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उपांशु की कविताएँ

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  उपांशु हम मनुष्य हैं, इस पृथिवी क्या इस ब्रह्माण्ड के सबसे समझदार और इसीलिए सबसे शक्तिशाली जीव। अपनी सुविधा के अनुसार ही इस दुनिया को देखते समझते ही नहीं, व्याख्यायित भी करते हैं। यह जानते हुए भी कि जीवन के लिए पेड़ पौधे जरूरी हैं, अंधाधुंध उन्हें काटते जा रहे हैं। यानी अपने पांवों पर कुल्हाड़ी चलाने में भी कोई संकोच नहीं करते। कई बार हम खुद को मनुष्य कहते हुए भी निर्ममता की सारी सीमाएं लांघ जाते हैं। इस क्रम में मनुष्यता शर्मसार होती है। ऐसे में मनुष्य को मनुष्य कहने में भी संकोच होता है। युवा कवि उपांशु अपनी कविता में बेबाकी बल्कि तल्ख स्वर में लिखते हैं : 'कुछ लोग हैं जिन्हें किसी भी तरह का पशु कहना उस पशु का अपमान होगा/ कुछ लोग हैं जिन्हें लोग कहना लोक का तिरस्कार होगा/  मानव से बड़ा कुकर्मी शायद ही धरती पर जना गया हो/ और इतने कर्म कुकर्म धर्म अधर्म के पाठ भी शायद ही कोई पढ़ाता हो'। इस कवि की भाषा कुछ अलग तरह की यानी टटकी भाषा है। उपांशु की कविताएं हमें उनके कवि मित्र अंचित ने उपलब्ध कराई हैं। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं उपांशु की कुछ...

राकेश मिश्र की कुम्भ पर कुछ कविताएं

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   राकेश मिश्र  इलाहाबाद में संगम तट पर प्रत्येक वर्ष एक महीने तक कल्पवास किए जाने की धार्मिक परंपरा रही है। इसी क्रम में हर छठवें वर्ष अर्द्धकुंभ और हर बारहवें वर्ष महाकुम्भ का यहां पर आयोजन किया जाता है। हरेक कल्पवासी से उस सात्विकता की अपेक्षा की जाती है, जिसे हम मनुष्यता कहते हैं। सुने को तो अनसुना किया जा सकता है लेकिन देखे की अनदेखी कर पाना या उसे झुठला पाना मुश्किल होता है। महादेवी वर्मा ने कल्पवास करते हुए इस प्रक्रिया को महसूस किया और उस पर अद्भुत संस्मरण लिखा। कवि त्रिलोचन ने 1954 के महाकुम्भ को देखा और जिया ही नहीं बल्कि उसको आधार बना कर छब्बीस कालजई सोनेट्स लिखे। इसी परम्परा में कवि राकेश मिश्र ने कल्पवास करते हुए 2025 के महाकुम्भ पर कुछ कविताएं लिखीं हैं। ये कविताएं इस महाकुम्भ को देखने समझने के लिए आईना हो सकती हैं। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं राकेश मिश्र की महाकुम्भ पर कुछ कविताएं। राकेश मिश्र की महाकुम्भ पर कुछ कविताएं  भगदड़ कुम्भ की भीड़ में था मैं  हर कोई था वहाँ  भीड़ में  कसता जाता था  देहों का घनत्व...

राजेन्द्र शर्मा की रपट 'बाँसुरी सम्राट की ज़िद्द के समक्ष नतमस्तक महंत जी'

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  वाराणसी सांस्कृतिक विविधताओं का शहर है। वर्ष भर यहां कोई न कोई सांस्कृतिक आयोजन होता ही रहता है। इसी क्रम में संकट मोचन संगीत समारोह का नाम लिया जा सकता है जो वाराणसी में संकट मोचन हनुमान मंदिर में आयोजित एक वार्षिक संगीत समारोह में प्रतिवर्ष आयोजित किया जाता है। संकट मोचन संगीत समारोह का आयोजन 1923 से अनवरत होता आ रहा है। इस आयोजन में गायन वादन से जुड़े राष्ट्रीय एवम अंतरराष्ट्रीय स्तर के उत्कृष्ट कलाकार भारतीय शास्त्रीय संगीत और नृत्य में अपना प्रदर्शन प्रस्तुत करते हैं। इस वर्ष यह आयोजन 16 अप्रैल से 21 अप्रैल 2025 तक आयोजित किया गया। इस बार के आयोजन की खासियत यह रही कि आयोजक संकट मोचन मंदिर के महंत प्रो. विश्वम्भर नाथ मिश्र ने पहली बार संगतकार के रूप में पखावज वादन की प्रस्तुति किया। राजेन्द्र शर्मा लिखते हैं 'यह पहली प्रस्तुति ही एक ऐसे मील का पत्थर साबित हुई, जिसमें 86 वर्षीय बॉसुरी सम्राट हरि प्रसाद चौरसिया ने ज़िद्द पकड़ ली कि उनके साथ बतौर संगतकार महंत विशम्भर नाथ मिश्र ही होंगे। बाल और वृद्ध हठ एक समान होती है, पंडित जी की हठ के समक्ष अन्तोगत्वा संकट मोचन मंदिर के महंत औ...

संतोष चौबे के उपन्यास 'जलतरंग' पर सुप्रिया पाठक की समीक्षा 'शोर और नाद के अंतद्वंद्व की यात्रा है 'जलतरंग''

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  यह जीवन खुद में एक संगीत है। इसकी गतिविधियां संगीत के सुर जैसी ही होती हैं। अलग बात है कि आपाधापी में हम इस जीवन संगीत का अहसास तक नहीं कर पाते। साहित्य और संगीत कला के ही महत्त्वपूर्ण अंग हैं। संगीत को साहित्य में साध पाना आसान काम नहीं है। लेकिन संतोष चौबे ने अपने उपन्यास 'जलतरंग' में इसे अच्छी तरह साधा है। हालांकि यह 2016 में भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हुआ था लेकिन रचनाओं की ताकत तो यही होती है कि वे कालजयी होती हैं। सुप्रिया पाठक इस उपन्यास की समीक्षा करते हुए उचित ही लिखती हैं 'अपनी तरह का यह बिलकुल भिन्न परिपाटी पर रचित उपन्यास है जो समय, संबंध और समाज के साथ-साथ सुरों की यात्रा करता है। लेखन के स्तर पर इस तरह के अभिनव प्रयास हिन्दी के साहित्य जगत में बहुत कम रचनाओं में देखने को मिलते हैं जिसकी ईमानदार कोशिश इस उपन्यास में की गई है। यह रचना मनुष्य के अन्तर्मन में बदलते सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति पैदा होते राग-विराग की कथा यात्रा है जो देवाशीष और स्मृति के सम्बन्धों में धीरे-धीरे प्रवाहित होती हुई अततः भौतिकता पर जीवन मूल्यों की जीत का जश्न मनाती है।'...