अशोक कुमार पाण्डेय
मित्रों, पहली बार पर हमने 'वाचन-पुनर्वाचन' नाम से एक स्तम्भ शुरू किया था जिसमें एक कवि अपने समकालीन दूसरे कवि की कविताओं पर टिप्पणी करता है. इस श्रृंखला में आज की कड़ी में हमारे कवि हैं अशोक कुमार पाण्डेय. इनकी कविताओं पर आलोचनात्मक टिप्पणी की है चर्चित कवि और हमारे प्रिय मित्र अजेय ने.
अशोक कुमार
पाण्डेय हमारे समय के 
चर्चित युवा कवियों में से 
एक हैं. अपनी प्रयोगधर्मिता 
के दम पर अशोक ने अपनी एक मुकम्मिल 
पहचान बना ली है. अभी हाल 
ही में आया अशोक का कविता 
संग्रह 'लगभग अनामंत्रित' पर्याप्त 
चर्चा में रहा है. अशोक 'असुविधा' 
और 'जनपक्ष' नाम से दो लोकप्रिय 
ब्लॉग भी संचालित करते हैं. 
कल के लिए पत्रिका के अदम गोंडवी 
विशेषांक का सम्पादन कर अशोक 
ने अपनी सशक्त सम्पादन क्षमता 
का भी परिचय दिया है. यही नहीं 
कवियों के एक ख्यातनाम जमावड़े 
'कविता-समय' के प्रमुख आयोजक 
के रूप में भी इन्होने अपनी 
नेतृत्व क्षमता का परिचय दिया 
है.     
हर बार 
थोड़ा सा उन जैसा हो जाता हूँ 
अजेय  
हिन्दी पाठक के मन  
मे भारत नाम के इस देश का एक 
बना बनाया वायवी सा रूप है, जो 
इधर के लेखकों ने बड़े पैमाने 
पर तोड़ा है और उस का नया यथार्थ 
परक चेहरा सामने लाया है. नई 
पीढ़ी की कविता मे अशोक कुमार 
पाण्डेय एक ऐसा ही कवि है जो 
अपने रचना संघर्ष में देश के 
कोने अंतरों और खोह डूँगरों 
को खंगालने और उन का सच सामने 
लाने मे बहुत रमता है. आप देखेंगे 
कि उस की कविता मे दंतेवाड़ा 
से ले कर मणिपुर और काश्मीर 
तक का सच पूरी शिद्दत से आ रहा 
है. और इस वृहद भारत को देखने 
की उस की दृष्टि बाकियों से 
एकदम भिन्न और प्रेरक है. यह 
नायाब दृष्टि उस की इधर की कविताओं 
मे निरंतर व्यापक होती गई  है. 
उस का कवि ठीक उसी गहराई से अपने 
अन्दर भी झाँकता है. वह खुद को सतत 
आग मे परखता हुआ आदमी है जो सामने 
वाले को  भी उसी आग मे परखता है. 
और खरा न उतरने पर उसे  बहुत लाऊड 
तरीक़े से कोंचता है. उस का कवि 
ओढ़े हुए मूल्यों से मुक्त रहता 
है. इसी से सच को सच की तरह देख 
पाता है और अपने भीतर के खलनायक 
पर पैनी नज़र रख पाता है. उस ‘खल’ 
के अंश को वह अपने भीतर इस तरह 
से स्वीकार  करता है -- .      
“मैं एक बच्ची की ओर नेह भरी 
नज़र से देखता हूँ और वह डर जाती 
है
मैं एक बच्ची को गोद में 
लेना चाहता हूँ और वह डर 
जाती है
मैं एक बच्ची से नाम पूछता 
हूँ और वह डर जाती है
मेरा होना उसके जीवन में 
डर का होना है”  
इस कविता का 
यह अपराध बोध यद्यपि कवि का 
अपना नही है, सम्पूर्ण पुरुष 
जाति का है. बल्कि पुरुष एक तरह 
से यहाँ सत्ता केन्द्र का प्रतीक 
भी है और बच्ची वंचित समूहों 
का. सत्ता को इस तरह से शर्मिन्दा 
दिखाना बेशक कवि की विशफुल 
थिंकिंग है, फिर भी यह कवि की 
व्यक्तिगत इंटिग्रिटी को एक 
अलग ही ताक़त दे देता है. 
अशोक को मैं एक इंट्रोस्पेक्शन करता हुआ एक्स्ट्रोवर्ट कवि कहूँगा. 
मैं उस की सोच की ग्रेविटी और उस की ऊँचाई 
को कमज़ोर तबके के 
प्रति उसकी आत्मीयता के हिसाब 
से देखना चाहता हूँ -- जहाँ करुणा, ग्रेटिट्यूड, अभयदान की कोई 
मुद्रा नहीं, बस अपनेपन का 
भाव ही  प्रखर है. यह बहुत कम 
लोगों के पास है. अशोक हाशिये 
की दुनिया में बहुत अन्दर तक 
पहुँचता है.-- चाहे वह हाशिया 
वर्गगत हो, जातिगत हो लिंगगत 
हो या धर्मगत ही. इस कवि के अचेतन 
में बहुत गहरे में भी, बहुत भीतर 
भी मुझे हाशिये के प्रति बेचारगी 
और दया भाव का कोई स्वर नही सुनाई 
देता. यह मुझ जैसे पाठक के लिए 
अति सुखद है. यह अनूठी ताक़त है. 
जिसे कवि को अभी और भी नफासत 
से, और भी बेहतर ग्रूम करना है. 
 
बहुत से नारेबाज़ 
कवियों मे निर्वासित समूहों के 
प्रति यह ‘हितैषी” भावना महज़ 
ओढ़ी हुई है. अधिकतर जो लेखक मुख्य 
धारा का हिस्सा है, उनमे ओढ़ा पन बहुत 
जल्द दिखता है. कविता मे तो यह 
फाँक स्पष्ट पकड़ मे आ जाती है. 
और उस की धार जाती रहती है. उस 
मे जान नही आ पाती. वह बेजान 
और बेस्वाद नारा प्रतीत होने 
लगता है. और ऐसे बहुत से तथा 
कथित बड़े लेखक भी है. लेकिन अशोक 
और इस पीढ़ी के एकाध और लोग हैं 
जिन्हे मैं अपवाद कहूँगा. ये 
लोग न तो उन के घावों के लिए 
कोई मलहम ले के आते हैं और न 
ही किसी अचूक संजीवनी का फर्ज़ी 
दावा करते हैं. ये हाशिए के आदमी 
मे एक खुशफहम हीरोइज़्म पैदा 
कर के उन्हे भ्रमित भी नही कर 
रहे हैं. बस सच्चे मन से हाशिए 
का पक्ष लेना चाहते हैं.
अशोक अपनी इन 
कविताओं मे अलग अलग आवाज़ों 
मे बोल रहा है. हलफ नामा 
मे वह एक ऐसी मध्यवर्गीय युवा 
पीढ़ी की आवाज़ मे बोल रहा है जो 
प्रतिबद्धताओं और आदर्शों 
को ढोते ढोते टूट बिखर रही है 
और हार कर गलत सत्ता केन्द्रों 
मे शामिल हो जा रही है. अरण्यरोदन 
में अपनी आदिम प्रकृतिक सम्पदा 
से वंचित किए जा रहे आदिवासियों 
का स्वर पकड़्ने का प्रयास करता है, और प्रामाणिक 
तरीक़े से पकडता भी है. राष्ट्रभक्त 
का बयान में एक संकीर्ण 
हिन्दुत्ववादी के टोन मे बोलता 
है, हालाँकि यह पूरी कविता उस 
संकीर्णता पर ही व्यंग्य है.  कश्मीर वाली कविता 
मे वह वहाँ के आम आदमी की आवाज़ 
पकड़ लेता है. और कहता भी है – 
“हर बार थोड़ा सा उन जैसा हो जाता 
हूँ ...... ....”  जो मुझे बहुत प्रिय 
है. प्रेम कविताओं मे वह व्यक्ति 
अशोक कुमार की तरफ से बोलता 
है. तो अशोक मे मुझे अनेक कवि 
दिखते हैं . यह स्वर वैविध्य 
 सरसरी निगाह से यह उस की सीमा 
लग सकती है. क्यों कि इधर कवि 
से यह उम्मीद की जा रही है कि 
बहुत जल्द अपनी एक आवाज़ तय कर 
ले, जिस से उस को पहचाना जा सके. 
यह किसी भी नए कवि से नाजायज़ 
अपेक्षा है. यह उसे मोनोटनस 
और एकाँगी बना कर समय से पहले 
चुका देने  की साजिश है. मैं चाहूँगा 
कि तमाम नए कवियों मे यह रेंज 
बना रहे. अशोक इस रेंज को शिल्प 
के स्तर पर भी कायम रख पा रहा 
है. देखिये कैसे वह अरण्यरोदन 
मे नृत्य करती वनदेवी के पैरों 
के साथ लयबद्ध हो जाता है और हलफनामा 
मे कितनी सहजता से गद्यकविता 
के अन्दर नेरेशन की तकनीक  को 
साधता है ....... उसे सुघड चित्रात्मक 
बिम्बों से सजाते हुए. प्रेम 
की कविता करते हुए वह एक दम दैहिक 
और ऐन्द्रिक भंगिमा ले कर उस 
में डूब जाता है. मैं अशोक की 
अभी बहुत सारी  प्रेम कविताएं 
पढ़ना चाहूँगा. प्रेम का स्थायी 
भाव उस की कविता को अंत तक बचाए 
रखेगा. खुद अपने ही मुहाविरे 
को तोड़ता हुआ वह  प्रयोग और नवाचार 
का जोखिम उठाता है. यहाँ दी गई 
 कुछ कविताओं मे तुरत फुरत पहचान 
बनाने का लोभ त्याग कर यह कवि 
अपने लिए एक दीर्घकालिक स्कोप 
और स्पेस तय्यार करता नज़र आता 
है.    
अशोक के कवि 
की  सब से बड़ी बाधा है उसकी वाचालता 
. इसे मुखरता भी नहीं कह सकता. 
दर असल उस के पास उपमाएं, अलंकार 
और मुहाविरे बहुत हैं. और दूसरी 
तरफ आक्रोश भी अथाह है. शब्द 
उस के पास उफनते हुए आते हैं. कुछ 
इस तरह से कि कविता की व्यंजना 
पर कवि की वाक्पटुता हावी सी 
हो जाती है ... और पाठक कभी कभी 
सहम जाता है. यह उद्विग्नता इरोम के प्रति जो 
कविता है उस मे अपने चरम पर है.
 
आप देखेंगे 
कि कश्मीर वाली 
कविता मे यह आवेग थम गया है. अरण्य रोदन  में भी 
उस फोर्मेट मे निभ गया है बहुत 
ही शानदार तरीक़े से. हालाँकि 
ये लम्बी कविताएं हैं. और इधर 
कोशिश की है उसने काम्पेक्ट 
होने की. काश्मीर के संदर्भ 
में अशोक की  एक और कविता याद 
आ रही है. कश्मीर मे पत्थर बाज़ी 
का बिम्ब था उस मे. तब से ले कर 
‘कश्मीर जुलाई 2012’  तक बहुत फर्क़ देखा है 
मैने. हालाँकि कुछ तो कंटेंट 
के कारण ही है यह फर्क़ . फिर भी 
मैं मानता हूँ कि एक ग्रो करता 
हुआ कवि अपने विकसित  होते  हुए 
कथ्य के अनुसार शिल्प भी बदलता 
गढ़ता चलता है. यही उस की डायनामिज़्म 
होती है और यही उस की जीवंतता. 
[मैं कविता का 
गम्भीर आलोचक नही हूँ, 
इसे एक कवि पाठक की टिप्पणी 
ही समझा जाय. मैने वही विषय उठाए 
जो एक कवि के रूप मे खुद मैं 
पसन्द करता हूँ. जो ज़रूरी बातें 
मुझ से छूट गईं हैं, उन के लिए 
क्षमा चाहता हूँ .] 
अशोक 
कुमार पाण्डेय की कविताएँ 
 
अरण्यरोदन 
नहीं है यह चीत्कार 
(एक)
इस जंगल में एक 
मोर  था
आसमान से बादलों 
का संदेशा भी आ जाता
तो ऐसे झूम के नाचता
 
कि धरती के पेट में 
बल पड़ जाते
अंखुआने लगते 
खेत 
पेड़ों की कोख से 
फूटने लगते बौर 
और नदियों के सीने 
में ऐसे उठती हिलोर 
कि दूसरे घाट पर 
जानवरों को देख 
मुस्कुरा कर लौट 
जाता शेर 
एक मणि थी यहां
 
जब दिन भर की थकन 
के बाद 
दूर कहीं एकान्त 
में सुस्ता रहा होता सूरज 
तो ऐसे खिलकर जगमगाती  
वह 
कि रात-रात भर नाचती  
वनदेवी 
जान ही नहीं पाती
 
कि कौन टांक गया 
उसके जूड़े में वनफूल  
एक धुन थी वहां
 
थोड़े से शब्द 
और ढेर  सारा मौन 
उन्हीं से लिखे 
तमाम गीत थे 
हमारे गीतों की 
ही तरह 
थोड़ा नमक था उनमें  
दुख का 
सुख का थोड़ा महुआ
 
थोड़ी उम्मीदें 
थी- थोड़े सपने… 
झिंगा-ला-ला नहीं 
था वह 
जीवन था उनका बहता 
अविकल 
तेज़ पेड़ से रिसती  
ताड़ी की तरह… 
इतिहास की कोख से 
उपजी विपदायें थीं 
और उन्हें काटने  
के कुछ आदिम हथियार 
  समय की नदी छोड़ गयी थी वहां
तमाम अनगढ़ पत्थर,शैवाल 
और सीपियां… 
(दो) 
वहां बहुत तेज़ 
रोशनी थी 
इतनी कि पता ही 
नहीं चलता 
कि कब सूरज ने 
अपनी गैंती चाँद के हवाले की
 
और कब बेचारा चाँद 
अपने ही औज़ारों के बोझ  तले 
थक कर डूब गया 
  बहुत शोर था वहां
सारे दरवाज़े बंद
 
खिड़कियों पर 
शीशे 
रौशनदानों पर 
जालियां 
और किसी की श्वासगंध 
नहीं थी वहां 
बस मशीने थीं और 
उनमें उलझे लोग 
कुछ भी नहीं था 
ठहरा हुआ वहां 
अगर कोई दिखता भी 
था रुका हुआ 
तो बस इसलिये 
कि उसी गति से भाग 
रहा दर्शक भी… 
 गमलों में पेड़नुमा 
चीज़ जो 
छोटी वह पेड़ की 
सबसे छोटी टहनी से भी 
एक ही मुद्रा में  
नाचती कुछ लड़कियां अविराम 
और कुछ धुनें गणित 
के प्रमेय की तरह जो 
ख़त्म हो जाती 
थीं  सधते ही… 
न नींद का सपनों से
 
उम्मीद के समीकरण 
कविता में नहीं बहियों में हल 
होते 
शब्द यहां प्रवेश 
करते ही बदल देते मायने 
उनके उदार होते 
ही थम जाते मोरों के पांव 
वनदेवी का नृत्य  
बदल जाता तांडव में 
और सारे गीत चीत्कार  
में 
जब वे कहते थे 
विकास 
हमारी धरती के 
सीने पर कुछ और फफोले उग आते 
(तीन) 
हमें लगभग बीमारी 
थी ‘हमारा’ कहने की
अकेलेपन के ‘मैं’ को काटने का यही 
हमारा साझा हथियार
वैसे तो कितना वदतोव्याघात
कितना लंबा अंतराल 
इस ‘ह’ और ‘म’ में 
हमारी कहते हम उन फैक्ट्रियों कों
जिनके पुर्जों से 
छोटा हमारा कद 
उस सरकार को कहते ‘हमारी’ 
जिसके सामने लिलिपुट  
से भी बौना हमारा मत 
उस देश को भी 
जिसमे बस तब तक 
सुरक्षित सिर जब तक झुका हुआ
 
…और यहीं तक मेहदूद 
नहीं हमारी बीमारियां 
  किसी संक्रामक रोग की
तरह आते हमें स्वप्न
 
मोर न हमारी दीवार  
पर, न आंगन में 
लेकिन सपनों में  
नाचते रहते अविराम 
कहां-कहां की 
कर आते यात्रायें सपनों में  
ही… 
ठोकरों में लुढ़काते 
राजमुकुट और फिर 
चढ़ कर बैठ जाते 
सिंहासनों  पर… 
कभी उस तेज़ रौशनी  
में बैठ विशाल गोलमेज के चतुर्दिक
 
बनाते मणि हथियाने  
की योजनायें 
कभी उसी के रक्षार्थ 
थाम लेते कोई पाषाणयुगीन हथियार
 
कभी उन निरंतर 
नृत्यरत  बालाओं से करते जुगलबंदी
 
कभी वनदेवी के 
जूड़े  में टांक आते वनफूल… 
  हर उस जगह थे हमारे स्वप्न
जहां वर्जित हमारा  
प्रवेश! 
(चार) 
इतनी तेज़ रोशनी उस कमरे में
कि ज़रा सा कम 
होते ही 
चिंता का बवण्डर 
घिर आता चारो ओर 
कि चित्र के न होने 
पर 
लगतीं फैली हुई कफ़न 
सी आक्षितिज 
इतनी गति पैरों  
में 
कि ज़रा सा शिथिल 
हो जायें 
तो लगता धरती ने 
बंद  कर दिया घूमना 
विराम वहां मृत्यु 
थी 
धीरज अभिशाप 
संतोष मौत से भी 
अधिक भयावह 
तो तत्क्षण सजा  
दिये जाते उन पर नये चेहरे 
इतिहास से निकल 
आ  ही जाती अगर कोई धीमी सी धुन
 
तो तत्काल कर दी 
जाती घोषणा उसकी मृत्यु की 
इतिहास वहां एक 
वर्जित शब्द था 
भविष्य बस वर्तमान  
का विस्तार 
और वर्तमान प्रकाश 
की गति से भागता अंधकार… 
कि उन्हें अक्सर 
आना पड़ता था बाहर 
कि चौबीस मामूली 
घण्टों के लिये 
क्यूं लेती है 
धरती इतना लंबा समय? 
साल के उन महीनों 
के लिये बेहद चिंतित थे वे 
जब देर से उठता 
सूरज और जल्दी ही सो जाता… 
उनकी चिंता में  
शामिल थे जंगल 
कि जिनके लिये 
काफी बालकनी के गमले 
क्यूं घेर रखी है 
उन्होंने इतनी ज़मीन ? 
कि कैसे गिरा सकता 
है कोई इतने क़ीमती पंख  यूं ही
 
ऐसा भी क्या नाचना  
कि जिसके लिये ज़रूरी हो बरसात
 
शक़ तो यह भी था
 
कि हो न हो मिलीभगत  
इनकी बादलों से… 
और क्रोध इन सबके 
लिये ज़िम्मेदार मणि पर 
वही जड़ इस सारी 
फसाद की 
और वे सारे सीपी, शैवाल, पत्थर 
और पहाड़ 
रोक कर बैठे न जाने 
किन अशुभ स्मृतियों को 
वे धुनें बहती 
रहती जो प्रपात सी निरन्तर 
और वे गीत जिनमे  
शब्दों से ज़्यादा खामोशियां…
 
विगत के उच्छिष्टों 
से 
असुविधाजनक शक्लोसूरत  
वाले उन तमाम लोगों के लिये 
मनुष्य तो हो ही 
नहीं सकते थे वे उभयचर 
थोड़ी दया, थोड़ी 
घृणा और थोड़े संताप के साथ
 
आदिवासी कहते 
उन्हें … 
उनके हंसने के 
लिये नहीं कोई बिंब 
रोने के लिये शब्द 
एक पथरीला – अरण्यरोदन 
सूरज की नीम नंगी 
रोशनी में 
हज़ारों प्रकाशवर्ष 
की दूरियां तय कर 
गुज़र कर इतने 
पथरीले रास्तों से 
लांघ कर अनगिनत 
नदियां, जंगल, पहाड़ 
और समय के समंदर  
सात … 
जब-जब द्रोणगिरियों 
से ढ़ूंढ़ने निकले वे अपनी संजीवनी…
 
  
(पाँच ) 
अब ऐसा भी नहीं
कि बस स्वप्न ही 
देखते  रहे हम 
रात के किसी अनन्त  
विस्तार सा नहीं हमारा  अतीत
 
उजालों के कई सुनहरे 
पड़ाव इस लम्बी यात्रा में 
वर्जित प्रदेशों 
में  बिखरे पदचिन्ह तमाम 
हार और जीत के 
बीच  अनगिनत शामें धूसर 
निराशा के अखण्ड  
रेगिस्तानों में कविताओं  के 
नखलिस्तान तमाम 
तमाम सबक और हज़ार 
किस्से संघर्ष के 
उस अलिखित इतिहास 
में बहुत कुछ 
मोर, मणि और वनदेवी 
के अतिरिक्त 
इतिहास के आगे…बहुत 
आगे जाने की इच्छा 
इच्छा जंगलों 
से बाहर 
क्षितिज के इस 
पार से उस पार तक की यात्रा की
 
जो था उससे बहुत 
बेहतर की इच्छा… 
इच्छाओं के गहरे 
समंदर  में तैरना चाहते थे वे
 
पर उन्हें क़ैद 
कर दिया गया शोभागृहों के एक्वेरियम में
 
उड़ना चाहते थे 
आकाश में 
पर हर बार छीन ली 
गयी उनकी ज़मीन… 
और फिर सिर्फ़ 
ईंधन के लिये नहीं उठीं उनकी 
कुल्हाड़ियां 
हाँ … नहीं निकले 
जंगलों से बाहर छीनने किसी 
का राज्य 
किसी पर्वत की 
कोई  मणि नहीं सजाई अपने माथे 
पर 
शामिल नहीं हुए लोभ 
की किसी होड़ में 
किसी पुरस्कार 
की लालसा में नहीं गाये गीत 
इसीलिये नहीं 
शायद सतरंगा उनका इतिहास… 
राजपथों पर कहीं 
नहीं उनकी मूर्ति 
साबरमती के संत की 
चमत्कार कथाओं की 
पाद टिप्पणियों 
में  भी नहीं कोई बिरसा मुण्डा
 
किसी प्रातः स्मरण  
में ज़िक्र नहीं टट्या  भील का
 
जन्म शताब्दियों 
की सूची में नहीं शामिल कोई  सिधू-कान्हू
 
उनकी शिराओं में  
क़ैद हैं वो स्मृतियां 
उन गीतों के बीच  
जो ख़ामोशियां हैं 
उनमें पैबस्त 
हैं  इतिहास के वे रौशन किस्से
 
उनके हिस्से की 
विजय का अत्यल्प उल्लास 
और पराजय के अनन्त  
बियाबान… 
इतिहास है कि छोड़ता 
ही नहीं उनका पीछा 
बैताल की तरह फिर-फिर  
आ बैठता उन चोटिल पीठों  पर 
सदियों से भोग रहे  
एक असमाप्त विस्थापन ऐसे  ही 
उदास कदमों से 
थकन जैसे रक्त 
की तरह  बह रही शिराओं में
क्रोध जैसे स्वप्न 
की तरह होता जा रहा आंखों  से 
दूर 
कोई बिरसा भी लौट  
आता इनके साथ हर बार 
यहीं से बदलने लगती 
उनकी कुल्हाड़ियों की भाषा
 
यहीं से बदलने लगती 
उनके नृत्य की ताल 
गीत यहीं से बनने 
लगते हुंकार 
और नैराश्य के 
गहन अंधकार से निकल 
उन हुंकारों में 
मिलाता अपना अविनाशी स्वर 
यहीं से निकल पड़ता  
एक महायात्रा पर हर बार 
हमारी खंडित चेतना  
का स्वपनदर्शी पक्ष 
और अनजान गांवों 
के नाम बन जाते इतिहास के प्रतिआख्यान!
 
(छः) 
एक सलोने राजकुमार 
की स्वप्नसदी का पहला दशक 
इतिहासग्रस्त धर्मध्वजाधारियों 
की स्वप्नसदी का पहला दशक 
पहला दशक एक धुरी 
पर घूमते भूमण्डलीय गांव का
 
सबके पास हैं अपने-अपने 
हिस्से के स्वप्न 
स्वप्नों के प्राणांतक  
बोझ से कराहती सदी का पहला दशक
 
‘पहले जैसी नहीं 
रही दुनिया’ 
हर तरफ़ फैली हुई  
विभाजक रेखायें 
‘हमारे साथ या 
हमारे ख़िलाफ़’ 
युद्ध का उन्माद 
और बहाने  हज़ार 
इराक, इरान, लोकतंत्र 
या कि दंतेवाड़ा 
अपराधी वे 
जिनके हाथों में हथियार
अप्रासंगिक  
वे अब तक बची जिनकी कलमों  में धार
 
वे देशद्रोही 
इस शांतिकाल में उठेगी जिनकी आवाज़
 
कुचल दिए 
जायेंगे वे सब जो इन सामूहिक 
स्वप्नों के ख़िलाफ़ 
नुचे पंखों वाला 
उदास मोर बरसात में जा छिपता किसी 
ठूंठ की आड़  में 
फौज़ी छावनी में  
नाचती वनदेवी निर्वस्त्र 
खेत रौंदे हुए हत्यारे  
बूटों से 
पेड़ों पर नहीं 
फुनगी  एक 
नदियों में बहता 
रक्त लाल-लाल 
दोनों किनारों पर 
सड़ रही लाशें तमाम 
चारों तरफ़ हड्डियों 
के… खालों के सौदागरों का हुजूम
 
किसी तलहटी की 
ओट में डरा-सहमा चांद 
और एक अंधकार विकराल 
चारों ओर 
रह-रह कर गूंजतीं गोलियों  
की आवाज़ 
और कर्णभेदी चीत्कार
 
मणि उस जगमगाते कमरे 
के बीचोबीच सजी विशाल  गोलमेज 
पर 
चिल्ल पों, खींच 
तान ,शोर… ख़ूब शोर… हर ओर 
देखता चुपचाप 
दीवार पर टंगा मोर 
पौधा बालकनी का 
हिलता  प्रतिकार में… 
कश्मीर – 
जुलाई के कुछ दृश्य   
(१) 
पहाड़ों पर बर्फ 
के धब्बे बचे हैं 
ज़मीन पर लहू के
मैं पहाड़ों के करीब जाकर आने वाले मौसम की आहट सुनता हूँ
ज़मीन के सीने पर कान रखने की हिम्मत नहीं कर पाता
ज़मीन पर लहू के
मैं पहाड़ों के करीब जाकर आने वाले मौसम की आहट सुनता हूँ
ज़मीन के सीने पर कान रखने की हिम्मत नहीं कर पाता
(२) 
जिससे मिलता  हूँ हंस के मिलता है 
जिससे पूछता  हूँ हुलास कर 
बताता है खैरियत  
मैं मुस्कराता  
हूँ हर बार 
हर बार  थोड़ा और 
उन सा हो जाता हूँ  
(३) 
धान की हरियरी फसल जैसे 
सरयू किनारे अपने ही किसी खेत की 
मेढ़ पर बैठा हूँ 
हद-ए-निगाह तक चिनार ही 
चिनार जैसे चिनारों के सहारे टिकी 
हो धरती 
इतनी खूबसूरती 
कि जैसे किसी बहिष्कृत 
आदम चित्रकार की तस्वीरों में 
डाल दिए गए हों प्राण  
मैं उनसे मिलना चाहता था 
आशिक की तरह 
वे हर बार मिलते हैं  दुकानदार 
की तरह 
और अपनी हैरानियाँ लिए 
मैं इनके बीच गुजरता हूँ एक अजनबी की तरह
मैं इनके बीच गुजरता हूँ एक अजनबी की तरह
(४) 
ट्यूलिप के बागीचे में फूल  
नहीं हैं 
ट्यूलिप सी बच्चियों 
के चेहरों पर कसा है कफ़न 
सा पर्दा 
डरी आँखों और बोलते हाथो 
से अंदाजा लगाता हूँ चित्रलिखित 
सुंदरता का  
हमारी पहचान है घूंघट की 
तरह हमारे बीच 
वरना इतनी भी क्या मुश्किल  
थी दोस्ती में?  
(५) 
रोमन देवताओं सी सधी  
चाल चलती एक आकृति आती  है मेरी 
जानिब 
और मैं सहम कर पीछे हट 
जाता हूँ  
सिकंदर की तरह मदमस्त 
ये आकृतियाँ 
देख सकता था एक मुग्ध ईर्ष्या  
से अनवरत  
अगर न दिखाया होता तुमने  
टीवी पर इन्हें इतनी बार. 
(६) 
यह फलों के पकने का समय  
है 
हरियाए दरख्तों पर लटके 
हैं हरे सेब, अखरोट  
खुबानियों में खटरस 
भर रहा  है धीरे-धीरे  
और कितने दिन रहेगा  उनका 
यह ठौर 
पक जाएँ तो जाना ही होगा 
कहीं और 
क्या फर्क पड़ता है – 
दिल्ली हो या लाहौर! 
  
(७) 
देवदार खड़े है पंक्तिबद्ध 
जैसे सेना हो अश्वस्थामाओं 
की 
और उनके बीच प्रजाति  
एक निर्वासित मनुष्यों की  
‘कहीं आग लग गयी, कहीं 
गोली चल गयी’
जहाँ आग लगी वह उनका घर 
नहीं था 
जहाँ गोली चली वह उनका 
गाँव नहीं था 
पर वे थे हर उस जगह  
उनके बूटों की आहट थी 
खौफ पैदा करती हुई 
उनके चेहरे की मायूसी 
थी करुणा उपजाती  
उनके हाथों में मौत  का 
सामान है 
होठों पर श्मशानी चुप्पियाँ 
 
इन सपनीली वादियों में एक खलल की तरह है उनका होना
उन गाँवों की ज़िंदगी 
में  एक खलल की तरह है उनका न  होना 
 
(८)
(श्रीनगर-पहलगाम  
मार्ग पर पुलवामा जिले  के अवंतीपुर मंदिर के  
खंडहरों के पास)   
आठवीं सदी सांस लेती 
है इन खंडहरों में 
झेलम आहिस्ता गुजरती 
है किनारों से जैसे पूछती  हुई 
कुशल-क्षेम 
जमींदोज दरख्तों की 
बौनी आड़ में सुस्ता रही है एक 
राइफल 
और ठीक सामने से गुजर 
जाती है भक्तों की टोलियाँ  
धूल उड़ातीं 
ये यात्रा के दिन हैं 
हर किसी को जल्दी बालटाल 
पहुँचने की 
तीर्थयात्रा है यह या 
विश्वविजय  पर निकले सैनिकों का 
अभियान? 
तुम्हारे दरवाजे पर 
कोई नहीं रुकेगा अवंतीश्वर
भग्न देवालयों में नहीं 
जलाता कोई दीप 
मैं एक नास्तिक झुकता हूँ  
तुम्हारे सामने – श्रद्धांजलि 
में  
(९) 
पहाड़ों पर चिनार हैं  
या कि चिनारों के पहाड़ 
और धरती पर हरियाली की 
ऐसी मखमल कि जैसे किसी कारीगर 
ने बुनी हो कालीन
घाटियों में फूल 
जैसे किसी कश्मीरी पेंटिंग 
की फुलकारियाँ  
बर्फ की तलाश में कहाँ-कहाँ 
से आये हैं यहाँ लोग 
हम भी अपनी उत्कंठायें 
लिए  पूछते जाते हैं सवाल रास्ते 
भर  
जनवरी में छः-छः 
फीट तक जम जाती है बर्फ साहब 
तब सिर्फ विदेशी आते हैं  दो चार 
फिरन के भीतर 
भी जैसे जम जाता है लहू 
पत्थर गर्म 
करते हैं  सारे दिन और गुसल में पानी 
फिर भी नहीं होता गर्म
समोवार पर उबलता  
रहता है कहवा...अरे हमारे  वाले 
में नहीं होता साहब बादाम-वादाम 
इस साल बहुत टूरिस्ट  
आये साहब, कश्मीर गुलजार हो 
गया 
अब इधर कोई पंगा 
नहीं एकदम शान्ति है 
घोड़े वाले बहुत 
लूटते हैं, इधर के लोग  को बिजनेस 
नहीं आता 
पर क्या करें 
साहब! बिजनेस तो बस छह महीने का 
है 
और घोड़े को पूरे 
बारह महीने चारा लगता है
आप पैदल जाइयेगा  
रास्ता मैं बता दूंगा  सीधे गंडोले 
पर 
ऊपर है अभी थोड़ी 
सी बर्फ....   
अनगिनत पैरों के निशान, 
धूल और गर्द से सनी मटमैली बर्फ 
मैं डरता हूँ इसमें पाँव 
धरते और आहिस्ता से महसूसता  
हूँ उसे 
जहाँ जगहें हैं खाली 
वहाँ अपनी कल्पना से भरता हूँ  
बर्फ 
जहाँ छावनी है वहाँ जलती 
आग पर रख देता हूँ एक समोवार 
गूजरों की झोपडी में 
थोड़ा धान रख आता हूँ और लौटता 
हूँ नुनचा की केतली लिए 
मैं लौटूंगा तो मेरी 
आँखों  में देखना 
तुम्हें गुलमर्ग के 
पहाड़ दिखाई देंगे 
जनवरी की बर्फ की आगोश 
में  अलसाए   
(१०)
यहाँ कोई नहीं 
आता साहब 
बाबा से सुने 
थे किस्से इनके 
किसी भी गाँव 
में  जाओ जो काम है सब इनका किया 
फारुख साहब 
तो बस दिल्ली में रहे या लन्दन  
में 
उमर तो बच्चा है 
अभी दिल्ली से पूछ के करता है 
जो भी करता है 
आप देखना गांदेरबल 
में भी क्या हाल है सडक  का.. 
डल के प्रशांत जल के किनारे 
संगीन के साये में देखता  
हूँ शेख साहब की मजार 
चिनार के पेड़ों की 
छाँव में मुस्कराती उनकी 
तस्वीर  
साथ में एक और कब्र है  
कोई नहीं बताता पर जानता  
हूँ 
पत्नियों की कब्र भी 
होती है पतियों से छोटी   
(११) 
तीन साल हो गए 
साहब 
इन्हें अब भी 
इंतज़ार है अपने लड़के का 
उस दिन आर्मी  
आई थी गाँव में 
सोलह लाशें मिलीं  
पर उनमें इनका लड़का नहीं था 
जिनकी लाशें नहीं 
मिलतीं उनका कोई पता नहीं मिलता कहीं 
 
इस साल बहुत टूरिस्ट  
आये साहब 
गुलजार हो गया  
कश्मीर फिर से 
बस वे लड़के भी 
चले  आते तो.... 
(१२) 
गुलमर्ग जायेंगे  
तो गुजरेंगे पुराने श्रीनगर  
से 
वहीं एक गली में  
घर था हमारा 
सेब का कोई 
बागान नहीं, न कारखाने लकडियों 
के 
एक दुकान थी किराने 
की और  
दालान में कुछ  
पेड़ थे अखरोट के 
तिरछी छतों 
के सहारे  लटके कुछ फूलों के डलिए
एक देवदारी था 
मेरे कमरे के ठीक सामने 
सर्दियों में  
बर्फ से ढक जाता तो किसी देवता  
सरीखा लगता 
हजरतबल की अजान 
से नींद खुलती थी 
अब शायद कोई और 
रहता है वहाँ ... 
वहाँ जाइए तो 
वाजवान ज़रूर चखियेगा...
गोश्ताबा तो 
कहीं नहीं मिलता मुग़ल दरबार  
जैसा
डलगेट रोड से 
दिखता  है शंकराचार्य का मंदिर...
थोड़ा दूर है चरारे  
शरीफ ..
पर न अब अखरोट  
की लकडियों की वह इमारत  रही न खानकाह 
कितना कुछ बिखर 
गया एहसास भी नहीं होगा आपको 
हम ही नहीं हुए  
उस हरूद में अपनी शाखों  से अलग...
 
मैं तुम्हें याद करता 
हूँ  प्रांजना भट्ट हजरतबल के 
ठीक  सामने खड़ा होकर 
रूमी दरवाजे पर खड़ा हो 
देखता हूँ तुम्हारा विश्वविद्यालय 
डल के किनारे खड़ा बेशुमार  
चेहरों के बीच तलाशता हूँ  तुम्हारा 
चेहरा  
चिनार का एक जर्द पत्ता रख 
लिया है तुम्हारे लिए निशानी 
की तरह ... 
(१३)  
जुगनुओं की तरह चमचमाते  
हैं डल के आसमान पर शिकारे 
रंगीन फव्वारों से जैसे 
निकलते है सितारे इतराते हुए 
सो रहे है फूल लिली के 
दिन भर की हवाखोरी के बाद 
अलसा रहा है धीरे-धीरे 
तैरता बाजार 
और डल गेट रोड पर इतनी 
रौनक कि जन्नत में जश्न हो जैसे 
अठखेलियाँ रौशनी की, 
खुशबुओं  की चिमगोइयां  
खिलखिलाता हुस्न, जवानियाँ, 
रंगीनियाँ... 
बनी रहे यह रौनक जब तक 
डल में जीवन है 
बनी रहे यह रौनक जब तक 
देवदार पर है हरीतिमा 
हर चूल्हे में आग रहे  
और आग लगे बंदूकों  को
एक राष्ट्रभक्त 
का बयान  
कोई नहीं रह सकता भूखा 
बारह साल तक 
पक्के तौर पर अफवाह है 
यह कि एक औरत बारह साल से भूखी 
है 
ऐसे में यह ज्यादा विश्वसनीय है 
कि वह औरत  मर चुकी है 
कोई ग्यारह 
साल और तीन सौ दिन पहले 
आप चाहिए  तो देख लीजिए गिनीज बुक 
आफ वर्ड रिकार्ड 
उसमें कहीं नहीं है उसका 
नाम 
और अगर है तो फिर उसे भूखे 
रहने की क्या ज़रूरत?  
जो औरतें  कपड़े उतार 
कर प्रदर्शन कर रही थीं कहाँ 
है उनकी तस्वीर ?
अरे इस तस्वीर में तो 
कुछ नहीं दिखता  साफ़-साफ़ 
एक ही कपड़े  से सबने ढँक ली 
है अपनी देह 
कोई खास एक्साइटिंग 
नहीं है यह तो  
हाँ उस कपड़े  पर जो लोगो 
लगा है वह मजेदार है 
‘इन्डियन आर्मी 
रेप अस’ ... कूल!
ये चिंकी  होते ही हैं निम्फोमैनिक....;)  
सेना के खिलाफ  कैसे लिख सकता 
है कोई ऐसा?
वे बार्डर पर हैं तो चैन से 
सो रहे हैं  हम 
जो बार्डर पर हैं और सेना 
में नहीं हैं  वे कैसे हो सकते 
हैं सेना से अधिक ज़रूरी 
जिन्हें मारती  है सेना 
वे दुश्मन होते हैं  देश के 
और देश के दुश्मन खाएं 
या मर जाएँ भूखे क्या फर्क पडता 
है?  
ये नाक में  नलियाँ 
डाले सरकारी पैसे पर मुस्कुरा 
रही है जो लड़की 
वह हो ही नहीं 
सकती इस देश की नागरिक 
बहुत सारे काम  हैं इस 
सरकार के पास 
यह कम है कि उसके गाँव 
तक जाती है सड़क
एक प्राइमरी स्कूल है 
सरकारी 
और हमारे  जवान दिन रात लगे रहते 
हैं उनकी सुरक्षा में 
और कौन सी आजादी चाहिए उन्हें 
और कौन सी सुरक्षा
भारत माँ  की सुरक्षा में ही 
है सबकी सुरक्षा
जिन्हें दिक्कत हो चले जाएँ 
पाकिस्तान... 
आप कैसे कर सकते 
हैं उसकी तुलना अन्ना  से ?
सिर्फ भूखे रहने से कोई गाँधी हो 
जाता है क्या?
किस अख़बार में  है उसकी 
खबर?
किस चैनल पर देखा उसे लाइव?
मैं तो कहता हूँ  झूठ है 
यह सब
हो न हो कोई  विदेशी षडयंत्र हमारे देश  
के खिलाफ
पाकिस्तानी  दुष्प्रचार 
या चीनी विस्तारवाद की कोई चाल 
 
और मान लीजिए  सच भी है 
तो बड़े-बड़े देशों में होती 
रहती हैं ऎसी घटनाएँ छोटी-मोटी 
 
छोड़िये यह सब...आइये 
मिलकर लगाते हैं एक बार  भारत 
माता का जयकारा 
फिर शेरांवाली  का...पहाडावाली का...जय 
हनुमान...जय श्री राम!  
तुम कहाँ होगी इस वक़्त?
क्षितिज के उस ओर अपूर्ण 
स्वप्नों की एक बस्ती है 
जहां तारें झिलमिलाते  
रहते हैं आठों पहर 
और चंद्रमा अपनी घायल 
देह लिए भटकता रहता है 
तुम्हारी तलाश में हज़ार 
बरस भटका हूँ वहाँ 
नक्षत्रों के पाँवों 
से चलता हुआ अनवरत  
इतने बरस हो गए चेहरा  
बदल गया होगा तुम्हारा 
उम्र के ही नहीं सफ़र 
के भी कितने निशाँ मेरे धब्बेदार 
चेहरे में भी  
मैं तुम्हारे आंसुओं 
का स्वाद  जानता हूँ और पसीने की 
गंध 
तुम्हें याद है अपने 
चुम्बनों की खुशबू? 
एक टूटा हुआ बाल ठहरा 
हुआ है मेरे कन्धों पर 
अब भी उतना ही गहरा, उतना 
ही चमकदार 
टूटी हुई चीजों के रंग  
ठहर जाते हैं अक्सर ... 
तुमने विश्वास किया 
मेरी वाचालता पर 
और मैं तुम्हारे मौन  
की बांह थामे चलता रहा 
भटकना नियति थी हमारी और 
चयन भी 
जिन्हें जीवन की राहें पता  
हों ठीक-ठीक 
उन्हें प्रेम की कोई  
राह पता नहीं होती  
तुम्हें याद है वह शाल  
वृक्ष 
उखड़ती साँसें संभाले 
अषाढ़  की एक शाम रुके थे हम जहाँ
मैंने उसकी खाल पर पढ़ा  
है तुम्हारा नाम 
अंतराल का सारा विष सोख  
लिया है उसने 
और वह अब तक हरा है  
स्मृति एक पुल है हमारे  
बीच 
हमारे कदमों की आवृति के 
ठीक बराबर थी जिसकी आवृति 
मैं यहीं बैठ गया हूँ  
थककर तुम चल सको तो आओ चल के इस 
पार 
क्या अब भी उतनी ही है 
तुम्हारे पैरों की आवृति?
| 
क्या आश्चर्य 
  कि भूख और शर्म दोनों स्त्रीलिंगी 
  हैं? | 
E-mail ; ajeyaklg@gmail.com
मोबाईल: 09418063644

 
 
 
इरोम शर्मिला पर लिखी अभिव्यक्ति धारदार है.......निसंदेह अतिसुन्दर.......
जवाब देंहटाएंअशोक की कविताएँ उसको देखने की कोशिश करती हैं जिसे अक्सर अनदेखा किया जाता है,
जवाब देंहटाएंयह कैसा दौर है , जिसमे दुनिया जहान की चिंता करने वाला कवि अपने आपको 'लगभग अनामंत्रित' घोषित करने पर बाध्य हो जाता है , जबकि उसे 'सर्वदा आमंत्रित' होना चाहिए था | 'इरोम' से लेकर 'कश्मीर' जैसे संवेदनशील विषयों को कविता में बयां करता हुआ यह युवा स्वर हमारे समय के चेहरे को इतिहास में बचा रहा है , हलाकि इन विषयों पर इस दौर में चुप्पी ओढने की हिदायत मिली हुयी है ...| तो इस साहस के लिए अशोक जी को बधाई | और हां ..अजेय जी की टिप्पड़ी और 'पहली बार' का यह प्रयास भी सराहनीय कहा जाएगा ...|सो बधाई उन्हें भी ...|
जवाब देंहटाएंअजेय जी का लेख अशोक की कविता के टेक्स्ट को बहुत ही बड़ें रेंज में देखने के साथ भाषा का नया रचाव कर रहा है ...इसमें सिर्फ लिखना है के चलताऊपन से अलग ढंग से कविता को समझने की बात है . इसे पढ़ते वक्त कोइ बोझिल महसूस नहीं कर सकता ..
जवाब देंहटाएंऔर अशोक तीव्र भाव व्यजना के कवि हैं,प्रवण हैं . उनका काव्य संसार व्यापक भूगोल में तैरता है . हर तरह से आदमी का इंसा बनाने के प्रयास में उनकी संवेदना अंदर -बाहर के घिन्नीदार चक्कर काटती है . जो भी बाधाएं हैं , जो भी शोषक तत्व हैं , . सत्ता शक्ति के छदम को, उसके उस प्रसारित रूप को, जो हाशिये के लोगो का जीवन नरक बनाए है ...अपनी शब्द शक्ति के द्वारा तार-तार कर दे ....
अच्छा उपक्रम है। बधाई।
जवाब देंहटाएंअशोक की सभी कविताएं पूरे मनोयोग से पढ़ीं। पहली कविता बस्तर के आदिवासियों की त्रासदी और उनकी जिजीविषा को बेहतरीन ढंग से व्यक्त करती है, तो दूसरी कविता आम कश्मीरी के उस दुख-दर्द को जो बाकी हिन्दुस्तान तक बहुत कम पहुंचता हे। इरोम के संघर्ष पर रची कविता का व्यंग्य इतना गहरा है कि पढकर चित्त में हलचल-सी मचने लगती है, ऐसे देशभक्तों के बयान सच में इस देश की क्या दशा बना देना चाहते हैं, देखकर हैरत होती है। बेहद खूबसूरत और असरदार कविताएं। अशोक को बधाई।
जवाब देंहटाएंतथाकथित गंभीर आलोचकों की स्थापनाओं और निकषों का अकेडमिक स्तर पर ही महत्त्व मैं महसूस करता रहा हूँ, इसका एक जायज कारण मेरे पास यह रहा है कि रचनाकार जिस भाव दशा और तनाव को रचना लिखते हुए जीता है, उसका अंदाज़ा भी शायद उक्त महापुरुषों (इस शब्द के लिए स्त्रीलिंग कोई अन्य शब्द बन गया हो तो कृपया उसे भी शामिल कर लिया जाये ) के लिए मुश्किल है, इसके बरक्स सहधर्मी रचनाकार द्वारा की गई एक छोटी सी टिप्पड़ी (हिंदी टाइपिंग की चूकों के लिए माफ़ किया जाय) भी मुझे ज्यादा महत्त्वपूर्ण लगती है, इस अर्थ में अजेय जी द्वारा लिखा गया यह विधिवत आलेख अशोक कुमार पाण्डेय की रचनाधर्मिता को समझने का सृजनधर्मी आयोजन है।
जवाब देंहटाएं"लगभग अनामंत्रित " कविता संग्रह की कविताओं ने देशज सम्वेदनों पर हो रहे विविध वैश्विक हमलों का ख़ाका तैयार किया है , न सिर्फ 'सतर्क भावुकता' की लोकवादी भाव स्थितियाँ उपस्थित कर, बल्कि उनके अंतर्सूत्रों में विन्यस्त कार्य -कारण सम्बन्धों की पड़ताल करते हुए भी; यह प्रतिरोधक शक्ति को प्राप्त करने का तार्किक तरीका भी है। यही इस जुझारू कवि की आवेशित प्रतिबद्धता और जवाबदेही को संयमित करने का माध्यम है जिसे अशोक कुमार पाण्डेय ने जीवन संघर्षों से अर्जित किया है। इरोम पर लिखी गई कविता हो या माँ की डिग्रियां जैसी कविता, दोनों में ही एक आत्मीय कारुणिकता दर्ज है और यह भी कि हमारा दायितत्व क्या था, हमने किया क्या। कश्मीर पर लिखी कविता हो या आदिवासियों पर लिखी कविता "अरण्यरोदन नहीं है यह चीत्कार" इसी देश के सबसे सुंदर कहे जाने वाले भूभागों पर चल रहे राजनैतिक षड्यंत्रों और भ्रष्टाचार का महाख्यान है। जो लोग कहते हैं कि नई पीढ़ी राजनैतिक नहीं है, दरअसल वे चालू मुहावरों और नारे जैसे वक्तव्यों के सहारे 'कविता में राजनीति' खोजने के आदी हो गए हैं, उन्हें यह कवितायेँ पढनी चाहिए। अशोक की कवितायेँ गम्भीर विषयों और चिंताओं को बहुत सलीके से रचती हैं और उनसे जीवनधर्मी रचनात्मक निष्कर्ष प्राप्त करने की कोशिश करती हैं.
अजेय अशोक का मणि कांचन योग हो रहा है यहां
जवाब देंहटाएंइतना अच्छा लगा ये पढ़कर की बयान करना मुश्किल है..
जवाब देंहटाएंतहे-दिल से मेरी बधाइयाँ...प्रांजल धर
आप सबका बहुत आभार दोस्तों...कहूं तो क्या कहूं? बस सर झुकाता हूँ.
जवाब देंहटाएंअजेय...आपने एक बहिष्कृत कवि के भीतर झाँकने का गुनाह-ए-अजीम किया है..सज़ा मिलेगी..बरोब्बर मिलेगी :)
संतोष भाई यह कालम कई मुझ जैसों के लिए ताकत देने वाला होगा...इसे ज़ारी रखें. मेरा साथ तो कोई कहने वाली बात ही नहीं है. बस एक सुधार. अदम अंक का संपादन मैंने नहीं आदरणीय श्री जय नारायण बुधवार जी ने किया था. मेरा नाम लगभग गलती से कार्यकारी सम्पादक के रूप में चला गया था. उस अंक का सारा 'श्रेय' सिर्फ और सिर्फ आदरणीय श्री बुधवार जी का है
भाई, अब ................ मूसलों से क्या डरना . स्वागत है उन बेचारों का . मेरी पराजय सिद्ध करेगी कि साहित्य मे भी माफिया राज है . और मैं अपने खिलाफ जारी उस फतवे के सब से नीचे लिख दूँगा "इति सिद्धम" QED ;)
हटाएंअशोक की कविताएँ
जवाब देंहटाएंजीवन के शोक को
अभिव्यक्त करते हुए
जीवंतता के नए
तेवर से जोड़ती हैं ।
अजेय भाई की टिपण्णी के साथ कविताओं को पढ़ने का मजा दुगना हो गया.
जवाब देंहटाएंअशोक जी की कविताएँ,अजेय भाई की टिपण्णी और संतोष भाई का कविता चयन। अच्छी त्रिवेणी । बधाई।
जवाब देंहटाएंParipakav aur sashakat kavitain. Ashok jee kashmir par likhi aapkee kavitaon par baat honee chahie. - kamal jeet choudhary ( j and k )
जवाब देंहटाएं