अनिल कार्की की कविताएँ
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| अनिल कार्की | 
प्रेम दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत अभिव्यक्ति है. इस ख़ूबसूरत अभिव्यक्ति के सामने हजार खतरे हैं. युवा कवि अनिल कार्की इससे अच्छी तरह वाकिफ हैं. वे जानते हैं कि कि औरत हो या मर्द, अगर वे प्रेम करते हैं तो उनके सामने समाज विकट समस्याएँ पैदा करने से बाज नहीं आएगा. खुद अनिल के ही शब्दों में कहें तो- 'जबकि
प्रेमी की कोई जात नहीं होती / वो
औरत और मर्द में उभयलिंगी होते हैं /जो
दोनों तरफ रहते है बराबर.' लेकिन प्रेम तो इसलिए औरों से अलग है कि वह नफरत की आँधियों और बदले के तूफ़ान की भी परवाह न कर अपनी राह चलता चला जाता है. इसलिए अनिल रिश्तों के बुनावट को सहेजने के लिए प्रतिबद्ध हैं.औरों से अलग अपना स्वर निर्मित करने वाले इस ख़ूबसूरत से कवि का स्वागत करते हुए प्रस्तुत कर रहे हैं इनकी कुछ नयी कविताएँ.  
   
अनिल कार्की की कविताएँ
अनिल कार्की की कविताएँ
माँ
के हाथों बुने गए मोज़े!
(एक भावुक आदमी का आत्मालाप)
अपनी 
सत्तर साला माँ के हाथों बुने गये गर्म उनी मोज़े 
जिन्हें
मैं भूल गया हूँ तुम्हारे पास,  
मेरी
अमूल्य धरोहर का सबसे बड़ा हिस्सा है वो! 
उनमें
रिश्तों की बुनावट है 
मेरी
जान!
मैं
पिछले एक महीने से तुमसे एक बार भी अलग नहीं हुआ हूँ 
लेकिन
अब लौटता हूँ एक लम्बे निर्वासन में
ऐसा
कहते हुए मैं 
लबालब
भर आया हूँ गले तक 
तुम्हारा
उदास 
परन्तु
आने वाले दिनों के बीमार मौसम को भांपता हुआ 
उम्मीदों का लालिमा भरा चेहरा अब भी मेरे हाथों में है 
इस
वक्त, 
लेकिन
मैं कहना चाहता हूँ 
सबसे
बेहतर हैं वो मोज़े जिन्होंने  हर कदम साथ दिया,
पैरों
की पैदल यात्राओं के परचम हैं वो
जिनमें
हमारे होने की गंध है 
हमारे
आत्माओं के मोज़े हैं 
हमारे
शरीर और हमारे प्रेम के परचम भी, 
मैं
महसूस कर सकता हूँ 
तुम्हारे
शरीर के हर एक अंग को अपनी कलम में 
जिनके
भीतर  
हजारों
शब्द कैद है 
राजनैतिक
कैदीयों की तरह!
मोज़े
जिनमें गंध हैं पसीने की 
जिन्हें
नापने हैं पहाड़ 
अपने
समय के,
और
फांदनी हैं दीवारें भी  
पहाड़
बहुत मजबूत होते हैं 
पिघलती
हुई आँखों के भीतर भी  
सोया
रहता है एक सुषुप्त ज्वालामुखी वाला हिमालय  
जिनके
आंसुओं की बनती हैं नदियाँ 
लहू
रिसता रहता है 
बुझती
रहती है दूर कहीं किसी की प्यास 
मर्द
करते हैं गर्व 
जबकि
प्रेमी की कोई जात नहीं होती 
वो
औरत और मर्द में उभयलिंगी होते हैं 
जो
दोनों तरफ रहते है बराबर  
याद
रखना !
अब
जब इस वक्त मैं तुम्हारे साथ नही हूँ
उदासी
के कंठ में चुभती है हाड़फोड़ ठंड  
लेकिन
तुम्हारे साथ गुजारे हुए 
हर
एक क्षण मेरी नशों में 
कबूतर
के गर्म जवां खून की तरह बहा करेंगें आजीवन!
मैं
तीन बार तुम्हारी उंगुली दबाता हूँ और कहता हूँ 
‘मुझे
तुमसे प्यार है’ 
तुम्हारी
मुस्कुराहटों में शामिल हो जाते हैं  
सातों
रंग!
मेरी
जान! 
वो
जो मोज़े हैं 
एक
आम आदमी की माँ के बूढ़े हाथों की जवान अभिव्यक्तियाँ
हैं उनमें 
सफ़ेद
और लाल धारियां है उनमें 
मेरे
लिए उनका मूल्य संग्राहलय में रखे 
राजे
रजवाड़ों के स्वर्ण-भाण्डों से कहीं अधिक है 
उन
मोजों में समकालीन इतिहास की गुत्थियाँ हैं  
उन
मोजों की कोई जात नही है 
उनकी
गंध ही उनकी पहचान है 
उन्हें
देखते हुए तुम मुझ अदने से आदमी को और बेहतर समझ सकती हो 
कितना
उदास
 हूँ  मैं  अब 
कितना
खुश था मैं तब, 
अब 
और तब के बीच मुझे बार- बार 
अपनी
माँ के हाथों से बुने गये मोज़े याद आ रहे हैं  
मैं
तुममे अपनी उम्रदराज माँ की जवान छवियाँ देख रहा हूँ 
अपनी
पिता की खामोश सैनिक आँखे भी 
उन
अबोध सत्रह साला माँओं की चीखें भी  
जो
अपने सैनिक पतियों से सालों नही मिली  
जो
देवडांगर के सामने बिलखती हैं  
एक
दिन अर्धरात्रि  में  
चीखती
हुई   
अलसुबह
ही अभोकाल चल बसती है 
वह
एक अकेली नदी की तरह 
रेत
में पछेट खाती मछली सी  
लेकिन
मेरी
जान! 
मैं
तुममें हिम बाघिन भी देखता हूँ 
तुम्हारा
रंग बहुत खास है 
धरती
की तरह का 
आकाश
की तरह का, 
हिमालय
की सफेद वर्फ की तरह का 
उजाड़
बाखलियों* सा 
निराश
आँगनों सा 
झड़
चुकी हरी पपड़ी वाले अखरोट सा 
मैं
उदास हूँ इसलिए नहीं कि 
तुम
उदास हो 
बल्कि
इसलिए कि 
तुम्हें
उदास होने के लिए कर दिया गया है मजबूर!
मैं
कह सकता हूँ तुम मेरी उम्मीद हो
तुम्हारे
चेहरे में मैंने पढ़ी  है 
अपने
जीवन की सबसे पहली और अंतिम किताब!
जिनमें
मोजों के चित्र है  
और
मोजों के भीतर है 
हमारे
पसीने की महक!
हमारे
अंतहीन रास्तों के नक़्शे
उनके
सिरे भी 
जिन्हें
मैं भूल आया हूँ तुम्हारे पास 
यातनाओं
की हदें लांघ कर ही पार हो सकती है 
अब
हमारी और हम सब की नाव 
माँ
के हाथों बुने गए मोज़े तुम्हे लम्बे सफ़र के लिए तैयार जरुर करेंगे 
एक
दिन 
तुम
देखना 
हाँ
एक 
दिन 
उस
दिन हमारी यात्राओं के 
चश्मदीद
गवाह  होंगे हमारे मोज़े 
किसी
भी देश और धर्म,
जाति  के झंडों से ज्यादा महत्वपूर्ण
  
अलविदा!
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बाखलियों
*= पहाड़ के सामूहिक और आपस में जुड़े घर जिनमें पूरा मुहल्ला रहता है
  
एक
बेनाम प्रेमिका के लिए 
हर
एक चीज महसूस नहीं की जाती आदमी के भीतर 
जैसे
कि दर्द और मछलियों की ग्रन्थियों के 
संबंध
में होती है अफवाहें! 
जैसे
कि किसी पर्वत पर काट कर सुखा दिया जाता है 
भेड़
का मांस
जाड़ों
की खुराख के लिए! 
हर
एक आवाज महसूस नहीं की जाती नदी की भी 
मसलन
उसके बहाव पर बातें नहीं की जा सकती 
या
कि उसकी गहराई पर भी नहीं की जा सकती कोई बहस 
उतरो
नहीं जब तक खुद के सीने में 
हर
एक चीज टूटती नहीं, टूट जाने के बाद भी! 
बल्कि
जुड़ी रहती है बिना किसी समझौते के 
तुम्हारा
न होना भी होना ही है 
हम
से हमारे के लिए 
नफ़रत
एक खूबसूरत तरीका ही होता है 
प्रेम
को व्यक्त करने का 
अपनों
से, अपनों द्वारा किये गये से 
नफरत
करना एक वाजिफ तर्क है 
जबकि
मौन एक अभिजातीय मुद्रा! 
आज
तो चुप्पियाँ समकलीन अर्थों में बोलती हुई भी 
मौन
जैसी लगती है 
हमारी
दुनिया में 
मुझे
लगता है वक्त रहते 
तुम्हारी
आँखों में अटके पानी से 
दुनिया
को भाषा की क्लास पढ़ लेनी चाहिए 
मुँहफट
आदमी का दर्द 
एक
दिन
एक किसी भी दिन मार दिया जाऊंगा मैं,
एक किसी भी दिन मार दिया जाऊंगा मैं,
मुझे
बचा लो
मैं तुम्हारी ही कविता का
अंतिम शब्द हूँ
मैं तुम्हारी ही कविता का
अंतिम शब्द हूँ
और
मुझे जीना है!
जैसे
लहू में रंग होता है 
जैसे
जमीं में नमी होती है 
मुझे
जीना है 
वैसे
ही  
मुझे
बचाओ एक दिन वो मेरी ही नजरों के सामने
बना देंगे मुझे अपना सबसे प्यारा वफादार कुत्ता
वो मेरी पूँछ काट देंगे
बना देंगे मुझे अपना सबसे प्यारा वफादार कुत्ता
वो मेरी पूँछ काट देंगे
इसलिए
कि वो सीधी नहीं हो सकती 
क्योंकि
वह टेड़ी ही रहने को प्रतिबद्ध है 
आज
भी!
एक
दिन, एक किसी भी दिन
वो मेरी आवाज बेच देंगे
वो मेरी आवाज बेच देंगे
एक
दिन वो मेरी नज़र  बेच देंगे
मेरी आँखों के समन्दरों पे वो उगा देंगे नागफनी
मुझे बचा लो मेरे बंधु!
मेरी आँखों के समन्दरों पे वो उगा देंगे नागफनी
मुझे बचा लो मेरे बंधु!
मैं
विश्व की सबसे संकटग्रस्त प्रजाति का 
मुँहफट आदमी हूँ 
एक आवारा आदमी की कविता
मेरे पर्स से
एक पुराना चित्र निकल आया है
अब वह पूछ रहा है
क्या मैं उसे जानता हूँ?
मेरे पर्स से
एक पुराना चित्र निकल आया है
अब वह पूछ रहा है
क्या मैं उसे जानता हूँ?
दो -
कभी जब
मर्चिस के छिक्कल
और कंचे रचते थे
मेरी जेबों का सौन्दर्य
तब अठन्नियां खनकती थी
न जाने कब पर्स धमक आया उनमें
मर्चिस के छिक्कल
और कंचे रचते थे
मेरी जेबों का सौन्दर्य
तब अठन्नियां खनकती थी
न जाने कब पर्स धमक आया उनमें
तीन-
उस वक्त जब
मैंने खोला पर्स
मुझे थी जरुरत सिक्कों की
तब इस पुराने चित्र ने कहा
क्या मैं मान लूं कि अभी
सिक्कों में बची हैं आस्था दुनिया की
चार -
अब की जब पर्स है
तब खुद को ही जेब में रख कर भूला जा सकता है
एक लम्बे अरसे तक
फिर एक दिन
अठन्नियां ढूंढते हुए खुद
को खोजा जा सकता हैं
ए० टी० एम० की पर्चियों के बीच
तब खुद को ही जेब में रख कर भूला जा सकता है
एक लम्बे अरसे तक
फिर एक दिन
अठन्नियां ढूंढते हुए खुद
को खोजा जा सकता हैं
ए० टी० एम० की पर्चियों के बीच
कुछ
दृश्यों के साथ मेरा उपलब्ध परिचय 
(पहला
दृश्य)
मंच
पर लाईट पड़ती है 
एक
कुर्सी मंच के बीचो-बीच रखी हुई है 
जिसके
दोनों ओर  
दो
खूंखार भेड़िये हैं 
और
अभी-अभी गिलास भर खून पीकर उठा है   
कहीं
एक राजा 
चल
दिया है आदमी की खाल वाला तौलिया उठाये   
रक्त की नदी में नहाने 
कहीं
दूर 
जिसके
छीटे 
पड़
रहे है यहाँ तक 
दर्शकों
पर भी 
उस
समय मेरा परिचय केवल इतना हो सकता है 
मैं
उन अनाम 
घायल
लोगों के बीच की 
कराह
हूँ .. चीख हूँ 
जो
मर खप जायेंगे
जिनका
लहू निचोड़ कर 
रोज
जूस पी जाता है राजा 
बचे
हुए लोग रसदार नीबू की तरह लगते हैं  
और
जो निचुड़ चुके, नीबूं के छिक्क्ल की तरह हो गये हैं  
(दूसरा
दृश्य)
  
इस
दृश्य में मैंने 
उस
ध्रुवीय भालू की तरह सफ़ेद रोंयेदार खाल पहन ली है 
जिसे
अपने निवास स्थान से दूर 
कैद
कर लिया गया है
अर्ज़ेंटिना
के मेंडोजा में 
एक
कंक्रीट बाड़े के भीतर 
तब
ठीक उस वक्त 
उसकी
अवसादग्रस्त फोटो गूगल 
तक
चली आई है 
इधर
मंच में उस पर बहस चल रही है 
केवल
नीचे ही नहीं बल्कि अमरिकी संसद पर 
जहाँ
एक खूंखार जानवर 
एक
बेजुबान भालू को बचाने का नाटक रच रहा है 
ठीक
इसी तरह उसने 
कहीं
दूर इंसानों की बस्ती को 
कंक्रीट
के बाड़े के भीतर मर जाने के लिए छोड़ दिया है 
ये
नाटक का दूसरा दृश्य है ! 
नाटक
का  तीसरा और अंतिम दृश्य ये है-
कि
इस समय अँधेरा और ज्यादा काला हो गया है    
मंच
पर कुछ कीड़े रेंग रहे हैं 
जिनमें
अभी रीड़ नहीं उगी है 
और
मंच परे 
एक
उदास संगीत बज रहा है 
उस
समय मेरा परिचय केवल इतना ही हो सकता है 
कि
मैं उत्तरपूर्व के किसी गाँव में 
अपने
सीढ़ीनुमा खेतों पर जुबान उगाना चाहता हूँ 
और
मुझे कतई फुरशत नहीं 
कि
मैं तुम्हारे साथ एक कफ काफी पी संकू मेरे दोस्त 
हाँ,
जुबान इसलिए नहीं ऊगा रहा कि  
वो
बहस करे
बल्कि
इसलिए कि वह जबाब दे सके 
और
हिसाब माँग सके  
अब
मैं किसी से नहीं पूछने वाला कि 
मेरा
अभिनय कैसा रहा 
क्योंकि
इस नाटक के दर्शकों को  
ताली
बजाना नहीं आता 
यह
जानकार मैंने 
इस
नाटक में अभिनय किया ! 
मैं
जनता हूँ इस समय मेरा परिचय इतना ही हो सकता है! 
सम्पर्क- 
मोबाईल- 09456757646
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की हैं.)
मोबाईल- 09456757646
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की हैं.)



 
 
 
सुंदर कविताएँ
जवाब देंहटाएंसभी कविताएं बहुत सुंदर, बधाई के साथ शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएंMoje bhut maarmik hain ...bandhu aur jb ye bheege hon to aur bhi... bhut bhut badhai...
जवाब देंहटाएंअनिल लगातार अच्छी कवितायेँ लिख रहे हैं . उनकी कविताओं में जीवन की विविधता और व्यापकता व्यंजित होती है . एक ऐसे लोक से परिचित कराती हैं जिसके भीतर प्रतिरोध भरा पड़ा है .लोक जीवन में आ रहे परिवर्तनों को उनकी कविताएँ बारीकी से दर्ज करती हैं .फेंटेसी और लोक बोली के शब्द उनकी कविताओं में एक नयी रंगत पैदा कर देती हैं और कविता का एक नया चेहरा रचती हैं .ये कवितायेँ खुद कवि और कविता का परिचय दे देती हैं .मुझे अनिल में बहुत अधिक संभावना दिखाई देती हैं .संतोष भाई साधुवाद के पात्र हैं कि उन्होंने हमें ताजगी से भरी कविताओं को पढने का अवसर दिया .
जवाब देंहटाएंअनिल कार्की की कवितायेँ समकालीन कविताओं में मील का पठार साबित होंगी ,इन्होने कविताओं को जीते हुए नये युग का सूत्रपात करने की ठानी है और निश्चित रूप से अगर कभी दुबारा हिंदी साहित्य का इतिहास लिखा जायेगा तो सन २०१० के बाद का समय कार्की युग के नाम से जाना जायेगा.
जवाब देंहटाएंआपका मीठापन कुछ ज्यादा ही हो गया है मुझे मांफ करें बक्स दें इस स्नेह से
हटाएंअनिल जी की बहुत सुन्दर कविताएँ। हमारी शुभकामनाएं। संतोष जी निरन्तर इस ब्लॉग में निखार ला रहे हैं। बेहतरीन रचनाएँ पढनें को मिल रही हैं। प्रतिबद्धता के साथ कर्मरत। शुक्रिया।
जवाब देंहटाएंअच्छी कविताएँ
जवाब देंहटाएं