं कि युवा पीढ़ी अपनी उस
परंपरा और सरोकारों से परिचित ही नहीं है बल्कि उस दुष्कर राह पर चलने के लिए
तैयार भी है. अनिल की कविताओं में वह स्वाभाविक रुखडपना है जो शुरूआती दौर में
दिखनी भी चाहिए. लेकिन इस रुखड़पने में दूर तक की वह आवाज है जो ‘खुद के विरोध में
बोलने’ से भी नहीं हिचकती. एक स्थिति आती है जब खुद अनिल के शब्दों में कहें तो ‘अपने ही बनाए/
मर्यादा-तट को,/ भागता है वह/ अपने-आप से ही.’
अनिल उस जगह पर और प्रभावशाली नजर आते हैं जहाँ वे इतिहास के तथ्यों के सापेक्ष
अपने समय में खड़े हो कर जमाने से संवाद करने की कोशिशें करते हैं. इतिहास भी तो
मानवीय गतिविधियों और व्यवहारों का ही वस्तुनिष्ठ अध्ययन है. बहरहाल आज प्रस्तुत
है युवा कवि अनिल सिंह अनलहातु की कुछ नई कविताएँ.   
अनिल सिंह अनलहातु की कविताएँ 
भारत छोड़ो आंदोलन 
यह उस समय की बात है
जब लोग-बाग अपने चेहरे को
गर्दन से हटा कर
अपनी हथेलियों में रख
भय और आश्चर्य से 
घूरा करते थे
एक आदमी 
जो दो शून्यों को जोड़ कर
अनंत (00) बनाया करता था,
अचानक ही उन शून्यों को
एक के उपर दूसरा रख 
एक खोखला ड्रम बना
उसके भीतर बैठ 
लुढ़कने लगा 
यह वह वक्त था 
जब लोग-बाग 
आपस में बातें करते 
एक-दूसरे के पैर नहीं देखा करते थे,
यह वह शानदार और बहादूर वक्त था
जब कुछ सनकी और कूढ़मगज नौकरशाह
जनतंत्र की कमोड पर
नैतिकता से फरागत हो रहे थे
एक आदमी अचानक ही कहीं से
चीखता हुआ आया 
और “मुक्तिबोध”(1) की खड़ी
पाई की
सूली पर लटक गया,
यह कतई “मुक्तिबोध”(1) की 
गलती नहीं थी
क्योंकि पूरा देश ही 
“पाई” और “खाई”(2) के नाम पर
बिदका हुआ था
बूढ़े बुड़बुड़ाते सुअरों की तरह
पास्कुआल दुआर्ते(3) के 
छोटे अबोध भाइयों के
कान चबा रहे थे,                               
और बड़े चोली के पीछे छुपे(4) 
सत्य को पकड़ लेने को बेताब थे     
जबकि युवाओं की एक लंबी कतार 
“धूमिल”के
स्वप्नदोषों से लेकर
“गोरख पांडे” की
दालमंडी(5) तक 
पसरी पड़ी थी,
और मैं था कि  
लगातार अपने आप से भागते हुए
फिर-फिर अपने तक ही 
पहुँच रहा था,
भागने और फिर भी 
कहीं नहीं पहुँचने की यह लंबी दास्तां
शायद 
उधार मे मैंने 
अपने बाप से ली थी 
जो लगातार ग्रामोफोन पर
उदास, तन्हें और गमगीन गाने सुनता
रहा
और श्मशान को
शहर से बाहर कर देने का
सुझाव देता रहा
कुछ “रघुवीर सहाय” की कविता
की इस पंक्ति के तर्ज पर कि
“कल मैं फिर एक बात कहकर बैठ
जाऊँगा”(6) ;
कहने और फिर बैठ जाने के बीच के
फासले को वह
“विनोद कुमार शुक्ल” के 
“बड़े बाबू”(7) की तरह
नौकर की फटी कमीज की भाँति
जतन से तहिया कर 
रख दिया करता था,
यद्यपि वह अपनी उम्र के दस के पहाड़े 
के उस पड़ाव पर ही था
जब हॉलीवुड  की हीरोइनें
अपने जवान होने का एलान 
करती हैं                                   
वह अपनी मौत से कई-कई बार
गुजर चुका था 
अपने कंधों पर उसने 
कई-कई लाशों के वजन
सहे थे;
वह टूटता जा रहा था
............................
...........................
और मै .............
कि ठीक इसी वक़्त मुझे 
मेरे उस दोस्त ने
बचा लिया था
जो तब बंबई मे था
और उस आदमी के बारे में
बताता रहता था
जो बाँबे वी.टी. की भीड़ भरी सड़कों पर
कुहनियों एवं टखनों से 
अपने लिये जगह बनता चलता था,
वह स्तब्ध था
और मैं..........
पटना के तारघर की मेज पर
किसी “अजनबी”(8)  द्वारा लिखित
अपनी सुईसाईड नोट का
टेलीग्रामी मज़मूँ 
पढ़ रहा था
लेकिन ठहरें, किस्सा यहीं खत्म 
नहीं होता 
(जैसे खत्म नहीं होती कोई कविता)
अपार भीड़ के 
उस निर्जन सूनेपन मे 
वह कई-कई बार 
अपनी मौत की संडास पर
जाकर मूत आया था
(यद्यपि यह तय है कि कुछ भी तय नहीं है )
फिर भी यह तय है कि वह बहुमुत्र रोगी नहीं था
यह तो उसने बाद में बताया                                                               
तब मैं
इतिहास की पुस्तकों में उलझा
“उपालि”(9) और “आनंद”(9) से 
जिंदगी का पता पूछ रहा था,
उस जिंदगी का
जो किसी अमीर के ऐशगाह मे लेटी 
जनतंत्र और समाजवाद के
ख्वाब देखा करती थी
और मैं था कि .......
............................
लगातार
लगातार
इतिहास की पुस्तकों
मे खोया.........
और आज़ादी मिलने के 
बयालिस साल बाद 
मुझे यह पता चला है कि
दरअसल वह
“क्विट इंडिया मूवमेंट” था
जिसे मैं आज तक
“भारत छोड़ो आंदोलन” 
समझ रहा था
नोट:
 (1)गजानन माधव मुक्तिबोध की प्रसिद्ध कविता “अँधेरे में” में  उल्लिखित “खड़े पाई की सूली” से  संदर्भित
 (2)मंडल एवं कमंडल आंदोलन संदर्भित है
 (3)महान स्पेनी उपन्यासकार “ कामीलो  खोसे सेला के नोबेल पुरस्कार
प्राप्त उपन्यास “पास्कुआल दुआर्ते का परिवार” का मुख्य पात्र जिसके छोटे भाई का कान सुअर चबा गया था
(4) उस समय का एक मशहुर फिल्मी गीत
(5)बनारस का वेश्यालय 
(6) रघुवीर सहाय की कविता की पंक्ति
(7)विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास “नौकर की कमीज़ “ का मुख्य पात्र
(8)अल्बैर कामु का उपन्यास “ल स्ट्रैंजर” 
(9) बुद्ध के पट्ट शिष्य,आनंद बुद्ध का भतीजा था एवं उपालि कपिलवस्तु का एक नापित था, बुद्ध की मृत्यु के बाद प्रथम
बौद्ध संगिति मे आनंद एवं उपालि ने  त्रिपिटक ग्रंथों में से दो पिटकों क्रमशः “सुत्तपिटक” एवं “विनयपिटक” को संग्रहित किया
खुद के विरोध में 
क्यों होता है ऐसा 
जब आदमी उठ खड़ा होता है
खुद के ही विरोध में,   
जब उसे अपनी ही सोच 
बेहद बेतुकी और भौंडी 
लगने लगती है?   
क्यों होता है ऐसा 
जब आदमी 
सुबह की स्वच्छ और ताजी हवा में
घूमने के बजाए 
कमरे के घुटे हुए, बदबूदार सीलन में, 
चादर में मुँह औंधा किए 
पड़ा रहता है?
क्यों होता है ऐसा 
जब आदमी साँपों की हिश-हिश 
सुनना पसंद करने लगता है?
आखिर वह कौन-सी 
प्रक्रिया है
जो उगलवा लेती है
शब्द उससे 
खुद के ही खिलाफ़? 
क्यों वह विवश हो जाता है 
साँप की तरह 
अपना केंचुल छोड़ने पर?
आदमी की आखिरी छटपटाहट 
कसमसाकर 
आखिर क्यों तोड़ती है 
अपने ही बनाए 
मर्यादा-तट को,
भागता है वह 
अपने-आप से ही
“ गोरख” की हताशा लिए
(1)       
“ आह क्यू” की उझंख (2)          .
नीरवता में 
***
नोट-
(1)  गोरख पांडे के लिए संदर्भित. 
(2)  लु शुन की कहानी “ आह क्यू की
सच्ची कहानी “ का नायक.
डोडो (१)
खेत की टेढ़ी-मेढ़ी मेड़ो से हो कर 
वो  चला जा रहा ...हरिकिशुना
...... 
सर को गोते 
दूर ...गाँव के सिवान पर 
दिखता एक धब्बे की तरह
और इसके पहले की 
हरिकिशुना लौट आये 
मैं जमा कर  लेना चाहता हूँ 
कुछ ऊबे हुए फालतू व निरर्थक 
घोषित हो चुके शब्द 
क्योंकि यही वह  समय है 
जब शब्दों की सत्ता और अर्थवत्ता 
संदेह के घेरे से 
बाहर निकलना चाहती है
शब्दों को तलाशता, खंगालता 
मैं आगे बढ़ ही रहा था की
दिखा.........वो...हरिकिशुना ..
उसी तरह खाली हाथ डोलाता  
मुंह सिये  हुए ...
जानता था यद्यपि,
हर बार की तरह लौटेगा 
हरिकिशुना वैसे ही 
बेजुबान, भुला हुआ 
भटका हुआ अपने 
विश्वासों के जंगल में गुम  ...
गुमसुम, मूक ..
खोती हुई अपनी हिम्मत को
फिर से वापस संजोता हुआ
कि  अचानक  सुन पड़ी 
डभक-डभक कर  रोने की आवाज़ 
देखा ....
खेत की मेड़ो पर 
एक बच्चा रो रहा है 
और यही वह जगह है 
जहाँ मैं बेतरह कमजोर
हो उठता हूँ 
और इसके पहले की मैं 
अपनी ही संवेदनाओं की गिरफ्त में 
कैद हो जाऊं 
उछाल दिया मैंने 
अब तक जमा किए 
तमाम शब्दों को 
सामने से आ रहे हरिकिशुना की ओर |
(टूटे मंच और बिखरे  लोगों के बीच से आया ) 
हकबकाया हुआ हरिकिशुना 
चीखा तब एकबारगी 
बड़ी ही भयानकता से .............
गूंजती ही चली जा रही है 
उसकी आवाज़ 
खेतों – खलिहानो व गाँवों को
पार करती  हुई
जंगलों – पहाड़ों, मैदानों को 
लांघती हुई 
बढ़ती ही जा रही है .... 
उसकी आवाज़....
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१.डोडो – मॉरिशस में पाए जाने वाला विलुप्त पक्षी 
अफ्रीका 
हमारे समय के एक बहुत बड़े कवि का
यह कहना कितना खतरनाक है कि
“ वे पेड़ – पौधों की
भांति चुपचाप 
जीने वाले सीधे लोग हैं .....
...............................
.............................
एक पूरी की पूरी  जाति
मानवता, सभ्यता को 
क्या जंगल में 
तब्दील कर देना नहीं है 
एक पूरे महादेश को
जहाँ पर मानव (होमो – इरेक्टस) का
सर्वप्रथम विकास हुआ 
को अंध महादेश घोषित 
किया जाना कौन सी 
सभ्यता है??
एक समूचे महादेश को 
उसकी भाषा से वंचित कर देना 
क्या अपराध नहीं है?
है न यह अजीब बात 
कि दुनिया को सभ्यता का पाठ
पढ़ाने वाले महादेश को 
चार सौ सालों से गुलाम रहे देश
का एक अदना–सा कवि  जुबान दे 
उसे बताए कि भाषा की तमीज़ 
क्या होती है!
कि भाषा बुद्ध या ईसा का दांत नहीं 
कि उसपर तुम खड़ा कर सको 
अपनी श्रेष्ठता का स्तूप 
चीख के पार 
तुम चीखोगे और चिल्लाओगे 
कि इसके सिवा तुम 
कर ही क्या सकते हो,
और कुछ कर भी सकते हो 
तो बस इतना ही
अपने दोस्तों के बीच 
गुस्सा सको 
और अपनी कमज़ोरियों को
सिद्धांतों और आदर्शों का 
जामा पहनाओ;
कि यही वह जगह है 
जहाँ लात मार देने से 
तुम भुसभुसे दीवार की तरह 
भहरा कर गिर पड़ोगे 
लेकिन आश्वस्त रहो 
कि इस खतरे से 
अभी तुम दूर हो 
कि तुम्हें लात मारने वाले भी 
तुम्हारी ही कमजोरी के शिकार हैं 
कि तुम  भी 
उन्हीं बुद्धिमान जनखों के अंतर्राष्ट्रीय तबेले
के सदस्य हो
ऐसा हो सकता है 
और है भी ऐसा 
की एक समय ऐसा आयेगा
कि एकाएक तुम्हें 
लगने लगे 
कि वे तमाम चीज़े 
जिनसे तुमने अपनी आस्थाओं 
के ड्राइंग-रूम को सजाया था 
अचानक ही आउट-डेटेड हो गई हैं 
जो तमाम दुसरे घरों से कबका 
उठाकर कूड़ेदानों में डाला जा चूका है,
हो सकता है तब
तुम फिर चीखोगे , चिल्लाओगे 
और धूमिल के अनुसार 
अपने ही घूसे पर गिर पड़ोगे 
पता –    
c/o ए.के. सिंह, 
फ्लैट नं. - 204, अनन्या अपार्टमेंट, 
शांति कालोनी, गुरूकृपा ऑटो के पीछे 
स्टील गेट,
सरायढेला, 
धनबाद, झारखंड-828127 | 
          मोबाईल नम्बर : 08986878504, 09431191742, 03262202884 ,
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पहली पेंटिंग वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की है जबकि दूसरे चित्र डोडो का सौजन्य गूगल का है.)


 
 
 
बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंहिन्दी भाषा का एक लिहाज है - परंपरा है और तमीज़ है | आप बात को सीधे साफ तरीके के साथ रखिये - अभिव्यंजना के साथ - आप छपेंगे , प्रशंशित होंगे , पुरस्कृत होंगे और सराहे जायेंगे| लेकिन इस के साथ एक लख्मन रेखा भी है - आपको मर्यादित रहना है - उन्हीं विमर्शों कि बाबत बात करनी होती हैं जो महा-महंतों द्वारा निर्धारित की जाती है | चालू फैशन के हिसाब से नारी विमर्श , दलित विमर्श के बाहर जा कर सृजन करना अपने आप को हासिये पर धकेलने जैसा है | अनिल अनल्हातु अपने इतनी सघन और विराट कविताओं से यह खतरा मोल लेते हैं - यह जानते हुए भी ऐसा लिखना परंपरा के बाहर जाना है - उन परीसीमाओ को तोड़ना है - जो अप्प्को मान्यता दिलाती हैं और स्थापित करती हैं| अस्तित्ववादी होने का गहनतम खतरा उठती ये कविताये आपको झकझोरती है - पूरे मानस को उध्वेलिल करती हैं और लानत भेजती हैं - इस विरूपित समय में अपने नाक के आगे के अस्तितव को इनकार करनी इस इंटरनेट/गूगल/ फेसबुक/व्हत्सप्प पर सीमित जिंदगी को | बेहद डिस्टर्ब करती हुई ये कविताएं |
जवाब देंहटाएं"यह उस समय की बात है
जब लोग-बाग अपने चेहरे को
गर्दन से हटा कर
अपनी हथेलियों में रख
भय और आश्चर्य से
घूरा करते थे
एक आदमी
जो दो शून्यों को जोड़ कर
अनंत (00) बनाया करता था,...."
गणित के विद्यार्थी के अलावा शायद दिक्कत हो सकती है - अनंत के परिकल्पना को परिकल्पित करते हुए - लेकिन इस बिंब कि सृष्टि , अद्भुत है | अपने फ़लक और विस्तार में महाकाव्यत्मक यह कविता समकालीन व्यवस्था का , इस व्यवस्था में घुट- घुट कर जीने का , व्यवस्था के ठेकेदारों के संपूर्ण चरित्र का कोलाज खड़ा करती है |
बहुत गहरी हैं कविताएँ और फलक विशाल। वो तो क्विट इण्डिया मूवमेंट था जिसे मैं भारत छोड़ो आंदोलन समझ तह था बहुत खूब ।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद एवं आभार निधि जी ।
हटाएंबहुत गहरी हैं कविताएँ और फलक विशाल। वो तो क्विट इण्डिया मूवमेंट था जिसे मैं भारत छोड़ो आंदोलन समझ तह था बहुत खूब ।
जवाब देंहटाएं