अमीर चन्द वैश्य की समीक्षा 'निजी अनुभूतियों का साधारणीकरण'
गीतकार सुभाष वशिष्ठ का अभी हाल ही में एक नवगीत 
संकलन बना रह ज़ख्म 
तू ताजा आया  है। वरिष्ठ आलोचक अमीर चन्द्र वैश्य ने इस संकलन पर एक समीक्षा लिखी है जिसे हम पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं।
'निजी अनुभूतियों का साधारणीकरण'
अमीर चन्द वैश्य
मेरे सामने एक नवगीत 
संकलन है। ‘बना रह ज़ख्म 
तू ताजा‘। गीतकार हैं सुभाष 
वसिष्ठ। मेरे अंतरंग मित्र 
और परम आत्मीय। पारिवारिक सम्बन्धों 
से जुड़े हुए। अपने नाम के अनुरूप 
मधुर भाषी और निर्भीक वक्ता। 
महान् नेताजी सुभाष चन्द्र 
बोस के समान। अपना जीवन-पथ स्वयं 
निर्मित करने वाले।
ऐसे सुभाष 
वसिष्ठ से मेरा मौन साक्षात्कार 
सन् 1974 में हुआ था, जब वह ने0मे0शि0 
ना0 दास (पी0जी0) कालेज, बदायूँ 
में हिन्दी प्रवक्ता पद के 
लिए प्रत्याशी थे। उस समय विभाग 
में प्रवक्ता पद के लिए दो स्थान 
रिक्त थे। मैं भी प्रत्याशी 
था। विभिन्न वेश-भूषा में सजे 
हुए अनेक प्रत्याशी। मैं सबके 
चहरे पढ़ रहा था। उनकी बातें 
सुन रहा था। एक सुदर्शन युवक 
हँसमुख शैली में सभी से बतिया 
रहा था। बातें नई कहानी के बारे 
में हो रही थीं शायद। वह सुदर्शन 
युवक आकर्षक मुस्कान से सब 
को आकृष्ट करके चर्चा कर रहा 
था कि कुछ ऐसी नई कहानियाँ हैं, 
जिनमें प्रेमी-प्रेमिका टेलीफोन 
पर प्यार का इज़हार किया करते 
हैं। उन दिनों मोबाइल का प्रचलन 
नहीं था। मैं उसकी बातें और 
अन्य प्रत्याशियों की बातें 
ध्यान से सुन रहा था। अचानक 
अभास हुआ कि इस प्रत्याशी का 
चयन हो जाएगा। ऐसा ही हुआ। दोनों 
विशेषज्ञों ने अपने-अपने प्रत्याशी 
का चयन कर लिया।
तो दोनों 
प्रत्याशियों में कवि सुभाष 
वसिष्ठ दिल्ली से पधारे थे और दूसरे श्रीकान्त मिश्र बिहार से। यदि वसिष्ठ 
जी अपने साथ दिल्ली की आधुनिक 
संस्कृति ले कर आए थे तो मिश्र 
जी हिन्दी के साथ-साथ संस्कृत 
का प्रचुर ज्ञान लेकर। 
परम्परावादी ब्राह्मण के 
रूप में।
संयोग ऐसा 
हुआ कि वसिष्ठ जी बदायूँ आने 
के साथ-साथ एक प्रकाशित नवगीत 
की ख्याति लेकर आए थे। नवगीत 
तत्कालीन व्यावसायिक पत्रिका 
‘धर्मयुग‘ मे छपा था। उन दिनों 
डॉ0 उर्मिलेश गीतकार के रूप 
में ख्याति के सोपानों पर चढ़ 
रहे थे। गीतकार उर्मिलेश ने 
नवागत गीतकार सुभाष वसिष्ठ 
का स्वागत खुले दिल से स्वागत 
किया। परिचय की गाँठ बँध गई 
और परिचय प्रीति में परिवर्तित 
हो गया।
डॉ0 सुभाष 
वसिष्ठ के बदायूँ आने से पूर्व 
डॉ0 उर्मिलेश कवि विशेष 
रूप से गीतकार के रूप में 
ख्याति प्राप्त करने लगे 
थे। उन दिनों ने0मे0शि0ना0 
दास कालेज, बदायूँ के हिन्दी 
विभाग में डॉ0 ब्रजेन्द्र अवस्थी 
अध्यक्ष थे। वीर रस के प्रसिद्ध 
कवि, जो कवि-सम्मेलनों के मंच 
से श्रोताओं को प्रभावित करते 
थे। अपने ओजस्वी स्वर से। अपनी 
आशु कविता से। डॉ0 उर्मिलेश 
को डॉ0 अवस्थी का शिष्य समझा 
जाता था, कवि के रूप में भी। 
लेकिन वास्तविकता यह थी कि 
वह अपने पिता (स्व0) भूपराम शर्मा 
‘भूप‘ से कविता के संस्कार 
ले कर आया था। वह नीरज के समान 
गीतकार के रूप में ‘भारत-प्रसिद्ध‘ 
होना चाहता था। संयोग से डॉ0 
सुभाष वसिष्ठ जैसा गीतकार मित्र 
अनायास उस से जुड़ गया और उस ने 
अँग्रेजी विभाग में सेवारत 
डॉ0 मोहदत्त शर्मा ‘साथी‘ को 
भी स्वयं से जोड़ लिया। वह डॉ0 
ब्रजेन्द्र अवस्थी से अच्छे 
कवि थे। बुलन्द आवाज में प्रभावपूर्ण 
काव्य-पाठ किया करते थे। कथा-आलोचक 
प्रो0 मधुरेश साथी जी की कविता 
की प्रशंसा मुक्त कण्ठ से किया 
करते थे, लेकिन डॉ0 अवस्थी की 
तुकबन्दी प्रधान कविता के कटु 
आलोचक थे। दोनों में 36 का आँकड़ा 
था।
डॉ0 उर्मिलेश 
ने अपनी महत्वाकांक्षा की 
पूर्ति के लिए एक साहित्यिक 
संस्था गठित की। उस का नाम 
था शायद ‘अंचला‘। इसी संस्था 
की ओर से बदायूँ नगर पालिका 
के मैदान में विराट् कवि-सम्मेलन 
का आयोजन किया गया। कवि-सम्मेलन 
के संचालक डॉ0 उर्मिलेश ने पद्य 
में संचालन करते हुए सुभाष 
वसिष्ठ को गीत-प्रस्तुति के 
लिए मंच पर आमंत्रित किया। 
मुझे याद आ रहा है कि उस कवि-सम्मेलन 
में सुभाष वसिष्ठ नवगीत ‘धूप 
की गजल‘ का प्रभावपूर्ण पाठ 
सस्वर किया था। उस प्रस्तुति 
से मैं भी प्रभावित हुआ था।
दो-तीन 
साल के बाद ही डॉ0 उर्मिलेश 
से डॉ0 सुभाष वसिष्ठ का मोह-भंग 
हो गया। कवि-सम्मेलनी व्यावसायिकता 
के कारण। प्रो0 के0 वी0 सिंह 
के ‘योग्य शिष्य’ सुभाष वसिष्ठ 
ने अपनी अभिरूचि के अनुरूप 
‘रंगायन‘ नामक नाट्य संस्था 
का गठन किया और नाटक प्रेमी 
शौकिया प्राध्यापकों एवं छात्रों 
को स्वयं से जोड़कर रंग-कर्म 
प्रारम्भ किया। प्रेमचन्द 
जन्म-शती के अवसर पर बदायूँ 
क्लब के खुले परिसार में ‘होरी‘ 
का मंचन किया गया। नाट्य रूपान्तरकार 
विष्णु प्रभाकर की उपस्थिति 
के समक्ष। यह अभूतपूर्व नाट्य 
मंचन था। सैट बनाए गए थे। अंधकार 
और प्रकाश का प्रयोग किया गया 
था। दृश्य परिवर्तन के लिए। 
इसी क्रम में प्रति वर्ष एक 
सोद्देश्य नाटक का मंचन किया 
जाने लगा। रंगायन की प्रस्तुतियों 
ने कवि-सम्मेलनों के मनोरंजन 
से मुक्त भी किया। 
समय समय 
पर नुक्कड़ नाटक भी प्रस्तुत 
किए जाते थे। विना किसी 
दान के। बिना किसी सरकारी 
आर्थिक अनुदान के। टिकटों 
की विक्री से प्राप्त धनराशि 
से नाट्य-मंचन किया जाता था। 
इसके अलावा ज0ले0सं0 की बदायूँ 
इकाई की ओर साहित्यिक गोष्ठियों 
का आयोजन भी डॉ0 सुभाष वसिष्ठ 
द्वारा किया जाता था। प्रत्येक 
गोष्ठी में अन्य जनों के अलावा 
प्रो0 मधुरेश सदैव उपस्थित 
रहते थे और वह अध्यक्ष पद 
की गरिमा बढ़ाया करते थे। 
इन गोष्ठियों में सुभाष 
वसिष्ठ ने अपने गीतों का वाचन 
कभी नहीं किया लेकिन गीतकार 
वीरेन्द्र मिश्र पर गोष्ठी 
का आयोजन करवाया था। ‘अपर 
मानप्रद आप अमानी।‘ वह अपने 
संकलन के प्रकाशन के प्रति 
उदासीन रहे।
ऐेसे सुभाष 
वसिष्ठ गीत-रचना निरन्तर 
करते रहे। समय-समय पर आयोजित 
कवि-गोष्ठियों में वह गीतो 
का सस्वर वाचन और कविताओं 
का पाठ भी किया करते थे। 
उनका एक गीत श्रोतोओं द्वारा 
बहुत पसंद किया जाता था - “भूल 
गए/राग-रंग/भूल गए छिकड़ी/तीन 
चीजें याद रही/नोन-तेल लकड़ी।“
इन संस्मरणों 
से यह बात स्पष्ट हो रही 
है कि सुभाष वसिष्ठ ने अपनी 
गीत-सर्जना को बाजारू होने 
से बचाया। स्वयं को पूँजी 
की विकृतियों से दूर रखने 
का प्रशंसनीय प्रयास किया। 
आचरण की ऐसी संस्कृति की झलक 
सुभाष वसिष्ठ के गीतों 
में परिलक्षित होती है। 
उनके नवगीत लोकोन्मुखी हैं, 
लेकिन अपने ढंग से। उनके गीतों 
में लोक-रंग भले ही कम हो, लेकिन 
लोक-विमुखता नहीं है। वह स्वयं 
स्वीकारते हैं -“वस्तुतः नवगीत 
जैसे-जैसे आगे बढ़ा है, वह केवल 
आंचलिकता अथवा निजी अनुभूतियों 
की रोमानी प्रवृत्ति तक ही 
सीमित नहीं रह गया, बल्कि वह 
पूर्णतः यथार्थ जीवन की त्रासदी 
और उत्पीड़न को अभिव्यक्त करने 
वाला आधुनिकतावादी गीत के रूप 
में स्थापित हुआ।“
(नवनीत: स्वांतत्रयोत्तर 
हिन्दी गीति-काव्य का 
एक विस्तृत आयाम) इस अप्रकाशित 
आलेख से उद्धृत  उपर्युक्त 
विशेषण पद ‘आधुनिकतावादी‘ 
का आशय ‘आधुनिकतावाद‘ न होकर 
वह प्रतिरोधमूलक भाव है, जो 
सच्ची आधुनिकता का उज्ज्वल 
लक्षण है।
समीक्ष्य संकलन 
में डॉ0 वसिष्ठ ने लिखा है 
- “प्रस्तुत संग्रह के गीतों 
का रचनाकाल सन् 1970 से सन् 1990 तक 
का है। क्रम, काल-क्रमानुसार 
नहीं है, गीत की प्रकृति वस्तु 
के आधार पर है। एक बात मैं स्पष्ट 
कर दूँ कि इनमें से कुछ गीत विभिन्न 
पत्र पत्रिकाओं में, सन् 1990 के 
बाद भी प्रकाशित हुए हैं, लेकिन 
पूरी जिम्मेदारी से कह रहा 
हूँ कि उनका रचनाकाल 1970 के बाद 
और 1990 से पूर्व का ही है।“ (पृ0 
11)
यह नवगीत 
संग्रह है। गीत काव्य 
की लोकप्रिय विधा है। ग्राम-गीतों 
से ही साहित्यिक गीतों 
का विकास हुआ है। आचार्य 
रामचन्द्र शुक्ल ने अपने 
‘इतिहास‘ में ठीक लिखा है कि 
‘सूर-सागर‘ पहले से चली आ रही 
परम्परा का विकास प्रतीत होता 
है। भक्तिकालीन गीति-काव्य 
के बाद छायावादी कवियों - प्रसाद-निराला-पंत 
और महादेवी वर्मा ने गीत विधा 
को अभिनव का रूप प्रदान किया। 
निराला और महादेवी के गीतों 
की प्रशंसा प्रायः सभी आलोचकों 
ने की है। यदि निराला ने दुर्बोध 
गीत रचे हैं तो सहज बोधगम्य 
गीत भी। उनके परवर्ती लघु गीतों 
की अन्तर्वस्तु और ‘कथन-भंगिमा‘ 
दोनों पूर्ववर्ती गीतों भिन्न 
हैं। बच्चन ने सहज बोधगम्य 
गीत रच कर इस विधा को लोकप्रिय 
बनाया और  नीरज ने भी। लेकिन 
नई कविता की ऊब से बचने और बचाने 
के लिए गीतकारों ने गीत का परम्परागत 
सांचा तोड़ कर उसे अभिनव रूप 
में ढालने का प्रयास किया।
‘गीत में 
अन्तर्मुखी प्रवृत्ति की प्रधानता 
होती है, लेकिन उसे बहिर्मुखी 
प्रवृत्ति से अलग नहीं किया 
जा सकता है। यह आकस्मिक नहीं 
है कि डॉ0 वसिष्ठ ने अपना यह 
‘नवगीत संकलन महाकवि पं0 नाथूराम 
शर्मा ‘शंकर‘  नवगीत के सूत्रधार 
पं0 सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला‘ 
और दमदार नवगीतकार वीरेन्द्र 
मिश्र को सादर समर्पित किया 
है। यह समर्पण भाव गीतकार की 
सामाजिक चेतना और गीत की अभिनव 
कथन-भंगिमा का प्रमाण है।
‘दीपोत्सव 
2001 हेतु शत शत शुभकामनाएँ‘ में 
डॉ0 वसिष्ठ विषमता के बारे में 
चिन्ता करते हुए कहते हैं- 
“क्या 
विषमता है जगत् की
तमिस्रा 
से प्यार!
युद्ध को तैयार क्षण 
में
नेह से तकरार।“
 उनकी यही 
अभिलाषा है कि
 “दीप ने ही
दी सभी को रोशनी
रोशनी बस रोशनी 
बस
रोशनी बस रोशनी!!“
आजकल ने ही 
दीप की रोशनी की परम आवश्यकता 
है और यह तभी सम्भव है कि 
जब संगठित होकर आर्थिक विषमता 
को जड़ से उखाड़ा जाए। डॉ0 वसिष्ठ 
विषमता का प्रखर प्रतिरोध 
नाट्य-मंचन के माध्यम से करते 
हैं। लेकिन वह स्वयं को 
वामपंथी बताने के लिए 
ढोल नहीं पीटते हैं। प्रकाश-प्रसार 
का उपर्युक्त भाव ‘रचना 
सा वर दे‘  में भी किया गया है 
-
 “वर दे माँ शुभ्रा, तू वर दे
मगन 
हृदय की तम घाटी में
आस किरन 
भर दे।“ (बना रह जख्म तू ताजा, 
पृ0 13)
ज्ञान का 
प्रकाश अज्ञान दूर करता है। 
मनुष्य को निर्भय बनाता है 
और मानव-मूल्यों का संरक्षक 
भी।
‘पारा कसमसाता 
है‘  में यदि एक ओर भयंकर ठंड 
की ओर संकेत किया गया है, तो 
दूसरी ओर ‘मुक्ति क्रम में‘  
प्रयासरत एक नन्हा चिड़ा ‘मृत्युभोगी 
चीख लेकर‘ रह-रह कर पंख फड़फड़ाता 
है। अर्थात् वह प्रतिकूल मौसम 
से संघर्ष कर रहा है। बन्धन 
से जकड़े मनुष्य का स्वभाव भी 
ऐसा ही होता है। उसे जीवित रहने 
के लिए रात-दिन कठोर श्रम करना 
पड़ता है। तभी तो गीतकार कहता 
है -
 “शुरू हुई दिन की हलचल
गये 
सभी लोहे में ढल।“(वही, पृ0 17) 
‘धूप की गजल‘ महानगरीय परिवेश 
से साक्षात्कार कराती है। देश 
की राजधानी दिल्ली दिनारम्भ 
होते ही लाहे में ढल जाती है। 
आशय यह है कि जीविका के असंख्य 
जन कठोर श्रम करके स्वयं को 
लोहा जैसा सख्त बना लेते हैं।
‘जहरीला 
पूरा परिवेश हो गया‘ का कथ्य 
सुस्पष्ट है। गीतकार की प्रमुख 
वेदना यह है कि इस आपा-धापी के 
समय में सब ठगे जा रहे हैं। व्यक्ति 
अपने हक वंचित हो रहे है। यह 
जीवन का तीक्ष्ण त्रासदी है।
‘दिन खिसकते 
जा रहे हैं‘ अभीष्ट अभिलाषाओं 
की आपूर्ति होने की व्यथा अंकित 
की गयी है। प्रतिकूल परिस्थितियों 
में दिशाऐं प्रश्नित हैं। पंथ 
धूमिल है। चाल बेबस है। चारों 
ओर अग्नि-लहरें धार बनकर उड़ती 
हैं। साजिशें हैं। अनागत अनिश्चित 
है। ऐसी मनोदशा में व्यक्ति 
बड़ी आकांक्षाऐं कैसे पूरी हो 
सकती हैं। यह है महानगर में 
अकेले पन का बोध, जो व्यक्ति 
को व्यापक सक्रिय लोक से दूर 
कर देता है। शायद, ऐेसे ही गीतों 
के सन्दर्भ में डॉ0 आनन्द प्रकाश 
ने लिखा है कि “गीतकारों का 
ध्यान प्रायः इस तरफ से हटता 
गया कि श्रमिक जनता के शोषण 
पर केन्द्रित रहना सही रास्ता 
है। मूर्तता जिस प्रकार शोषित 
वर्ग की शत्रु है, अमूर्तता 
उसकी मित्र हो सकती है। “(समकालीन 
कविताः प्रश्न और जिज्ञासाएँ; 
पृ0 124)
इस संकलन 
में कई गीत ऐसे हैं, जिनमें 
जीवन-यथार्थ की मात्र झलक है। 
उसकी मूर्तता विरल है। एक उदाहरण 
देखिए
 “बाँहों के आकाशी दायरें
सिमटें फिर उसी बिन्दु पर
जिसमें 
था स्याहिया ज़हर।“ (पृ0 22)
 ‘आकाशी 
दायरे‘ विराट बिम्ब प्रत्यक्ष 
कर रहा है। लेकिन यह बिम्ब ‘स्याहिया 
ज़हर‘ पर क्यों सिमट रहा है। 
क्या आकर्षण है। ऐसा घातक आकर्षण 
अभीष्ट भाव को सघन निराशा में 
परिवर्तित कर देता है- 
“छिद्रित 
घट से
क्रमशः रिसते रिसते
चुप्पी 
में डूब गये शोर भये दिन
सागर 
में ज्वारमयी मीन बहुत उछरी
सिर्फ 
रेत पाया लेकिन।“ (पृ0 22)
 तुलसी 
ने लिखा है - ‘सुखी मीन जँह नीर 
अगाधा।‘ यहाँ मीनों को रेत 
ही रेत प्राप्त हो रही है। वस्तुतः, 
यह महानगरीय भाव-बोध है, जो नवयुवकों 
की व्यथा-कथा व्यक्त कर रहा 
है।
और ऐसे 
विवश व्यक्ति अन्य किसी को 
क्या दे सकते हैं। याचना उनकी 
नियति है। इसीलिए तो गीतकार 
कहता है-
 “हाथों का अर्थ हुआ 
क़र्ज़ मांगना
टूक-टूक स्वयं 
को सलीब टाँगना।“ (पृ0 23)
 यहाँ 
भी अकेलेपन की विवशता व्यक्त 
की गयी है। वास्तविकता से साक्षात्कार 
करके वह आगे कहता है-
“चमकदार 
सब उसूल स्याह हो गये
रोटी के 
चक्कर में सूर्य हो गये
झुका 
नहीं, टूट गया, जो रहा तना।“ (पृ0 
23) 
वर्तमान क्रूर व्यवस्था में 
पूँजी व्यक्ति की लाचारी का 
लाभ इसी प्रकार उठाया करती 
है। लाचार आदमी टूट कर बिखर 
जाता है। व्यक्ति की घातक और 
मारक लाचारी ऐसी मनोदशा भी 
उपस्थित कर देती है-
“बतियाती 
फ़र्ज़ांे से
रह-रह कर चमक-दमक
घहराकर 
उफन रही
भीतर की घुटी कसक
जीवन 
तो रीत गया
जुड़े रहे नाम से।“ 
(पृ0 25)
 वर्तमान परिवेश में जीवन 
का रीतापन स्वाभाविक है, लेकिन 
सुखद नहीं त्रासद है।
मानवीय सभ्यता और 
संस्कृति जांगलिकता से मांगलिकता 
की ओर अग्रसर होती रही है। 
लेकिन द्वन्दात्मक जगत् 
में जांगलिकता-मांगलिकता 
का द्वन्द्व चलता रहता है। 
नाखून बढ़ते रहते हैं। मनुष्य 
उन्हें काटता रहता है। 
अन्ततोगत्वा विजय अहिंसा 
की होती है। लेकिन पूँजी 
के क्रूर हाथों ने अपने 
नाखून बढ़ा लिये हैं। वह 
अब तो शूर्पणखा हो गयी है। 
यह सब देखकर वसिष्ठ जी मन-ही-मन 
गाते हैं -
M“फँस गया मन सभ्यता 
के जंगलीपन बीच।“......
 “आ गई संवेदना/उस 
बिन्दु पर चल के
 बस, कथा के रह 
गए हैं
 पत्र पीपल के
 मूल्य 
सारे ज़िन्दगी के संग्रहालय 
चीज़।“ (पृ0 26)
संग्रहालय में पुरातात्विक 
वस्तुएँ रखी जाती हैं। 
सजावट-दिखावट के लिए। आजकल 
की विषमताग्रस्त समाज ने उदात्त 
मानवीय मूल्य सजावट के 
लिए बातों के संग्रहालय 
में रख दिए हैं। अर्थात् 
‘पर उपदेस कुशल बहुतेरे/ जे 
आचरहिं ते नर न घनेरे/‘ यही कारण 
है कि कथनी और करनी के अन्तर 
ने व्यक्तित्व खंडित कर दिया 
है। वह विकलांग हो गया है। उसके 
सामने एक नहीं कई-कई ‘प्रश्न 
चिह्न‘ खड़े हो गये हैं। परिणाम 
सामने यह है कि “हर दिन आ खड़ा 
हुआ/ मुँह बाए/ ले नया सवाल/ क्रिया 
निरत चर्या/ बिन क्रिया हुई/ 
क्षण-क्षण बेहाल/ थे रदीफ काफिया 
बा-अदब/ पर/ खिसक गये हाथों से/ 
सुरों के बहर।“ (पृ0 27) अब आप ही 
सोचिए कि बेसुरा व्यक्ति क्या 
गाएगा। कैसे गाएगा। यह है आज 
के महत्वाकांक्षी व्यक्ति 
की नियति। शायद इसी कारण गीतकार 
महसूसता है कि “गहमाऽगहम शहर 
और चुप कलम/साथ-साथ रोज़ सफ़र, 
वे-ताला-सम।“(पृ0 28)
बे-ताला-सम ने जिन्दगी 
को संगीत की लय से वंचित 
कर दिया है। गीत के नायक 
ने निराश हो कर मनोदशा इस 
प्रकार व्यक्त की है -
 “जन से 
होश सँभाला, तन से पाया कालापन
टलता रहा महज तारीखों में उजियार 
बदन।“(पृ0 31)
 यह ‘कालापन‘ चरित्रहीनता, 
मूल्य-विहीनता और काली कमाई 
का प्रतीक है, जो अपनी अलग समानान्तर 
व्यवस्था चला रहा है। गीतकार 
इतना निराश है कि उसे महसूस 
होता है कि
“स्याही ने
 हर सीढ़ी
 ऐसा रौव जमाया अपना
 सहमा छिपता 
सा फिरता है
 सूर्य उदय का सपना।“ 
लेकिन “तो भी, फाँक रोशनी थामें,  
तकता पागल मन।“ (पृ0 31) सवाल है 
कि ‘पागल मन‘ का सपना पूरा होगा? 
शायद नहीं। आजकल भ्रष्ट राजनीति 
ने अपरधीकरण का आश्रय सारे 
के सारे मानवीय मूल्य ध्वस्त 
कर दिए हैं। फिर भी लोक संघर्ष कर रहा है। जनशक्ति ही उकी मनोकामना 
पूरी कर सकती है। जनशक्ति के 
अभाव में हर व्यक्ति विभाजित 
जिन्दगी जी रहा है। अब प्रश्न 
यह है कि “किस तरह आखिर गुजारे  
ऋचा-सम्मत पल/ हर किसी ने, निरी 
कसकर, चढ़ा ली साँकल।“ (पृ0 34) यह 
है महानगरीय और नगरीय अजनबीपन, 
जो अपने व्यक्तित्व को परिसीमित 
करना श्रेयकर समझता है। वेदों 
की ऋचाएँ उसके लिए व्यर्थ हैं। 
साथ-साथ चलो। साथ-साथ बोलो। 
सब के मन को जानो। स्वाध्याय 
से प्रमाद मत करो। सत्य बोलो। 
सौ शरदों तक सूर्य देखो। महानगर 
में कितने प्रतिशत लोग नित्य 
सूर्योदय-सूर्यास्त आदि देखते 
हैं।
महानगरीय नगरीय 
कस्बाई और ग्रामीण व्यक्ति 
के सामने एक और समस्या खड़ी 
है। खालीपन। बेरोजगारी 
से जनमा हुआ। कर्म करना मानव 
का स्वभाव है। गुप्त जी 
ने लिखा है- “नर हो, न निराश करो 
मन को/कुछ काम करो/ जग में रह 
कर कुछ नाम करो।“ लेकिन गीतकार 
के सामने यह ज्वलंत प्रश्न 
है।
“कब तक यों जिएँ लिये खालीपन
और, दूर, माथे से रहे शिकन।“ (पृ0 35)
लेकिन ऐसा सम्भव नहीं हो पाता है। चिन्ता माथे पर शिकन लेकर आती है। समस्या यह भी है कि
“दिशाहीन चौराहे चौराहे चौराहे
जर्द हुए चेहरों पर/एक चमक मुस्काए
सच, कैसे मुस्काए
मिलती जब बर्फीली अग्नि-छुअन।“ (पृ0 35)
उद्धरण की अन्तिम पंक्ति में अन्तः विरोध है। ‘छुअन‘ बर्फीली भी है और अग्नि से युक्त भी। अर्थात् आक्रोश से माथा तप रहा है, लेकिन असहाय होने का अहसास उसे ‘बर्फीला‘ कर देता है।
‘कब तक झेलूँ लावा मन 
में‘ सोच कर कवि व्यवस्था की 
घातक वास्तविकता इस प्रकार 
उजागर करता है -पुर्जा, एक व्यवस्था 
का, बस/ माना/ जोड़ा और चलाया/ शब्दों 
की अमृत वाणी से/ भूखी पीढ़ी को 
वहलाया/ मृत्यु चीख तेरी आँगन 
में।“ (पृ0 36) यह सब सोच-सोच कर 
के गीतकार आक्रोश से भर कर प्रश्नों 
की झड़ी लगा देता है-
“लीक, लीकिया, कब तक कब 
तक?
कब तक पीड़ा, कब तक शोषण?
कब तक प्रतिभा कुण्ठित 
होगी?
कब तक मन मर्जी का 
दोहन?
होगा क्या अरण्य 
रोदन में?
ये ज्वलंत प्रश्न 
सहृदय पाठक/पाठिका को आज भी 
परेशान करते रहते हैं असंख्य 
प्रातिभ युवक-युवतियों की 
आधी उम्र अच्छी नौकरी 
की तलाश में बीत जाती है। 
सरकारें आती हैं। जाती 
हैं। लेकिन व्यवस्था नहीं 
बदलती है। प्रत्येक बड़ी 
कुर्सी स्वयं का बहुमल्य 
घोषित करके अपने को बेचने 
पर आमादा है। संविधान 
का उल्लंघन खुले आम हो रहा 
है।
डॉ0 वसिष्ठ ने गम्भीरता 
से महसूस किया है कि उन जैसे 
संवेदनशील जन ‘जड़धर्मा लोगो 
के बीच‘ में रह कर बेचैनी का 
अनुभव करते हैं। तभी तो गुनगुनाते 
हैं “मैं भी आ खड़ा हुआ आखिर को/जड़धर्मा 
लोगों के बीच।“ (पृ0 40) जड़धर्मा 
लोग लकीर के फकीर होते हैं। 
रूढ़ियों का अनुपालन अपना पवित्र 
धर्म समझते हैं। ऐसे लोग समाज 
की प्रगति में रोड़ा बन कर अड़े 
रहते हैं। परिणाम यह सामने 
आता है।
“गड्ढा है ज्यों का 
त्यों
कीचड़ भी ठीक वही
 क्या 
है फिर जिसको मैं रहा था उलीच? 
जड़धर्मा लोगों के बीच।“ (पृ0 
40) 
ऐसे लोग प्रतिक्रियावादी 
होते हैं। उन पर पुरातनता का 
निर्मोक चढ़ रहता है। वे समप्रदायवाद 
और जातिवाद से ग्रस्त होते 
हैं। साधारण जन तो ‘अपहरण भाईचारे 
का‘ समर्थन कदापि नहीं करते 
हैं। लेकिन जड़धर्मा लोग गणेश 
जी को दूध पिला कर शिशुओं को 
भूखा रख के अंधविश्वास को बढ़ावा 
देते हैं।
ऐसे जड़धर्मा जन ही 
क्रूर एवं शोषक व्यवस्था 
का समर्थन करते रहते हैं। यथास्थिति 
बनाए रखते हैं। यह देखकर संवेदनशील 
गीत कार का मन क्षोभ से भर जाता 
है। वह पूछता है - ‘यह व्यवस्था 
चक्र है य सानधर आरा। (पृ0 41) क्योंकि 
उसे अच्छी तरह मालूम है-“स्निग्ध 
फ़र्शों की इमारत/ रहन अति लकदक/ 
गुम्बदी सदनों गुँजाती/ नेतई 
बक-बक/दीन जीवन को लिखी, बस, कीच 
या गारा।“(पृ0 41)
‘नेतई बक-बक‘ 
और संसद में होने वाले हंगामें 
एवं हाथापाई से भारत का जन-गन-मन 
खूब परिचित हो गया है।
‘शुरू हुआ 
पहिया‘ में श्रमशील वर्ग की 
दैनिक क्रियाओं का आकर्षक वर्णन 
किया है- “सड़को पर निकल पड़ी घर 
से/ दिनचर्या रोज़ की/ एक अदद 
गठरी सिर पर लिये/ रोटी के बोझ 
की/चप्पू बिन आसमान नाप रही 
नैया। (पृ0 43)
वास्तविकता 
यह है कि जीवन के कर्तव्य 
श्रम से पूर्ण होते हैं। लेकिन 
इस विषमताग्रस्त समाज में 
सम्पन्न उच्च वर्ग और उसके 
साथ-साथ मध्य वर्ग भी निम्न 
वर्ग के अकूत श्रम का उपभोग 
करता है। वह पूँजी से सब 
कुछ खरीद सकता है। ऐसी 
व्यवस्था में धनवान् ही धन्य 
हैं और धन्यवाद का समुचित 
पात्र भी। अपना स्वार्थ 
साधने के लिए निम्न वर्गीय 
जन उच्च एवं मध्य वर्ग के 
सामने विनम्र रहते हैं। तभी 
तो गीतकार कहता है कि “स्वार्थमयी 
मिट्टी में उगते हैं/ आज के प्रणाम/ 
बिन लगाम मृग मरीचिकाओं के 
फन्दों में/ फँसे रहें कब तक 
हम अन्धो में?/ अर्थ के लिए होते 
सैकड़ो गुलाम/ सुबह-शाम।“ (पृ0 
48)
मध्य वर्ग 
की समस्या यह है कि वह स्वयं 
को निम्न वर्ग से दूर रहना 
चाहता है; लेकिन उच्च वर्ग 
से मधुर सम्बन्ध जोड़ने के लिए 
उसके पास रहना चाहता है और उच्च 
वर्ग तो मध्य वर्ग को हेय दृष्टि 
से देखता है। यही सब सोचकर सहृदय 
गीतकार प्रश्न पूछता है - “कब 
तक दिक्कालो से थर्राएँ/ आदेशों 
पर हरदम गुन गाएँ/ हिय उबाल ठण्डा 
वत हुआ बहुत आम/ बिना काम।“ (पृ0 
48)
गीतकार 
का प्रतिरोध सार्थक है, जो उसकी 
विवश मनोदशा की अभिव्यक्ति 
कर रहा है। लेकिन उसका प्रतिरोध 
पूरा तरह सफल नहीं हो पाता है, 
क्योंकि वह अचानक महसूस करता 
है-
“रेशमी सुझावों के घेरे 
में/ 
मेरा अपना मत काफूर हुआ/
 विद्रोही आसमान/ सिर्फ शून्य-सा 
हो कर/ 
जीवन नासूर हुआ/ एक आग 
खँडहर के शरण हुई/
 लपटों के शीश 
लगे कटने।“ (पृ0 50)
उद्धरण 
की अन्तिम पंक्ति ‘लपटों के 
शीश लगे कटने‘ भयावह बिम्ब 
प्रत्यक्ष कर रही है।
गीतकार वसिष्ठ अपने 
आस-पास के जनों का आचरण अवधानपूर्वक 
देख कर उनका स्वभाव समझने का 
प्रयास करते हैं। समाज में 
कुछ सज्जन ऐसे भी होते हैं, जो 
सम्पन्नों की प्रशंसा करके 
सुर्खियाँ बटोर लेते हैं। मंच 
के कवियों की मनोकामना होती 
है कि वे किसी तरह सुर्खियों 
में छाए रहें। इसीलिए वह लिखता 
है - “सुर्खियों के ही सहारे 
जो/ आकाश में बेवक्त हैं उछले/ 
गुम्बदी अस्तित्व के पोषक/ 
तनिक झोंके से बहुत दहले।“ 
(पृ0 60)
‘गुम्बदी अस्तित्व‘ 
जोरदार एवं दमदार आवाज सुन 
कर दहल जाता है। अपने अस्तित्व 
की रक्षा के लिए वह हमेशा चिन्तित 
रहता है। अतः उसका स्वभाव चाटुकारी 
हो जाता है। लेकिन नई पीढ़ी ऐसे 
चाटुकारों का प्रतिरोध प्रतिपल 
करती है। अतः गीतकार ने आगे 
ठीक लिखा है-“हर लहर प्रति निकट 
का ही काटती/ धुन्ध के टुकड़े 
महज़ है बाँटती/ धीर होता वो/ 
आलाप हो कर/ राग जल की ‘गूँज‘ 
को सह ले।“
यह है नई पीढ़ी और पुरानी 
पीढ़ी का वैचारिक द्वन्द्व, 
जो चाटुकारी पुरानी पीढ़ी को 
परास्त करता है। इसके लिए उसे 
प्रबल टकराहट की चोट झेलनी 
पड़ती है। प्रतिरोध के लिए तैयार 
रहना पड़ता है और त्याग के लिए 
भी। वास्तव में चाटुकारी जन 
‘मेघ नामधारी‘ तो होते हैं, 
लेकिन उनमें बरसने वाले भापकन 
नहीं होते हैं। तभी तो गीतकार 
ने गुनगुनाया है - “मेघ-नामधारी 
वे भापकन/ रहे भ्रम/ और हम प्यासे 
रहे/ जैसे रहे पहले/ सूखा पड़ी 
जमीन से, कौन, क्या, गह ले।“ “घूम 
कर हर ओर आए/ दरकता मन, शर्त क्यों 
सह ले।“ (पृ0 61) यह है गीतकार का 
प्रतिरोध, जो सतही दृष्टिकोण 
की उपेक्षा करता है।
आइए, अब संकलन के शीर्षक 
गीत ‘बना रह जख्म/ तू/ ताजा‘ 
पर विचार करें।
जिस ‘जख्म‘ 
का अनुभव गीतकार ने किया है, 
वह प्रत्येक संवेदनशील व्यक्ति 
प्रतिदिन महसूस करता है। व्यवस्था 
ने जो जख्म दिया है, वह इसलिए 
ताजा बना रहे कि जिससे प्रतिरोध 
का आग शान्त न हो जाए। दुष्यंत 
कुमार ने भी कहा है - “मेरे सीने 
में नही तो तेरे सीने में सही/ 
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी 
चाहिए।“ गीतकार सुभाष वसिष्ठ 
की भी अभिलाषा है कि
 “टूट कर 
गिर न जाएँ
सहीपन के बिन्दु 
आकाशी
महज़ कुछ वक्त के टुकड़े
न कर दें गन्ध को बासी
खुली 
आबादियों के मूल स्वर! छा जा।“(पृ0 
64)
‘खुली आबादियो के मूल 
स्वर‘ से आशय भारत की कोटि-कोटि 
निरन्न-निर्वस्त्र जन-गण से 
है, जो महानगरीय झुग्गी झोपड़ियों 
में निवास करते है। ‘ताजा जख्म‘ 
सदैव प्रेरित करता रहेगा कि 
इस त्रासद व्यवस्था को बदलने 
के लिए प्रयास करो। एक-जुट हो 
कर। संगठन बना कर। जनशक्ति 
पर भरोसा बनाए रखो। गीतकार 
ने यह अभिलाषा भी व्यक्त की 
है- “प्रतिबद्धित गीत नहीं 
टूटेंगे/ कितने ही ठीठ कदम बढ़ 
जाएँ/ काले काले अक्षर हाथ में 
लिये।“ (पृ0 53)
आजकल अधिकांश हिन्दी 
कविता गद्यात्मक होने के 
कारण नितान्त अपठनीय है। 
गिने-चुने कवि ही अपनी कविता 
को जीवन से जोड़ कर लयात्मक बनाने 
का प्रयास कर रहे हैं। दूसरी 
ओर परम्परागत तुकबन्दी भी कविता 
की गरिमा का क्षरण कर रही है। 
ऐसे माहौल में डॉ0 सुभाष वसिष्ठ 
ने धैर्य धारण करके अपने गीतों 
में कथ्य के अनुरूप कथन-भंगिमा 
अपनाई है। मुक्त लय का सधा प्रयोग 
किया है। प्रत्येक गीत के आवयविक 
गठन पर पूरा ध्यान केन्द्रित 
किया है। भाषिक संरचना में 
प्रतीकों के साथ-साथ आकर्षक 
एवं गतिशील बिम्बों का समावेश 
करके व्यक्ति की निजी व्यथा-कथा 
को सार्वजनिक रूप प्रदान किया 
है। संकलन के गीतों में डाल 
पर पके हुए बेल की मधुरता है। 
ताजा खिले गुलाबों की सुगंध 
है। अर्थ-गौरव की दृष्टि से 
संकलन एक बार नहीं अनेक बार 
पठनीय है। संकलित गीत सच्चे 
और अच्छे नवगीत हैं। अपनी अलग 
पहचान लिए हुए।
गीतकार को अच्छी 
तरह मालूम है कि वर्तमान 
अन्यायी व्यवस्था ने अँधेरों 
ने अनखुल जाल बाँधे हैं, 
लेकन उसे यह विश्वास भी है कि 
“टूट जाएँगे/ जिनसे/ इन्हें 
जो मिले काँधें हैं!/ बन्धु! 
अनखुल जाल बाँधे हैं!!“ (पृ0 62) 
इस के लिए वह यह सोचता है - “क्या 
करें (कि)/चटका हुआ मन/ फिर लबालब 
आस-भर गाए/ क्या करें(कि)/ लँगड़ा 
मुसाफिर/ लक्ष्य तक/ नित शक्ति-भर 
धाए/ शुरू जन कर दें सफर तो ध्येय 
ही हो अन्त।“(पृ0 57)
इस उद्धरण 
की अन्तिम पंक्ति में उत्तम 
पुरूष सर्वनाम ‘हम‘ समाहित 
है। ‘हम‘ उत्तम पुरूष इसलिए 
है कि वह अपने साथ सभी को ले 
कर चलता है। हम कह सकते हैं कि 
सुभाष वसिष्ठ ने अपनी निजी 
अनुभूतियों का साधारणीकरण 
किया है। यह रचनात्मक प्रयास 
श्लाघनीय है।
प्रसंगवश 
यहाँ एक और महत्त्वपूर्ण बात 
उल्लेखनीय है और वह यह है 
कि अन्य मध्यवर्गीय नवगीतकारों 
के समान सुभाष वसष्ठि के गीतों 
में न तो ग्रामीण परिवेश 
के प्रति मोह है और न ही 
पलायन की भावना। प्रमाण के 
लिए प्रख्यात गीतकार कैलाश 
गौतम के एक गीत की अधोलिखित 
पंक्तियों पर विचार कीजिए।
“गाँव गया था/ गाँव से 
भागा/ रामराज का हाल देख कर/ 
पंचायत की चाल देख कर/ आँगन की 
दीवाल देख कर/ सिर पर आती डाल 
देख कर/ नदी का पानी लाल देख 
कर/ और आँख में बाल देख कर।“
विचारणीय बात यह 
है कि अपने गाँव का शायद यथार्थ 
देख कर कवि ‘गाँव से भागा‘ क्यों? 
क्या वह रूक नहीं सकता था? गाँव 
की सूरत बदलने की योजना उसने 
क्यों नहीं बनाई। क्या जनशक्ति 
के प्रति उसकी आस्था में कमी 
थी। जनशक्ति संगठन के बल से 
असम्भव को सम्भव कर सकती है 
और आजकल जहाँ भी अन्याय, अनाचार, 
शोषण-उत्पीड़न है, वहाँ जनशक्ति 
सगठित हो रही है।
सुभाष वसिष्ठ 
ने नाटकों के माध्यम से जनशक्ति 
को जगाया है और शोषण का प्रखर 
प्रतिरोध गीतों के माध्यम 
से किया है। इस दृष्टि से 
उनके नवगीत अन्य गीतकारों 
से भिन्न हैं। वह ‘ओ पिता‘ 
शीर्षक गीत में अपना जुझारू 
व्यक्तित्व इस प्रकार व्यक्त 
करते हैं - “यह सही है/ पुत्र 
नामक खून का कतरा/ तुम्हारे 
हम/ पर, कहाँ यह सिद्ध होता/ खिड़कियों 
को बन्द कर/ जीतें रहें संभ्रम?/ओ 
पिता!/ तुमने सदा ही ऋचा बांची 
है मसीहों की/ और मेरी जिन्दगी 
व्यामोह हन्ता को रही मरती।“ 
(पृ0 55) यह ‘व्यामोह‘ क्रूर सत्ता 
के प्रति अवसरवादी लोग का ‘मोह‘ 
है जिसे कवि समाप्त करना चाहता 
है।
और अब यह 
बात सुनिश्चित है कि इस 
कुरूप् और क्रूर दुनिया को 
सुन्दर से सुन्दरतर और सुन्दरतम 
बनाने के लिए कोई मसीहा 
नहीं आएगा; बल्कि दुनिया दो 
बड़े वर्गों-श्रमिकों एवं कृषकों 
के त्यागी-तपस्वी एवं विवेकशील 
नेता ही संगठित लोक-शक्ति से 
लोकतन्त्र का कल्याणकारी रूप 
उजागर करेंगे।
यह संकलन 
पढ़ने-समझने के बाद हम यह 
कह सकते हैं कि गीतकार सुभाष 
वसिष्ठ ने वर्तमान क्रूर 
व्यवस्था का प्रतिरोध करके 
नवगीत की विधा को एक अभिनव 
आयाम प्रदान किया है। जो प्रभावपूर्ण 
कथ्य एवं कथन की नई भंगिमा 
ने भी गीतकार की अद्वितीय छवि 
प्रत्यक्ष की है।
संकलन का आवरण गीतों 
की अन्तर्वस्तु के अनुरूप 
है। त्रिआयामी आवरण पर 
ऊपरी भाग पर रोशनी के पास 
मामूली-सा दरवाजा है। मध्य 
भाग में पुरानी इमारत 
की दीवार के साथ गीतकार 
की वेदना संवलित गम्भीर छवि 
है। ऐसा आभास होता है कि 
वह चिन्ता और चिन्तन दोनों 
में मग्न है। और आवरण के 
निचले भाग महानगरीय कुतुबमीनारी 
इमारतें दिखाई पड़ रही 
हैं।






 
 
 
सुभाष वशिष्ठ का कलाकर्म पर अमीर चंद वैश्य का एक महत्वपूर्ण आलेख
जवाब देंहटाएंAameerchand jee bahut accha aalekh . Subash jee badhai .
जवाब देंहटाएंअमीर चंद वैश्य हिंदी के वरिष्ठ आलोचक हैं और गहन दृष्टी रखते हैं
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