मधुरेश की आलोचना पुस्तक ‘शिनाख़्त’ पर अमीर चंद वैश्य की समीक्षा
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| चित्र : आलोचक मधुरेश | 
हिन्दी
साहित्य में उपन्यास की आलोचना कुछ गिने चुने आलोचकों द्वारा की गयी है। ऐसे
आलोचकों में मधुरेश का नाम अग्रणी है। उपन्यास की आलोचना पर मधुरेश की ‘शिनाख़्त’ नाम से एक किताब आई है। इस किताब की एक पड़ताल की है अमीर चंद वैश्य
ने। इस किताब के प्रकाशन (2012) के साथ ही मधुरेश की रचनाधर्मिता के पचास साल भी
पूरे हो गए हैं। इस अवसर पर मधुरेश जी को बधाई देते हुए हम उनके दीर्घायु होने की
कामना करते हैं। 
उपन्यास
की विश्वसनीय आलोचना: ‘शिनाख़्त’
अमीर
चन्द वैश्य
यशपाल-साहित्य के
मर्मज्ञ और कथा-साहित्य के गंभीर अध्येता एवं समालोचक मधुरेश अब अखिल भारतीय
कीर्ति अर्जित कर चुके हैं। उनका आलोचना-कर्म कथा-साहित्य तक परिसीमित नहीं है।
गद्य की सभी विधाओं के क्षेत्र में उन्होंने आलोचनाएँ लिखी हैं। यद्यपि उनकी लेखनी
ने काव्य-जगत् से दूरी बनाए रखी है, तथापि वह
हिन्दी-अँग्रेजी के काव्य-संसार में रम चुके हैं। उर्दू शायरी से भी परिचित हैं।
और संस्कृत काव्य-परंपरा से भी। संस्कृत न जानते हुए। 
उपन्यास विधा पर
प्रकाशित ‘शिनाख़्त’  नामक ग्रन्थ उनकी औपन्यासिक आलोचना का उत्तम निदर्शन है। कथा-साहित्य के
जागरूक पाठकों के लिए यह ग्रन्थ अनिवार्य सिद्ध होगा। यह गुरूतर है। लगभग 608 पृष्ठों का। मधुरेश की अब तक प्रकाशित सभी पुस्तकों की
तुलना में सर्वाधिक भारी और बहुमूल्य। 
इस पुस्तक से
पूर्व उपन्यास विधा पर केन्द्रित उनकी तीन पुस्तकें प्रकाश में आई थीं। सम्प्रति, हिन्दी उपन्यास का विकास और हिन्दी उपन्यास: सार्थक की
पहचान। सम्प्रति ‘सम्प्रति’  उपलब्ध नहीं है। ‘शिनाख़्त’ के बाद उनकी एक और
पुस्तक प्रकाश में आई है – ‘समय समाज और उपन्यास’। उनकी औपन्यासिक आलोचना का सिलसिला जारी है। निकट भविष्य में ऐतिहासिक
उपन्यासों पर पुस्तक आने वाली है।
‘शिनाख़्त’  में प्रेमचन्द-पूर्व और प्रेमचन्द-पश्चात् के चुने हुए उपन्यासों की सार्थक
समालोचना है। साथ-ही-साथ हिन्दी से इतर अन्य भारतीय भाषाओं के उपन्यासों पर भी
विस्तृत आलेख शामिल हैं।
उपर्युक्त परिचय
से यह बात स्पष्ट हो रही है कि मधुरेश की औपन्यासिक आलोचना अखिल भारतीय है। अतः कह
सकते है कि मधुरेश भारतीय उपन्यास के गंभीर अध्येता और आलोचक हैं। वह आलोच्य
उपन्यास को उसके देशकाल के संदर्भों में परखते हैं। उसके प्रमुख चरित्रों का
तलस्पर्शी विश्लेषण करते है। और अन्त में निष्कर्षात्मक टिप्पणी। उसकी महत्ता पाठक
को समझाते हैं। मधुरेश की आलोचना यह देखती है कि उपन्यास में कौन सा पात्र ऐसा है
जो, अपने अधिकारों के लिए शोषित व्यवस्था से संघर्ष कर रहा है।
साथ-ही-साथ उनकी आलोचना यह भी देखती है कि लेखक की सामाजिक दृष्टि कैसी है। वह
धर्मनिरपेक्ष है। अथवा धर्मसापेक्ष। वह नारी के प्रति संवेदनशील है अथवा रूढ़िवादी।
मधुरेश धर्मनिरपेक्षता और नारी के प्रति संवेदनशीलता के समर्थक हैं। वे उसे पुरातन
रूढ़ियों से मुक्त देखना चाहते हैं। उनकी आलोचना में तुलनात्मक दृष्टि भी झलकती है।
उदाहरण के लिए जब वह ‘वाणभट्ट की आत्मकथा’ की चर्चा करते है, तब रवीन्द्रनाथ टैगोर की सार्वभौम मानवीय दृष्टि की भी
चर्चा करते हैं। और साथ-ही-साथ शरच्चन्द्र के उपन्यास ‘श्रीकान्त’  की आत्मवृतान्त शैली की भी। 
‘शिनाख़्त’  की भूमिका का समापन इस वाक्य से किया गया है – ‘यह सूचना भी शायद
अप्रासंगिक न होगी कि यह वर्ष (2012) मेरी आलोचनात्मक
सक्रियता के पचास वर्ष पूरे होने का वर्ष भी है।‘
10:10:12 को लिखित भूमिका में जो सूचना दी गई है, उसका यह अर्थ है कि मधुरेश का आलोचना-कर्म सन् 1962 से उस समय शुरू हुआ, जब ‘लहर’  ने अपने दिसम्बर, 1962 के अंक में उनकी
एक आलोचनात्मक टिप्पणी प्रकाशित की। उसका शीर्षक था – ‘यशपाल: सन्तुलनहीन
समीक्षा का एक प्रतीक’। इसी ओजस्वी टिप्पणी ने उन्हें आलोचक के रूप में पहली बार मान्यता प्रदान की।
तब से उन्होंने पीछे मुड़ कर कभी नहीं देखा। निरन्तर दायित्वपूर्ण समीक्षाएँ लिखते
रहे। कहानियों की। उपन्यासों की। सारांश यह है कि समकालीन कथा-साहित्य की
निरन्तरता के समान्तर उनकी आलोचनात्मक धारा प्रवाहित रही। आज भी वह गतिमती है। इसी
का शुभ परिणाम है ‘शिनाख़्त’  जैसा वृहदकाय ग्रन्थ, जिसे पढ़कर और समझ कर
हम हिन्दी उपन्यास के साथ-साथ इतर भारतीय भाषाओं के उपन्यासों से भी सुपरिचित हो
सकते हैं। भारत विराट् राष्ट्र है। उसका सम्पूर्ण उत्थान-पतन समझने के लिए भारतीय
भाषाओं के उपन्यासों का गंभीर अध्ययन अनिवार्य है। ‘शिनाख़्त’ ऐसा ही अध्ययन है, जो उत्तम उपन्यासों की शिनाख़्त करता है और मधुरेश की दायित्वपूर्ण
आलोचना की भी। 
मधुरेश की
औपन्यासिक आलोचना का आधार कोई उपन्यास होता है। उसका देशकाल होता है। वह उसका
गंभीर अध्ययन करते हैं। साथ-ही-साथ सघन पाठ तैयार करते चलते हैं। उपन्यास के
प्रमुख पात्रों का विश्लेषण करते हैं। वास्तविकता, सम्भवता विश्वसनीयता के निकष पर उपन्यास की अन्तर्वस्तु और
उसके पात्रों को परखते हैं। उनके श्वेत-श्याम पक्षों का उद्घाटन करते हैं। यदि
उनमें अतिरंजना है तो उसका समर्थन नहीं करते हैं। वह यह भी देखते हैं कि उपन्यास
के पात्र हाड़-माँस के जीवित मनुष्य हैं अथवा नहीं। उनमें प्रतिरोध की कितनी क्षमता
है। हम जानते हैं कि देशकाल के विराट् मंच पर जो कुछ अच्छा-बुरा घट रहा है वह हमें
प्रभावित करता है। जागरूक लेखक किसका समर्थन करता है। अच्छाई का अथवा बुराई का।
जाहिर है कि वह मानव कल्याण के लिए अच्छाई का ही समर्थन करता है। उदाहरण के लिए
आजकल हमारे देश में धर्मनिरपेक्षता और धर्मसापेक्षता में द्वन्द्व चल रहा है।
जागरूक लेखक धर्मनिरपेक्षता का समर्थन करेगा। मधुरेश अपनी आलोचना में इन बातों पर
ध्यान केन्द्रित करते हैं। अपनी आलोचना को समावेशी बनाने के लिए तुलानात्मक शैली
अपनाते हैं। उपन्यास की संरचना और उसकी भाषागंत विशेषताएँ उजागर करते हैं। यदि
भाषा में न्यूनताएँ हैं तो उन्हें भी रेखांकित करते है। उनकी औपन्सायिक आलोचना के
शीर्षक इतने सार्थक होते हैं कि उनमें सम्पूर्ण उपन्यास का वैशिष्ट्य संकेतित रहता
है। 
‘शिनाख़्त’  में संकलित सभी आलेख चार भागों में बाँटे गए हैं। कालक्रम के अनुसार। 
पहले भाग ‘प्रस्थान’  में ‘हिन्दी उपन्यास: उद्भव और विकास की प्रक्रिया’  का विवेचन तर्कयुक्त ढंग से किया गया है। लेखक ने प्रेमचन्द-पूर्व के हिन्दी
उपन्यास की कालावधि सन् 1882 से 1917 तक मानी है। यह सर्वमान्य है। फिर भी लेखक ने लाला
श्रीनिवास दास द्वारा रचित उपन्यास ‘परीक्षागुरू’  (1882) से पूर्व प्रकाशित उपन्यासों की भी चर्चा की है। लेखक का
अभिमत है कि ‘परीक्षागुरू’  से हिन्दी उपन्यास की शुरूआत सर्वमान्य है। आचार्य रामचन्द
शुक्ल ने इसी उपन्यास को पहला उपन्यास माना है। 
लेखक ने भारतेन्दु
युग के दो प्रमुख उपन्यासकारों देवकीनन्दन खत्री और किशोरीलाल गोस्वामी के
औपन्यासिक योगदान पर महत्वपूर्ण आलेख शामिल किए हैं। लेखक की मान्यता है कि यदि
हिन्दी में देवकीनन्दन खत्री नहीं होते तो आगे चलकर प्रेमचन्द भी अस्तित्व में
नहीं आते। इसका कारण यह है कि खत्री जी ने अपने लोकप्रिय उपन्यासों—‘चन्द्रकान्ता’ , ‘चन्द्रकान्ता
सन्तति’  आदि के प्रकाशन से हिन्दी पाठकों की अभूतपूर्व वृद्धि की। उन्होंने ऐसी सहज और
सरल भाषा का प्रयोग किया कि उनके उपन्यास अपने आप लोकप्रिय हो गए। प्रेमचन्द ने भी
अपनी उपन्यास-भाषा को सहज-सरल बनाया है। उनकी भाषी खत्री जी की भाषा के निकट है।
लेकिन उसमें में नयापन है।
मधुरेश ने खत्री
जी के तिलिस्मी उपन्यासों की आलोचना सामाजिक दृष्टि से की है और साथ-ही-साथ
नवजागरण के सन्दर्भ में भी।खत्री जी ने नारी पात्रों के माध्यम से सामन्तवादी
प्रवृति की आलोचना की है। अर्थात् एक पुरूष की कई पत्नियाँ हो सकती है। लेेकिन एक
स्त्री के कई पति नहीं।  मधुरेश ने उनके
विचारों का पुरजोर समर्थन किया है। इन उपन्यासों में चमत्कारपूर्ण वैज्ञानिक बातें
है। उनकी भी प्रशंसा की गई है। उनकी वास्तविकता समझाई गई है। वस्तुतः मधुरेश ने
देवकीनन्दन खत्री पर एक मोनोग्राफ लिखा था। साहित्य अकादमी, दिल्ली के अनुरोध पर। उसी पुस्तक से आलेख ‘शिनाख़्त’  में संकलित किया गया है। उल्लेखनीय है कि मधुरेश ने खत्री जी के सभी उपन्यासों
की समीक्षात्मक चर्चा की है। 
अमृतलाल नागर  के बालसखा ज्ञानचन्द्र जैन ने प्रेमचन्द-पूर्व
के हिन्दी उपन्यासों की आस्वादपरख समीक्षा की है। उन्होंने ‘किशोरीलाल
गोस्वामी की देन’  की चर्चा लगभग पैंतालीस-छियालीस पृष्ठों में की है। यदि
मधुरेश को गोस्वामी जी के सभी उपन्यास उपलब्ध होते तो वह उन पर भी एक मोनोग्राफ
लिखते। उन्होंने ‘किशोरीलाल गोस्वामी’  (1865-1932) शीर्षक लम्बा आलेख ‘शिनाख़्त’  में संकलित किया है। गोस्वामी जी के ऐतिहासिक उपन्यासों की समीक्षा वस्तुनिष्ठ
ढंग से की है। लेकिन उनके कट्टर हिन्दूवादी दृष्टिकोण की अनदेखी नहीं की है।
व्यक्ति में गुण-दोष दोनों होते हैं। लेकिन गोस्वामी जी ने दिखाया है कि उनके
हिन्दू नारी पात्रों में गुण ही गुण हैं। मुस्लिम नारियों में अवगुण ही अवगुण। यह
सन्तुलित जीवन-दृष्टि नहीं है। न हिन्दू दूध के धोए हैं। और न मुसलमान। वास्तविकता
यह है कि हिन्दू-मुसलमानों के मेल से, सारे झगड़ों के
बावजूद, एक ऐसी समावेशी संस्कृति का विकास हुआ है, जो समाज में घुलमिल गई है। अतः मधुरेश ने गोस्वामी जी के
ऐतिहासिक उपन्यास ‘सुल्ताना रजीया बेगम व रंगमहल’  की आलोचना करते हुए अभिमत व्यक्त किया है कि लेखक ने ’इतिहास से अगंभीर और
अराजक सुलूक’  किया है। (पृष्ठ 127-139)
लेकिन मधुरेश ने ‘किशोरीलाल
गोस्वामी’  में उनके रचनात्मक योगदान का समग्र उल्लेख आत्मीय ढंग से किया है। उनकी प्रमुख
विशेषताएँ रेखांकित की है। और यह अभिमत व्यक्त किया है कि उपन्यास और पाठक के आपसी
रिश्ते की गहरी समझ के कारण उनके अधिकतर उपन्यासों में ऐसी पठनीयता है, जिसके कारण उन्हें आज भी पढ़ा जा सकता है। (पृष्ठ 85-89)
इसके अलावा मधुरेश
ने भारतेन्दु युग के कुछ चुने हुए उपन्यासों -- देवरानी जेठानी की कहानी, भाग्यवती, परीक्षागुरू, सौ अजान एक सुजान, श्यामा स्वप्न, बलवन्त भूमिहार, जुझार तेजा और
सौन्दर्योपासक -- का सघन पाठ प्रस्तुत करके प्रत्येक का ठीक-ठीक मूल्याकंन किया
है। और प्रत्येक लेखक की भाषागत विशेषताएँ भी बताई हैं। गुण और दोष दोनों।
मूल्याकंन करते हुए तुलनात्मक शैली का प्रयोग किया गया है। 
मधुरेश भारतेन्दु
युग के उपन्यासों की आलोचना करते हुए लेखक की वर्गीय दृष्टि पर भी विचार करते हैं।
इसका प्रमाण है ठाकुर जगमोहन सिंह के उपन्यास ‘श्यामा स्वप्न’  की आलोचना। इस उपन्यास पर उनकी टिप्पणी उल्लेखनीय है –‘श्यामा स्वप्न
पाठक वर्ग की उपेक्षा का प्रतिनिधि आख्यान है। यह अस्वाभाविक नहीं कि आज भी उसकी
चिन्ता उन्हें ही अधिक है, जिन्हें कला और
साहित्य में सामाज और सामाजिकों की चिन्ता नहीं है।‘  (पृष्ठ 165) यहाँ इशारा हिन्दी के वर्तमान रूपवादी कवियों और लेखकों की
ओर है। विशेष रूप से अशोक वाजपेयी की ओर।
मधुरेश ने अपने
आलोचनात्मक लेखों में वर्तमान भारतीय समाज की प्रतिक्रियावादी शक्तियों पर भी तीखा
प्रहार किया है। आलोचना लिखते समय वह अपना वर्तमान नहीं भूलते हैं। इसका प्रमाण है
‘भाग्यवती’  उपन्यास पर लिखित आलेख। उसमें भाग्यवती के चरित्र का
विश्लेषण करते हुए उन्होंने पाठक को बताया है कि उस युग में विदेशी शिक्षा और
चिकित्सा आदि के प्रति सकारत्मक सोच दिखाई पड़ती है। साथ-ही-साथ पाखंड़ी साधु-संतों
की आलोचना भी। ‘भाग्यवती में अपनाई गई यह सन्तुलित और संयत दृष्टि आज, कथित रूप से सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के हामियों को भी एक
चेतावनी की तरह देखी जा सकती है।‘ (पृष्ठ 109)
यह टिप्पणी
महत्वपूर्ण है। वर्तमान के सन्दर्भ में। अब तो राजसत्ता ‘सांस्कृतिक
राष्ट्रवादियों’  के ही हाथों में है। अतः खतरा बढ़ गया है। अतीत से सीखा तो जा सकता है। उसे
लौटाया नहीं जा सकता। गुजरा हुआ जमाना आता नहीं दुबारा।
‘शिनाख़्त’  के दूसरे भाग ‘विकास’  के अन्तर्गत बहुचर्चित-अल्पचर्चित पन्द्रह उपन्यासों--गोदान, देहाती दुनिया, गदर, दिव्या, मुर्दों का टीला, बड़ी-बड़ी आँखें, कालिदास, रूपाजीवा, विश्वबाहु परशुराम, सेमर के फूल, काला जल, खुदा सही सलामत है, काशी का अस्सी, अधूरी इबारत, मोनालीसा हँस रही
थी--की समावेशी आलोचना है। प्रत्येक पर अलग-अलग आलेख है। प्रत्येक आलेख में सघन
पाठ और चरित्रों का विश्लेषण है। चरित्रों के औचित्य-अनौचित्य पर विचार है। साथ ही
साथ उपन्यास की अन्तर्वस्तु के कलात्मक गठन का संधान है। 
इस भाग का शीर्षक ‘विकास’  है। इसका मतलब यह नहीं है कि लेखक ने हिन्दी उपन्यास का क्रमिक विकास प्रस्तुत
किया है। इसका आशय यह है कि शामिल उपन्यासों के अध्ययन-आलोचन से हिन्दी उपन्यास के
विकास की दिशाएँ प्रत्यक्ष होती हैं।
मधुरेश ने
प्रत्येक आलेख में उपन्यास का गंभीर विवेचन किया है। लेकिन कुछ उपन्यास ऐसे है, जिनकी अन्तर्वस्तु में डूबकर आलोचक ने महत्वपूर्ण रत्न खोजे
है। इस संदर्भ में डा० भगवतशरण उपाध्याय द्वारा रचित ‘कालिदास’ नामक उपन्यास की आलोचना पठनीय है। आलोचक ने डा० उपाध्याय के
शोध-ग्रन्थ इण्डिया इन कालिदास और उनकी अन्य सर्जनात्मक कृतियों का उल्लेख करके
अपना सघन पाठ प्रस्तुत किया है। और गंभीरतापूर्वक चरित्रों का विश्लेषण। इससे कवि
कालिदास का वैशिष्ट्य उजागर हुआ है। लेकिन उपन्यास में जहाँ कोई विसंगति दिखाई पड़ी
है, उसके बारे में लेखक ने निर्भीक टिप्पणी की है। ‘कालिदास सम्बन्धी
उसकी (उपन्यास की नारी पात्र विदुषी गणिका की) अनेक मौलिक उद्भावनएँ, विश्व साहित्य का उसका गंभीर अध्ययन उसकी परिस्थितियों से
मेल नहीं खाते।‘  (पृष्ठ 281) उपन्यास में गणिका
को विदुषी रूप में दिखाने का मुख्य कारण डा० उपाध्याय का विशाल ग्रन्थ ‘विश्व साहित्य’  है। यह, ‘वर्ल्ड लिटरेचर’  (शिप्ले) से प्रेरित होकर लिखा गया। अपनी आलोचना में मधुरेश ने डा० उपाध्याय की
उपन्यास भाषा पर भी ठीक टिप्पणी की है। 
उनकी आलोचना की सार्थकता यह है कि पाठक कालिदास पढ़ने के लिए उत्कंठित हो
जाता है। वस्तुतः ऐतिहासिक उपन्यास पढ़कर हम युग विशेष के समाज और संस्कृति दोनो से
परिचित हो सकते हैं। 
मधुरेश ने शानी के
प्रसिद्ध उपन्यास ‘काला जल’  की आलोचना भी डूबकर लिखी है। आलोचना का शीर्षक बहुत सार्थक
है। ‘निम्न मध्य वर्गीय मुस्लिम समाज का सच’। (पृष्ठ 323) यह आलोचना पढ़कर हम इस वर्ग के मुस्लिम समाज के सच से हम
रू-ब-रू हो सकते हैं। यह आलोचना मधुरेश के धर्मनिरपेक्ष स्वाभाव की द्योतक है।
लेकिन ‘काशी का अस्सी’  की आलोचना डूबकर नहीं लिखी गई है। मैं समझता हूँ इसका कारण
पूर्व निश्चित प्रश्न हैं। युवा आलोचक पल्लव द्वारा पूछे गए। ‘विकास’  भाग में अन्तिम आलेख है-कला की सलीब अर्थात् सलीब पर कला। इस आलेख में हरिपाल
त्यागी और अशोक भौमिक के उपन्यासों का पाठ विश्लेषण है, जो चित्रकला के प्रति आलोचक की अभिरूचि का प्रमाण भी है।
मधुरेश ने शिवपूजन सहाय के इकलौते उपन्यास देहाती दुनिया की समालोचना विस्तार से
करते हुए उसे संस्मरण और स्मृति से तैयार आख्यान बताया है। और ये टिप्पणी की है कि
सारी दरिद्रता और अभावों के बीच जीवन के प्रति उसका उछाह-उल्लास ही देहाती
दुनियाका मुख्य आर्कषण है। उसकी जीवन्त और मुहावरेदार शैली उस आर्कषण को बढ़ाती है।
यही कारण है कि आज अस्सी साल बाद भी एक आर्कषक, पठनीय और उल्लेखनीय उपन्यास की तरह याद किया जा सकता है।
(पृष्ठ 223) रवीन्द्र कालिया के उपन्यास ‘खुदा सही सलामत है’ को अराजक
बिखराव की सार्थकता बताया गया है। यह तर्कसंगत है। गोदान के पात्रों के चरित्रांकन
पर सार्थक टिप्पणी यह है कि उसमें व्यक्ति के लिए किसी प्रकार की कटुता और घृणा की
जगह नहीं है। प्रेचन्द व्यक्ति को समूचे व्यवस्था-तंत्र के संदभर्व में रखकर
चित्रित करते हैं। (पृष्ठ 212)
“शिनाख़्त”  के तीसरे भाग ‘व्याप्ति’  के अतर्गत अन्य भारतीय भाषाओं के चुने हुए उपन्यासों --एक म्यान दो तलवारें, ले० नानक सिंह, पंजाबी, आग का दरिया, ले० कुर्रतुलऐन
हैदर, उर्दू, पट्ट महादेवी
शान्तला, ले० सी० के० नागराज राव, कन्नड़, पर्व, ले० एस० एल० भैरप्पा, कन्नड़, दो गज जमीन, ले० अब्दुस्समद, उर्दू, ययाति, ले० वि० स० खांडेकर, मराठी, आँगन नदिया, ले० अन्नाराम
सुदामा, राजस्थानी, पहाड़ी कन्या, ले० पुट्टप्पा, कन्नड़, दुर्दम्य, ले० गंगाधर गाडगिल, मराठी पानीपत, ले० विश्वास पाटिल, रथचक्र, ले० श्री० न०
पेंडसे, मराठी, दीमक, ले० केशुभाई  देसाई, गुजराती, सोनाम, ले० येसे दरसी थोंगछी, असमिया, दासी की दास्तान, ले० विजयदान देथा, राजस्थानी, कई चाँद थे सरे
आसमाँ, ले० शम्सुर्ररहमान फारूकी, उर्दू--के सघन पाठों और चरित्र विश्लेषणों के उपरान्त
प्रत्येक का वस्तुनिष्ठ मूल्याकंन किया गया है। तटस्थ भाव से। राग-द्वेष से दूर
रहकर। इनके अलावा एक आलेख मलयालम भाषा के प्रसिद्ध लेखक एस० के पोट्टेक्काट्ट।
कहानीकार और उपन्यासकार रूप पर है। आलोचक ने उनके दोनो रूप सामने रखकर उनके एक
उपन्यास कथा एक प्रान्तर की, पर आत्मीय विचार
करके मूल्यांकन किया है और कथाकार के रूप में लेखक का महत्व रेखांकित किया है।
तीसरे भाग के सभी आलेखों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है -पर्व: गहरे मानवीय आशयों
वाला आख्यान शीर्षक आलेख।यह आलेख आलोचक की बहुज्ञता, विश्लेषण क्षमता, आत्मीयता, मूल्य-निर्णय की क्षमता का 
उत्तम प्रमाण मिलता है। पर्व महाभारत पर आधारित है। लेकिन भैरप्पा ने कथा
की पुनरावृत्ति नहीं की है, अपितु आधुनिक
मनोविशलेषणात्मक ढंग से पात्रों का वास्तविक निरूपण किया है, जो अधिक विश्वसनीय लगता है। मूल महाभारत के सारे
चमत्कारपूर्ण प्रसंगों की यथार्थमूलक कल्पना की गई है। उदाहरण के लिए महाभारत के
युद्ध में कुंती को वृद्धा दिखाया गया है। लेकिन मूल महाभारत में कुंती कन्या रूप में
रहती है। आलेख के अन्त में आलोचक ने ठीक लिखा है कि पर्व युद्ध की विड़म्बना का
करूण आख्यान है। वैभव और अहंकार की व्यर्थता सिद्ध करके वह एक विशुद्ध मानवीय
आख्यान में ढली महागाथा के रूप में हमारे सामने है। (पृष्ठ 421)। पंजाबी भाषा के प्रसिद्ध लेखक है नानक सिंह। प्रेमचन्द से
प्रभावित नानक सिंह उनसे 17 वर्ष छोटे थे।
मधुरेश ने उनके एक प्रसिद्ध उपन्यास एक म्यान दो तलवारें की आलोचना गंभीरता से की
है। पात्रों का सटीक विश्लेषण किया है। यह उपन्यास क्रान्ति-चेतना से सम्बद्ध है।
इसमें कुछ पात्र अंग्रेजों के समर्थक है और कुछ अंग्रेजों कट्टर शत्रु। लेखक ने
गदर पार्टी और उसके नायक करतार सिंह सराभा को केन्द्र में रखा है। लेकिन यह
उपन्यास चरित्र प्रधान उपन्यास नहीं है। उल्लेखनीय है कि सराभा भगत सिंह के प्रिय
नायक और प्रेरणा पुरूष थे। उन्होंने 19 वर्ष अल्पआयु में
ही अभूतपूर्व बलिदान किया था। मधुरेश ने इस उपन्यास का विश्लेषण करने के बाद सार्थक
टिप्पणी इस प्रकार की है – ‘सन् 1857 से शुरू इस क्रान्ति की निरन्तरता पर नानक सिंह सब कहीं
अपना ध्यान केन्द्रित रखते हैं।‘  और पुरूष पात्रों की तुलना में नारियों की क्रान्तिकारी भूमिका का उल्लेख
विस्तार से करते है। यह 1857 की क्रान्ति का
उल्लेखनीय पक्ष है। मधुरेश के अनुसार उमा चक्रवर्ती जैसी  इतिहासविद् इस चेतना को ही नारी मुक्ति आधुनिक
आंकाक्षा से जोड़कर देखे जाने पर बल देती है। (पृष्ठ 377)
‘शिनाख़्त’  के चौथे भाग ‘उठान’  के अतर्गत छह लम्बे आलेख संकलित हैं-- हिन्दी ऐतिहासिक उपन्यास की उपलब्धियाँ, एक उपन्यास वर्ष: 1976 रचनात्मक दबाव और
वैचारिक प्रौढ़ता के धरातल, बदीउज़्ज़माँ के
उपन्यास, गोपीनाथ महांती और आदिवासी समाज, विशेष संदर्भ परजा, शाताब्दी का पहला
दशक और उपन्यास, हिन्दी में उपन्यास की आलोचना। यह सभी आलेख मधुरेश की
बहुज्ञता और ज्ञान की अद्यतनता के प्रमाण हैं। 
इन उपर्युक्त
आलेखों में गोपीनाथ महांती की रचनाशीलता पर लिखित आलेख सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।
गोपीनाथ जी उड़िया के प्रसिद्ध कथाकार हैं। अपने उपन्यासों के लिए पुरस्कृत हो चुके
है। उनके उपन्यासों में उड़ीसा का जनजीवन व्यक्त हुआ है। मधुरेश ने उनका सम्पूर्ण
कृतित्व पर विचार करते हुए उनके एक उपन्यास परजा पर विस्तार से लिखा है। उनका
अभिमत है कि बाहरी व्यक्ति होते हुए भी गोपीनाथ जी ने आदिवासियों के बीच में रहकर
उनके समग्र जीवन-प्रवाह का विश्वसनीय गतिशील चित्र अंकित किया है। और मधुरेश ने
उसकी विशेषताएँ आत्मीय ढंग से उद्घाटित की हैं। उनके इस उपन्यास को अखिल भारतीय
संदर्भों से जोड़ा है। 
सारांश यह है कि ‘शिनाख़्त’  में मधुरेश की औपन्यासिक आलोचना भारतेन्दु युग से वर्तमान सदी तक विस्तृत है।
यह ग्रन्थ पढ़कर हम भारत के अतीत और वर्तमान को रचनात्मक रूप में समझ सकते है। यह
ग्रन्थ मधुरेश की आलोचना की भी शिनाख़्त करता है अर्थात् मधुरेश की आलोचना
विश्वसनीय है। अतिरंजना से दूर है। विचार सापेक्ष है। उसमें मार्क्सवादी शब्दावली
का प्रयोग न के बराबर है। फिर भी वे अपनी आलोचना दृष्टि से उपन्यास में आगत
प्रगतिशील तत्व तलाश लेते है। 
मधुरेश की यह
मान्यता है कि हिन्दी में समृद्ध उपन्यास आलोचना नहीं है। इसके लिए बड़ी तैयारी की
आवश्यकता है जो कम दिखाई पड़ती है। भारतीय भाषाओं के उपन्यासों के अध्ययन और आलोचन
से उपन्यास की आलोचना समृद्ध की जा सकती है। प्रसंगवश यहाँ उल्लेखनीय है  कि हिन्दी के नामवर आलोचकों ने ऐसा गुरूतर
दायित्व नहीं निभाया है। इस परिप्रेक्ष्य में मधुरेश की औपन्यासिक आलोचना का महत्व
उजागर होता है। मधुरेश की भी आँखें पुस्तक पकी हैं। वह डा० नामवर सिंह से कम बड़े
आलोचक नहीं हैं। क्योंकि नामवर सिंह अब केवल बोलते हैं। लिखते कुछ भी नहीं। मधुरेश
बोलते कम हैं। लिखते ज्यादा हैं। सार्थक लिखते हैं। इसलिए वह बड़े आलोचक हैं।
कुछ वाक्य मधुरेश
की भाषा के बारे में। मधुरेश की आलोचनात्मक भाषा सहज बोधगम्य है। उसमें भाषाई
चमत्कार नहीं है। लेकिन अँग्रेजी की वाक्य-रचना के प्रभाव के कारण उनकी वाक्य-रचना
सदोष हो गई है। अँग्रेजी वाक्य का अनुकरण करते हुए वे लिखते हैं--एक आलोचक के रूप
में, एक उपन्यास के रूप में, एक उपन्यासकार के रूप में। इन वाक्यांशों में एक का प्रयोग
अनावश्यक है। हिन्दी की प्रकृति के अनुरूप नहीं है। 
इसी प्रकार प्रायः
ही का अनेक बार प्रयोग किया गया है। अनावश्यक है। क्रिया पद से पहले प्रायः का
प्रयोग ठीक किया गया है। पृष्ठ संख्या 390 पर दम्पती रूप
अशुद्ध हैं। शुद्ध हैंदम्पति। पृष्ठ संख्या 179 पर अन्तर्धार्मिक
और अन्तर्जातीय रूप अशुद्ध हैं। शुद्ध हैं अन्तरधार्मिक और अन्तरजातीय। पृष्ठ
संख्या 87 पर स्त्रियोपयोगी पुस्तकों के सहारे में अशुद्ध रूप  हैं। शुद्ध रूप हैं स्त्री-उपयोगी। 
अन्त में एक बात
और। जहाँ लम्बे वाक्य है, वहाँ अर्थ-बोध में
बाधा उपस्थित हो जाती है। भाषा का प्रवाह रूक जाता है। 
समीक्षित
पुस्तक 
शिनाख़्त
(आलोचना) : लेखक- मधुरेश 
प्रथम
संस्करण 2013, मूल्य
800 रू०
प्रकाशक, शिल्पायन, दिल्ली
सम्पर्क 
अमीर चंद वैश्य 
मोः
09897482597

 
 
 
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